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हरिः सोमो वरुण उत्तम ॥१॥
अग्नीषोममयं
विश्वं विष्णुरापस्तु कारणं ।
हैमं रौप्यं
रत्नजं वा वरुणं कारयेन्नरः ॥२॥
द्विभुजं
हंसपृष्ठस्थं दक्षिणेनाभयप्रदं ।
वामेन नागपाशं
तं नदीनागादिसंयुतं ॥३॥
यागमण्डपमध्ये
स्याद्वेदिका कुण्डमण्डिता ।
तोरणं वारुणं
कुम्भं न्यसेच्च करकान्वितं ॥४॥
भद्रके
चार्धचन्द्रे वा स्वस्तिके द्वारि कुम्भकान् ।
अग्न्याधानं
चाप्यकुण्डे कृत्वा पूर्णां प्रदापयेत् ॥५॥
श्रीभगवान्
कहते हैं - ब्रह्मन् ! अब मैं कूप, वापी और तड़ाग की प्रतिष्ठा की विधि का वर्णन करता हूँ,
उसे सुनो। भगवान् श्रीहरि ही जलरूप से देवश्रेष्ठ सोम और
वरुण हुए हैं। सम्पूर्ण विश्व अग्नीषोममय है। जलरूप नारायण उसके कारण हैं। मनुष्य
वरुण की स्वर्ण, रौप्य या रत्नमयी प्रतिमा का निर्माण करावे। वरुणदेव द्विभुज,
हंसारूढ और नदी एवं नालों से युक्त हैं। उनके दक्षिण- हस्त में
अभयमुद्रा और वाम हस्त में नागपाश सुशोभित होता है। यज्ञमण्डप के मध्यभाग में
कुण्ड से सुशोभित वेदिका होनी चाहिये तथा उसके तोरण (पूर्व-द्वार)- पर कमण्डलुसहित
वरुण-कलश की स्थापना करनी चाहिये। इसी तरह भद्रक (दक्षिण- द्वार),
अर्द्धचन्द्र (पश्चिम द्वार) तथा स्वस्तिक ( उत्तर-द्वार)
पर भी वरुण कलशों की स्थापना आवश्यक है। कुण्ड में अग्नि का आधान करके पूर्णाहुति
प्रदान करे ॥ १-५ ॥
वरुणं
स्नानपीठे तु ये ते शतेति संस्पृशेत् ।
घृतेनाभ्यञ्जयेत्पश्चान्मूलमन्त्रेण
देशिकः ॥६॥
शन्नो देवीति
प्रक्षाल्य शुद्धवत्या शिवोदकैः ।
अधिवासयेदष्टकुम्भान्
सामुद्रं पूर्वकुम्भके ॥७॥
कूप-वापी प्रतिष्ठा
गाङ्गमग्नौ
वर्षतोयं दक्षे रक्षस्तु नैर्झरं ।
नदीतोयं
पश्चिमे तु वायव्ये तु नदोदकं ॥८॥
औद्भिज्जं
चोत्तरे स्थाप्य ऐशान्यां तीर्थसम्भवं ।
अलाभे तु
नदीतोयं यासां राजेति मन्त्रयेत् ॥९॥
देवं
निर्मार्ज्य निर्मञ्छ्य दुर्मित्रियेति विचक्षणः ।
नेत्रे
चोन्मीलयेच्चित्रं तच्चक्षुर्मधुरत्रयैः ॥१०॥
ज्योतिः
सम्पूरयेद्धैम्यां गुरवे गामथार्पयेत् ।
'ये ते शतं वरुण०'
आदि मन्त्र से स्नानपीठ पर वरुण की स्थापना करे। तत्पश्चात्
आचार्य मूल- मन्त्र का उच्चारण करके, वरुण देवता की प्रतिमा को वहीं पधराकर,
उसमें घृत का अभ्यङ्ग करे। फिर 'शं नो देवी०'
(अथर्व ० १ । ६ । १;
