अग्निपुराण अध्याय ६१

अग्निपुराण अध्याय ६१                

अग्निपुराण अध्याय ६१ अवभृथस्नान, द्वारप्रतिष्ठा और ध्वजारोपण आदि की विधि का वर्णन है।

अग्निपुराण अध्याय ६१

अग्निपुराणम् अध्यायः ६१              

Agni puran chapter 61

अग्निपुराण इकसठवाँ अध्याय

अग्नि पुराण अध्याय ६१

भगवानुवाच

वक्षे चावभृथस्नानं विष्णोर्नत्वेति होमयेत् ।

एकाशीतिपदे कुम्भान् स्थाप्य संस्थापयेद्धरिं ॥१॥

पूजयेद्गन्धपुष्पाद्यैर्बलिं दत्वा गुरुं यजेत् ।

द्वारप्रतिष्ठां वक्ष्यामि द्वाराधो हेम वै ददेत् ॥२॥

अष्टभिः कलशैः स्थाप्य शाखोदुम्बरकौ गुरुः ।

गन्धादिभिः समभ्यर्च्य मन्त्रैर्वेदादिभिर्गुरुः ॥३॥

कुण्डेषु होमयेद्वह्निं समिल्लाजतिलादिभिः ।

दत्वा शय्यादिकञ्चाधो दद्यादाधारशक्तिकां ॥४॥

श्रीभगवान् हयग्रीव कहते हैं - ब्रह्मन् ! अब मैं अवभृथस्नान का वर्णन करता हूँ। 'विष्णोर्नुकं वीर्याणि०'* इत्यादि मन्त्र से हवन करे । इक्यासी पदवाले वास्तुमण्डल में कलश स्थापित करके उनके जल से श्रीहरि को स्नान करावे। स्नान के पश्चात् गन्ध, पुष्प आदि से भगवान्‌ की पूजा करे और बलि अर्पित करके गुरु का पूजन करे। अब मैं द्वारप्रतिष्ठा का वर्णन करूँगा। गुरु द्वार के निम्न भाग में सुवर्ण रखे और आठ कलशों के साथ वहाँ दो गूलर की शाखाओं को स्थापित करे। फिर गन्ध आदि उपचारों और वैदिक आदि मन्त्रों से सम्यक् पूजन करके कुण्डों में स्थापित अग्नि में समिधा, घी और तिल आदि की आहुति दे। तत्पश्चात् शय्या आदि का दान देकर नीचे आधारशक्ति की स्थापना करे ॥ १-४ ॥

विष्णोर्नु कं वीर्याणि प्रवोचं यः पार्थिवानि विममे रजासि। योऽअस्कभायदुत्तर सधस्थं विचक्रमाणस्त्रेधोरुगायो विष्णवे त्वा ॥(यजु०५।१८)

