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कर्मकाण्ड

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अग्निपुराण अध्याय ६६

अग्निपुराण अध्याय ६६                

अग्निपुराण अध्याय ६६ में सभी देवताओं का सामान्य प्रतिष्ठा का वर्णन है।

अग्निपुराण अध्याय ६६

अग्निपुराणम् अध्यायः ६६                

Agni puran chapter 66

अग्निपुराण छाछठवाँ अध्याय

अग्नि पुराण अध्याय ६६

अग्निपुराणम् अध्यायः ६६-  साधारणप्रतिष्ठाविधानं

अथ षट्षष्टितमोऽध्यायः

भगवानुवाच

समुदायप्रतिष्ठाञ्च वक्ष्ये सा वासुदेववत् ।

आदित्या वसवो रुद्राः साध्या विश्वेऽश्विनौ तथा ॥०१॥

ऋषयश्च तथा सर्वे वक्ष्ये तेषां विशेषकं ।

यस्य देवस्य यन्नाम तस्याद्यं गृह्य चाक्षरं ॥०२॥

मात्राभिर्भेदयित्वा तु दीर्घाण्यङ्गानि भेदयेत् ।

प्रथमं कल्पयेद्वीजं सविन्दुं प्रणवं नतिं ॥०३॥

सर्वेषां मूलमन्त्रेण पूजनं स्थापनं तथा ।

नियमव्रतकृच्छ्राणां मठसङ्क्रमवेश्मनां ॥०४॥

मासोपवासं द्वादश्यां इत्यादिस्थापनं वदे ।

श्रीभगवान् कहते हैंअब मैं देव समुदाय की प्रतिष्ठा का वर्णन करूँगा। यह भगवान् वासुदेव की प्रतिष्ठा की भाँति ही होती है। आदित्य, वसु, रुद्र, साध्य, विश्वेदेव, अश्विनीकुमार, ऋषि तथा अन्य देवगण-ये देवसमुदाय हैं। इनकी स्थापना के विषय में जो विशेषता है, वह बतलाता हूँ। जिस देवता का जो नाम है, उसका आदि अक्षर ग्रहण करके उसे मात्राओं द्वारा भेदन करे, अर्थात् उसमें स्वरमात्रा लगावे फिर दीर्घ स्वरों से युक्त उन बीजों द्वारा अङ्गन्यास करे। उस प्रथम अक्षर को बिन्दु और प्रणव से संयुक्त करके 'बीज' माने। समस्त देवताओं का मूल मन्त्र के द्वारा ही पूजन एवं स्थापन करे। इसके सिवा मैं नियम, व्रत, कृच्छ्र, मठ, सेतु, गृह, मासोपवास और द्वादशीव्रत आदि की स्थापना के विषय में भी कहूँगा ॥ १-४/३ ॥

शिलां पूर्णघटं कांस्यं सम्भारं स्थापयेत्ततः ॥०५॥

ब्रह्मकूर्चं समाहृत्य श्रपेद्यवमयं चरुं ।

क्षीरेण कपिलायास्तु तद्विष्णोरिति साधकः ॥०६॥

प्रणवेनाभिघार्यैव दर्व्या सङ्घट्टयेत्ततः ।

साधयित्वावतार्याथ विष्णुमभ्यर्च्य होमयेत् ॥०७॥

व्याहृता चैव गायत्र्या तद्विप्रासेति होमयेत् ।

विश्वतश्चक्षुर्वेद्यैर्भूरग्नये तथैव च ॥०८॥

सूर्याय प्रजापतये अन्तरिक्षाय होमयेत् ।

द्यौः स्वाहा ब्रह्मणे स्वाहा पृथिवी महाराजकः ॥०९॥

तस्मै सोमञ्च राजानं इन्द्राद्यैर्होममाचरेत् ।

एवं हुत्वा चरोर्भागान् दद्याद्दिग्बलिमादरात् ॥१०॥

पहले शिला, पूर्णकुम्भ और कांस्यपात्र लाकर रखे। साधक ब्रह्मकूर्च को लाकर 'तद् विष्णोःपरमम्' (शु० यजु० ६ । ५) मन्त्र के द्वारा कपिला गौ के दुग्ध से यवमय चरु श्रपित करे। प्रणव के द्वारा उसमें घृत डालकर दर्वी (कलछी) - से संघटित करे। इस प्रकार चरु को सिद्ध करके उतार ले। फिर श्रीविष्णु का पूजन करके हवन करे। व्याहृति और गायत्री से युक्त 'तद्विप्रासो०' ( शु० यजु० ३४ ।४४) आदि मन्त्र से चरु- होम करे । 'विश्वतश्चक्षुः०' (शु० यजु० १७ । १९) आदि वैदिक मन्त्रों से भूमि, अग्नि, सूर्य, प्रजापति, अन्तरिक्ष, द्यौ, ब्रह्मा, पृथ्वी, कुबेर तथा राजा सोम को चतुर्थ्यन्त एवं 'स्वाहा' संयुक्त करके इनके उद्देश्य से आहुतियाँ प्रदान करे। इन्द्र आदि देवताओं को इन्द्र आदि से सम्बन्धित मन्त्रों द्वारा आहुति दे । इस प्रकार चरुभागों का हवन करके आदरपूर्वक दिग्बलि समर्पित करे ॥ ५-१० ॥

