कालिका पुराण अध्याय ४१

कालिका पुराण अध्याय ४१                    

कालिका पुराण अध्याय ४१ में काली अवतरण चरित्र में हिमालय पुत्री के रूप में पार्वती का जन्म और नारद आगमन का वर्णन है।

कालिका पुराण अध्याय ४१

कालिका पुराण अध्याय ४१                           

Kalika puran chapter 41

कालिकापुराणम् एकचत्वारिंशोऽध्यायः नारदागमनम्

अथ श्रीकालिका पुराण अध्याय ४१                          

।। ऋषयः ऊचुः ।।

कथं गिरिसुता काली बभूव जगतां प्रसूः ।

दाक्षायणी त्यक्ततनुः कथमाप हरं पतिम् ।। १ ।।

ऋषिगण बोले- जगत् को उत्पन्न करने वाली काली, किस प्रकार पर्वतराज हिमालय की पुत्री, पार्वती हुईं ? दाक्षायणी (दक्षपुत्री सती) ने अपने शरीर को छोड़कर कैसे शिव को पति के रूप में प्राप्त किया? ॥ १ ॥

कथमर्धशरीरं सा जहार च पिनाकिनः ।

एतन्नः पृच्छतां सम्यक् कथयस्व महामते ॥२॥

हे महान् बुद्धि वाले ! उसने पिनाकी (शिव) के अर्धशरीरत्व को कैसे प्राप्त किया ? हम पूछने वालों से यह भलीभाँति कहिये ॥ २ ॥

।। मार्कण्डेय उवाच ।।

शृणुध्वं मुनिशार्दूलाः यथा दाक्षायणी सती ।

भूता गिरिसुता पूर्वं यथार्धमहरत्तनुम् ।।३।।

मार्कण्डेय बोले- हे मुनियों में शार्दूलवत् श्रेष्ठ मुनिगण ! प्राचीनकाल में दक्ष की पुत्री, सती देवी जिस प्रकार पर्वतपुत्री पार्वती हुई तथा जैसे उन्होंने शिव के अर्धाङ्ग को प्राप्त किया, उसे आप सब सुनें ॥ ३ ॥

यदाऽत्यजत्तनुं देवी पूर्वं दाक्षायणी सती ।

तदैव मनसागच्छन् मेनकां हिमवद्गिरिम् ॥४॥

प्राचीन काल में जब दक्ष की कन्या देवी सती ने अपने शरीर का त्याग किया तभी वह मानसिक रूप से हिमालय पर्वत व मेनका को प्राप्त हुई थीं ॥ ४ ॥

यदा हरेण सहिता दक्षकन्या हिमाचले ।

चिक्रीड च तदा तस्या मेनकाऽभूद् हितैषिणी ॥५॥

जब दक्षकन्या सती ने हिमालय पर्वत पर शिव के साथ विहार किया था, उस समय मेनका उसकी सहायिका हुई थीं ।। ५ ।।

तस्याः सुतास्यामिति च आधाय मनसि द्विजाः ।

त्यक्तप्राणा तदा देवी भूता हिमवतः सुता ।। ६ ।।

हे द्विजों ! उन्हीं की पुत्री होऊँ, यह मन में ध्यान कर, देवी ने प्राण छोड़े तब वह हिमालय की पुत्री हुई ।। ६ ।।

यदा दाक्षायणी प्राणान् दक्षकोपाज्जहौ पुरा ।

तदैव मेनका देवी आरिराधयिषुः शिवाम् ।।७।।

जिस समय दक्ष पर क्रोध करके प्राचीनकाल में दक्षपुत्री सती देवी ने प्राणों को छोड़ा था, उसी समय मेनका देवी ने उस शिवा (काली) की आराधना करने की कामना व्यक्त की थी ॥ ७ ॥

महामायां जगद्धात्रीं योगनिद्रां सनातनीम् ।

मोहिनी सर्वभूतानां शरणं सर्वनाकिनाम् ॥८॥

जो शिवा महामाया हैं, जगत का पालन करने वाली हैं, योगनिद्रा, सनातन-स्वरूपा, सभी प्राणियों को मोहने वाली तथा सभी स्वर्गस्थ देवताओं की शरण-स्थली हैं ॥ ८ ॥