शु० यजु० ३६ । १२) इत्यादि मन्त्र से उसका प्रक्षालन करके 'शुद्धबाल: ० सर्वशुद्धवालो०'
(शु० यजु० २४ । ३) आदि से
पवित्र जल द्वारा उसे स्नान करावे । तदनन्तर स्नानपीठ की पूर्वादि दिशाओं में आठ
कलशों का अधिवासन (स्थापन) करे। इनमें से पूर्ववर्ती कलश में समुद्र के जल,
आग्नेयकोणवर्ती कुम्भ में गङ्गाजल,
दक्षिण के कलश में वर्षा के जल,
नैर्ऋत्यकोणवाले कुम्भ में झरने के जल,
पश्चिमवाले कलश में नदी के जल,
वायव्यकोण में नद के जल, उत्तर- कुम्भ में औद्भिज (सोते) के जल एवं ईशानवर्ती कलश में
तीर्थ के जल को भरे। उपर्युक्त विविध जल न मिलने पर सब कलशों में नदी के ही जल को
डाले। उक्त सभी कलशों को 'यासां राजा०'
(अथर्व० १।३३।२) आदि मन्त्र
से अभिमन्त्रित करे। विद्वान् पुरोहित वरुणदेव का 'सुमित्रिया०'
(शु० यजु० ३५ । १२) आदि
मन्त्र से मार्जन और निर्मञ्छन करके, 'चित्रं देवानां०'
( शु० यजु० १३ । ४६) तथा 'तच्चक्षुर्देवहितं०' (
शु० यजु० ३६ । २४ ) - इन मन्त्रों से मधुरत्रय (शहद,
घी और चीनी) द्वारा वरुणदेव के नेत्रों का उन्मीलन करे। फिर
वरुण की उस सुवर्णमयी प्रतिमा में ज्योति का पूजन करे एवं आचार्य को गोदान दे ॥
६-१०/३ ॥
समुद्रज्येष्ठेत्यभिषिञ्चयेद्वरुणं
पूर्वकुम्भतः ॥११॥
समुद्रं गच्छ गाङ्गेयात्सोमो
धेन्विति वर्षकात् ।
देवीरापो
निर्झराद्भिर्नदाद्भिः पञ्चनद्यतः ॥१२॥
उद्भिदद्भ्यश्चोद्भिदेन
पावमान्याथ तीर्थकैः ।
आपो हि ष्ठा
पञ्चगव्याद्धिरण्यवर्णेति स्वर्णजात् ॥१३॥
आपो अस्मेति
वर्षोत्थैर्व्याहृत्या कूपसम्भवैः ।
वरुणञ्च
तडागोत्थैर्वरुणाद्भिस्तु वश्यतः ॥१४॥
आपो देवीति
गिरिजैरेकाशीति घटैस्ततः ।
स्नापयेद्वरुणस्येति
त्वन्नो वरुण
चार्घ्यकं ॥६४.०१५॥
व्याहृत्या
मधुपर्कन्तु बृहस्पतेति वस्त्रकं ।
वरुणेति
पवित्रन्तु प्रणवेनोत्तरीयकं ॥१६॥
तदनन्तर 'समुद्रज्येष्ठाः ०'
(ऋ० ७।४९ । १) आदि मन्त्र के
द्वारा वरुणदेवता का पूर्व-कलश के जल से अभिषेक करे। 'समुद्रं गच्छ०'
(यजु० ६ । २१ ) इत्यादि
मन्त्र के द्वारा अग्निकोणवर्ती कलश के गङ्गाजल से, 'सोमो धेनुं०'
(शु० यजु० ३४ । २१ )
इत्यादि मन्त्र के द्वारा दक्षिण- कलश के वर्षा जल से,
'देवीरापो०'
(शु० यजु० ६ २७ ) इत्यादि मन्त्र के द्वारा नैर्ऋत्यकोणवर्ती
कलश के निर्झर – जल से, 'पञ्च नद्यः०'
(शु० यजु० ३४ । ११ )
आदि मन्त्र के द्वारा पश्चिम कलश के नदी जल से,
