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अग्निपुराणम् अध्यायः ५९ अधिवासकथनम्
भगवानुवाच
हरेः सान्निध्यकरणमधिवासनमुच्यते।
सर्व्वज्ञं सर्वगं ध्यात्वा आत्मानं
पुरुषोत्तमम् ।। १ ।।
ओंकारेण समायोज्य
चिच्छक्तिमभिमानिनीम् ।
निः सार्य्यात्मैकतां
कृत्वास्वस्मिन् सर्वगते विभौ ।। २ ।।
योजयेः मरुता पृथ्वीं वह्निबीजेन
पीपयेत्।
संहरेद्वायुना चाग्निं वायुमाकाशतो
नयेत् ।। ३ ।।
अधिभूतादिदेवैस्तु
साध्याख्यैविभवैः।
सह। तन्मात्रपात्रकान् कृत्वा
संहरेत्तत् क्रमाद् बुधः ।। ४ ।।
आकाशं मनसाह्त्य मनोहङ्करणे कुरु ।
अहङ्कारञ्च महति तञ्चाप्यव्याकृते
नयेत् ।। ५ ।।
श्रीभगवान् हयग्रीव कहते हैं—
ब्रह्मन् ! श्रीहरि का सांनिध्यकरण 'अधिवासन'
कहलाता है। साधक यह चिन्तन करे कि 'मैं अथवा
मेरा आत्मा सर्वज्ञ सर्वव्यापी पुरुषोत्तमरूप है।' इस प्रकार
भावना करके आत्मा की 'ॐ' इस नाम के
द्वारा प्रतिपादित होनेवाले परमात्मा के साथ एकता करे। तदनन्तर चैतन्याभिमानिनी
जीव-शक्ति को पृथक् करके आत्मा के साथ उसकी एकता करे। ऐसा करके स्वात्मरूप
सर्वव्यापी परमेश्वर में उसे जोड़ दे। तत्पश्चात् प्राणवायु द्वारा ('लं' बीजात्मक) पृथ्वी को अग्निबीज (रं) के चिन्तन द्वारा
प्रकट हुई अग्नि में जला दे, अर्थात् यह भावना करे कि पृथ्वी
का अग्नि में लय हो गया। फिर वायु में अग्नि को विलीन करे और आकाश में वायु का लय
कर दे। अधिभूत, अधिदैव तथा अध्यात्म- वैभव के साथ समस्त
भूतों को तन्मात्राओं में विलीन करके विद्वान् पुरुष आकाश में उन सबका क्रमशः
संहार करे। इसके बाद आकाश का मन में, मन का अहंकार में,
अहंकार का महतत्त्व में और महतत्त्व का अव्याकृत प्रकृति में लय करे
॥ १-५ ॥
अव्याकृतं ज्ञानरूपे वासुदेवः स
ईरितः।
स तामव्याकृति मायामवष्टब्य
सिसृक्षया ।। ६ ।।
सङ्कर्षणं स शव्दात्मा
स्पर्शाख्यमसृजत् प्रभुः।
क्षोभ्य मायां स प्रद्युम्नं
तेजोरुपं स चासृजत् ।। ७ ।।
अनिरुद्धं रसमात्रं ब्रह्माणं
गन्धरूपकम्।
अनिरुद्धः स च ब्रह्मा अप आदौ ससर्ज
चह ।। ८ ।।
तस्मिन् हिरण्मयञ्चाण्डं सोऽसृजत्
पञ्चभूतवद्।
तस्मिन् सङ्क्रामिते जीव
शक्तिरात्मोपसंहृता ।। ९ ।।
प्राणो जीवेन संयुक्तो वृत्तिमानिति
शब्द्यते।
जीवो व्याहृतिसञ्ज्ञस्तु प्राणेष्वाध्यात्मिकः
स्मृतः ।। १० ।।
प्राणैर्युक्ता ततो बुद्धिः सञ्जाता
चाष्टमूर्त्तिका ।
अहङ्कारस्ततो जज्ञे मनस्तस्मादजायत
।। ११ ।।
अर्थाः प्रजज्ञिरे पञ्च
सङ्कल्पादियुतास्ततः।
शब्दः स्पर्शश्च रूपञ्च रसो गन्ध