कालिका पुराण अध्याय ४१- मेनका कृताराधन

अष्टम्यामुपवासं तु कृत्वा सा नवमीतिथौ ।

मोदकैर्बलिभिः पिष्टैः पायसैर्गन्धपुष्पकैः ।। ९।।

चैत्रे मासि समारभ्य सप्तविंशतिवत्सरान् ।

यावत् सम्पूजयामास पुत्रार्थिन्यन्वहं शुचिः ।। १० ।।

वे मेनका देवी भगवती की आराधना हेतु अष्टमी को उपवास, कर नवमी तिथि को मोदक के नैवेद्य, चूर्ण, खीर, गन्ध, पुष्पादि से पूजन करतीं। इस प्रकार उन्होंने चैत्रमास से आरम्भ कर सत्ताईस वर्षों तक प्रतिदिन सन्तान की इच्छा से,पवित्रता पूर्वक भलीभाँति पूजन किया ।। ९-१० ॥

गङ्गायामोषधिप्रस्थे कृत्वा मूर्तिं महीमयीम् ।

कदाचित् सा निराहारा कदाचित् सा धृतव्रता ।। ११ ।।

शिवाविन्यस्तमनसा सप्तविंशतिवत्सरान् ।

निनाय मेनका देवी परमां भूतिमिच्छती ।।१२।।

हिमालय की राजधानी ओषधिप्रस्थ में गङ्गा के तट पर भगवती की मिट्टी की मूर्ति बनाकर, कभी निराहार रहकर, कभी व्रत करती हुई, शिवा (कालिका) में अपना मन लगाये हुये, परम ऐश्वर्य को चाहने वाली, उस मेनका देवी ने सत्ताईस वर्ष व्यतीत कर दिये ।। ११-१२ ।।

सप्तविंशतिवर्षान्ते जगन्माता जगन्मयी ।

सुप्रीताऽभवदत्यर्थं प्राह प्रत्यक्षतां गता ।। १३ ।।

इस प्रकार आराधना करते हुए सत्ताईसवें वर्ष के अन्त में जगत् माता,जगत् रुपिणी प्रसन्न हुईं तथा प्रत्यक्ष हो बोलीं ॥ १३ ॥

।। देव्युवाच ।।

यत् प्रार्थितं त्वया देवि मत्तस्तत्प्रार्थयाधुना ।

दास्ये तवाहं तत्सर्वं वाञ्छितं यद् हृदा भवेत् ।। १४ ।।

देवी बोलीं- हे देवि मेनका ! तुमने पहले जो कुछ प्रार्थना किया है, वह सब अब मुझसे प्रार्थना करो। तुम्हारे हृदय में जो कुछ भी इच्छित होगा, वह मैं तुम्हें प्रदान करूँगी ॥ १४ ॥

।। मार्कण्डेय बोले ।।

ततः सा मेनका देवी प्रत्यक्षं कालिकां गताम् ।

दृष्ट्वैव प्रणनामाथ वचनं चेदमब्रवीत् ।। १५ ।।

मार्कण्डेय बोले- तब उस मेनका देवी ने प्रकट हुई कालिका देवी को देखते ही प्रणाम किया और यह वचन बोलीं ।।१५।।

।। मेनकोवाच ।।

देवी प्रत्यक्षतो रूपं तव दृष्टं मयाऽधुना ।

त्वामहं स्तोतुमिच्छामि प्रसन्ना यदि मे शिवे ।। १६ ।।

मेनका बोलीं- हे देवि ! आपका प्रत्यक्षरूप आज मेरे द्वारा देखा गया है। हे शिवे ! यदि आप प्रसन्न हों तो मैं आपकी स्तुति करना चाहती हूँ ॥ १६ ॥

।। मार्कण्डेय उवाच ।।

ततः सा मातरित्युक्त्वा कालिका सर्वमोहिनी ।

बाहुभ्यां चारुवृत्ताभ्यां मेनकां परिषस्वजे ।।१७।।

मार्कण्डेय बोले- तब उस सबको मोहित करने वाली कालिका देवी ने माँ, ऐसा कहकर अपने सुडौल तथा सुन्दर बाहुओं से मेनका का आलिङ्गन कर लिया ।। १७ ।।

ततः सा मेनका देवी कालिकां परमेश्वरीम् ।

तुष्टाव वाग्भिरिष्टाभिः शिवां प्रत्यक्षतः स्थिताम् ।। १८ ।।

तब उस मेनका देवी ने अपने सम्मुख प्रकट हुई उस शिवा, कालिका, परमेश्वरी की इच्छित वचनों द्वारा स्तुति की ॥१८॥