'उद्भिद्भ्यः ०'
इत्यादि मन्त्र के द्वारा उत्तरवर्ती कलश के उद्भिज्ज जल से
और पावमानी ऋचा के द्वारा ईशानकोणवाले कलश के तीर्थ जल से वरुण का अभिषेक
करे। फिर यजमान मौन रहकर 'आपो हि ष्ठा०'
(शु० यजु० ११।५० ) मन्त्र के
द्वारा पञ्चगव्य से, 'हिरण्यवर्णां०' (श्रीसूक्त) के द्वारा स्वर्ण जल से,
'आपो अस्मान्०'
(शु० यजु० ४। २ ) मन्त्र के
द्वारा वर्षाजल से, व्याहृतियों का उच्चारण करके कूप- जल से तथा 'आपो देवी : ०'
(शु० यजु० १२ । ३५) मन्त्र के
द्वारा तड़ाग जल एवं तोरणवर्ती वरुण कलश के जल से वरुणदेव को स्नान करावे । 'वरुणस्योत्तम्भनमसि ०'
(शु० यजु० ४ । ३६) मन्त्र के
द्वारा पर्वतीय जल (अर्थात् झरने के पानी) - से भरे हुए इक्यासी कलशों द्वारा उसको
स्नान करावे। फिर 'त्वं नो अग्ने वरुणस्य०'
(शु० यजु० २१ । ३) इत्यादि
मन्त्र से अर्घ्य प्रदान करे। व्याहृतियों का उच्चारण करके मधुपर्क,
'बृहस्पते अति
यदय०' (शु० यजु० २६ । ३) मन्त्र से वस्त्र,
'इमं मे वरुणः०'
(शु० यजु० २१ । १ ) इस
मन्त्र से पवित्रक और प्रणव से उत्तरीय समर्पित करे ।। ११-१६ ॥
यद्वारण्येन
पुष्पादि प्रदद्याद्वरुणाय तु ।
चामरं दर्पणं
छत्रं व्यजनं वैजयन्तिकां ॥१७॥
मूलेनोत्तिष्ठेत्युत्थाप्य
तां रात्रिमधिवासयेत् ।
वरुणञ्चेति
सान्निध्यं यद्वारण्येन पूजयेत् ॥१८॥
सजीवीकरणं
मूलात्पुनर्गन्धादिना यजेत् ।
मण्डपे
पूर्ववत्प्रार्च्य कुण्डेषु समिदादिकं ॥१९॥
वेदादिमन्त्रैर्गन्धाद्याश्चतस्रो
धेनवो दुहेत् ।
दिक्ष्वथो वै
यवचरुं ततः संस्थाप्य होमयेत् ॥२०॥
व्याहृत्या
वाथ गायत्र्या मूलेनामन्त्रयेत्तथा ।
सूर्याय
प्रजापतये द्यौः स्वाहा चान्तरिक्षकः ॥२१॥
तस्यै पृथिव्यै
देहधृत्यै इह स्वधृतये ततः ।
इह रत्यै चेह
रमत्या उग्रो भीमश्च रौद्रकः ॥२२॥
विष्णुश्च
वरुणो धाता रायस्पोषो महेन्द्रकः ।
अग्निर्यमो
नैर्ऋतोऽथ वरुणो वायुरेव च ॥२३॥
कुबेर
ईशोऽनन्तोऽथ ब्रह्मा राजा जलेश्वरः ।
तस्मै
स्वाहेदं विष्णुश्च तद्विप्रासेति होमयेत् ॥२४॥
सोमो धेन्विति
षड् हुत्वा इमं मेति च होमयेत् ।
आपो हि ष्ठेति
तिसृभिरिमा रुद्रेति होमयेत् ॥२५॥
वारुणसूक्त से वरुणदेवता को पुष्प, चँवर, दर्पण, छत्र और पताका निवेदन करे। मूल मन्त्र से 'उत्तिष्ठ' ऐसा कहकर उत्थापन करे। उस रात्रि को अधिवासन करे । 'वरुणं वा०'