इति स्मृताः ।। १२ ।।
अव्याकृत प्रकृति (अथवा माया ) को
ज्ञानस्वरूप परमात्मा में विलीन करे। उन्हीं परमात्मा को 'वासुदेव' कहा गया है। उन शब्दस्वरूप भगवान् वासुदेव ने
सृष्टि की इच्छा से उस अव्याकृत माया का आश्रय ले स्पर्शसंज्ञक संकर्षण को प्रकट
किया। संकर्षण ने माया को क्षुब्ध करके तेजोरूप प्रद्युम्न की सृष्टि की।
प्रद्युम्न ने रसस्वरूप अनिरुद्ध को और अनिरुद्ध ने गन्धस्वरूप ब्रह्मा को जन्म
दिया। ब्रह्मा ने सबसे पहले जल की सृष्टि की। उस जल में उन्होंने पाँच भूतों से
युक्त हिरण्मय अण्ड को उत्पन्न किया। उस अण्ड में जीव शक्ति का संचार हुआ। यह वही
जीव-शक्ति है, जिसका आत्मा में पहले उपसंहार बताया गया है।
जीव के साथ प्राण का संयोग होने पर वह 'वृत्तिमान्' कहलाता है। व्याहृतिसंज्ञक जीव प्राणों में स्थित होकर 'आध्यात्मिक 'पुरुष' कहा गया
है। उससे प्राणयुक्त बुद्धि उत्पन्न हुई, जो आठ वृत्तिवाली
बतायी गयी है। उस बुद्धि से अहंकार का और अहंकार से मन का प्रादुर्भाव हुआ। मन से
संकल्पादियुक्त पाँच विषय प्रकट हुए, जिनके नाम इस प्रकार
हैं- शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध ॥६- १२ ॥
ज्ञानशक्तियुतान्येतैरारब्धानीन्द्रियाणि
तु।
त्वक्श्रोत्रघ्राणचक्षूंषि
जिह्वाबुद्धीन्द्रियाणि तु ।। १३ ।।
पादौ पायुस्तथा पाणी वागुपस्थश्च
पञ्चमः।
कर्म्मेन्द्रियाणि चैतानि
पञ्चभूतान्यतः श्रृणु ।। १४ ।।
आकाशवायुतेजांसि सलिलं पृथिवी तथा।
स्थूलमेभिः शरीरन्तु सर्वाधारं
प्रजायते ।। १५ ।।
प्राणतत्त्वं भकारन्तु जीवोपाधिगतं
न्यसेत्।
हृदयस्थं बकारन्तु बुद्धितत्त्वं न्यसेद्
बुधः ।। १६ ।।
फकारमपि तत्रैव अहङ्कारमयं न्यसेत्।
मनस्तत्त्वं पकारन्तु
न्यसेत्सङ्कल्पसम्भवम् ।। १८ ।।
इन सबने ज्ञानशक्ति से सम्पन्न पाँच
इन्द्रियों को प्रकट किया, जिनके नाम
हैं-त्वक्, श्रोत्र, घ्राण, नेत्र और जिह्वा। इन सबको 'ज्ञानेन्द्रिय' कहा गया है। दो पैर, गुदा, दो
हाथ, वाक् और उपस्थ-ये पाँच कर्मेन्द्रियाँ हैं। अब
पञ्चभूतों के नाम सुनो आकाश, वायु, तेज,
जल और पृथ्वी- ये पाँच भूत हैं। इनके ही द्वारा सबका आधारभूत स्थूल
शरीर उत्पन्न होता है। इन तत्वों के वाचक जो उत्तम बीज-मन्त्र हैं, उनका न्यास के लिये यहाँ वर्णन किया जाता है। 'मं'
यह बीज जीवस्वरूप (अथवा जीवतत्त्व का वाचक) है। वह सम्पूर्ण शरीर में
व्यापक है-इस भावना के साथ उक्त बीज का सम्पूर्ण देह में व्यापक न्यास करना