शाखयोर्विन्यसेन्मूले देवौ चण्डप्रचण्दकौ ।

ऊर्ध्वोदुम्बरके देवीं लक्ष्मीं सुरगणार्चितां ॥५॥

न्यस्याभ्यर्च्य यथान्यायं श्रीसूक्तेन चतुर्मुखं ।

दत्वा तु श्रीफलादीनि आचार्यादेस्तु दक्षिणां ॥६॥

प्रतिष्ठासिद्धद्वारस्य त्वाचार्यः स्थापयेद्धरिं ।

प्रासादादस्य प्रतिष्ठन्तु हृत्प्रतिष्ठेति तां शृणु ॥७॥

समाप्तौ शुकनाशाया वेद्याः प्राग्दर्भमस्तके ।

सौवर्णं राजतं कुम्भमथवा शुक्लनिर्मितं ॥८॥

अष्टरत्नौषधीधातुवीजलौहान्वितं शुभं ।

सवस्त्रं पूरितं चाद्भिर्मण्डले चाधिवासयेत् ॥९॥

सपल्लवं नृसिंहेन हुत्वा सम्पातसञ्चितं ।

नारायणाख्यतत्त्वेन प्राणभूतं न्यसेत्ततः ॥१०॥

दोनों शाखाओं के मूलभाग में चण्ड और प्रचण्ड नामक देवताओं की स्थापना करे। उदुम्बर-शाखाओं के ऊपरी भाग में देववृन्दपूजित लक्ष्मीदेवी की स्थापना करके श्रीसूक्त से उनका यथोचित पूजन करे। तत्पश्चात् ब्रह्माजी का पूजन करके आचार्य आदि को श्रीफल (नारियल) आदि की दक्षिणा दे। प्रतिष्ठा- द्वारा सिद्ध द्वार पर आचार्य श्रीहरि की स्थापना करे। मन्दिर की प्रतिष्ठा 'हृत्प्रतिष्ठा०' इत्यादि मन्त्र से की जाती है। उसका वर्णन सुनो। वेदी के पहले गर्भगृह के शिरोभाग में, जहाँ शुकनासा की समाप्ति होती है, उस स्थान पर सोने अथवा चाँदी के बने हुए श्वेत निर्मल कलश की स्थापना करे। उसमें आठ प्रकार के रत्न, ओषधि, धातु, बीज और लोह (सुवर्ण) छोड़ दे। उस सुन्दर कलश के कण्ठभाग में वस्त्र लपेटकर उसमें जल भर दे और मण्डल में उसका अधिवासन करे।। उसमें पल्लव डाल दे। तत्पश्चात् नृसिंह- मन्त्र से अग्नि में घी की धारा गिराते हुए होम करे । नारायणतत्त्व से प्राणन्यास करे ॥ ५-१० ॥

वैराजभूतान्तं ध्यायेत्प्रासादस्य सुरेश्वर ।

ततः पुरुषवत्सर्वं प्रासादं चिन्तयेद्बुधः ॥११॥

अधो दत्वा सुवर्णं तु तद्ववद्भूतं घटं न्यसेत् ।

गुर्वादौ दक्षिणां दद्याद्ब्राह्मणादेश्च भोजनं ॥१२॥

ततः पश्चाद्वेदिबन्धं तदूर्ध्वं कण्ठबन्धनं ।

कण्ठोपरिष्टात्कर्तव्यं विमलामलसारकं ॥१३॥

तदूर्ध्वं वृकलं कुर्याच्चक्रञ्चाद्यं सुदर्शनं ।

मूत्तिं श्रीवासुदेवस्य ग्रहगुप्तां निवेदयेत् ॥१४॥

कलशं वाथ कुर्वीत तदूर्ध्वं चक्रमुत्तमं ।

वेद्याश्च परितः स्थाप्या अष्टौ विघ्नेश्वरास्त्वज ॥१५॥

चत्वारो वा चतुर्दिक्षु स्थापनीया गरुत्मतः ।

ध्वजारोहं च वक्ष्यामि येन भूतादि नश्यति ॥१६॥

सुरेश्वर प्रासाद के उस कलश का वैराजरूप में चिन्तन करे। तत्पश्चात् विद्वान् पुरुष 'सम्पूर्ण प्रासाद का ही पुरुष की भाँति चिन्तन करे। तदनन्तर नीचे सुवर्ण देकर तत्त्वभूत कलश की स्थापना करे। गुरु आदि को दक्षिणा दे और ब्राह्मण आदि को भोजन करावे । तत्पश्चात् वेदी के चारों ओर सूत या माला लपेटे। उसके ऊपर कण्ठभाग में सब ओर सूत अथवा बन्दनवार बाँधे और उसके भी ऊपर 'विमलामलसार' नामक पुष्पहार या बन्दनवार मन्दिर के चारों ओर बाँधे। उसके ऊपर 'वृकल' तथा उसके भी ऊपर आदि सुदर्शनचक्र बनावे। वहीं भगवान् वासुदेव की ग्रहगुप्त मूर्ति निवेदित करे। अथवा पहले कलश और उसके ऊपर उत्तम सुदर्शनचक्र की योजना करे। ब्रह्मन् ! वेदी के चारों ओर आठ विघ्नेश्वरों की स्थापना करनी चाहिये। अथवा चार दिशाओं में चार ही विघ्नेश्वर स्थापित किये जाने चाहिये। अब गरुडध्वजारोपण की विधि बताता हूँ, जिसके होने से भूत आदि नष्ट हो जाते हैं ॥ ११-१६ ॥