इस मन्त्र से संनिधीकरण करके वरुण सूत से उनका पूजन करे।
फिर मूल मन्त्र से सजीवीकरण करके चन्दन आदि द्वारा पूजन करे। मण्डल में पूर्ववत्
अर्चना कर ले। अग्निकुण्ड में समिधाओं का हवन करे। वैदिक मन्त्रों से गङ्गा आदि
चारों गौओं का दोहन करे। तदनन्तर सम्पूर्ण दिशाओं में यव निर्मित चरु की स्थापना
करके होम करे। चरु को व्याहृति, गायत्री या मूल मन्त्र से अभिमन्त्रित करके,
सूर्य, प्रजापति, दिव्, अन्तक-निग्रह, पृथ्वी, देहधृति, स्वधृति, रति, रमती, उग्र, भीम, रौद्र, विष्णु, वरुण, धाता, रायस्पोष, महेन्द्र, अग्नि, यम, निर्ऋति, वरुण, वायु, कुबेर, ईश, अनन्त, ब्रह्मा, राजा जलेश्वर (वरुण) - इन नामों का चतुर्थ्यन्तरूप बोलकर,
अन्त में स्वाहा लगाकर बलि समर्पित करे। 'इदं विष्णुः०' ( शु० यजु०५।१५) और 'तद् विप्रासो०'
( शु० यजु० ३४ । ४४ ) - इन
मन्त्रों से आहुति दे । 'सोमो धेनुम्०'
(शु० यजु० ३४ । २१) मन्त्र से
छः आहुतियाँ देकर 'इमं मे वरुणः०'
(शु० यजु० (२१ । १) मन्त्र से
एक आहुति दे। 'आपो हि ष्ठा०'
(शुक्ल यजु० ११।५० -५२) आदि
तीन ऋचाओं से तथा 'इमा रुद्र०'
इत्यादि मन्त्र से भी आहुतियाँ दे ॥ १७ –
२५ ॥
दश दिक्षु
बलिं दद्यात्गन्धपुष्पादिनार्चयेत् ।
प्रतिमां तु
समुत्थाप्य मण्डले विन्यसेद्बुधः ॥२६॥
पूजयेद्गन्धपुष्पाद्यैर्हेमपुष्पादिभिः
क्रमात् ।
जलाशयांस्तु
दिग्भागे वितस्तिद्वयसम्मितान् ॥२७॥
कृत्वाष्टौ
स्थण्डिलान् रम्यान् सैकतान् देशिकोत्तमः ।
वरुणस्येति
मन्त्रेण साज्यमष्टशतं ततः ॥२८॥
चरुं यवमयं
हुत्वा शान्तितोयं समाचरेत् ।
सेचयेन्मूर्ध्नि
देवं तु सजीवकरणं चरेत् ॥२९॥
ध्यायेत्तु
वरुणं युक्तं गौर्या नदनदीगणैः ।
ओं वरुणाय
नमोऽभ्यर्च्य ततः सान्निध्यमाचरेत् ॥३०॥
उत्थाप्य
नागपृष्ठाद्यैर्भ्रामयेत्तैः समङ्गलैः ।
आपो हि ष्ठेति
च क्षिपेत्त्रिमध्वाक्ते घटे जले ॥३१॥
फिर दसों
दिशाओं में बलि समर्पित करे और गन्ध-पुष्प आदि से पूजन करे। तत्पश्चात् विद्वान्
पुरुष प्रतिमा को उठाकर मण्डल में स्थापित करे
तथा गन्ध-पुष्प आदि एवं स्वर्ण-पुष्प आदि के द्वारा क्रमशः
उसका पूजन करे। तदनन्तर श्रेष्ठ आचार्य आठों दिशाओं में दो बित्ते प्रमाण के जलाशय
और आठ बालुकामयी सुरम्य वेदियों का निर्माण करे। 'वरुणस्य०' (यजु० ४ । ३६) इस मन्त्र से घृत एवं यवनिर्मित चरु की