चाहिये। 'भं' यह प्राणतत्त्व का प्रतीक
है। यह जीव की उपाधि में स्थित है, अतः इसका वहीं न्यास करना
चाहिये। विद्वान् पुरुष बुद्धितत्त्व के बोधक बकार अथवा 'बं'
बीज का हृदय में न्यास करे। फकार (फं) अहंकार का स्वरूप है, अतः उसका भी हृदय में ही न्यास करे।संकल्प के कारणभूत मनस्तत्त्वरूप पकार
(पं) का भी वहीं न्यास करे॥१३-१८॥
शब्दतन्मात्रतत्त्वन्तु नकारं
मस्तके न्यसेत्।
स्पर्शात्मकं धकारन्तु वक्त्रदेशे
तु विन्यसेत् ।। १९ ।।
दकारं रूपतत्त्वन्तु हृद्देशे
विनिवेशयेत् ।
थकारं वस्तिदेशे तु रसतन्मात्रकं
न्यसेत् ।। २० ।।
तकारं गन्धतन्मात्रं
जङ्घयोर्व्विनिवेशयेत्।
णकारं श्रोत्रयोर्न्न्यस्य ढकारं विन्यसेत्त्वचि
।। २१ ।।
डकारं नेत्रयुग्मे तु रसनायां
ठकारकम्।
टकारं नासिकायान्तु ञकारं वाचि
विन्यसेत् ।। २२ ।।
झकारं करयोर्न्न्यस्य पाणितत्त्वं
विचक्षणः।
जकारं पदयोर्न्न्यस्य छं पायौ
चमुपस्थके ।। २३ ।।
विन्यसेत् पृथिवीतत्त्वं ङकारं
पादयुग्मके।
वस्तौ घकारं गं तत्त्वं तैजसं हृदि
विन्यसेत् ।। २४ ।।
खकारं वायुतत्त्वञ्च नासिकायां
निवेशयेत्।
ककारं विन्यसेन्नित्यं खतत्त्वं
मस्तके बुधः ।। २५ ।।
शब्दतन्मात्रतत्त्व के बोधक नकार (
नं) - का मस्तक में और स्पर्शरूप धकार (धं) का मुखप्रदेश में न्यास करे। रूपतत्त्व
के वाचक दकार (दं) - का नेत्रप्रान्त में और रसतन्मात्रा के बोधक थकार (थं)- का
वस्तिदेश (मूत्राशय) में न्यास करे । गन्धतन्मात्रस्वरूप तकार (तं) का पिण्डलियों
में न्यास करे। णकार (णं) का दोनों कानों में न्यास करके ढकार (ढं) का त्वचा में
न्यास करे। डकार (डं) का दोनों नेत्रों में, ठकार
( ठं) का रसना में, टकार (टं)- का नासिका में और जकार (अं)
का वागिन्द्रिय में न्यास करे। विद्वान् पुरुष पाणितत्त्वरूप झकार (झं) का दोनों
हाथों में न्यास करके, जकार (जं) का दोनों पैरों में,
'छं' का पायु में और 'चं'
का उपस्थ में न्यास करे। ङकार (ङ) पृथ्वीतत्त्व का प्रतीक है। उसका
युगल चरणों में न्यास करे। घकार ( घं) - का वस्ति में और तेजस्तत्त्वरूप ( गं) का
हृदय में न्यास करे। खकार (खं) वायुतत्त्व का प्रतीक है। उसका नासिका में न्यास
करे। ककार (कं) आकाशतत्त्वरूप है। विद्वान् पुरुष उसका सदा ही मस्तक में न्यास करे
।। १९ - २५ ॥
हृत्पुण्डरीके विन्यस्य यकारं
सूर्य्यदैवतम्।
द्वासप्ततिसहस्त्राणि हृदयादभिनिः
सृताः ।। २६ ।।
कलाषोडशसंयुक्त मकारं तत्र
विन्यसेत्।
तन्मध्ये चिन्तयेन्मन्त्री बिन्दुं
वह्नेस्तु मण्डलम् ।। २७ ।।
