सत्यनारायण व्रत - सत्य नारायण व्रत कथा
यह सत्यनारायण व्रत व सत्य नारायणव्रत कथा स्कन्दपुराण के रेवाखण्ड में वर्णित है। इसके मूल पाठ में पाठान्तर से
लगभग 170 श्लोक संस्कृत भाषा में उपलब्ध है जो पाँच अध्यायों में बँटे हुए हैं। इसका
प्रथम अध्याय व्रत कथा में प्रस्तावना(Introduction)है,पुनः अध्याय द्वितीय से चतुर्थ तक में चारों
वर्णो कि कथा का समावेश है और अन्तिम पंचम अध्याय में प्रसाद की महात्म्य को कहा
गया है। पाठकों के लाभार्थ यहाँ श्रीसत्यनारायण की आरती भी दिया जा रहा है।
श्रीसत्यनारायण व्रत कथा सम्पूर्ण
SatyaNarayan vrat katha
सत्यनारायण व्रत कथा संस्कृत श्लोक भावार्थ सहित
सत्यनारायण व्रत कथा करवाने का
संकल्प किए हुए व्रती को प्रातःउठकर नित्यक्रिया से निवृत्य होकर दिनभर व्रत
(उपवास)करे। संध्याबेला (शाम)को पुजा करने वाली स्थल को गोबर से लीप कर धान्य या
आटा(रंगोली)से सुंदर चौंक बनावे,उस पर पाटा रख
दें । गौरी-गणेश ,नवग्रह ,कलश की
स्थापना,पूजन करें।
फिर इन्द्रादि दशदिक्पाल, पंच लोकपाल,लक्ष्मी-नारायण,
महादेव-पार्वती और ब्रह्मा-सरस्वतीजी की पूजा करें।तत्पश्चात् पाटा
पर सत्यनारायण भगवान या ठाकुरजी या शालिग्राम रखें पाटा के चारों कोर पर केलापत्ता
लगा देवें। पूजन की समस्त सामाग्री,आटे या सूजी से बना
प्रसाद या पंजरी इकट्ठा कर आचार्य (ब्राह्मण) को बुलवाकर सत्यनारायण भगवान का पूजन करें व व्रत कथा का श्रवण करें, आरती करें और चरणामृत लेकर प्रसाद वितरण करें। आचार्य को दक्षिणा एवं
वस्त्र दे व भोजन कराएं। आचार्य के भोजन के पश्चात् उनसे आशीर्वाद लेकर आप स्वयं
समस्त कुटुम्बसहित भोजन करें।
सत्यनारायण व्रत कथा प्रथमोऽध्यायः
-
अथ कथा प्रारम्भः ।
श्रीसत्यनारायणव्रत की महिमा तथा
व्रत की विधि
अथ प्रथमोऽध्यायः ।
श्रीव्यास उवाच ।
एकदा नैमिषारण्ये ऋषयः शौनकादयः ।
पप्रच्छुर्मुनयः सर्वे सूतं
पौराणिकं खलु ॥ १॥
श्री व्यासजी ने कहा- एक समय
नैमिषारण्य तीर्थ में शौनक आदि हजारों ऋषि-मुनियों ने पुराणों के महाज्ञानी श्री
सूतजी से पूछा-
ऋषय ऊचुः ।
व्रतेन तपसा किं वा प्राप्यते
वाञ्छितं फलम् ।
तत्सर्वं श्रोतुमिच्छामः कथयस्व
महामुने ॥ २॥
ऋषियोंने कहा- कि वह व्रत-तप कौन सा
है,
जिसके करने से मनवांछित फल प्राप्त होता है। हम सभी वह सुनना चाहते
हैं। कृपा कर सुनाएँ।
सूत उवाच ।
नारदेनैव सम्पृष्टो भगवान् कमलापतिः
।
सुरर्षये यथैवाह तच्छृणुध्वं
समाहिताः ॥ ३॥
एकदा नारदो योगी परानुग्रहकाङ्क्षया
।
पर्यटन् विविधान् लोकान्
मर्त्यलोकमुपागतः ॥ ४॥
ततोदृष्ट्वा जनान्सर्वान्
नानाक्लेशसमन्वितान् ।
नानायोनिसमुत्पन्नान् क्लिश्यमानान्
स्वकर्मभिः ॥ ५॥
केनोपायेन चैतेषां दुःखनाशो भवेद्
ध्रुवम् ।
इति सञ्चिन्त्य मनसा विष्णुलोकं
गतस्तदा ॥ ६॥
श्री सूतजी बोले- ऐसा ही प्रश्न
नारद ने किया था। जो कुछ भगवान कमलापति ने कहा था, आप सब उसे सुनिए। परोपकार की भावना लेकर योगी नारद कई लोकों की यात्रा
करते-करते मृत्यु लोक में आ गए। वहाँ उन्होंने देखा कि लोग भारी कष्ट भोग रहे हैं।
पिछले कर्मों के प्रभाव से अनेक योनियों में उत्पन्न हो रहे हैं। दुःखीजनों को देख
नारद सोचने लगे कि इन प्राणियों का दुःख किस प्रकार दूर किया जाए। मन में यही
भावना रखकर नारदजी विष्णु लोक पहुँचे।
तत्र नारायणं देवं शुक्लवर्णं
चतुर्भुजम् ।
शङ्ख-चक्र-गदा-पद्म-वनमाला-विभूषितम्
॥ ७॥
वहाँ नारदजी ने चार भुजाधारी सत्यनारायण के दर्शन किए, जिन्होंने शंख, चक्र, गदा, पद्म अपनी भुजाओं में ले रखा था और उनके गले में वनमाला पड़ी थी।
दृष्ट्वा तं देवदेवेशं स्तोतुं
समुपचक्रमे ।
भगवान् नारायण का दर्शन कर उन
देवाधिदेव की वे स्तुति करने लगे।
नारद उवाच ।
नमो वाङ्गमनसातीतरूपायानन्तशक्तये ।
आदिमध्यान्तहीनाय निर्गुणाय
गुणात्मने ॥ ८॥
सर्वेषामादिभूताय भक्तानामार्तिनाशिने
।
नारदजी ने कहा कि- मन-वाणी से परे,
अनंत शक्तिधारी, आपको प्रणाम है। आदि, मध्य और अंत से मुक्त सर्वआत्मा के आदिकारण श्री हरि आपको प्रणाम।
श्रुत्वा स्तोत्रं ततो
विष्णुर्नारदं प्रत्यभाषत् ॥ ९॥
नारदजी की स्तुति सुन विष्णु भगवान
ने पूछा-
श्रीभगवानुवाच ।
किमर्थमागतोऽसि त्वं किं ते मनसि
वर्तते ।
कथयस्व महाभाग तत्सर्वं कथायामि ते
॥ १०॥
आपके मनमें क्या है,
कहिये, वह सब कुछ मैं सुनना चाहते हैं श्रीभगवान्
ने कहा –हे नारद! आप किस प्रयोजन से यहाँ आये हैं, और तुम्हारे मन में क्या है? वह सब मुझे बताइए।
भगवान की यह वाणी सुन
नारद उवाच ।
मर्त्यलोके जनाः सर्वे
नानाक्लेशसमन्विताः ।
ननायोनिसमुत्पन्नाः पच्यन्ते
पापकर्मभिः ॥ ११॥
तत्कथं शमयेन्नाथ लघूपायेन तद्वद ।
श्रोतुमिच्छामि तत्सर्वं कृपास्ति
यदि ते मयि ॥ १२॥
नारदजी ने कहा- मर्त्य लोक के सभी
प्राणी पूर्व पापों के कारण विभिन्न योनियों में उत्पन्न होकर अनेक प्रकार के कष्ट
भोग रहे हैं। यदि आप मुझ पर कृपालु हैं तो इन प्राणियों के कष्ट दूर करने का कोई
उपाय बताएँ। मैं वह सुनना चाहता हूँ।
श्रीभगवानुवाच ।
साधु पृष्टं त्वया वत्स
लोकानुग्रहकाङ्क्षया ।
यत्कृत्वा मुच्यते मोहत् तच्छृणुष्व
वदामि ते ॥ १३॥
व्रतमस्ति महत्पुण्यं स्वर्गे
मर्त्ये च दुर्लभम् ।
तव स्नेहान्मया वत्स प्रकाशः
क्रियतेऽधुना ॥ १४॥
सत्यनारायणस्यैवं व्रतं
सम्यग्विधानतः ।
कृत्वा सद्यः सुखं भुक्त्वा परत्र
मोक्षमाप्नुयात् ।
श्री भगवान बोले- हे नारद! तुम साधु
हो। तुमने जन-जन के कल्याण के लिए अच्छा प्रश्न किया है। जिस व्रत के करने से
व्यक्ति मोह से छूट जाता है, वह मैं
तुम्हें बताता हूँ। यह व्रत स्वर्ग और मृत्यु लोक दोनों में दुर्लभ है। तुम्हारे
स्नेहवश में इस व्रत का विवरण देता हूँ। सत्यनारायण का व्रत विधिपूर्वक करने से
तत्काल सुख मिलता है और अंततः मोक्ष का अधिकार मिलता है।
तच्छ्रुत्वा भगवद्वाक्यं नारदो
मुनिरब्रवीत् ॥ १५॥
श्री भगवान के वचन सुन नारद ने कहा
।
नारद उवाच ।
किं फलं किं विधानं च कृतं केनैव
तद् व्रतम् ।
तत्सर्वं विस्तराद् ब्रूहि कदा
कार्यं व्रतं प्रभो ॥ १६॥
नारद बोले कि- प्रभु इस व्रत का फल
क्या है?