पृथक्-पृथक् एक सौ आठ आहुतियाँ देकर शान्ति जल ले आवे और उस जल से वरुणदेव के सिर पर
अभिषेक करके सजीवीकरण करे। वरुणदेव अपनी धर्मपत्नी गौरीदेवी के साथ विराजमान नदी
नदों से घिरे हुए हैं- इस प्रकार उनका ध्यान करे। 'ॐ वरुणाय नमः।'
मन्त्र से पूजन करके सांनिध्यकरण करे। तत्पश्चात् वरुणदेव को
उठाकर गजराज के पृष्ठदेश आदि सवारियों पर मङ्गल द्रव्योंसहित स्थापित करके नगर में
भ्रमण करावे। इसके बाद उस वरुणमूर्ति को 'आपो हि ष्ठा०'
आदि मन्त्र का उच्चारण करके त्रिमधुयुक्त कलश जल में रखे और
कलशसहित वरुण को जलाशय के मध्यभाग में सुरक्षितरूप से स्थापित कर दे ॥ २६-३१ ॥
जलाशये
मध्यगतं सुगुप्तं विनिवेशयेत् ।
स्नात्वा
ध्यायेच्च वरुणं सृष्टिं ब्रह्माण्डसञ्ज्ञिकां ॥३२॥
अग्निबीजेन
सन्दग्द्ध्य तद्भस्म प्लावयेद्धरां ।
सर्वमापोमयं
लोकं ध्यायेत्तत्र जलेश्वरं ॥३३॥
तोयमध्यस्थितं
देवं ततो यूपं निवेशयेत् ।
चतुरस्रमथाष्टास्रं
वर्तुलं वा प्रवर्तितं ॥३४॥
आराध्य
देवतालिङ्गं दशहस्तं तु कूपके ।
यूपं
यज्ञीयवृक्षोत्थं मूले हैमं फलं न्यसेत् ॥३५॥
वाप्यां
पञ्चदशकरं पुष्करिण्यां तु विंशकम् ।
तडागे
पञ्चविंशाख्यं जलमध्ये निवेशयेत् ॥३६॥
यागमण्डपाङ्गेण
वा यूपव्रस्केति मन्त्रतः ।
स्थाप्य
तद्वेष्टयेद्वस्त्रैर्यूपोपरि पताकिकां ॥३७॥
तदभ्यर्च्य च
गन्धाद्यैर्जगच्छान्तिं समाचरेत् ।
दक्षिणां
गुरवे दद्याद्भूगोहेमाम्बुपात्रकं ॥३८॥
द्विजेभ्यो
दक्षिणा देया आगतान् भोजयेत्तथा ।
आब्रह्मस्तम्बपर्यन्ता
ये केचित्सलिलार्थिनः ॥३९॥
ते
तृप्तिमुपगच्छन्तु तडागस्थेन वारिणा ।
तोयमुत्सर्जयेदेवं
पञ्चगव्यं विनिक्षिपेत् ॥४०॥
इसके बाद यजमान
स्नान करके वरुण का ध्यान करे। फिर ब्रह्माण्ड-संज्ञिका सृष्टि को अग्निबीज (रं)
से दग्ध करके उसकी भस्मराशि को जल से प्लावित करने की भावना करे। समस्त लोक जलमय
हो गया है'-ऐसी भावना करके उस जल में जलेश्वर वरुण का ध्यान करे। इस प्रकार जल के मध्यभाग
में वरुणदेवता का चिन्तन करके वहाँ यूप की स्थापना करे। यूप चतुष्कोण,
अष्टकोण या गोलाकार हो तो उत्तम माना गया है। उसकी लंबाई दस
हाथ की होनी चाहिये। उसमें उपास्यदेवता का परिचायक चिह्न हो। उसका निर्माण किसी
यज्ञ- सम्बन्धी वृक्ष के काष्ठ से हुआ हो। ऐसा ही यूप कूप के लिये उपयोगी होता है।
उसके मूलभाग में हेममय फल का न्यास करे। वापी में पंद्रह हाथ का,