हकारं विन्यसेत्तत्र प्रणवेन सुरोत्तमः।
ओं आं परमेष्ठ्यात्मने आं नमः
पुरुषात्मने ।। २८ ।।
ओं वां मनोनिवृत्त्यात्मने नाञ्च
विश्वात्मने नमः।
ओं वा नमः सर्वात्मने इत्युक्ताः
पञ्च शक्तयः ।। २९ ।।
स्थाने तु प्रथमा योज्या द्वितीया
आसने मता।
तृतीया शयने तद्वच्चतुर्थी
पानकर्म्मणि ।। ३० ।।
ग्रत्यर्च्चायां पञ्चमी
स्यात्पञ्चोपनिषदः स्मृताः।
हुङ्कारं विन्यसेन्मध्ये ध्यात्वा
मन्त्रमयं हरिम् ।। ३१ ।।
हृदय कमल में सूर्य देवता-सम्बन्धी 'थं' बीज का न्यास करके, हृदय से
निकली हुई जो बहत्तर हजार नाड़ियाँ हैं, उनमें षोडश कलाओं से
युक्त सकार (सं) का न्यास करे। उसके मध्यभाग में मन्त्रज्ञ पुरुष बिन्दुस्वरूप
वह्निमण्डल का चिन्तन करे। सुरश्रेष्ठ! उसमें प्रणवसहित हकार (हं) - का न्यास करे।
१. ॐ आं नमः परमेष्ठ्यात्मने । २. ॐ आं नमः पुरुषात्मने । ३. ॐ वां नमो
नित्यात्मने । ४. ॐ नां नमो विश्वात्मने । ५. ॐ वं नमः सर्वात्मने। ये पाँच
शक्तियाँ बतायी गयी हैं।' स्नानकर्म' में
प्रथमा शक्ति की योजना करनी चाहिये। 'आसनकर्म' में द्वितीया, 'शयन' में
तृतीया, 'यानकर्म' में चतुर्थी और 'अर्चनाकाल' में पञ्चमी शक्ति का प्रयोग करना
चाहिये-ये पाँच उपनिषद् हैं। इनके मध्य में मन्त्रमय श्रीहरि का ध्यान करके क्षकार
(क्षं) का न्यास करे ॥ २६- ३१ ॥
यां मूर्ति स्थापयेत्तस्मात्
मूलमन्त्रं न्यसेत्ततः।
ओं नमों भगवते वासुदेवाय मूलकम् ।।
३२ ।।
शिरोघ्राणललाटेषु मुखकण्ठहृदि
क्रमात्।
भुजयोर्जङ्घयोरङ्घ्र्योः केशवं
शिरसि न्यसेत् ।। ३३ ।।
नारायणं न्यसेद्वक्त्रे ग्रीवायां
माधवं न्यसेत्।
गोविन्दं भुजयोर्न्यस्य विष्णु च
हृदेये न्यसेत् ।। ३४ ।।
मधुसूदनकं पृष्ठे वामनं जठरे
न्यसेत्।
कट्यान्त्रिविक्रमं न्यस्य जङ्घायां
श्रीधरं न्यसेत् ।। ३५ ।।
हृषीकेशं दक्षिणायां पद्मनाभं तु
गुल्फके।
दामोदरं पादयोश्च हृदयादिषडङ्गकम्
।। ३६ ।।
तदनन्तर जिस मूर्ति की स्थापना की
जाती है,
उसके मूल मन्त्र का न्यास करना चाहिये। (भगवान् विष्णु की स्थापना में)
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय' - यह मूल-मन्त्र है।
मस्तक नासिका, ललाट, भुख, कण्ठ, हृदय, दो भुजा, दो पिण्डली और दो चरणों में क्रमशः उक्त मूल मन्त्र के एक- एक अक्षर का
न्यास करना चाहिये। तत्पश्चात् केशव का मस्तक में न्यास करे। नारायण का मुख में,
माधव का ग्रीवा में और गोविन्द का दोनों भुजाओं में न्यास करके
विष्णु का हृदय में न्यास करे। पृष्ठभाग में मधुसूदन का, जठर