प्रासादविम्बद्रव्याणां यावन्तः परमाणवः ।

तावद्वर्षसहस्राणि तत्कर्ता विष्णुलोकभाक् ॥१७॥

कुम्भाण्डवेदिविम्बानां भ्रमणाद्वायुनानघ ।

कण्ठस्यावेष्टनाज्ज्ञेयं फलं कोटिगुणं ध्वजात् ॥१८॥

पताकानां प्रकृतिं विद्धि दण्डं पुरुषरूपिणं ।

प्रासादं वासुदेवस्य मूर्तिभेदं निबोध मे ॥१९॥

धारणाद्धरणीं विद्धि आकाशं शुषिरात्मकं ।

तेजस्तत्पावकं विद्धि वायुं स्पर्शगतं तथा ॥२०॥

प्रासाद-बिम्ब के द्रव्यों में जितने परमाणु होते हैं, उतने सहस्र वर्षों तक मन्दिर निर्माता पुरुष विष्णुलोक में निवास करता है। निष्पाप ब्रह्माजी ! जब वायु से ध्वज फहराता है और कलश, वेदी तथा प्रासादबिम्ब के कण्ठ को आवेष्टित कर लेता है, तब प्रासादकर्ता को ध्वजारोपण की अपेक्षा भी कोटिगुना अधिक फल प्राप्त होता है, ऐसा समझना चाहिये। पताका को प्रकृति जानो और दण्ड को पुरुष । साथ ही मुझसे यह भी समझ लो कि प्रासाद (मन्दिर) भगवान् वासुदेव की मूर्ति है। मन्दिर भगवान्‌ को धारण करता है, यही उसमें धरणीतत्त्व है, ऐसा जानो मन्दिर के भीतर जो शून्य अवकाश है, वही उसमें आकाशतत्त्व है। उसमें जो तेज या प्रकाश है, वही अग्नितत्त्व है और उसके भीतर जो हवा का स्पर्श होता है, वही उसमें वायुतत्त्व है ॥ १७ - २० ॥

पाषाणादिष्वेव जलं पार्थिवं पृथिवीगुणं ।

प्रतिशब्दोद्भवं शब्दं स्पर्शं स्यात्कर्कशादिकं ॥२१॥

शुक्लादिकं भवेद्रूपं रसमन्नादिदर्शनं ।

धूपादिगन्धं गन्धन्तु वाग्भेर्यादिषु संस्थिता ॥२२॥

शुकनाशाश्रिता नासा बाहू तद्रथकौ स्मृतौ ।

शिरस्त्वण्डं निगदितं कलशं मूर्धजं स्मृतं ॥२३॥

कण्ठं कण्ठमिति ज्ञेयं स्कन्धं वेदी निगद्येते ।

पायूपस्थे प्रणाले तु त्वक्सुधा परिकीर्तिता ॥२४॥

मुखं द्वारं भवेदस्य प्रतिमा जीव उच्यते ।

तच्छक्तिं पिण्डिकां विद्धि प्रकृतिं च तदाकृतिं ॥२५॥

पाषाण आदि में ही जो जल है, वह पार्थिव जल है। उसमें पृथ्वी का गुण गन्ध विद्यमान है। प्रतिध्वनि से जो शब्द प्रकट होता है, वही वहाँ का शब्द है। छूने में कठोरता आदि का जो अनुभव होता है, वही वहाँ का स्पर्श है। शुक्ल आदि वर्ण रूप है। आह्लाद का अनुभव करानेवाला रस ही वहाँ रस है। धूप आदि की गन्ध ही वहाँ की गन्ध है। भेरी आदि में जो नाद प्रकट होता है, वही मानो वागिन्द्रिय का कार्य है। इसलिये वहीं वागिन्द्रिय की स्थिति है। शुकनासा में नासिका की स्थिति है। दो भद्रात्मक भुजाएँ कही गयी हैं। शिखर पर जो अण्ड-सा बना रहता है, वही मस्तक कहा गया है और कलश को केश बताया गया है। प्रासाद का कण्ठभाग ही उसका कण्ठ जानना चाहिये। वेदी को कंधा कहा गया है। दो नालियाँ गुदा और उपस्थ बतायी गयी हैं। मन्दिर पर जो चूना फेरा गया है, उसी को त्वचा नाम दिया गया है। द्वार उसका मुँह है और प्रतिमा को मन्दिर का जीवात्मा कहा गया है। पिण्डिका को जीव की शक्ति समझो और उसकी आकृति को प्रकृति ॥ २१ - २५ ॥