कालिका पुराण अध्याय ४१ कालिका स्तुति      

अब इससे आगे श्लोक १९ से २८ में माँ कालिका देवी की स्तुति को दिया गया है इसे पढ़ने के लिए क्लिक करें-

कालिका स्तुति:

अब इससे आगे

कालिका पुराण अध्याय ४१   

।। मार्कण्डेय उवाच ।।

ततः सा जगतां माता कालिका पुनरेव हि ।

उवाच मेनकां देवीं वाञ्छितं वरयेत्युत ।। २९ ।।

मार्कण्डेय बोले- तब जगत की माता कालिका देवी ने मेनका से पुन: कहा कि वह अपना मनोवाञ्छित वर माँग ले ।। २९ ।

ततः सा प्रथमं पुत्रशतं वने यशस्विनी ।

वीर्यवञ्चायुषायुक्तमृद्धिसिद्धिसमन्वितम् ।।३० ।।

पश्चात् तथैकां तनयां सुरूषां गुणशालिनीम् ।

कुलद्वयानन्दकरीं भुवनत्रयदुर्लभाम् ।। ३१ ।।

तब उस यशस्विनी मेनका ने सर्वप्रथम, वीर्य (पराक्रम), आयुष्य तथा ऋद्धि-सिद्धि से युक्त सौ पुत्रों का वर माँगा। तत्पश्चात् तीनों लोकों में दुर्लभ, दोनों कुलों को आनन्दित करने वाली, गुणों से युक्त, सुन्दर रूप वाली एक पुत्री का भी, वर माँगा । ३०-३१ ।।

ततो भगवती प्राह मेनकां मुनिसन्निभाम् ।

स्मितपूर्वं तदा तस्याः पूरयन्ती मनोरथम् ।।३२।।

तब भगवती ने मुस्कुराते हुए, मुनियों के समान आभावाली, मेनका से उसके मनोरथों को पूर्ण करती हुई कहा ।। ३२ ।।

।। देव्युवाच ।।

शतं पुत्राः सम्भवन्तु भवत्या वीर्यसंयुताः ।

तत्रैको बलवान्मुख्यः प्रथमं सम्भविष्यति ।। ३३ ।।

सुता च तव देवानां मानुषाणां च रक्षसाम् ।

हिताय सर्वजगतां भविष्याम्यहमेव ते ।। ३४ ।।

देवी बोलीं- तुम्हारे सौ पराक्रमी पुत्र होंगे, जिनमें एक बलवान्, मुख्य और सर्वश्रेष्ठ होगा तथा देवताओं, मनुष्यों, राक्षसों एवं सम्पूर्ण जगत् के कल्याण के लिए, मैं स्वयं तुम्हारी पुत्री होऊँगी ।। ३३-३४ ।।

त्वं सुखप्रसवा नित्यं तथा नित्यं पतिव्रता ।

अम्लाना रूपसम्पन्ना सुभगा च भविष्यसि ।। ३५ ।।

तुम सदैव अपने सन्तानों को सुखपूर्वक जन्म देने वाली तथा पतिव्रता होओगी । तुम बहुत प्रजावती होने पर भी अपने मुख कभी न मलिन पड़ने वाले, रूप से युक्त, सुन्दरी होओगी ।। ३५ ।।

।। मार्कण्डेय उवाच ।।

एवमुक्ता जगद्धात्री तत्रैवान्तरधीयत ।

मेनका च मुदं लब्धा स्वस्थानं प्रविवेश ह ।। ३६ ।।

मार्कण्डेय बोले- ऐसा कहकर जगत् का पालन करने वाली कालिका देवी वहीं अन्तर्धान हो गई तथा मेनका ने भी प्रसन्नता को प्राप्त कर अपने निवास स्थान में प्रवेश किया ।। ३६ ॥

ततः काले तु सम्प्राप्ते मैनाकमचलोत्तमम् ।

पक्षेण सह योऽद्यापि सिन्धुमध्ये प्रवर्तते ।

मेनका सुषुवे देवी देवेन्द्रं स्पर्धयागतम् । । ३७।।

तब समय आने पर मैनाक नामक उत्तम पर्वत को जो आज भी अपने पंखों के सहित समुद्र के भीतर निवास करता है तथा देवेन्द्र से स्पर्धा करता है, सती मेनका देवी ने जन्म दिया ॥ ३७ ॥