में वामन का और कटि में त्रिविक्रम का न्यास करके जंघा (पिण्डली) में श्रीधर का
न्यास करे। दक्षिण भाग में हृषीकेश का, गुल्फ में पद्मनाभ का
और दोनों चरणों में दामोदर का न्यास करने के पश्चात् हृदयादि षडङ्गन्यास करे ।।
३२-३६ ॥
एतत् साधारणं
प्रोक्तमादिमूर्त्तेस्तु सत्तम।
अथवा यस्य देवस्य प्रारब्धं स्थापनं
भवेत् ।। ३७ ।।
तस्यैव मूलमन्त्रेण सजीवकरणं भवेत्।
यस्या मूर्त्तेस्तु यन्नाम
तस्याद्यं चाक्षरं च यत् ।। ३८ ।।
तत् स्वरैर्द्वादशैर्भेद्यं
ह्यङ्गानि परिकल्पयेत्।
हृदयादीनि देवेश मूलञ्च दशमाक्षरम्
।। ३९ ।
यथा देवे तथा देहे तत्त्वानि
विनियोजयेत्।
चक्राव्जमण्डले विष्णुं
यजेद्गन्धादिना तथा ।। ४० ।।
पूर्व्ववच्चासनं ध्यायेत्सगात्रं
सपरिच्छदम्।
शुभञ्चक्रं द्वादशारं ह्यपरिष्टाद्विचिन्तयेत्
।। ४१ ।।
त्रिनाभिचक्रं द्विनेमि खरैस्तच्च
समन्वितम्।
पृष्ठदेशे ततः प्राज्ञः
प्रकृत्यादीन्निवेशयेत् ।। ४२ ।।
पूजयेदारकाग्रेषु सूर्य्यं द्वादशधा
पुनः।
कलाषोडशसंयुक्तं सोमन्तत्र
विचिन्तयेत् ।। ४३ ।।
सबलं त्रितयं नाभौ
चिन्तयेद्देशिकोत्तमः।
पद्माञ्च द्वादशदलं पद्ममध्ये
विचिन्तयेत् ।। ४४ ।।
सत्पुरुषों में श्रेष्ठ ब्रह्माजी!
यह आदिमूर्ति के लिये न्यास का साधारण क्रम बताया गया है। अथवा जिस देवता की
स्थापना का आरम्भ हो, उसी के मूल मन्त्र से
मूर्ति के सजीवकरण की क्रिया होनी चाहिये। जिस मूर्ति का जो नाम हो, उसके आदि अक्षर का बारह स्वरों से भेदन करके अङ्गों की कल्पना करनी
चाहिये। देवेश्वर! हृदय आदि अङ्ग का तथा द्वादश अक्षरवाले मूल मन्त्र का एवं
तत्त्वों का जैसे देवता के विग्रह में न्यास करे, वैसे ही
अपने शरीर में भी करे। तत्पश्चात् चक्राकार पद्ममण्डल में भगवान् विष्णु का गन्ध
आदि से पूजन करे। पूर्ववत् शरीर और वस्त्राभूषणों सहित भगवान् के आसन का ध्यान
करे। ऊपरी भाग में बारह अरों से युक्त सुदर्शनचक्र का चिन्तन करे। वह चक्र तीन नाभि
और दो नेमियों से युक्त है। साथ ही बारह स्वरों से सम्पन्न है। इस प्रकार चक्र का
चिन्तन करने के पश्चात् विद्वान् पुरुष पृष्ठदेश में प्रकृति आदि का निवेश करे।
फिर अरों के अग्रभाग में बारह सूर्यो का पूजन करे। तदनन्तर वहाँ सोलह कलाओं से
युक्त सोम का ध्यान करे। चक्र की नाभि में तीन वसन (वस्त्र या वासस्थान) का चिन्तन
करे। तत्पश्चात् श्रेष्ठ आचार्य पद्म के भीतर द्वादशदल पद्म का चिन्तन करे ॥ ३७-४४
॥
तन्मध्ये पौरुषीं शक्ति