पुष्करिणी में बीस हाथ का और पोखरे में पचीस हाथ का
यूपकाष्ठ जल के भीतर निवेशित करे। यज्ञमण्डप के प्राङ्गण में 'यूप ब्रह्म०'
आदि मन्त्र से यूप की स्थापना करके उसको वस्त्रों से
आवेष्टित करे तथा यूप के ऊपर पताका लगावे। उसका गन्ध आदि से पूजन करके जगत्के लिये
शान्तिकर्म करे। आचार्य को भूमि, गौ, सुवर्ण तथा जलपात्र आदि दक्षिणा में दे। अन्य ब्राह्मणों को
भी दक्षिणा दे और समागत जनों को भोजन कराये।
आब्रह्मस्तम्बपर्यन्तं
ये केचित्सलिलार्थिनः । ते तृप्तिमुपगच्छन्तु तडागस्थेन वारिणा ॥ 'ब्रह्मा से लेकर तृण पर्यन्त जो भी जलपिपासु हैं,
वे इस तडाग में स्थित जल के द्वारा तृप्ति को प्राप्त हों।'
ऐसा कहकर जल का उत्सर्ग करे और जलाशय में पञ्चगव्य डाले ॥
३२-४० ॥
आपो हि ष्ठेति
तिसृभिः शान्तितोयं द्विजैः कृतं ।
तीर्थतोयं
क्षिपेत्पुण्यं गोकुलञ्चार्पयेद्द्विजान् ॥४१॥
अनिवारितमन्नाद्यं
सर्वजन्यञ्च कारयेत् ।
अश्वमेधसहस्राणां
सहस्रं यः समाचरेत् ॥४२॥
एकाहं
स्थापयेत्तोयं तत्पुण्यमयुतायुतं ।
विमाने मोदते
स्वर्गे नरकं न स गच्छति ॥४३॥
तदनन्तर 'आपोहिष्ठा०' इत्यादि तीन ऋचाओं से ब्राह्मणों द्वारा सम्पादित शान्ति जल
तथा पवित्र तीर्थ- जल का निक्षेप करे एवं ब्राह्मणों को गोवंश का दान करे।
सर्वसाधारण के लिये बेरोक-टोक अन्न वितरण का प्रबन्ध करावे जो मनुष्य एक लाख
अश्वमेध यज्ञों का अनुष्ठान करता है तथा जो एक बार भी जलाशय की प्रतिष्ठा करता है,
उसका पुण्य उन यज्ञों की अपेक्षा हजारों गुना अधिक है। वह
स्वर्गलोक को प्राप्त होकर विमान में प्रमुदित होता है और नरक को कभी नहीं प्राप्त
होता है ॥ ४१-४३ ॥
गवादि पिबते
यस्मात्तस्मात्कर्तुर्न पातकं ।
तोयदानात्सर्वदानफलं
प्राप्य दिवं यजेत् ॥४४॥
जलाशय से गौ
आदि पशु जल पीते हैं, इससे कर्ता पापमुक्त हो जाता है,
मनुष्य जलदान से सम्पूर्ण दानों का फल प्राप्त करके
स्वर्गलोक को जाता है ॥ ४४ ॥
इत्यादिमहापुराणे
आग्नेये कूपवापीतडागादिप्रतिष्ठाकथनं नाम चतुःषष्टितमोऽध्यायः ॥
इस प्रकार आदि
आग्नेय महापुराण में 'कुआँ, बावड़ी तथा पोखरे आदि की प्रतिष्ठा का वर्णन'
नामक चौंसठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ६४ ॥
आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 65
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