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कर्मकाण्ड

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अग्निपुराण अध्याय ६९

अग्निपुराण अध्याय ६९                

अग्निपुराण अध्याय ६९ में स्नपनोत्सव के विस्तार का वर्णन है।

अग्निपुराण अध्याय ६९

अग्निपुराणम् अध्यायः ६९                

Agni puran chapter 69

अग्निपुराण उनहत्तरवाँ अध्याय

अग्नि पुराण अध्याय ६९

अग्निपुराणम् अध्यायः ६९-  स्नानविधानं

अथोनसप्ततितमोऽध्यायः

अग्निरुवाच

ब्रह्मन् शृणु प्रवक्षामि स्नपनोत्सवविस्तरं ।

प्रासादस्याग्रतः कुम्भान्मण्डपे मण्डले न्यसेत् ॥०१॥

कुर्याद्ध्यानार्चनं होमं हरेरादौ च कर्मसु ।

सहस्रं वा शतं वापि होमयेत्पूर्णया सह ॥०२॥

स्नानद्रव्याण्यथाहृत्य कलशांश्चापि विन्यसेत् ।

अधिवास्य सूत्रकण्ठान् धारयेन्मण्डले घटान् ॥०३॥

अग्निदेव कहते हैं- ब्रह्मन् ! अब मैं स्नपनोत्सव का विस्तारपूर्वक वर्णन करता हूँ। प्रासाद के सम्मुख मण्डप के नीचे मण्डल में कलशों का न्यास करे। प्रारम्भकाल में तथा सम्पूर्ण कर्मो को करते समय भगवान् श्रीहरि का ध्यान, पूजन और हवन करे। पूर्णाहुति के साथ हजार या सौ आहुतियाँ दे फिर स्नान- द्रव्यों को लाकर कलशों का विन्यास करे। कण्ठसूत्रयुक्त कुम्भों का अधिवासन करके मण्डल में रखे ॥ १-३ ॥

चतुरस्रं पुरं कृत्वा रुद्रैस्तं प्रविभाज्येत् ।

मध्येन तु चरुं स्थाप्य पार्श्वे पङ्क्तिं प्रमार्जयेत् ॥०४॥

शालिचूर्णादिनापूर्य पूर्वादिनवकेषु च ।

कुम्भमुद्रां ततो बध्वा घटं तत्रानयेद्बुधः ॥०५॥

पुण्डरीकाक्षमन्त्रेण दर्भांस्तांस्तु विसर्जयेत् ।

अद्भिः पूर्णं सर्वरत्नयुतं मध्ये न्यसेद्घटं ॥०६॥

यवव्रीहितिलांश्चैव नीवरान् श्यामकान् क्रमात् ।

कुलत्थमुद्गसिद्धार्थांस्तच्छुक्तानष्टदिक्षु च ॥०७॥

ऐन्द्रे तु नवके मध्ये घृतपूर्णं घटं न्यसेत् ।

पलाशाश्वत्थन्यग्रोधविल्वोदुम्बरशीर्षां ॥०८॥

जम्बूशमीकपित्थानां त्वक्कषायैर्घटाष्टकं ।

आग्नेयनवके मध्ये मधुपूर्णं घटं न्यसेत् ॥०९॥

गोशृङ्गनश्वगङ्गागजेन्द्रदशनेषु च ।

तीर्थक्षेत्रखलेष्वष्टौ मृत्तिकाः स्युर्घटाष्टके ॥१०॥

चौकोर मण्डल का निर्माण करके उसे ग्यारह रेखाओं द्वारा विभाजित कर दे। फिर पार्श्वभाग की एक रेखा मिटा दे। इस तरह उस मण्डल में चारों दिशाओं में नौ-नौ कोष्ठकों की स्थापना करके उनको पूर्व आदि के क्रम से शालिचूर्ण पूरित करे। फिर विद्वान् मनुष्य कुम्भमुद्रा की रचना करके पूर्वादि दिशाओं में स्थित नवक में कलश लाकर रखे। पुण्डरीकाक्ष- मन्त्र से उनमें दर्भ डाले। सर्वरत्नसमन्वित जलपूर्ण कुम्भ को मध्य में विन्यस्त करे। शेष आठ कुम्भों में क्रमशः यव, व्रीहि, तिल, नीवार, श्यामाक, कुलत्थ, मुद्ग और श्वेत सर्षप डालकर आठ दिशाओं में स्थापित करे। पूर्वदिशावर्ती नवक में घृतपूर्ण कुम्भ रखे। इसमें पलाश, अश्वत्थ, वट, बिल्व, उदुम्बर, प्लक्ष, जम्बू, शमी तथा कपित्थ वृक्ष की छाल का क्वाथ डाले । आग्नेयकोणवर्ती नवक में मधुपूर्ण घट का न्यास करे। इस कलश में गोशृङ्ग, पर्वत, गङ्गाजल, गजशाला, तीर्थ, खेत और खलिहान-इन आठ स्थलों की मृत्तिका छोड़े ॥४ - १०॥