ध्यात्वाभ्यर्च्य च देशिकः ।
प्रतिमायां हरि न्यस्य तत्र तं
पूजयेत् सुरान् ।। ४५ ।।
गन्धपुष्पादिभिः सम्यक् साङ्गं
सावरणं क्रमात्।
द्वादशाक्षरवीजैस्तु केशवादीन्
समर्च्चयेत् ।। ४६ ।।
द्वादशारे मण्डले तु लोकपालादिकं
क्रमात्।
प्रतिमामर्च्चयेत् पश्चाद्गन्धपुष्पादिभिर्द्विजः
।। ४७ ।।
पौरुषेण तु सूक्तेन श्रिया सूक्तेन
पिण्डिकाम्।
जननादिक्रमात्
पञ्चाज्जनयेद्वैष्णवानलम् ।। ४८ ।।
हुत्वाग्निं वैष्णवैर्म्मन्त्रैः
कुर्य्याच्छान्त्युदकं बुधः।
तत् सिक्त्वा प्रतिमामूद्र्ध्नि
वह्निप्रणयनं चरेत् ।। ४९ ।।
दक्षिणेग्निं हुतमिति कुण्डेग्निं
प्रणयेद् बुधः।
अग्निमग्नीति पूर्वे तु कुण्डेग्निं
प्रणयेद्बुधः ।। ५० ।।
उत्तरे प्रणयेदग्निमग्निमग्नी
हवामहे।
अग्निप्रणयने मन्त्रस्त्वमग्ने
ह्यग्रिरुच्यते ।। ५१ ।।
उस पद्म में पुरुष – शक्ति का ध्यान
करके उसकी पूजा करे। फिर प्रतिमा में श्रीहरि का न्यास करके गुरु वहाँ श्रीहरि तथा
अन्य देवताओं का पूजन करे। गन्ध, पुष्प आदि
उपचारों से अङ्ग और आवरणों सहित इष्टदेव का भलीभाँति पूजन करना चाहिये।
द्वादशाक्षर मन्त्र के एक-एक अक्षर को बीजरूप में परिवर्तित करके उनके द्वारा केशव
आदि भगवद्विग्रहों की क्रमशः पूजा करे। द्वादश अरों से युक्त मण्डल में लोकपाल आदि
की भी क्रम से अर्चना करे। तदनन्तर, द्विज गन्ध, पुष्प आदि उपचारों द्वारा पुरुषसूक्त से प्रतिमा की पूजा करे और श्रीसूक्त
से पिण्डिका की। इसके बाद जनन आदि के क्रम से वैष्णव अग्नि को प्रकट करे। तदनन्तर
विष्णुदेवता - सम्बन्धी मन्त्रों द्वारा अग्नि में आहुति देकर विद्वान् पुरुष
शान्ति जल तैयार करे और उसे प्रतिमा के मस्तक पर छिड़ककर अग्नि का प्रणयन करे।
विद्वान् पुरुष को चाहिये कि 'अग्निं दूतम् ०"* इत्यादि मन्त्र से दक्षिण- कुण्ड में
अग्नि-प्रणयन करे। पूर्वकुण्ड में 'अग्निमग्निम्० "* इत्यादि मन्त्र से और उत्तर- कुण्ड में 'अग्निमग्निं हवीमभिः ०'* इत्यादि मन्त्र से अग्नि का प्रणयन करे। अग्निप्रणयन- काल में 'त्वमग्ने द्युभिः ०'* इत्यादि मन्त्र का पाठ किया जाता है ॥ ४५-५१॥
*१.अ॒ग्निं दू॒तं पु॒रो
द॑धे हव्य॒वाह॒मुप॑ब्रुवे। दे॒वाँ२ऽआ सा॑दयादि॒ह ॥ (यजु० २२।१७)
*२. अ॒ग्निम॑ग्निं वः
स॒मिधा॑ दुवस्यत प्रि॒यंप्रि॑यं वो॒ अति॑थिं गृणी॒षणि॑। उप॑ वो गी॒र्भिर॒मृतं॑
विवासत दे॒वो दे॒वेषु॒ वन॑ते॒ हि वार्यं॑ दे॒वो दे॒वेषु॒ वन॑ते॒ हि नो॒ दुवः॑ ॥
(ऋ० मं० ६।१५।६)
*३. अ॒ग्निम॑ग्निं॒