इसे कब और कैसे धारण किया जाए और इसे किस-किस ने किया है।
श्रीभगवानुवाच ।
दुःखशोकादिशमनं धनधान्यप्रवर्धनम् ॥
१७॥
सौभाग्यसन्ततिकरं सर्वत्र
विजयप्रदम् ।
यस्मिन् कस्मिन् दिने मर्त्यो
भक्तिश्रद्धासमन्वितः ॥ १८॥
श्री भगवान ने कहा दुःख-शोक दूर
करने वाला, धन बढ़ाने वाला। सौभाग्य और
संतान का दाता, सर्वत्र विजय दिलाने वाला श्री सत्यनारायण
व्रत मनुष्य किसी भी दिन श्रद्धा भक्ति के साथ कर सकता है।
सत्यनारायणं देवं यजेच्चैव निशामुखे
।
ब्राह्मणैर्बान्धवैश्चैव सहितो
धर्मतत्परः ॥ १९॥
नैवेद्यं भक्तितो दद्यात् सपादं
भक्ष्यमुत्तमम् ।
रम्भाफलं घृतं क्षीरं गोधूमस्य च
चूर्णकम् ॥ २०॥
अभावे शालिचूर्णं वा शर्करा वा
गुडस्तथा ।
सपादं सर्वभक्ष्याणि चैकीकृत्य
निवेदयेत् ॥ २१॥
विप्राय दक्षिणां दद्यात् कथां
श्रुत्वा जनैः सह ।
ततश्च बन्धुभिः सार्धं विप्रांश्च
प्रतिभोजयेत् ॥ २२॥
सायंकाल धर्मरत हो ब्राह्मण के
सहयोग से और बंधु बांधव सहित श्री सत्यनारायण का पूजन करें। भक्तिपूर्वक खाने
योग्य उत्तम प्रसाद (सवाया) लें। यह प्रसाद केले, घी, दूध, गेहूँ के आटे से बना
हो। यदि गेहूँ का आटा न हो, तो चावल का आटा और शक्कर के
स्थान पर गुड़ मिला दें। सब मिलाकर सवाया बना नैवेद्य अर्पित करें। इसके बाद कथा
सुनें, प्रसाद लें, ब्राह्मणों को
दक्षिणा दें और इसके पश्चात बंधु-बांधवों सहित ब्राह्मणों को भोजन कराएँ।
प्रसादं भक्षयेद् भक्त्या
नृत्यगीतादिकं चरेत् ।
ततश्च स्वगृहं गच्छेत् सत्यनारायणं
स्मरन् ॥ २३॥
एवं कृते मनुष्याणां
वाञ्छासिद्धिर्भवेद् ध्रुवम् ।
विशेषतः कलियुगे लघूपायोऽस्ति भूतले
॥ २४॥
प्रसाद पा लेने के बाद कीर्तन आदि
करें और फिर भगवान सत्यनारायण का स्मरण करते हुए स्वजन अपने-अपने घर जाएँ। ऐसे
व्रत-पूजन करने वाले की मनोकामना अवश्य पूरी होगी। कलियुग में विशेष रूप से यह
छोटा-सा उपाय इस पृथ्वी पर सुलभ है।
॥ इति श्रीस्कन्दपुराणे रेवाखण्डे
श्रीसत्यनारायण व्रतकथायां प्रथमोऽध्यायः ॥ १॥
इस प्रकार श्रोस्कन्दपुराणके
अन्तर्गत रेवाखण्डमें श्रीसत्यनारायणब्रतकथाका यह पहला अध्याय पूरा हुआ ॥१॥
श्रीसत्यनारायणव्रतकथा
द्वितीयोऽध्याय: –
निर्धन ब्राह्मण तथा काष्ठक्रेता की
कथा
अथ द्वितीयोऽध्यायः ।
सूत उवाच ।
अथान्यत् सम्प्रवक्ष्यामि कृतं येन
पुरा द्विजाः ।
कश्चित् काशीपुरे रम्ये ह्यासीद्
विप्रोऽतिनिर्धनः ॥ १॥
क्षुत्तृड्भ्यां व्याकुलोभूत्वा
नित्यं बभ्राम भूतले ।
दुःखितं ब्राह्मणं दृष्ट्वा भगवान्
ब्राह्मणप्रियः ॥ २॥
वृद्धब्राह्मण रूपस्तं पप्रच्छ
द्विजमादरात् ।
किमर्थं भ्रमसे विप्र महीं नित्यं
सुदुःखितः ॥ ३॥
तत्सर्वं श्रोतुमिच्छामि कथ्यतां
द्विज सत्तम ।
सूत जी बोले –
हे ऋषियों ! जिसने पहले समय में इस व्रत को किया था उसका इतिहास
कहता हूँ, ध्यान से सुनो! सुंदर काशीपुरी नगरी में एक अत्यंत
निर्धन ब्राह्मण रहता था। भूख प्यास से
परेशान वह धरती पर घूमता रहता था।
ब्राह्मणों से प्रेम करने वाले भगवान ने एक दिन ब्राह्मण का वेश धारण कर
उसके पास जाकर पूछा – हे विप्र! नित्य दुखी होकर तुम पृथ्वी
पर क्यूँ घूमते हो?