याम्ये तु नवके मध्ये तिलतैलघटं न्यसेत् ।

नारङ्गमथ जम्बीरं खर्जूरं मृद्विकां क्रमात् ॥११॥

नारिकेलं न्यसेत्पूगं दाडिमं पनसं फलं ।

नैर्ऋते नवके मध्ये क्षीरपूर्णं घटं न्यसेत् ॥१२॥

कुङ्कुमं नागपुष्पञ्च चम्पकं मालतीं क्रमात् ।

मल्लिकामथ पुन्नागं करवीरं महोत्पलं ॥१३॥

पुष्पाणि चाप्ये नवके मध्ये वै नारिकेलकम् ।

नादयेमथ सामुद्रं सारसं कौपमेव च ॥१४॥

वर्षजं हिमतोयञ्च नैर्झरङ्गाङ्गमेव च ।

उदकान्यथ वायव्ये नवके कदलीफलं ॥१५॥

सहदेवीं कुमारीं च सिंहीं व्याघ्रीं तथामृतां ।

विष्णुपर्णीं शतशिवां वचां दिव्यौषधीर्न्यसेत् ॥१६॥

पूर्वादौ सौम्यनवके मध्ये दधिघटं न्यसेत् ।

पत्रमेलां त्वचं कुष्ठं बालकं चन्दनद्वयं ॥१७॥

लतां कस्तूरिकां चैव कृष्णागुरुमनुक्रमात् ।

सिद्धद्रव्याणि पूर्वादौ शान्तितोयमथैकतः ॥१८॥

चन्द्रतारं क्रमाच्छुक्लं गिरिसारं त्रपु न्यसेत् ।

घनसारं तथा शीर्षं पूर्वादौ रत्नमेव च ॥१९॥

घृतेनाभ्यर्ज्य चोद्वर्त्य स्नपयेन्मूलमन्त्रतः ।

गन्धाद्यैः पूजयेद्वह्नौ हुत्वा पूर्णाहुतिं चरेत् ॥२०॥

बलिञ्च सर्वभूतेभ्यो भोजयेद्दत्तदक्षिणः ।

देवैश्च मुनिभिर्भूपैर्देवं संस्थाप्य चेश्वराः ॥२१॥

बभूवुः स्थापित्वेत्थं स्नपनोत्सवकं चरेत् ।

अष्टोत्तरसहस्रेण घटानां सर्वभाग्भवेत् ॥२२॥

यज्ञावभृथस्नानेन पूर्णसंस्नापनं कृतम् ।

गौरीलक्ष्मीविवाहादि चोत्सवं स्नानपूर्वकम् ॥२३॥

दक्षिणदिशावर्ती नवक में तिल तैल से परिपूर्ण घट स्थापित करे। उसमें क्रमशः नारंगी, जम्बीरीनीबू, खजूर, मृत्तिका, नारिकेल, सुपारी, अनार और पनस (कटहल ) - का फल डाल दे । नैर्ऋत्यकोणगत नवक में क्षीरपूर्ण कलश रखे। उसमें कुकुम, नागपुष्प, चम्पक, मालती, मल्लिका, पुंनाग, करवीर एवं कमल – कुसुमों को प्रक्षिप्त करे। पश्चिमीय नवक में नारिकेल जल से पूर्ण कलश में नदी, समुद्र, सरोवर, कूप, वर्षा, हिम, निर्झर तथा देवनदी का जल छोड़े। वायव्यकोणवर्ती नवक में कदलीजलपूरित कुम्भ रखे। उसमें सहदेवी, कुमारी, सिंही, व्याघ्री, अमृता, विष्णुपर्णी, दूर्वा, वच - इन दिव्य ओषधियों को प्रक्षिप्त करे। पूर्वादि उत्तरवर्ती नवक में दधिकलश का विन्यास करे । उसमें क्रमशः पत्र, इलायची, तज, कूट, सुगन्धवाला, चन्दनद्वय, लता, कस्तूरी, कृष्णागुरु तथा सिद्ध द्रव्य डाल दे। ईशानस्थ नवक में शान्तिजल से पूर्ण कुम्भ रखे। उसमें क्रमशः शुभ्र रजत, लौह, त्रपु कांस्य, सीसक तथा रत्न डाले। प्रतिमा को घृत का अभ्यङ्ग तथा उद्वर्तन करके मूल मन्त्र से स्नान करावे। फिर उसका गन्धादि के द्वारा पूजन करे। अग्नि में होम करके पूर्णाहुति दे । सम्पूर्ण भूतों को बलि प्रदान करे । ब्राह्मणों को दक्षिणापूर्वक भोजन करावे । देवता और मुनि तथा बहुत-से भूपाल भी भगवद्विग्रह का अभिषेक करके ईश्वरत्व को प्राप्त हुए हैं। इस प्रकार एक हजार आठ कलशों से स्नपनोत्सव का अनुष्ठान करे। इससे मनुष्य सब कुछ प्राप्त करता है। यज्ञ के अवभृथ स्नान में भी पूर्णस्नान सम्पन्न हो जाता है। पार्वती तथा लक्ष्मी के विवाह आदि में भी स्नपनोत्सव किया जाता है । ११ - २३ ॥

इत्यादिमहापुराणे आग्नेये यज्ञावभृतस्नानं नाम ऊनसप्ततितमोऽध्यायः ॥

इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में 'स्नपनोत्सव विधि-कथन' नामक उनहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ६९ ॥

आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 70 

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