निश्चलत्वञ्च गर्भोस्या अधिष्ठाता तु केशवः ।

एवमेव हरिः साक्षात्प्रासादत्वेन संस्थितः ॥२६॥

जङ्घा त्वस्य शिवो ज्ञेयः स्कन्धे धाता व्यवस्थितः ।

ऊर्ध्वभागे स्थितो विष्णुरेवं तस्य स्थितस्य हि ॥२७॥

प्रासादस्य प्रतिष्ठान्तु ध्वजरूपेण मे शृणु ।

ध्वजं कृत्वा सुरैर्दैत्या जिताः शस्त्रादिचिह्नितं ॥२८॥

अण्डोर्ध्वं कलशं न्यस्य तदूर्ध्वं विन्यसेद्ध्वजं ।

विम्बार्धमानं दण्डस्य त्रिभागेनाथ कारयेत् ॥२९॥

अष्टारं द्वादशारं वा मध्ये मूर्तिमतान्वितं ।

नारसिंहेन तार्क्ष्येण ध्वजदण्डस्तु निर्ब्रणः ॥३०॥

प्रासादस्य तु विस्तारो मानं दण्डस्य कीर्तितं ।

शिखरार्धेन वा कुर्यात्तृतीयार्धेन वा पुनः ॥३१॥

द्वारस्य दैर्घ्याद्द्विगुणं दण्डं वा परिकल्पयेत् ।

ध्वजयष्टिर्देवगृहे ऐशान्यां वायवेथवा ॥३२॥

निश्चलता उसका गर्भ है और भगवान् केशव उसके अधिष्ठाता । इस प्रकार ये भगवान् विष्णु ही साक्षात् मन्दिररूप से खड़े हैं। भगवान् शिव उसकी जंघा हैं, ब्रह्मा स्कन्धभाग में स्थित हैं और ऊर्ध्वभाग में स्वयं विष्णु विराजमान हैं। इस प्रकार स्थित हुए प्रासाद की ध्वजरूप से जो प्रतिष्ठा की गयी है, उसको मुझसे सुनो। शस्त्रादि चिह्नित ध्वज का आरोपण करके देवताओं ने दैत्यों को जीता है। अण्ड के ऊपर कलश रखकर उसके ऊपर ध्वज की स्थापना करे। ध्वज का मान बिम्ब के मान का आधा भाग है। ध्वजदण्ड की लंबाई के एक तिहाई भाग से चक्र का निर्माण कराना चाहिये। वह चक्र आठ या बारह अरों का हो और उसके मध्यभाग में भगवान् नृसिंह अथवा गरुड की मूर्ति हो। ध्वज-दण्ड टूटा-फूटा या छेदवाला न हो। प्रासाद की जो चौड़ाई है, उसी को दण्ड की लंबाई का मान कहा गया है। अथवा शिखर के आधे या एक तिहाई भाग से उसकी लंबाई का अनुमान करना चाहिये। अथवा द्वार की लंबाई से दुगुना बड़ा दण्ड बनाना चाहिये। उस ध्वज-दण्ड को देवमन्दिर पर ईशान या वायव्यकोण की ओर स्थापित करना चाहिये ॥ २६-३२ ॥