ब्राह्मण उवाच ।
ब्राह्मणोऽति दरिद्रोऽहं भिक्षार्थं
वै भ्रमे महीम् ॥ ४॥
उपायं यदि जानासि कृपया कथय प्रभो ।
दीन ब्राह्मण बोला –
मैं निर्धन ब्राह्मण हूँ।
भिक्षा के लिए धरती पर घूमता हूँ। हे भगवन् ! यदि आप इसका कोई उपाय जानते
हो तो कृपाकर बताइए।
वृद्धब्राह्मण उवाच ।
सत्यनारायणो
विष्णुर्वाञ्छितार्थफलप्रदः ॥ ५॥
तस्य त्वं पूजनं विप्र कुरुष्व
व्रतमुत्तमम् ।
यत्कृत्वा सर्वदुःखेभ्यो मुक्तो
भवति मानवः ॥ ६॥
विधानं च व्रतस्यापि विप्रायाभाष्य
यत्नतः ।
सत्यनारायणो वृद्धस्तत्रैवान्तरधीयत
॥ ७॥
तद् व्रतं सङ्करिष्यामि यदुक्तं
ब्राह्मणेन वै ।
इति सञ्चिन्त्य विप्रोऽसौ रात्रौ
निद्रां न लब्धवान् ॥ ८॥
वृद्ध ब्राह्मण कहता है कि-
सत्यनारायण भगवान मनोवांछित फल देने वाले हैं इसलिए तुम उनका पूजन करो। इसे करने से मनुष्य सभी दुखों से मुक्त हो जाता
है। वृद्ध ब्राह्मण बनकर आए सत्यनारायण
भगवान उस निर्धन ब्राह्मण को व्रत का सारा विधान बताकर अन्तर्धान हो गए। ब्राह्मण मन ही मन सोचने लगा कि जिस व्रत को
वृद्ध ब्राह्मण करने को कह गया है मैं उसे अवश्य करूँगा। यह निश्चय करने के बाद उसे रात में नीँद नहीं
आई।
ततः प्रातः समुत्थाय
सत्यनारायणव्रतम् ।
करिष्य इति सङ्कल्प्य भिक्षार्थमगमद्
द्विजः ॥ ९॥
तस्मिन्नेव दिने विप्रः प्रचुरं
द्रव्यमाप्तवान् ।
तेनैव बन्धुभिः सार्धं
सत्यस्यव्रतमाचरत् ॥ १०॥
सर्वदुःखविनिर्मुक्तः
सर्वसम्पत्समन्वितः ।
बभूव स द्विजश्रेष्ठो व्रतस्यास्य
प्रभावतः ॥ ११॥
ततः प्रभृति कालं च मासि मासि व्रतं
कृतम् ।
एवं नारायणस्येदं व्रतं कृत्वा
द्विजोत्तमः ॥ १२॥
वह सवेरे उठकर सत्यनारायण भगवान के
व्रत का निश्चय कर भिक्षा के लिए चला गया। उस दिन निर्धन ब्राह्मण को भिक्षा में
बहुत धन मिला। जिससे उसने बंधु-बाँधवों के साथ मिलकर श्री सत्यनारायण भगवान का
व्रत संपन्न किया। भगवान सत्यनारायण का व्रत संपन्न करने के बाद वह निर्धन
ब्राह्मण सभी दुखों से छूट गया और अनेक प्रकार की संपत्तियों से युक्त हो गया। उसी
समय से यह ब्राह्मण हर माह इस व्रत को करने लगा।
सर्वपापविनिर्मुक्तो दुर्लभं
मोक्षमाप्तवान् ।
व्रतमस्य यदा विप्राः पृथिव्यां
सङ्करिष्यति ॥ १३॥
तदैव सर्वदुःखं च मनुजस्य विनश्यति
।
एवं नारायणेनोक्तं नारदाय महात्मने
॥ १४॥
मया तत्कथितं विप्राः किमन्यत्
कथयामि वः ।
इस तरह से सत्यनारायण भगवान के व्रत
को जो मनुष्य करेगा वह सभी प्रकार के पापों से छूटकर मोक्ष को प्राप्त होगा। जो
मनुष्य इस व्रत को करेगा वह भी सभी दुखों से मुक्त हो जाएगा। सूत जी बोले कि इस
तरह से नारद जी से नारायण जी का कहा हुआ श्रीसत्यनारायण व्रत को मैने तुमसे कहा।
हे विप्रो ! मैं अब और क्या कहूँ?
ऋषय ऊचुः ।
तस्माद् विप्राच्छ्रुतं केन
पृथिव्यां चरितं मुने ।
तत्सर्वं श्रोतुमिच्छामः
श्रद्धाऽस्माकं प्रजायते ॥ १५॥
ऋषि बोले –
हे मुनिवर ! संसार में उस विप्र से सुनकर और किस-किस ने इस व्रत को
किया, हम सब इस बात को सुनना चाहते हैं। इसके लिए हमारे मन
में श्रद्धा का भाव है।
सूत उवाच ।
शृणुध्वं मुनयः सर्वे व्रतं येन
कृतं भुवि ।
एकदा स द्विजवरो यथाविभव विस्तरैः ॥
१६॥
बन्धुभिः स्वजनैः सार्धं व्रतं
कर्तुं समुद्यतः ।
एतस्मिन्नन्तरे काले काष्ठक्रेता
समागमत् ॥ १७॥
बहिः काष्ठं च संस्थाप्य विप्रस्य
गृहमाययौ ।
तृष्णाया पीडितात्मा च दृष्ट्वा
विप्रं कृतं व्रतम् ॥ १८॥
प्रणिपत्य द्विजं प्राह किमिदं
क्रियते त्वया ।
कृते किं फलमाप्नोति विस्तराद् वद
मे प्रभो ॥ १९॥
सूत जी बोले –
हे मुनियों ! जिस-जिस ने इस व्रत को किया है, वह
सब सुनो । एक समय वही विप्र धन व ऎश्वर्य के अनुसार अपने बंधु-बाँधवों के साथ इस
व्रत को करने को तैयार हुआ। उसी समय एक एक लकड़ी बेचने वाला लकड़हाड़ा आया और
लकड़ियाँ बाहर रखकर अंदर ब्राह्मण के घर में गया। प्यास से दुखी वह लकड़हारा
ब्राह्मण को व्रत करते देख विप्र को नमस्कार कर पूछने लगा कि आप यह क्या कर रहे
हैं तथा इसे करने से क्या फल मिलेगा? कृपया मुझे भी बताएँ।
विप्र उवाच ।
सत्यनारायणेस्येदं व्रतं
सर्वेप्सितप्रदम् ।
तस्य प्रसादान्मे सर्वं
धनधान्यादिकं महत् ॥ २०॥
ब्राह्मण ने कहा कि- सब मनोकामनाओं
को पूरा करने वाला यह सत्यनारायण भगवान का व्रत है।इनकी कृपा से ही मेरे घर में धन
धान्य आदि की वृद्धि हुई है।
तस्मादेतद् व्रतं ज्ञात्वा
काष्ठक्रेताऽतिहर्षितः ।
पपौ जलं प्रसादं च भुक्त्वा स नगरं
ययौ ॥ २१॥
सत्यनारायणं देवं मनसा इत्यचिन्तयत्
।
काष्ठं विक्रयतो ग्रामे प्राप्यते
चाद्य यद् धनम् ॥ २२॥
तेनैव सत्यदेवस्य करिष्ये
व्रतमुत्तमम् ।
इति सञ्चिन्त्य मनसा काष्ठं धृत्वा
तु मस्तके ॥ २३॥
जगाम नगरे रम्ये धनिनां यत्र
संस्थितिः ।
तद्दिने काष्ठमूल्यं च द्विगुणं प्राप्तवानसौ
॥ २४॥