अन्यानूनशतं पुत्रान् क्रमात् सा सुषुवे सती ।

महावीर्यान् महासत्त्वान् सम्पन्नान् सर्वतो गुणैः ।। ३८ ।।

उस सती मेनका देवी ने महान् पराक्रमी, महान् सत्व (बल) से युक्त, सभी गुणों से सम्पन्न, अन्य एक कम सौ (९९) पुत्रों को क्रमशः जन्म दिया ॥ ३८ ॥

ततः सा कालिका देवी योगनिद्रा जगन्मयी ।

पूर्वत्यक्तसतीरूपा जन्मार्थं मेनकां ययौ ।। ३९ ।।

समयस्यानुरूपेण मेनका जठरे शिवा ।

समुद्धृय समुत्पन्ना सा लक्ष्मीरिव सागरात् ।।४०।।

तब वह जगन्मयी, योगनिद्रा, कालिका, जिन्होंने अपने सती रूप को पहले ही छोड़ दिया था, जन्मग्रहण करने के लिए मेनका के यहाँ गयीं तथा समय के अनुरूप वह शिवा, मेनका के गर्भ से उसी प्रकार उत्पन्न हुई जैसे लक्ष्मी समुद्र से उत्पन्न हुई थीं ।। ३९-४० ।।

कालिका पुराण अध्याय ४१ पार्वती - जन्म ॥

वसन्तसमये देवी नवम्यामृक्षयोगतः ।

अर्धरात्रे समुत्पन्ना गङ्गेव शशिमण्डलात् ।। ४१ ।।

चन्द्रमण्डल से उद्भूत आकाशगङ्गा की भाँति बसन्तऋतु में, चैत्र (महीने) की नवमी तिथि को उत्तम नक्षत्र और योग में, अर्धरात्रि में कालिका देवी पार्वती रूप में उत्पन्न हुई ।। ४१ ।।

ततस्तस्यां तु जातायां प्रसन्ना अभवन् दिशः ।। ४२ ।।

अनुकूलो ववौ वायुर्गम्भीरो गन्धवाञ् शुभः ।

बभूव पुष्पवृष्टिश्च तोयवृष्टिस्तथापरा ।। ४३ ।।

तब उनके उत्पन्न होते ही दिशायें प्रसन्न (साफ) हो गयीं। सब ओर शुभ, सुगन्धित, गम्भीर तथा अनुकूल वायु बहने लगी। पहले फूलों की तत्पश्चात् जल की वर्षा होने लगी ।। ४२-४३ ॥

जज्वलुश्चाग्नयः शान्ता जगर्जुश्च घनाघनम् ।

तस्यां तु जातमात्रायां सर्वं स्वास्थ्यमपद्यत ।। ४४ ।।

अग्नियाँ शान्तिपूर्वक जलने लगीं। घने बादल भी गम्भीर गर्जना करने लगे। उनके जन्म लेते ही सभी कुछ स्वस्थ हो गया ।। ४४ ।

तां तु दृष्ट्वा तथा जातां नीलोत्पलदलानुगाम् ।

श्यामां सा मेनका देवी मुदमापातिहर्षिता ।। ४५ ।।

नीलकमल की पङ्खुड़ियों के समान रङ्गों वाली, उन कालिका देवी को उत्पन्न हुआ देखकर, उन मेनका देवी ने अत्यधिक प्रसन्न हो, आनन्द का अनुभव किया ।। ४५ ।।

देवाश्च हर्षमतुलं प्रापुस्तत्र मुहुर्मुहुः ।

तुष्टुवुश्चान्तरिक्षस्था गन्धर्वाप्सरसां गणाः ।।४६ ॥

उस समय देवताओं ने बारम्बार प्रसन्नता का अनुभव किया तथा अन्तरिक्ष में स्थित गन्धर्व एवं अप्सराओं के समूहों ने स्तुति की ।। ४६ ।।

तां तु नीलोत्पलदलश्यामां हिमवतः सुताम् ।

कालीति नाम्ना हिमवानाजुहाव कृतोदने ।। ४७ ।।

अन्नप्राशन के दिन उस नील कमल की पङ्खुड़ियों के समान श्याम रङ्ग वाली अपनी पुत्री का नाम हिमालय ने 'काली' ऐसा रखा ।। ४७ ।।