क्षौमाद्यैश्च ध्वजं कुर्याद्विचित्रं वैकवर्णकं ।

घण्टाचामरकिङ्किण्या भूषितं पापनाशनं ॥३३॥

दण्डाग्राद्धरणीं यावद्धस्तैकं विस्तरेण तु ।

महाध्वजः सर्वदः स्यात्तुर्यांशाद्धीनतोर्चितः ॥३४॥

ध्वजे चार्धेन विज्ञेया पताका मानवर्जिता ।

विस्तरेण ध्वजः कार्यो विंशदङ्गुलसन्निभः ॥३५॥

अधिवासविधानेन चक्रं दण्डं ध्वजं तथा ।

देववत्सकलं कृत्वा मण्डपस्नपनादिकं ॥३६॥

नेत्रोन्मीलनकं त्यक्ता पूर्वोक्तं सर्वमाचरेत् ।

अधिवासयेच्च विधिना शय्यायां स्थाप्य देशिकः ॥३७॥

उसकी पताका रेशमी आदि वस्त्रों से विचित्र शोभायुक्त बनावे। अथवा उसे एक रंग की ही बनावे। यदि उसे घण्टा, चंवर अथवा छोटी-छोटी घंटियों से विभूषित करे तो वह पापों का नाश करनेवाली होती है। दण्ड के अग्रभाग से लेकर भूमि तक लंबा जो एक वस्त्र है, उसे 'महाध्वज' कहा गया है। वह सम्पूर्ण मनोरथों को देनेवाला है जो उससे एक चौथाई छोटा हो, वह ध्वज पूजित होने पर सर्वमनोरथों का पूरक होता है। ध्वज के आधे मानवाले वस्त्र से बने हुए झंडे को 'पताका' कहते हैं अथवा पताका का कोई माप नहीं होता। ध्वज का विस्तार बीस अङ्गुल के बराबर होना चाहिये। चक्र, दण्ड और ध्वज- इन सबका अधिवासन की विधि से देवता की ही भाँति सकलीकरण करके मण्डप स्नान (मण्डप में नहलाने की क्रिया) आदि सब कार्य करे। 'नेत्रोन्मीलन' को छोड़कर पूर्वोक्त सब कर्मों का अनुष्ठान करे। आचार्य को चाहिये कि वह इन सबको विधिवत् शय्या पर स्थापित करके इनका अधिवासन करे ॥ ३३-३७॥