विप्र से सत्यनारायण व्रत के बारे
में जानकर लकड़हारा बहुत प्रसन्न हुआ ।चरणामृत लेकर व प्रसाद खाने के बाद वह अपने
घर गया। लकड़हारे ने अपने मन में संकल्प किया कि आज लकड़ी बेचने से जो धन मिलेगा
उसी से श्रीसत्यनारायण भगवान का उत्तम व्रत करूँगा। मन में इस विचार को ले
लकड़हारा सिर पर लकड़ियाँ रख उस नगर में बेचने गया जहाँ धनी लोग ज्यादा रहते थे।
उस नगर में उसे अपनी लकड़ियों का दाम पहले से चार गुना अधिक मिला ।
ततः प्रसन्नहृदयः सुपक्वं कदली फलम्
।
शर्कराघृतदुग्धं च गोधूमस्य च
चूर्णकम् ॥ २५॥
कृत्वैकत्र सपादं च गृहीत्वा
स्वगृहं ययौ ।
ततो बन्धून् समाहूय चकार विधिना
व्रतम् ॥ २६॥
तद् व्रतस्य प्रभावेण
धनपुत्रान्वितोऽभवत् ।
इहलोके सुखं भुक्त्वा चान्ते
सत्यपुरं ययौ ॥ २७॥
लकड़हारा प्रसन्नता के साथ दाम लेकर
केले,
शक्कर, घी, दूध, दही और गेहूँ का आटा ले और सत्यनारायण भगवान के व्रत की अन्य सामग्रियाँ
लेकर अपने घर गया। वहाँ उसने अपने बंधु-बाँधवों को बुलाकर विधि विधान से
सत्यनारायण भगवान का पूजन और व्रत किया। इस व्रत के प्रभाव से वह बूढ़ा लकड़हारा
धन पुत्र आदि से युक्त होकर संसार के समस्त सुख भोग अंत काल में बैकुंठ धाम चला
गया।
॥ इति श्रीस्कन्दपुराणे रेवाखण्डे
श्रीसत्यनारायण व्रतकथायां द्वितीयोऽध्यायः ॥ २॥
इस प्रकार श्रीस्कन्दपुराण के
अन्तर्गत रेवाखण्ड में श्रीसत्यनारायणव्रतकथा का यह दूसरा अध्याय पूरा हुआ॥२॥
श्रीसत्यनारायणव्रतकथा
तृतीयोध्याय: -
राजा उल्कामुख,
साधु वणिक् एवं लीलावती-कलावती की कथा
अथ तृतीयोऽध्यायः ।
सूत उवाच ।
पुनरग्रे प्रवक्ष्यामि शृणुध्वं
मुनि सत्तमाः ।
पुरा चोल्कामुखो नाम
नृपश्चासीन्महामतिः ॥ १॥
जितेन्द्रियः सत्यवादी ययौ देवालयं
प्रति ।
दिने दिने धनं दत्त्वा द्विजान्
सन्तोषयत् सुधीः ॥ २॥
भार्या तस्य प्रमुग्धा च सरोजवदना
सती ।
भद्रशीलानदी तीरे सत्यस्यव्रतमाचरत्
॥ ३॥
एतस्मिन्नन्तरे तत्र साधुरेकः
समागतः ।
वाणिज्यार्थं बहुधनैरनेकैः
परिपूरितः ॥ ४॥
नावं संस्थाप्य तत्तीरे जगाम नृपतिं
प्रति ।
दृष्ट्वा स व्रतिनं भूपं प्रपच्छ
विनयान्वितः ॥ ५॥
सूतजी बोले –
हे श्रेष्ठ मुनियों, अब आगे की कथा कहता हूँ।
पहले समय में उल्कामुख नाम का एक बुद्धिमान राजा था। वह सत्यवक्ता और जितेन्द्रिय
था। प्रतिदिन देव स्थानों पर जाता और निर्धनों को धन देकर उनके कष्ट दूर करता था।
उसकी पत्नी कमल के समान मुख वाली तथा सती साध्वी थी। भद्रशीला नदी के तट पर उन
दोनो ने श्रीसत्यनारायण भगवान का व्रत किया। उसी समय साधु नाम का एक वैश्य आया।
उसके पास व्यापार करने के लिए बहुत सा धन भी था। राजा को व्रत करते देखकर वह विनय
के साथ पूछने लगा–
साधुरुवाच ।
किमिदं कुरुषे राजन् भक्तियुक्तेन
चेतसा ।
प्रकाशं कुरु तत्सर्वं
श्रोतुमिच्छामि साम्प्रतम् ॥ ६॥
साधु ने कहा- हे राजन ! भक्तिभाव से
पूर्ण होकर आप यह क्या कर रहे हैं? मैं
सुनने की इच्छा रखता हूँ तो आप मुझे बताएँ।
राजोवाच ।
पूजनं क्रियते साधो विष्णोरतुलतेजसः
।
व्रतं च स्वजनैः सार्धं
पुत्राद्यावाप्ति काम्यया ॥ ७॥
राजा बोला –
हे साधु ! अपने बंधु-बाँधवों के साथ पुत्रादि की प्राप्ति के लिए
महाशक्तिमान श्रीसत्यनारायण भगवान का व्रत व पूजन कर रहा हूँ।
भूपस्य वचनं श्रुत्वा साधुः प्रोवाच
सादरम् ।
सर्वं कथय मे राजन् करिष्येऽहं
तवोदितम् ॥ ८॥
ममापि सन्ततिर्नास्ति ह्येतस्माज्जायते
ध्रुवम् ।
ततो निवृत्त्य वाणिज्यात् सानन्दो
गृहमागतः ॥ ९॥
भार्यायै कथितं सर्वं व्रतं सन्तति
दायकम् ।
तदा व्रतं करिष्यामि यदा मे
सन्ततिर्भवेत् ॥ १०॥
राजा के वचन सुन साधु आदर से बोला –
हे राजन ! मुझे इस व्रत का सारा विधान कहिए। आपके कथनानुसार मैं भी
इस व्रत को करुँगा। मेरी भी संतान नहीं है और इस व्रत को करने से निश्चित रुप से
मुझे संतान की प्राप्ति होगी। राजा से व्रत का सारा विधान सुन, व्यापार से निवृत हो वह अपने घर गया। साधु वैश्य ने अपनी पत्नी को संतान
देने वाले इस व्रत का वर्णन कह सुनाया और कहा कि जब मेरी संतान होगी तब मैं इस
व्रत को करुँगा।
इति लीलावतीं प्राह पत्नीं साधुः स
सत्तमः ।
एकस्मिन् दिवसे तस्य भार्या लीलावती
सती ॥ ११॥
भर्तृयुक्तानन्दचित्ताऽभवद्
धर्मपरायणा ।
र्गभिणी साऽभवत् तस्य भार्या
सत्यप्रसादतः ॥ १२॥
दशमे मासि वै तस्याः कन्यारत्नमजायत
।
दिने दिने सा ववृधे शुक्लपक्षे यथा
शशी ॥ १३॥
नाम्ना कलावती चेति तन्नामकरणं
कृतम् ।
ततो लीलावती प्राह स्वामिनं मधुरं
वचः ॥ १४॥
न करोषि किमर्थं वै पुरा सङ्कल्पितं
व्रतम् ।
साधु ने इस तरह के वचन अपनी पत्नी
लीलावती से कहे। एक दिन लीलावती पति के साथ आनन्दित हो सांसारिक धर्म में प्रवृत
होकर सत्यनारायण भगवान की कृपा से गर्भवती हो गई। दसवें महीने में उसके गर्भ से एक