हवी॑मभिः॒ सदा॑ हवन्त वि॒श्पति॑म्। ह॒व्य॒वाहं॑ पुरुप्रि॒यम्॥ (ऋ० मं० १ सू० १२ ।
२)
*४. त्वम॑ग्ने॒
द्युभि॒स्त्वमा॑शुशु॒क्षणि॒स्त्वम॒द्भ्यस्त्वमश्म॑न॒स्परि॑। त्वं
वने॑भ्य॒स्त्वमोष॑धीभ्य॒स्त्वं नृ॒णां नृ॑पते जायसे॒ शुचिः॑ ॥ (यजु० ११।२७)
पलाशसमिधानान्तु अष्टोत्तरसहस्रकम्।
कुण्डे कुण्डे होमयेच्च व्रीहीन्
वेदादिकैस्तथा ।। ५२ ।।
साज्यांस्तिलान्
व्याहृतिभिर्मूलमन्त्रेण वै घृतम्।
कुर्य्यात्ततः शान्तिहोमं
मधुरत्रितयेन च ।। ५३ ।।
द्वादशार्णैः स्पृशेत् पादौ नाभिं
हृन्मस्तकं ततः।
घृतं दधि पयो हुत्वा
स्पृशेन्मूर्द्धन्यथो ततः ।। ५४ ।।
स्पृष्ट्वा शिरोनाभिपादांश्चतस्रः
स्थापयेन्नदीः ।
गङ्गा च यमुना गोदा क्रमान्नाम्ना
सरस्वती ।। ५५ ।।
दहेत्तु विष्णुगायत्र्या गायत्रया
श्रपयेच्चरुम्।
होमयेच्च बलिं दद्यादुत्तरे भोजयेद्
द्विजान् ।। ५६ ।।
प्रत्येक कुण्ड में प्रणव के
उच्चारणपूर्वक पलाश की एक हजार आठ समिधाओं का तथा जौ आदि का भी होम करे। व्याहृति
मन्त्र से घृतमिश्रित तिलों का और मूलमन्त्र से घी का हवन करे। तत्पश्चात्
मधुरत्रय (घी, शहद और चीनी) से शान्ति - होम
करे। द्वादशाक्षर मन्त्र से दोनों पैर, नाभि, हृदय और मस्तक का स्पर्श करे। घी, दही और दूध की
आहुति देकर मस्तक का स्पर्श करे। तत्पश्चात् मस्तक, नाभि और
चरणों का स्पर्श करके क्रमशः गङ्गा, यमुना, गोदावरी और सरस्वती-इन चार नदियों की स्थापना करे। विष्णु-गायत्री* से अग्नि को प्रज्वलित करे और गायत्री
मन्त्र से उस अग्नि में चरु पकावे। गायत्री से ही होम और बलि दे । तदनन्तर
ब्राह्मणों को भोजन करावे ॥ ५२-५६ ॥
* नारायणाय विद्महे
वासुदेवाय धीमहि तन्नो विष्णुः प्रचोदयात्।
सामाधिपानां तुष्ट्यर्थं हेम गां
गुरवे ददेत्।
दिकपतिभ्यो बलिं दत्त्वा रात्रौ
कुर्य्याच्च जागरम् ।। ५७ ।।
ब्रह्मगीतादिशब्देन
सर्वभागधिवासनात् ।। ५८ ।।
मासाधिपति बारह आदित्यों की तुष्टि के
लिये आचार्य को सुवर्ण और गौ की दक्षिणा दे। दिक्पालों को बलि देकर रात में जागरण
करे। उस समय वेदपाठ और गीत, कीर्तन आदि करता
रहे। इस प्रकार अधिवासन- कर्म का सम्पादन करने पर मनुष्य सम्पूर्ण फलों का भागी
होता है ॥ ५७-५८ ॥
इत्यादिमहापुराणे आग्नेये अधिवासनं
नाम ऊनषष्टितमोऽध्यायः।
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में 'देवाधिवास- विधि का वर्णन' नामक उनसठवाँ अध्याय पूरा
हुआ ॥ ५९ ॥
आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 60
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