बान्धवैस्तु समस्तैस्तन्नाम्ना सा पार्वतीति च ।

कालिकेति तथा नाम्ना कीर्तिता गिरिनन्दिनी ॥४८॥

वह पर्वतपुत्री, अपने समस्त बान्धवों द्वारा कालिका, पार्वती तथा गिरिनन्दिनी आदि नामों से पुकारी गईं॥४८॥

ततः सा ववृधे देवी गिरिराजगृहे शुभा ।

गङ्गेव वर्षासमये शरदीवाथ चन्द्रिका ।।४९।।

तब जिस प्रकार (वर्षा ऋतु) में गंगा या शरद ऋतु में चाँदनी बढ़ती है, उसी प्रकार वे कल्याणकारिणी, काली भी पर्वतराज हिमालय के घर में बड़ी होने लगीं ॥ ४९ ॥

एधमानानुदिवसं चार्वङ्गी चारुतां मुहुः ।

दध्रे सानुदिनं काली चन्द्रबिम्बं कलामिव ।। ५० ।।

चन्द्रबिम्ब की कला की भाँति वे सुन्दर अङ्गों वाली, प्रतिदिन बढ़ती हुईं, काली अधिकाधिक सुन्दरता को प्राप्त करने लगीं ।। ५० ।।

सा बालभावमापन्ना क्रीडन्ती कालिका मुदम् ।

सखीभिः प्राप विपुलां कालिन्दीव सरिद् व्रजैः ।। ५१ ।।

वे कालिका बालभाव को प्राप्त कर अपनी सखियों के साथ प्रसन्नतापूर्वक उसी प्रकार क्रीड़ा करतीं जैसे नदियों के बीच बढ़ी हुई, कालिन्दी यमुना शोभायमान् होती हैं ॥ ५१ ॥

षड्गुणास्तां स्वयं देवी पूर्वजन्मवशीकृताः ।

स्वयमीयुर्द्विजश्रेष्ठाः प्रावृषं कालिका यथा ।। ५२।।

हे द्विजश्रेष्ठों ! वर्षाऋतु में जैसे काली घटा अपने आप बढ़ती है, उसी प्रकार उन देवी पूर्वजन्म से वश में किये हुए षड्गुणों के विकास को स्वयं प्राप्त किया ॥ ५२ ॥

अतिचक्राम स्वगुणैः सा देवी देवकन्यकाः ।

रूपैरप्सरसः सर्वा गीतैर्गन्धर्व कन्यकाः ।। ५३ ।।

उन देवी ने अपने गुणों से देवकन्याओं को, रूप से अप्सराओं को तथा गायन से सभी गन्धर्व कन्याओं को जीत लिया ॥ ५३ ॥

सा बाल्य एव सततं बन्धुवर्गप्रिया शुभा ।

गुणैः स्वबन्धून् पितरं मातरं चाप्यतोषयत् ।। ५४ ।।

वे कल्याणी, बाल्यावस्था में ही निरन्तर अपने बन्धुओं में प्रिय हो गयीं, उन्होंने अपने गुणों से अपने बन्धु-वर्ग  तथा माता-पिता को सन्तुष्ट कर लिया ॥ ५४ ॥

मातुः स्तुतिकरी नित्यं पितृपूजनतत्परा ।

सर्वदा भ्रातृसहिता जगन्माताऽभवत्तदा ।। ५५ ।।

तब वे जगन्माता, नित्य अपनी माता की स्तुति तथा पिता के पूजन में भाइयों के सहित, सदैव तत्पर रहती थी ॥ ५५ ॥

सर्वदा सा जगन्माता कन्या सा समुपस्थिता ।

पितुः समीपे वसति कालिन्दीव विभावसोः ।। ५६ ।।

जिस प्रकार यमुना सूर्य के पास रहती हैं, उसी प्रकार वे जगन्माता, कन्यारूप में सदैव अपने पिता, हिमालय के निकट रहा करती थीं ।। ५६ ।।

कालिका पुराण अध्याय ४१- नारदागमन

अथैकदा तां निकटे निधाय हिमवद्गिरिः ।

तनयैः सह सङ्गम्य स्थितः परमकौतुकात् ।।५७।।

अथागतस्तत्र मुनिर्नारदो देवलोकतः ।

हिमवन्तं सुखासीनं सुतैः सार्धं ददर्श सः ।। ५८ ।।

एक बार पर्वतराज हिमालय उन देवी को निकट बैठा, पुत्रों के साथ एकत्र हो, शोभायमान हो रहे थे । उसी समय देवलोक से वहाँ नारदमुनि, अत्यधिक कौतुकवश आये और उन्होंने पुत्रों के साथ सुखपूर्वक बैठे हुए हिमालय को देखा ।। ५७-५८ ॥