सुंदर कन्या ने जन्म लिया। दिनोंदिन वह ऎसे बढ़ने लगी जैसे कि शुक्ल पक्ष का
चंद्रमा बढ़ता है। माता-पिता ने अपनी कन्या का नाम कलावती रखा। एक दिन लीलावती ने
मीठे शब्दों में अपने पति को याद दिलाया कि आपने सत्यनारायण भगवान के जिस व्रत को
करने का संकल्प किया था उसे करने का समय आ गया है, आप इस व्रत को करिये।
साधुरुवाच ।
विवाह समये त्वस्याः करिष्यामि
व्रतं प्रिये ॥ १५॥
इति भार्यां समाश्वास्य जगाम नगरं प्रति
।
ततः कलावती कन्या ववृधे पितृवेश्मनि
॥ १६॥
दृष्ट्वा कन्यां ततः साधुर्नगरे
सखिभिः सह ।
मन्त्रयित्वा द्रुतं दूतं
प्रेषयामास धर्मवित् ॥ १७॥
विवाहार्थं च कन्याया वरं श्रेष्ठं
विचारय ।
तेनाज्ञप्तश्च दूतोऽसौ काञ्चनं नगरं
ययौ ॥ १८॥
तस्मादेकं वणिक्पुत्रं समादायागतो
हि सः ।
दृष्ट्वा तु सुन्दरं बालं
वणिक्पुत्रं गुणान्वितम् ॥ १९॥
ज्ञातिभिर्बन्धुभिः सार्धं
परितुष्टेन चेतसा ।
दत्तावान् साधुपुत्राय कन्यां
विधिविधानतः ॥ २०॥
साधु बोला कि- हे प्रिये ! इस व्रत
को मैं उसके विवाह पर करुँगा। इस प्रकार अपनी पत्नी को आश्वासन देकर वह नगर को चला
गया। कलावती पिता के घर में रह वृद्धि को प्राप्त हो गई। साधु ने एक बार नगर में
अपनी कन्या को सखियों के साथ देखा तो तुरंत ही दूत को बुलाया और कहा कि मेरी कन्या
के योग्य वर देख कर आओ। साधु की बात सुनकर दूत कंचनपुर नगर में पहुंचा और वहाँ
देखभाल कर लड़की के सुयोग्य वाणिक पुत्र को ले आया। सुयोग्य लड़के को देख साधु ने
बंधु-बाँधवों को बुलाकर अपनी पुत्री का विवाह कर दिया।
ततोऽभाग्यवशात् तेन विस्मृतं
व्रतमुत्तमम् ।
विवाहसमये तस्यास्तेन रुष्टोऽभवत्
प्रभुः ॥ २१॥
ततः कालेन नियतो निजकर्म विशारदः ।
वाणिज्यार्थं ततः शीघ्रं जामातृ
सहितो वणिक् ॥ २२॥
रत्नसारपुरे रम्ये गत्वा सिन्धु
समीपतः ।
वाणिज्यमकरोत् साधुर्जामात्रा
श्रीमता सह ॥ २३॥
तौ गतौ नगरे रम्ये
चन्द्रकेतोर्नृपस्य च ।
एतस्मिन्नेव काले तु सत्यनारायणः
प्रभुः ॥ २४॥
भ्रष्टप्रतिज्ञमालोक्य शापं तस्मै
प्रदत्तवान् ।
दारुणं कठिनं चास्य महद् दुःखं
भविष्यति ॥ २५॥
लेकिन दुर्भाग्य की बात ये कि साधु
ने अभी भी श्रीसत्यनारायण भगवान का व्रत नहीं किया। इस पर श्री भगवान क्रोधित हो
गए और श्राप दिया कि साधु को अत्यधिक दुख मिले। अपने कार्य में कुशल साधु बनिया
जमाई को लेकर समुद्र के पास स्थित होकर रत्नासारपुर नगर में गया। वहाँ जाकर
दामाद-ससुर दोनों मिलकर चन्द्रकेतु राजा के नगर में व्यापार करने लगे।
एकस्मिन्दिवसे राज्ञो धनमादाय
तस्करः ।
तत्रैव चागत श्चौरो वणिजौ यत्र
संस्थितौ ॥ २६॥
तत्पश्चाद् धावकान् दूतान् दृष्टवा
भीतेन चेतसा ।
धनं संस्थाप्य तत्रैव स तु
शीघ्रमलक्षितः ॥ २७॥
ततो दूताःसमायाता यत्रास्ते सज्जनो
वणिक् ।
दृष्ट्वा नृपधनं तत्र बद्ध्वाऽऽनीतौ
वणिक्सुतौ ॥ २८॥
हर्षेण धावमानाश्च
प्रोचुर्नृपसमीपतः ।
तस्करौ द्वौ समानीतौ विलोक्याज्ञापय
प्रभो ॥ २९॥
राज्ञाऽऽज्ञप्तास्ततः शीघ्रं दृढं
बद्ध्वा तु ता वुभौ ।
स्थापितौ द्वौ महादुर्गे
कारागारेऽविचारतः ॥ ३०॥
एक दिन भगवान सत्यनारायण की माया से
दो चोर राजा का धन चुराकर भाग रहा था। उसने राजा के सिपाहियों को अपना पीछा करते
देख चुराया हुआ धन वहाँ रख दिया जहाँ साधु अपने जमाई के साथ ठहरा हुआ था। राजा के
सिपाहियों ने साधु वैश्य के पास राजा का धन पड़ा देखा तो वह ससुर-जमाई दोनों को
बाँधकर राजा के पास ले गए और कहा कि उन दोनों चोरों हम पकड़ लाएं हैं,
आप आगे की कार्यवाही की आज्ञा दें। राजा की आज्ञा से उन दोनों को
कठिन कारावास में डाल दिया गया ।
मायया सत्यदेवस्य न श्रुतं
कैस्तयोर्वचः ।
अतस्तयोर्धनं राज्ञा गृहीतं
चन्द्रकेतुना ॥ ३१॥
तच्छापाच्च तयोर्गेहे भार्या चैवाति
दुःखिता ।
चौरेणापहृतं सर्वं गृहे यच्च स्थितं
धनम् ॥ ३२॥
आधिव्याधिसमायुक्ता क्षुत्पिपासाति
दुःखिता ।
अन्नचिन्तापरा भूत्वा बभ्राम च गृहे
गृहे ॥ ३३॥
कलावती तु कन्यापि बभ्राम
प्रतिवासरम् ।
एकस्मिन् दिवसे जाता क्षुधार्ता
द्विजमन्दिरम् ॥ ३४॥
गत्वाऽपश्यद् व्रतं तत्र
सत्यनारायणस्य च ।
उपविश्य कथां श्रुत्वा वरं
र्प्राथितवत्यपि ।
प्रसाद भक्षणं कृत्वा ययौ रात्रौ
गृहं प्रति ॥ ३५॥
और उनका सारा धन भी उनसे छीन लिया
गया। श्रीसत्यनारायण भगवान के श्राप से साधु की पत्नी भी बहुत दुखी हुई। घर में जो
धन रखा था उसे चोर चुरा ले गए। शारीरिक तथा मानसिक पीड़ा व भूख प्यास से अति दुखी
हो अन्न की चिन्ता में कलावती के ब्राह्मण के घर गई। वहाँ उसने श्रीसत्यनारायण
भगवान का व्रत होते देखा फिर कथा भी सुनी । वह प्रसाद ग्रहण कर वह रात को घर वापिस
आई।
माता कलावतीं कन्यां कथयामास
प्रेमतः ।
पुत्रि रात्रौ स्थिता कुत्र किं ते
मनसि वर्तते ॥ ३६॥
माता ने कलावती से पूछा कि हे
पुत्री अब तक तुम कहाँ थी़? तेरे मन में क्या
है?
