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अग्निपुराण अध्याय ६८
अग्निपुराण
अध्याय ६८ में उत्सव – विधि का कथन का वर्णन
है।
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अग्निपुराणम् अध्यायः ६८- यात्रोत्सवविधिकथनं
अथ
अष्टषष्टितमोऽध्यायः
भगवानुवाच
वक्ष्ये विधिं
चोत्सवस्य स्थापिते तु सुरे चरेत् ।
तस्मिन्नब्दे
चैकरात्रं त्रिरात्रञ्चाष्टरात्रकं ॥०१॥
उत्सवेन विना
यस्मात्स्थापनं निष्फलं भवेत् ।
अयने विषुवे
चापि शयनोपवने गृहे ॥०२॥
कारकस्यानुकूले
वा यात्रान्देवस्य कारयेत् ।
मङ्गलाङ्कुररोपैस्तु
गीतनृत्यादिवाद्यकैः ॥०३॥
शरावघटिकापालीस्त्वङ्कुरारोहणे
हिताः ।
यवाञ्छालींस्तिलान्मुद्गान्
गोधूमान् सितसर्षपान् ॥०४॥
कुलत्थमाषनिष्पावान्
क्षालयित्वा तु वापयेत् ।
पूर्वादौ च
बलिं दद्यात्भ्रमन् दीपैः पुरं निशि ॥०५॥
इन्द्रादेः
कुमुदादेश्च सर्वभूतेभ्य एव च ।
अनुगच्छन्ति
ते तत्र प्रतिरूपधराः पुनः ॥०६॥
पदे
पदेऽश्वमेधस्य फलं तेषां न संशयः ।
श्रीभगवान्
कहते हैं- अब मैं उत्सव की विधि का वर्णन करता हूँ। देवस्थापन होने के पश्चात् उसी
वर्ष में एकरात्र, त्रिरात्र या अष्टरात्र उत्सव मनावे;
क्योंकि उत्सव के बिना देवप्रतिष्ठा निष्फल होती है । अयन
या विषुव संक्रान्ति के समय शयनोपवन या देवगृह में अथवा कर्ता के जिस प्रकार
अनुकूल हो, भगवान् की नगरयात्रा करावे। उस समय मङ्गलाङ्कुरों का रोपण,
नृत्य- गीत तथा गाजे-बाजे का प्रबन्ध करे। अङ्कुरों के रोपण
के लिये शराव (परई) या हँडिया श्रेष्ठ मानी गयी हैं। यव,
शालि, तिल, मुद्ग, गोधूम, श्वेत सर्षप, कुलत्थ, माष और निष्पाव को प्रक्षालित करके वपन करे। प्रदीपों के
साथ रात्रि में नगरभ्रमण करते हुए इन्द्रादि दिक्पालों,
कुमुद आदि दिग्गजों तथा सम्पूर्ण भूत-प्राणियों के उद्देश्य
से पूर्वादि दिशाओं में बलि-प्रदान करे। जो मनुष्य देवबिम्ब का वहन करते हुए
देवयात्रा का अनुगमन करते हैं, उनको पद-पद पर अश्वमेध यज्ञ के फल की प्राप्ति होती है,
इसमें तनिक भी संशय नहीं है ॥ १-६/३ ॥
आगत्य
देवतागारं देवं विज्ञापयेद्गुरुः ॥०७॥
तीर्थयात्रा
तु या देव श्वः कर्तव्या सुरोत्तम ।
तस्यारम्भमनुज्ञातुमर्हसे
देव सर्वथा ॥०८॥
देवमेवन्तु
विज्ञाप्य ततः कर्म समारभेत् ।
प्ररोहघटिकाभ्यान्तु
वेदिकां भूषितां व्रजेत् ॥०९॥
चतुःस्तम्भान्तु
तन्मध्ये स्वस्तिके प्रतिमां न्यसेत् ।
काम्यार्थां लेख्यचित्रेषु
स्थाप्य तत्राधिवासयेत् ॥१०॥
आचार्य पहले
दिन देवमन्दिर में आकर देवता को सूचित करे- 'भगवन्! देवश्रेष्ठ ! आपको कल तीर्थयात्रा करनी है। सर्वज्ञ!