समिधोऽष्टशतं हुत्वा पालाशांश्चाज्यहोमकं ।

कुर्यात्पुरुषसूक्तेन इरावती तिलाष्टकं ॥११॥

हुत्वा तु ब्रह्मविष्ण्वीशदेवानामनुयायिनां ।

ग्रहाणामाहुतीर्हुत्वा लोकेशानामथो पुनः ॥१२॥

पर्वतानां नदीनाञ्च समुद्राणां तथाऽऽहुतीः ।

हुत्वा च व्याहृतीर्दद्द्यात्स्रुवपूर्णाहुतित्रयं ॥१३॥

वौषडन्तेन मन्त्रेण वैष्णवेन पितामह ।

पञ्चगव्यं चरुं प्राश्य दत्वाचार्याय दक्षिणां ॥१४॥

तिलपात्रं हेमयुक्तं सवस्त्रं गामलङ्कृतां ।

प्रीयतां भगवान् विष्णुरित्युत्सृजेद्व्रतं बुधः ॥१५॥

फिर एक सौ आठ पलाश समिधाओं का हवन करके पुरुषसूक्त से घृत- होम करे। 'इरावती धेनुमती' (शु० यजु० ५ । १६) मन्त्र से तिलाष्टक का होम करके ब्रह्मा, विष्णु एवं शिव-इन देवताओं के पार्षदों, ग्रहों तथा लोकपालों के लिये पुनः आहुति दे। पर्वत, नदी, समुद्र - इन सबके उद्देश्य से आहुतियों का हवन करके, तीन महाव्याहृतियों का उच्चारण करके, स्रुवा के द्वारा तीन पूर्णाहुति दे । पितामह! 'वौषट् ' संयुक्त वैष्णव मन्त्र से पञ्चगव्य तथा चरु का प्राशन करके आचार्य को सुवर्णयुक्त तिलपात्र, वस्त्र एवं अलंकृत गौ दक्षिणा में दे । विद्वान् पुरुष 'भगवान् विष्णुः प्रीयताम्' - ऐसा कहकर व्रत का विसर्जन करे ॥ ११-१५ ॥

मासोपवासादेरन्यां प्रतिष्ठां वच्मि पूर्णतः ।

यज्ञेनातोष्य देवेशं श्रपयेद्वैष्णवं चरुं ॥१६॥

तिलतण्डुलनीवारैः श्यामाकैरथवा यवैः ।

आज्येनाधार्य चोत्तार्य होमयेन्मूर्तिमन्त्रकैः ॥१७॥

विष्ण्वादीनां मासपानां तदन्ते होमयेत्पुनः ।

मैं मासोपवास आदि व्रतों की दूसरी विधि भी कहता हूँ। पहले देवाधिदेव श्रीहरि को सन्तुष्ट करे। तिल, तण्डुल, नीवार, श्यामाक अथवा यव के द्वारा वैष्णव चरु श्रपित करे। उसको घृत से संयुक्त करके उतारकर मूर्ति मन्त्रों से हवन करे। तदनन्तर मासाधिपति विष्णु आदि देवताओं के उद्देश्य से पुनः होम करे ॥ १६ - १८ ॥

ओं विष्णवे स्वाहा । ओं विष्णवे निभूयपाय स्वाहा । ओं विष्णवे शिपिविष्टाय स्वाहा । ओं नरसिंहाय स्वाहा । ओं पुरुषोत्तमाय स्वाहा