कन्या कलावती प्राह मातरं प्रति
सत्वरम् ।
द्विजालये व्रतं मातर्दृष्टं
वाञ्छितसिद्धिदम् ॥ ३७॥
तच्छ्रुत्वा कन्यका वाक्यं व्रतं
कर्तुं समुद्यता ।
सा मुदा तु वणिग्भार्या
सत्यनारायणस्य च ॥ ३८॥
व्रतं चक्रे सैव साध्वी बन्धुभिः
स्वजनैः सह ।
भर्तृजामातरौ क्षिप्रमागच्छेतां
स्वमाश्रमम् ॥ ३९॥
अपराधं च मे भर्तुर्जामातुः
क्षन्तुमर्हसि ।
व्रतेनानेन तुष्टोऽसौ सत्यनारायणः
पुनः ॥ ४०॥
कलावती ने अपनी माता से कहा –
हे माता ! मैंने एक ब्राह्मण के घर में श्रीसत्यनारायण भगवान का
व्रत देखा है। कन्या के वचन सुन लीलावती भगवान के पूजन की तैयारी करने लगी।
लीलावती ने परिवार व बंधुओं सहित सत्यनारायण भगवान का पूजन किया और उनसे वर माँगा
कि मेरे पति तथा जमाई शीघ्र घर आ जाएँ। साथ ही यह भी प्रार्थना की कि हम सब का
अपराध क्षमा करें। श्रीसत्यनारायण भगवान इस व्रत से संतुष्ट हो गए ।
दर्शयामास स्वप्नं ही चन्द्रकेतुं
नृपोत्तमम् ।
बन्दिनौ मोचय प्रातर्वणिजौ नृपसत्तम
॥ ४१॥
देयं धनं च तत्सर्वं गृहीतं यत्
त्वयाऽधुना ।
नो चेत् त्वां नाशयिष्यामि
सराज्यधनपुत्रकम् ॥ ४२॥
एवमाभाष्य राजानं ध्यानगम्योऽभवत्
प्रभुः ।
ततः प्रभातसमये राजा च स्वजनैः सह ॥
४३॥
उपविश्य सभामध्ये प्राह स्वप्नं जनं
प्रति ।
बद्धौ महाजनौ शीघ्रं मोचय द्वौ
वणिक्सुतौ ॥ ४४॥
और राजा चन्द्रकेतु को सपने में
दर्शन दे कहा कि – हे राजन ! तुम उन
दोनो वैश्यों को छोड़ दो और तुमने उनका जो धन लिया है उसे वापिस कर दो। अगर ऎसा
नहीं किया तो मैं तुम्हारा धन राज्य व संतान सभी को नष्ट कर दूँगा। राजा को यह सब
कहकर भगवान अन्तर्धान हो गए। प्रात:काल सभा में राजा ने अपना सपना सुनाया फिर बोले
कि बणिक पुत्रों को कैद से मुक्त कर सभा में लाओ।
इति राज्ञो वचः श्रुत्वा मोचयित्वा
महाजनौ ।
समानीय नृपस्याग्रे प्राहुस्ते
विनयान्विताः ॥ ४५॥
आनीतौ द्वौ वणिक्पुत्रौ मुक्तौ
निगडबन्धनात् ।
ततो महाजनौ नत्वा चन्द्रकेतुं
नृपोत्तमम् ॥ ४६॥
स्मरन्तौ पूर्व वृत्तान्तं
नोचतुर्भयविह्वलौ ।
राजा वणिक्सुतौ वीक्ष्य वचः प्रोवाच
सादरम् ॥ ४७॥
देवात् प्राप्तं महद्दुःखमिदानीं
नास्ति वै भयम् ।
तदा निगडसन्त्यागं
क्षौरकर्माद्यकारयत् ॥ ४८॥
वस्त्रालङ्कारकं दत्त्वा परितोष्य
नृपश्च तौ ।
पुरस्कृत्य वणिक्पुत्रौ वचसाऽतोषयद्
भृशम् ॥ ४९॥
पुरानीतं तु यद् द्रव्यं
द्विगुणीकृत्य दत्तवान् ।
प्रोवाच च ततो राजा गच्छ साधो
निजाश्रमम् ॥ ५०॥
राजानं प्रणिपत्याह गन्तव्यं
त्वत्प्रसादतः ।
इत्युक्त्वा तौ महावैश्यौ जग्मतुः
स्वगृहं प्रति ॥ ५१॥
दोनो ने आते ही राजा को प्रणाम
किया। राजा मीठी वाणी में बोला – हे महानुभावों
! भाग्यवश ऎसा कठिन दुख तुम्हें प्राप्त हुआ है लेकिन अब तुम्हें कोई भय नहीं है।
ऎसा कह राजा ने उन दोनों को नए वस्त्राभूषण भी पहनाए और जितना धन उनका लिया था
उससे दुगुना धन वापिस कर दिया। दोनो वैश्य अपने घर को चल दिए।
॥ इति श्रीस्कन्द पुराणे रेवाखण्डे
श्रीसत्यनारायण व्रतकथायां तृतीयोऽध्यायः ॥ ३॥
इस प्रकार श्रीस्कन्दपुराण के अन्तर्गत
रेवाखण्ड में श्रीसत्यनारायणव्रतकथा का यह तीसरा अध्याय पूरा हुआ ॥३॥
श्रीसत्यनारायणव्रतकथा
चतुर्थोऽध्यायः –
असत्य भाषण तथा भगवान् के प्रसाद की
अवहेलना का परिणाम
अथ चतुर्थोऽध्यायः ।
सूत उवाच ।
यात्रां तु कृतवान्
साधुर्मङ्गलायनपूर्विकाम् ।
ब्राह्मणेभ्यो धनं दत्त्वा तदा तु
नगरं ययौ ॥ १॥
कियद् दूरे गते साधो सत्यनारायणः
प्रभुः ।
जिज्ञासां कृतवान् साधौ किमस्ति तव
नौस्थितम् ॥ २॥
ततो महाजनौ मत्तौ हेलया च प्रहस्य
वै ।
कथं पृच्छसि भो दण्डिन् मुद्रां
नेतुं किमिच्छसि ॥ ३॥
लतापत्रादिकं चैव वर्तते तरणौ मम ।
निष्ठुरं च वचः श्रुत्वा सत्यं भवतु
ते वचः ॥ ४॥
सूतजी बोले- साधु नामक वैश्य मंगल
स्मरण कर ब्राह्मणों को दान दक्षिणा दे, अपने
घर की ओर चला। अभी कुछ दूर ही साधु चला था कि भगवान सत्यनारायण ने साधु वैश्य की
मनोवृत्ति जानने के उद्देश्य से, दंडी का वेश धर, वैश्य से प्रश्न किया कि उसकी नाव में क्या है। संपत्ति में मस्त साधु ने
हंसकर कहा कि दंडी स्वामी क्या तुम्हें मुद्रा (रुपए) चाहिए। मेरी नाव में तो
लता-पत्र ही हैं। ऐसे निठुर वचन सुन श्री सत्यनारायण भगवान बोले कि तुम्हारा कहा
सच हो।
एवमुक्त्वा गतः शीघ्रं दण्डी तस्य
समीपतः ।
कियद् दूरे ततो गत्वा स्थितः सिन्धु
समीपतः ॥ ५॥
गते दण्डिनि साधुश्च
कृतनित्यक्रियस्तदा ।
उत्थितां तरणीं दृष्ट्वा विस्मयं
परमं ययौ ॥ ६॥
दृष्ट्वा लतादिकं चैव मूर्च्छितो
न्यपतद् भुवि ।
लब्धसंज्ञो
वणिक्पुत्रस्ततश्चिन्तान्वितोऽभवत् ॥ ७॥
तदा तु दुहितुः कान्तो वचनं
चेदमब्रवीत् ।
किमर्थं क्रियते शोकः शापो दत्तश्च
दण्डिना ॥ ८॥
शक्यते तेन सर्वं हि कर्तुं चात्र न
संशयः ।
अतस्तच्छरणं यामो वाञ्छितार्थो
भविष्यति ॥ ९॥
इतना कह दंडी कुछ दूर समुद्र के ही
किनारे बैठ गए। दंडी स्वामी के चले जाने पर साधु वैश्य ने देखा कि नाव हल्की और