आप उसका आरम्भ करने की आज्ञा देने में सदा समर्थ हैं।'
देवता के सम्मुख इस प्रकार निवेदन करके उत्सव कार्य का
आरम्भ करे। चार स्तम्भों से युक्त मङ्गलाकुरों की घटिका से समन्वित तथा विभूषित
वेदिका के समीप जाय। उसके मध्यभाग में स्वस्तिक पर प्रतिमा का न्यास करे। काम्य
अर्थ को लिखकर चित्रों में स्थापित करके अधिवासन करे ॥ ७-१० ॥
वैष्णवैः सह
कुर्वीत घृताभ्यङ्गन्तु मूलतः ।
घृतधाराभिषेकं
वा सकलां शर्वरीं बुधः ॥११॥
दर्पणं दर्श्य
नीराजं गीतवाद्यैश्च मङ्गलं ।
व्यजनं पूजनं
दीपं गन्धपुष्पादिभिर्यजेत् ॥१२॥
हरिद्रामुद्गकाश्मीरशुक्लचूर्णादि
मूर्ध्नि ।
प्रतिमायाश्च
भक्तानां सर्वतीर्थफलं धृते ॥१३॥
स्नापयित्वा
समभ्यर्च्य यात्राविम्बं रथे स्थितं ।
नयेद्गुरुर्नदीर्नादैश्छत्राद्यै
राष्ट्रपालिकाः ॥१४॥
फिर विद्वान्
पुरुष वैष्णवों के साथ मूल मन्त्र से देवमूर्ति के अङ्गों में घृत का लेपन करे तथा
सारी रात घृतधारा से अभिषेक करे। देवता को दर्पण दिखलाकर,
आरती, गीत, वाद्य आदि के साथ मङ्गलकृत्य करे,
व्यजन डुलावे एवं पूजन करे। फिर दीप,
गन्ध तथा पुष्पादि से यजन करे । हरिद्रा,
कपूर, केसर और श्वेत-चन्दन- चूर्ण को तथा भक्तों के सिर पर छोड़ने
से समस्त तीर्थों के फल की प्राप्ति होती है। आचार्य यात्रा के लिये नियत
देवमूर्ति की रथ पर स्थापना और अर्चना करके छत्र चँवर तथा शङ्खनाद आदि के साथ
राष्ट्र का पालन करनेवाली नदी के तट पर ले जाय ॥ ११-१४ ॥
निम्नगायोजनादर्वाक्तत्र
वेदीन्तु कारयेत् ।
वाहनादवतार्यैनं
तस्यां वेद्यान्निवेशयेत् ॥१५॥
चरुं वै
श्रपयेत्तत्र पायसं होमयेत्ततः ।
अब्लिङ्गैः
वैदिकैर्मन्त्रैस्तीर्थानावाहयेत्ततः ॥१६॥
आपो
हिष्ठोपनिषदैः पूजयेदर्घ्यमुख्यकैः ।
पुनर्देवं
समादाय तोये कृत्वाघमर्षणं ॥१७॥
स्नायान्महाजनैर्विप्रैर्वेद्यामुत्तार्य
तं न्यसेत् ।
पूजयित्वा
तदह्ना च प्रासादं तु नयेत्ततः ।
पूजयेत्पावकस्थन्तु
गुरुः स्याद्भुक्तिमुक्तिकृत् ॥१८॥
नदी में नहलाने
से पूर्व वहाँ तट पर वेदी का निर्माण करे। फिर मूर्ति को यान से उतारकर उसे वेदिका
पर विन्यस्त करे। वहाँ चरु निर्मित करके उसकी आहुति देने के पश्चात् पायस का होम करे। फिर वरुणदेवता
सम्बन्धी मन्त्रों से तीर्थो का आवाहन करे । 'आपो हि ष्ठा०'
आदि मन्त्रों से उनको अर्घ्य
प्रदान करके पूजन करे। देवमूर्ति को लेकर जल में अघमर्षण
करके ब्राह्मणों और महाजनों के साथ स्नान करे। स्नान के पश्चात् मूर्ति को ले आकर
वेदिका पर रखे। उस दिन देवता का वहाँ पूजन करके देवप्रासाद में ले जाय। आचार्य
अग्नि में स्थित देव का पूजन करे। यह उत्सव भोग एवं
मोक्ष प्रदान करनेवाला है ॥ १५ - १८ ॥
इत्यादिमहापुराणे
आग्नेये देवयात्रोत्सवकथनं नाम अष्टषष्टितमोऽध्यायः ॥
इस प्रकार आदि
आग्नेय महापुराण में 'उत्सव विधि-कथन' नामक अड़सठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ६८ ॥
आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 69
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