द्वादशाश्वत्थसमिधो होमयेद्घृतसम्प्लुताः ॥१८॥

विष्णो रराटमन्त्रेण ततो द्वादश चाहुतीः ।

इदं विष्णुरिरावती चरोर्द्वादश आहुतीः ॥१९॥

हुत्वा चाज्याहुतीस्तद्वत्तद्विप्रासेति होमयेत् ।

शेषहोमं ततः कृत्वा दद्यात्पूर्णाहुतित्रयं ॥२०॥

युञ्जतेत्यनुवाकन्तु जप्त्वा प्राशीत वै चरुं ।

प्रणवेन स्वशब्दान्ते कृत्वा पात्रे तु पैप्पले ॥२१॥

ततो मासाधिपानान्तु विप्रान् द्वादश भोजयेत् ।

त्रयोदश गुरुस्तत्र तेभ्यो दद्यात्त्रयोदश ॥२२॥

कुम्भान् स्वाद्वम्बुसंयुक्तान् सच्छत्रोपानहान्वितान् ॥२३॥

ॐ श्रीविष्णवे स्वाहा । ॐ विष्णवे विभूषणाय स्वाहा । ॐ विष्णवे शिपिविष्टाय स्वाहा । ॐ नरसिंहाय स्वाहा । ॐ पुरुषोत्तमाय स्वाहा । - आदि मन्त्रों से घृतप्लुत अश्वत्थवृक्ष की बारह समिधाओं का हवन करे। 'विष्णो रराटमसि० ' ( शु० यजु० ५।२१) मन्त्र के द्वारा भी बारह आहुतियाँ दे। फिर 'इदं विष्णु०' (शु० यजु० ५।१५) 'इरावती०' (शु० यजु० ५। १६) मन्त्र से चरु की बारह आहुतियाँ प्रदान करे। 'तद्विप्रासो०' ( शु० यजु० ३४ । ४४) आदि मन्त्र से घृताहुति समर्पित करे। फिर शेष होम करके तीन पूर्णाहुति दे। 'युञ्जते' (शु० यजु० ५। १४) आदि अनुवाक का जप करके मन्त्र के आदि में स्वकर्तृक मन्त्रोच्चारण के पश्चात् पीपल के पत्ते आदि के पात्र में रखकर चरु का प्राशन करे ।। १९ - २३ ॥

गावः प्रीतिं समायान्तु प्रचरन्तु प्रहर्षिताः ।

इति गोपथमुत्सृज्य यूपं तत्र निवेशयेत् ॥२४॥

दशहस्तं प्रपाऽऽराममठसङ्क्रमणादिषु ।

गृहे च होममेवन्तु कृत्वा सर्वं यथाविधि ॥२५॥

पूर्वोक्तेन विधानेन प्रविशेच्च गृहं गृही ।

अनिवारितमन्नाद्यं सर्वेष्वेतेषु कारयेत् ॥२६॥

द्विजेभ्यो दक्षिणा देया यथाशक्त्या विचक्षणैः ।

आरामं कारयेद्यस्तु नन्दने स चिरं वसेत् ॥२७॥

तदनन्तर मासाधिपतियों के उद्देश्य से बारह ब्राह्मणों को भोजन करावे । आचार्य उनमें तेरहवाँ होना चाहिये । उनको मधुर जल से पूर्ण तेरह कलश, उत्तम छत्र, पादुका, श्रेष्ठ वस्त्र, सुवर्ण तथा माला प्रदान करे। व्रतपूर्ति के लिये सभी वस्तुएँ तेरह-तेरह होनी चाहिये। 'गौएँ प्रसन्न हों। वे हर्षित होकर चरें। - ऐसा कहकर पौंसला, उद्यानमठ तथा सेतु आदि के समीप गोपथ (गोचरभूमि) छोड़कर दस हाथ ऊँचा यूप निवेशित करे। गृहस्थ घर में होम तथा अन्य कार्य विधिवत् करके, पूर्वोक्त विधि के अनुसार गृह में प्रवेश करे। इन सभी कार्यों में जनसाधारण के लिये अनिवारित अन्न- सत्र खुलवा दे। विद्वान् पुरुष ब्राह्मणों को यथाशक्ति दक्षिणा दे ॥ २४-२७ ॥

मठप्रदानात्स्वर्लोके शक्रलोके वसेत्ततः ।

प्रपादानाद्वारुणेन सङ्क्रमेण वसेद्दिवि ॥२८॥

इष्टकासेतुकारी च गोलोके मार्गकृद्गवां ।

नियमव्रतकृद्विष्णुः कृच्छ्रकृत्सर्वपापहा ॥२९॥

गृहं दत्वा वसेत्स्वर्गे यावदाभूतसम्प्लवं ।

समुदायप्रतिष्ठेष्टा शिवादीनां गृहात्मनां ॥३०॥

जो मनुष्य उद्यान का निर्माण कराता है, वह चिरकाल तक नन्दनकानन में निवास करता है। मठ-प्रदान से स्वर्गलोक एवं इन्द्रलोक की प्राप्ति होती है। प्रपादान करनेवाला वरुणलोक में तथा पुल का निर्माण करनेवाला देवलोक में निवास करता है। ईंट का सेतु बनवानेवाला भी स्वर्ग को प्राप्त होता है। गोपथ निर्माण से गोलोक की प्राप्ति होती है। नियमों और व्रतों का पालन करनेवाला विष्णु के सारूप्य को अधिगत करता है। कृच्छ्रव्रत करनेवाला सम्पूर्ण पापों का नाश कर देता है। गृहदान करके दाता प्रलयकालपर्यन्त स्वर्ग में निवास करता है। गृहस्थ- मनुष्यों को शिव आदि देवताओं की समुदाय-प्रतिष्ठा करनी चाहिये ॥ २८-३० ॥

इत्यादिमहापुराणे आग्नेये समुदायप्रतिष्ठाकथनं नाम षट्षष्टितमोऽध्यायः ॥

इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में 'देवता- सामान्य-प्रतिष्ठा-कथन' छाछठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ६६ ॥

आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 67

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