अपश्यन्निकटे कालीं कालिकामिव सूर्यतः ।

ज्योत्स्नामिव सुधांशोस्तु सम्यग्वृद्धा शरन्निशि ।। ५९ ।।

उस समय सूर्य के निकट काली घटा की भाँति एवं शरद ऋतु की रात्रि में भली प्रकार बढ़ी हुई चाँदनी की भाँति, उन्होंने हिमालय के निकट काली को देखा ।। ५९ ।।

पूजितस्तेन गिरिणा कृतासन - परिग्रहः ।

नारदः प्रथमं शैलं वृत्तान्तं पर्यपृच्छत ।। ६० ।।

नारद मुनि ने हिमालय पर्वत द्वारा पूजित होने के पश्चात् आसन ग्रहण किया और सबसे पहले पर्वतराज का समाचार पूछा ।। ६० ।।

ततो विदितवृत्तान्तो नारदो मेनकां प्रति ।

उवाच हर्षयन् वाक्यं मुनिर्वाक्यविशारदः ।। ६१ ।।

तब समाचार जानने के पश्चात्, वाक्य रचना में निपुण, नारद मुनि ने उनकी प्रसन्नता को बढ़ाते हुए, मेनका के प्रति ये वाक्य कहे- ॥ ६१ ॥

।। नारद उवाच ।।

एषा ते तनया रुच्या शुद्धांशोरिव वर्धिता ।

आद्या कला शैलराज सर्वलक्षणशालिनी ।।६२।।

नारद बोले- हे पर्वतराज ! तुम्हारी यह कन्या, रुचिवश चन्द्रमा की पहली कला की भाँति बढ़ने वाली तथा सभी लक्षणों से युक्त है ॥ ६२ ॥

शम्भोर्भवित्री दयिता सानुकूला सदा हरे ।

तस्य चित्तं वशे चैषा करिष्यति तपस्विनी ।।६३॥

यह सदाशिव के अनुकूल रहने वाली, उनकी पत्नी होने वाली है। यह तपस्या करके उनके चित्त को वश में करेगी ।।६३।।

स चाप्येनामृ जायां नान्यामुद्वाहयिष्यति ।

एतयोर्यादृशः प्रेम कयोश्चिन्नैव तादृशः ।। ६४ ।।

वे भी इसे छोड़कर अन्य किसी से पत्नी के रूप में विवाह नहीं करेंगे। इन दोनों में जैसा प्रेम होगा, वैसा किन्हीं दो प्राणियों में नहीं होगा ।। ६४ ॥

भूतो वा भविता वापि नाधुना च प्रवर्तते ।

अनया सुरकार्याणि कर्तव्यानि बहूनि च ।। ६५ ।।

न ऐसा प्रेम हुआ है, न होगा। न इस समय कोई है। इसके द्वारा देवताओं के बहुत से कार्य किये जायेंगे ॥ ६५ ॥

अनयैव गिरिश्रेष्ठ अर्धनारीश्वरो हरः ।

भविष्यति च सौहार्दोज्योत्स्नयैवामृतात्मनः ।। ६६ ।।

हे पर्वतों में श्रेष्ठ ! इसी से संयुक्त हो, शिव, अर्धनारीश्वर बनेंगे और इन दोनों में अमृतात्मा चन्द्रमा एवं उसकी चाँदनी की भाँति, परस्पर सौहार्द होगा ।। ६६ ।।

शरीरार्ध हरस्यैषा करिष्यति निजास्पदे ।

स्वर्णगौरी सुवर्णाभा तपसा तोषिते हरे ।। ६७ ।।

यह तपस्या से शिव को संतुष्ट कर सुवर्ण के समान गोरी, सुवर्ण के समान आभावाली होकर, शिव के शरीर के आधे भाग को अपना आश्रय बनावेगी ।। ६७ ॥