उठी हुई चल रही है। वह बहुत चकित हुआ। उसने नाव में लता-पत्र ही देखे तो मूर्च्छित
हो पृथ्वी पर गिर पड़ा। होश आने पर वह चिंता करने लगा। तब उसके दामाद ने कहा ऐसे
शोक क्यों करते हो। यह दंडी स्वामी का शाप है। वे दंडी सर्वसमर्थ हैं इसमें संशय
नहीं है। उनकी शरण में जाने से मनवांछित फल मिलेगा।
जामातुर्वचनं श्रुत्वा तत्सकाशं
गतस्तदा ।
दृष्ट्वा च दण्डिनं भक्त्या नत्वा
प्रोवाच सादरम् ॥ १०॥
क्षमस्व चापराधं मे यदुक्तं तव
सन्निधौ ।
एवं पुनः पुनर्नत्वा
महाशोकाकुलोऽभवत् ॥ ११॥
प्रोवाच वचनं दण्डी विलपन्तं
विलोक्य च ।
मा रोदीः शृणुमद्वाक्यं मम
पूजाबहिर्मुखः ॥ १२॥
ममाज्ञया च दुर्बुद्धे लब्धं दुःखं
मुहुर्मुहुः ।
तच्छ्रुत्वा भगवद्वाक्यं स्तुतिं
कर्तुं समुद्यतः ॥ १३॥
दामाद का कहना मान,
वैश्य दंडी स्वामी के पास गया। दंडी स्वामी को प्रणाम कर सादर बोला।
जो कुछ मैंने आपसे कहा था उसे क्षमा कर दें। ऐसा कह वह बार-बार नमन कर महाशोक से
व्याकुल हो गया। वैश्य को रोते देख दंडी स्वामी ने कहा मत रोओ। सुनो! तुम मेरी
पूजा को भूलते हो। हे कुबुद्धि वाले! मेरी आज्ञा से तुम्हें बारबार दुःख हुआ है।
वैश्य स्तुति करने लगा।
साधुरुवाच ।
त्वन्मायामोहिताः सर्वे
ब्रह्माद्यास्त्रिदिवौकसः ।
न जानन्ति गुणान् रूपं
तवाश्चर्यमिदं प्रभो ॥ १४॥
मूढोऽहं त्वां कथं जाने
मोहितस्तवमायया ।
प्रसीद पूजयिष्यामि यथाविभवविस्तरैः
॥ १५॥
पुरा वित्तं च तत् सर्वं त्राहि मां
शरणागतम् ।
श्रुत्वा भक्तियुतं वाक्यं
परितुष्टो जनार्दनः ॥ १६॥
वरं च वाञ्छितं दत्त्वा
तत्रैवान्तर्दधे हरिः ।
ततो नावं समारूह्य दृष्ट्वा
वित्तप्रपूरिताम् ॥ १७॥
कृपया सत्यदेवस्य सफलं वाञ्छितं मम
।
इत्युक्त्वा स्वजनैः सार्धं पूजां
कृत्वा यथाविधि ॥ १८॥
हर्षेण चाभवत्
पूर्णःसत्यदेवप्रसादतः ।
नावं संयोज्य यत्नेन स्वदेशगमनं
कृतम् ॥ १९॥
साधु बोला- प्रभु आपकी माया से
ब्रह्मादि भी मोहित हुए हैं। वे भी आपके अद्भुत रूप गुणों को नहीं जानते। हे
प्रभु! मुझ पर प्रसन्न होइए। मैं माया से भ्रमित मूढ़ आपको कैसे पहचान सकता हूं।
कृपया प्रसन्न होइए। मैं अपनी सामर्थ्य से आपका पूजन करूंगा। धन जैसा पहले था वैसा
कर दें। मैं शरण में हूं। रक्षा कीजिए। भक्तियुक्त वाक्यों को सुन जनार्दन संतुष्ट
हुए। वैश्य को उसका मनचाहा वर देकर भगवान अंतर्धान हुए। तब वैश्य नाव पर आया और
उसे धन से भरा देखा। सत्यनारायण की कृपा से मेरी मनोकामना पूर्ण हुई है,
यह कहकर साधु वैश्य ने अपने सभी साथियों के साथ श्री सत्यनारायण की
विधिपूर्वक पूजा की। भगवान सत्यदेव की कृपा प्राप्त कर साधु बहुत प्रसन्न हुआ। नाव
चलने योग्य बना अपने देश की ओर चल पड़ा।
साधुर्जामातरं प्राह पश्य रत्नपुरीं
मम ।
दूतं च प्रेषयामास निजवित्तस्य
रक्षकम् ॥ २०॥
ततोऽसौ नगरं गत्वा साधुभार्यां
विलोक्य च ।
प्रोवाच वाञ्छितं वाक्यं नत्वा
बद्धाञ्जलिस्तदा ॥ २१॥
निकटे नगरस्यैव जामात्रा सहितो
वणिक् ।
आगतो बन्धुवर्गैश्च वित्तैश्च
बहुभिर्युतः ॥ २२॥
श्रुत्वा दूतमुखाद्वाक्यं
महाहर्षवती सती ।
सत्यपूजां ततः कृत्वा प्रोवाच
तनुजां प्रति ॥ २३॥
व्रजामि शीघ्रमागच्छ साधुसन्दर्शनाय
च ।
इति मातृवचः श्रुत्वा व्रतं कृत्वा
समाप्य च ॥ २४॥
अपने गृह नगर के निकट वैश्य अपने
दामाद से बोला- देखो वह मेरी रत्नपुरी है। धन के रक्षक दूत को नगर भेजा। दूत नगर
में साधु वैश्य की स्त्री से हाथ जोड़कर उचित वाक्य बोला। वैश्य दामाद के साथ तथा
बहुत-सा धन ले संगी-साथी के साथ, नगर के निकट आ
गए हैं। दूत के वचन सुन लीलावती बहुत प्रसन्न हुई। भगवान सत्यनारायण की पूजा पूर्ण
कर अपनी बेटी से बोली। मैं पति के दर्शन के लिए चलती हूं। तुम जल्दी आओ अपनी मां
के वचन सुन पुत्री ने भी व्रत समाप्त माना।
प्रसादं च परित्यज्य गता साऽपि पतिं
प्रति ।
तेन रुष्टाः सत्यदेवो भर्तारं तरणिं
तथा ॥ २५॥
संहृत्य च धनैः सार्धं जले
तस्यावमज्जयत् ।
ततः कलावती कन्या न विलोक्य निजं
पतिम् ॥ २६॥
शोकेन महता तत्र रुदती चापतद् भुवि
।
दृष्ट्वा तथाविधां नावं कन्यां च
बहुदुःखिताम् ॥ २७॥
भीतेन मनसा साधुः किमाश्चर्यमिदं
भवेत् ।
चिन्त्यमानाश्च ते सर्वे
बभूवुस्तरिवाहकाः ॥ २८॥
ततो लीलावती कन्यां दृष्ट्वा सा
विह्वलाऽभवत् ।
विललापातिदुःखेन भर्तारं चेदमब्रवीत
॥ २९॥
प्रसाद लेना छोड़ अपने पति के
दर्शनार्थ चल पड़ी। भगवान सत्यनारायण इससे रुष्ट हो गए और उसके पति तथा धन से लदी
नाव को जल में डुबा दिया । कलावती ने वहां अपने पति को नहीं देखा। उसे बड़ा दुख हुआ
और वह रोती हुई भूमि पर गिर गई। नाव को डूबती हुई देखा। कन्या के रुदन से डरा हुआ
साधु वैश्य बोला- क्या आश्चर्य हो गया। नाव के मल्लाह भी चिंता करने लगे। अब तो
लीलावती भी अपनी बेटी को दुखी देख व्याकुल हो पति से बोली।
इदानीं नौकया सार्धं कथं
सोऽभूदलक्षितः ।
न जाने कस्य देवस्य हेलया चैव सा