ततः सहस्रशीर्षेति सूक्तं चक्रे न्यसेद्बुधः ।

तथा सुदर्शनं मन्त्रं मनस्तत्त्वं निवेशयेत् ॥३८॥

मनोरूपेण तस्यैव सजीवकरणं स्मृतं ।

अरेषु मूर्तयो न्यस्याः केशवाद्याः सुरोत्तम ॥३९॥

नाभ्यब्जप्रतिनेमीषु न्यसेत्तत्त्वानि देशिकः ।

नृसिंहं विश्वरूपं वा अब्जमध्ये निवेशयेत् ॥४०॥

सकलं विन्यसेद्दण्डे सूत्रात्मानं सजीवकं ।

निष्कलं परमात्मानं ध्वजे ध्यायन्न्यसेद्धरिं ॥४१॥

तच्छक्तिं व्यापिनीं ध्यायेद्ध्वजरूपां बलाबलां ।

मण्डपे स्थाप्य चाभ्यर्च्य होमं कुण्डेषु कारयेत् ॥४२॥

कलशे स्वर्णकलशं न्यस्य रत्नानि पञ्च च ।

स्थापयेच्चक्रमन्त्रेण स्वर्णचक्रमधस्ततः ॥४३॥

पारदेन तु सम्प्लाव्य नेत्रपट्टेन च्छादयेत् ।

ततो निवेशयेच्चक्रं तन्मध्ये नृहरिं स्मरेत् ॥४४॥

तदनन्तर विद्वान् पुरुष 'सहस्त्रशीर्ष०' (यजु० अ० ३१) इत्यादि सूक्त का ध्वजाङ्कित चक्र में न्यास करे तथा सुदर्शन-मन्त्र एवं 'मनस्तत्त्व 'का न्यास करे। यह 'मन' रूप से उस चक्र का ही 'सजीवीकरण' कहा गया है। सुरश्रेष्ठ! बारह अरों में क्रमशः केशव आदि मूर्तियों का न्यास करना चाहिये। गुरु चक्र की नाभि, कमल एवं प्रतिनेमियों में तत्त्वों का न्यास करे। कमल में नृसिंह अथवा विश्वरूप का निवेश करे। दण्ड में जीवसहित सम्पूर्ण सूत्रात्मा का न्यास करे। ध्वज में श्रीहरि का ध्यान करते हुए निष्कल परमात्मा का निवेश करे। उनकी बलाबलारूपा व्यापिनी शक्ति का ध्वज के रूप में ध्यान करे। मण्डप में उसकी स्थापना और पूजा करके कुण्डों में हवन करे। कलश में सोने का टुकड़ा और पञ्चरत्न डालकर अस्त्र-मन्त्र से चक्र की स्थापना करे। तदनन्तर स्वर्णचक्र को नीचे से पारे द्वारा 'सम्प्लावित करके नेत्रपट से आच्छादित करे। तदनन्तर चक्र का निवेश करे और उसके भीतर श्रीहरि का स्मरण करे ।। ३८-४४ ॥

ओं क्षों नृसिंहाय नमः पूजयेत्स्थापयेद्धरिं ।

ततो ध्वजं गृहीत्वा तु यजमानः सबान्धवः ॥४५॥

दधिभक्तयुते पात्रे ध्वजस्याग्रं निवेशयेत् ।

ध्रुवाद्येन फडन्तेन ध्वजं मन्त्रेण पूजयेत् ॥४६॥

शिरस्याधाय तत्पात्रं नारायनमनुस्मरन् ।

प्रदक्षिणं तु कुर्वीत तुर्यमङ्गलनिःस्वनैः ॥४७॥

ततो निवेशयेत्दण्डं मन्त्रेणाष्टाक्षरेण तु ।

मुञ्चामि त्वेति सूक्तेन ध्वजं मुञ्चेद्विचक्षणः ॥४८॥

पात्रं ध्वजं कुञ्जरादि दद्यादाचार्यके द्विजः ।

एष साधारणः प्रोक्तो ध्वजस्यारोहणे विधिः ॥४९॥

'ॐ क्षौं नृसिंहाय नमः । - इस मन्त्र से श्रीहरि की स्थापना और पूजा करे। तदनन्तर बन्धु बान्धवोंसहित यजमान और ध्वज लेकर दही-भात से युक्त पात्र में ध्वज का अग्रभाग डाले। आदि में (ॐ) अन्त में 'फट्' लगाकर ॐ फट्' इस मन्त्र से ध्वज का पूजन करे। तत्पश्चात् उस पात्र को सिर पर रखकर नारायण का बारंबार स्मरण करते हुए वाद्यों की ध्वनि और मङ्गलपाठ के साथ परिक्रमा करे। तदनन्तर अष्टाक्षर मन्त्र से ध्वजदण्ड की स्थापना करे । विद्वान् पुरुष 'मुञ्चामि त्वा' (ऋक्० १८ । १६१ । १) इस सूक्त के द्वारा ध्वज को फहरावे । द्विज को चाहिये कि वह आचार्य को पात्र, ध्वज और हाथी आदि दान करे। यह ध्वजारोपण की साधारण विधि बतायी गयी है ॥४५-४९॥

यस्य देवस्य यच्चिह्नं तन्मन्त्रेण स्थिरं चरेत् ।

स्वर्गत्वा ध्वजदानात्तु राजा बली भवेत् ॥५०॥

जिस देवता का जो चिह्न है, उससे युक्त ध्वज को उसी देवता के मन्त्र से स्थिरतापूर्वक स्थापित करे। मनुष्य ध्वज-दान के पुण्य से स्वर्गलोक में जाता है तथा वह पृथ्वी पर बलवान् राजा होता है ॥ ५० ॥

इत्यादिमहापुराणे आग्नेये ध्वजारोहणं नाम एकषष्टितमोऽध्यायः॥

इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें 'अवभृथस्नान, द्वारप्रतिष्ठा और ध्वजारोपण आदिकी विधिका वर्णन' नामक इकसठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ६१ ॥

आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 62 

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