विद्युद्गौरी त्वियं काली तव पुत्री भविष्यति ।

गौरीति नाम्ना पश्चात्तु ख्यातिमेषा गमिष्यति ।। ६८ ।।

तब तुम्हारी यह काली नाम्ना पुत्री, विद्युत् के समान गौरवर्णा हो जायेगी । तत्पश्चात् यह गौरी नाम से प्रसिद्धि को प्राप्त करेगी ।। ६८ ।।

नान्यस्मै त्वमिमां दातुं मनः कर्तुमिहार्हसि ।

इदं चोपांशु देवानां न प्रकाशं करिष्यसि ।। ६९ ।।

तुम इसे किसी अन्य को देने का मन, मत बनाना। यह देवताओं की अपनी योजना है। इसे प्रकाशित नहीं करना ।। ६९ ।।

।। मार्कण्डेय उवाच ।।

इति तस्य वचः श्रुत्वा देवर्षेर्नारदस्य च ।

उवाच हिमवान् वाक्यं मुनिं प्रति विशारदः ।।७० ।।

मार्कण्डेय बोले- इस प्रकार देवर्षि नारद के वचनों को सुनकर चतुर हिमवान् ने उन मुनि के प्रति ये वचन कहे - ॥ ७० ।।

।। हिमवान् उवाच ।।

श्रूयते त्यक्तसङ्गः स महादेवो यतात्मवान् ।

तपश्चोपांशु तपति देवानामप्यगोचरः ।।७१ ।।

हिमालय बोले- सुना जाता है कि महादेव, इस समय नियतात्मा हो गुप्त रूप से तपस्या कर रहे हैं, वे देवताओं के लिए भी अगोचर हैं ।। ७१ ।।

स कथं ध्यानमार्गस्थः परब्रह्मार्पितं मनः ।

प्रभ्रंषिष्यति देवर्षे तत्र मे संशयो महान् ।। ७२ ।।

हे देवर्षि ! वह जो ध्यान मार्ग में स्थित हो, अपने मन को परमब्रह्म में अर्पित किये हुए हैं, अपने लक्ष्य से कैसे भ्रष्ट होंगे। मुझे इसमें महान् संशय है ॥ ७२ ॥

अक्षरं परमं ब्रह्म प्रदीपकलिकोपमम् ।

सोऽन्तः पश्यति सर्वत्र न तु बाह्यं निरीक्षते ।। ७३ ।।

वे सभी स्थानों पर अपने अन्तर में ही प्रदीप की कलिका के समान स्वयं प्रकाशवान्, अविनाशी परंब्रह्म को देखा करते हैं न कि बाहर देखते हैं ।। ७३ ।।

इति स्म श्रूयते नित्यं किन्नराणां मुखाद् द्विज ।

स कथं तादृशं स्वान्तं शक्तो भ्रंशयितुं हरः ॥७४ ॥

हे द्विज! किन्नरों के मुख से ऐसा नित्य सुना गया है। उस प्रकार से अपने अन्तः में ही आसक्त, शिव कैसे भ्रमित किये जा सकेंगे ? ।। ७४ ॥

विशेषतः श्रूयते स्म दाक्षायण्या समं हरः ।

समयं ज्ञातवान् पूर्वं तन्मे निगदतः शृणु ।। ७५ ।।

विशेष रूप से यह सुना जाता है कि प्राचीन काल में शिव ने दाक्षायणी के साथ कोई अनुबन्ध किया था, वह मेरे द्वारा कहा जाता है । उसे आप सुनिये ॥ ७५ ॥

त्वामृतेऽन्यां न वनितां दाक्षायणि सति प्रिये ।

भार्यार्थ संग्रहीष्यामि सत्यमेतद् ब्रवीमि ते ।। ७६ ।।

हे दाक्षायणी ! हे सती प्रिये ! तुम्हारे बिना मैं किसी अन्य स्त्री को पत्नी के रूप में स्वीकार नहीं करूँगा। यह मैं तुमसे सत्य ही कह रहा हूँ ।। ७६ ।।

इति सत्या समं तेन पुरैव समयः कृतः ।

तस्यां मृतायां स कथं स्त्रियमन्यां ग्रहीष्यति ।।७७ ॥

सती से उन शिव ने पहले ही ऐसा अनुबन्ध किया है। अब उसके मरने पर वह कैसे अन्य स्त्री को ग्रहण करेंगे ? ।। ७७ ।।

।। नारदोवाच ।।

नात्र कार्या त्वया चिन्ता गिरिराज भवत्सुता ।

एषा सती समुत्पन्ना हरायैव न संशयः ।।७८ ।।

नारद बोले- हे गिरिराज ! तुम्हारी कन्या, तुम्हारे द्वारा चिन्ता करने योग्य नहीं है । ये शिव के लिए स्वयं सती ही उत्पन्न हुई हैं। इसमें कोई संशय नहीं है ।। ७८ ॥

।। मार्कण्डेय उवाच ।।

इत्युक्त्वा स तु देवर्षिर्नारदस्तु यथा सती ।

मेनकायां समुत्पन्ना सर्वं तत् प्रोक्तवान् गिरौ ।।७९।।

मार्कण्डेय बोले- ऐसा कहकर देवर्षि नारद ने, जिस प्रकार सती मेनका के गर्भ से उत्पन्न हुई थीं, वह सब, हिमालय पर्वत से कह दिया ।। ७९ ।।

तत्सर्वं पूर्ववृत्तान्तं नारदस्य मुखाद् गिरिः ।

श्रुत्वा सपुत्रदार: स तदा निःसंशयोऽभवत् ॥८०॥

जब पहले का वह सब वृत्तान्त, हिमालय पर्वत ने नारद मुनि के मुख से अपने पुत्रों एवं पत्नी के सहित सुना, तब वह संशयरहित हो गये ।। ८० ।।

ततः काली कथां श्रुत्वा नारदस्य मुखात् तदा ।

लज्जया धोमुखी भूत्वा स्मितविस्तारितानना ।। ८१ ।।

तब काली, नारद के मुख से उस कथा को सुनकर, लज्जा से अधोमुखी हो गयीं तथा मुस्कान से उनके मुख फैल गये ।। ८१ ।।

करेण तां तु संगृह्य प्रोन्नमय्य मुखं गिरिः ।

मूर्ध्नि सम्यगुपाघ्राय स्वासने संन्यवेशयत् ।।८२।।

तब हिमालय ने उन्हे हाथ से पकड़ कर उनके मुख को ऊपर उठाया और उनके मस्तक को भलीभाँति सूँघकर, अपने आसन पर बैठाया ।। ८२ ।।

ततस्तां पुनरेवाह नारदः शैलपुत्रिकाम् ।

हर्षयन् गिरिराजं तु मेनकां तनयैः सह ।। ८३ ।।

तब नारद मुनि ने गिरिराज हिमालय और पुत्रोंसहित माता मेनका को प्रसन्न करते हुए, शैलपुत्री के प्रति पुनः कहा- ।। ८३ ।।

।। नारद उवाच ।।

सिंहासनेन किं स्वस्याः शैलराज भवेत् तव ।

शम्भोरुरु: सदैवास्या आसनं तु भविष्यति ।। ८४ ।।

नारद बोले- हे शैलराज ! तुम्हारे सिंहासन से इसका क्या होगा? इसका आसन तो सदैव शिव के जाँघों पर होगा।।८४॥

हरोरुमासनं प्राप्य तनया तव संततम् ।

नान्यत्र कुत्रचित्तुष्टिमासने प्राप्यते गिरे ।।८५।।

हे गिरि ! शिव के जंघों का आसन प्राप्त कर, तुम्हारी यह पुत्री, अन्यत्र किसी भी आसन पर सन्तोष नहीं प्राप्त करेगी ।। ८५ ।।

।। मार्कण्डेय उवाच ।।

इति वचनमुदारं नारदः शैलराजं त्रिदिवमगमदुक्त्वा तत्क्षणाद् देवयानैः ।

गिरिपतिरपि चिन्ताहर्षसन्मोहयुक्तः प्रविशदचलयासौ स्वान्तरं पद्मगर्भम् ।।८६ ।।

मार्कण्डेय बोले- नारद मुनि, शैलराज हिमालय से इस प्रकार के उदारतापूर्ण वचन कहकर, देवमार्ग से स्वर्ग को चले गये। तब गिरिपति हिमालय भी चिन्ता, हर्ष और मोह से युक्त हो अपने पद्मगर्भनामक निवास के अन्दर प्रवेश किये ।। ८६ ।।

॥ इति श्रीकालिकापुराणे नारदागमने एकचत्वारिंशोऽध्यायः ॥४१॥

॥ श्रीकालिकापुराण में नारदागमन सम्बन्धी एकतालीसवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ।। ४१ ।।

आगे जारी..........कालिका पुराण अध्याय 42  

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