हृता ॥ ३०॥
सत्यदेवस्य माहात्म्यं ज्ञातुं वा
केन शक्यते ।
इत्युक्त्वा विललापैव ततश्च स्वजनैः
सह ॥ ३१॥
ततो लीलावती कन्यां क्रौडे कृत्वा
रुरोद ह ।
ततःकलावती कन्या नष्टे स्वामिनि
दुःखिता ॥ ३२॥
गृहीत्वा पादुके तस्यानुगतुं च
मनोदधे ।
कन्यायाश्चरितं दृष्ट्वा सभार्यः
सज्जनो वणिक् ॥ ३३॥
अतिशोकेन सन्तप्तश्चिन्तयामास धर्मवित्
।
हृतं वा सत्यदेवेन भ्रान्तोऽहं
सत्यमायया ॥ ३४॥
इस समय नाव सहित दामाद कैसे अदृश्य
हो गए हैं। न जाने किस देवता ने नाव हर ली है। प्रभु सत्यनारायण की महिमा कौन जान
सकता है। इतना कह वह स्वजनों के साथ रोने लगी। फिर अपनी बेटी को गोद में ले विलाप
करने लगी। वहां बेटी कलावती अपने पति के नहीं रहने पर दुखी हो रही थी। वैश्य कन्या
ने पति की खड़ाऊ लेकर मर जाने का विचार किया। स्त्री सहित साधु वैश्य ने अपनी बेटी
का यह रूप देखा। धर्मात्मा साधु वैश्य दुख से बहुत व्याकुल हो चिंता करने लगा।
उसने कहा कि यह हरण श्री सत्यदेव ने किया है। सत्य की माया से मोहित हूं।
सत्यपूजां करिष्यामि
यथाविभवविस्तरैः ।
इति सर्वान् समाहूय कथयित्वा
मनोरथम् ॥ ३५॥
नत्वा च दण्डवद् भूमौ सत्यदेवं पुनः
पुनः ।
ततस्तुष्टः सत्यदेवो दीनानां
परिपालकः ॥ ३६॥
जगाद वचनं चैनं कृपया भक्तवत्सलः ।
त्यक्त्वा प्रसादं ते कन्या पतिं
द्रष्टुं समागता ॥ ३७॥
अतोऽदृष्टोऽभवत्तस्याः कन्यकायाः
पतिर्ध्रुवम् ।
गृहं गत्वा प्रसादं च भुक्त्वा
साऽऽयाति चेत्पुनः ॥ ३८॥
लब्धभर्त्री सुता साधो भविष्यति न
संशयः ।
कन्यका तादृशं वाक्यं श्रुत्वा
गगनमण्डलात् ॥ ३९॥
सबको अपने पास बुलाकर उसने कहा कि
मैं सविस्तार सत्यदेव का पूजन करूंगा। दिन प्रतिपालन करने वाले भगवान सत्यनारायण
कोबारंबार प्रणाम करने पर प्रसन्न हो गए। भक्तवत्सल ने कृपा कर यह वचन कहे।
तुम्हारी बेटी प्रसाद छोड़ पति को देखने आई। इसी के कारण उसका पति अदृश्य हो गया।
यदि यह घर जाकर प्रसाद ग्रहण करे और फिर आए। तो हे साधु! इसे इसका पति मिलेगा
इसमें संशय नहीं है। साधु की बेटी ने भी यह आकाशवाणी सुनी।
क्षिप्रं तदा गृहं गत्वा प्रसादं च
बुभोज सा ।
सा पश्चात् पुनरागम्य ददर्श सुजनं
पतिम् ॥ ४०॥
ततः कलावती कन्या जगाद पितरं प्रति
।
इदानीं च गृहं याहि विलम्बं कुरुषे
कथम् ॥ ४१॥
तच्छ्रुत्वा कन्यकावाक्यं
सन्तुष्टोऽभूद्वणिक्सुतः ।
पूजनं सत्यदेवस्य कृत्वा
विधिविधानतः ॥ ४२॥
धनैर्बन्धुगणैः सार्धं जगाम
निजमन्दिरम् ।
पौर्णमास्यां च सङ्क्रान्तौ कृतवान्
सत्यपूजनम् ॥ ४३॥
इहलोके सुखं भुक्त्वा चान्ते
सत्यपरं ययौ ।
अवैष्णवानामप्राप्यं
गुणत्रयविवर्जितम् ॥ ४४॥
तत्काल वह घर गई और प्रसाद प्राप्त
किया। फिर लौटी तो अपने पति को वहां देखा। तब उसने अपने पिता से कहा कि अब घर चलना
चाहिए देर क्यों कर रखी है। अपनी बेटी के वचन सुन साधु वैश्य प्रसन्न हुआ और भगवान
सत्यनारायण का विधि-विधान से पूजन किया। अपने बंधु-बांधवों एवं जामाता को ले अपने
घर गया। पूर्णिमा और संक्रांति को सत्यनारायण का पूजन करता रहा। अपने जीवनकाल में
सुख भोगता रहा और अंत में श्री सत्यनारायण के वैकुंठ लोक गया,
जो अवैष्णवों को प्राप्य नहीं है और जहां मायाकृत (सत्य, रज, तम) तीन गुणों का प्रभाव नहीं है।
॥ इति श्रीस्कन्द पुराणे रेवाखण्डे
श्रीसत्यनारायण व्रतकथायां चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४॥
इस प्रकार श्रीस्कन्दपुराणके
अन्तर्गत रेवाखण्डमें श्रीसत्यनारायणव्रतकथाका यह चौथा अध्याय पूरा हुआ ॥४॥
श्रीसत्यनारायणव्रतकथा
पञ्चमोध्याय: -
राजा तुङ्गध्वज और गोपगणों की कथा
अथ पञ्चमोऽध्यायः ।
सूत उवाच ।
अथान्यच्च प्रवक्ष्यामि श्रुणुध्वं
मुनिसत्तमाः ।
आसीत् तुङ्गध्वजो राजा
प्रजापालनतत्परः ॥ १॥
प्रसादं सत्यदेवस्य त्यक्त्वा
दुःखमवाप सः ।
एकदा स वनं गत्वा हत्वा बहुविधान्
पशून् ॥ २॥
आगत्य वटमूलं च दृष्ट्वा सत्यस्य
पूजनम् ।
गोपाः कुर्वन्ति सन्तुष्टा
भक्तियुक्ताः स बान्धवाः ॥ ३॥
राजा दृष्ट्वा तु दर्पेण न गतो न
ननाम सः ।
ततो गोपगणाः सर्वे प्रसादं
नृपसन्निधौ ॥ ४॥
सूतजी बोले –
हे ऋषियों ! मैं और भी एक कथा सुनाता हूँ, उसे
भी ध्यानपूर्वक सुनो ! प्रजापालन में लीन तुंगध्वज नाम का एक राजा था। उसने भी
भगवान का प्रसाद त्याग कर बहुत ही दुख प्राप्त किया। एक बार वन में जाकर वन्य
पशुओं को मारकर वह बड़ के पेड़ के नीचे आया। वहाँ उसने ग्वालों को भक्ति-भाव से
अपने बंधुओं सहित सत्यनारायण भगवान का पूजन करते देखा। अभिमानवश राजा ने उन्हें
देखकर भी पूजा स्थान में नहीं गया और ना ही उसने भगवान को नमस्कार किया। ग्वालों
ने राजा को प्रसाद दिया।
संस्थाप्य पुनरागत्य भुक्तत्वा
सर्वे यथेप्सितम् ।
ततः प्रसादं सन्त्यज्य राजा
दुःखमवाप सः ॥ ५॥
तस्य पुत्रशतं नष्टं धनधान्यादिकं च
यत् ।
सत्यदेवेन तत्सर्वं नाशितं मम
निश्चितम् ॥ ६॥
अतस्तत्रैव गच्छामि यत्र देवस्य
पूजनम् ।
मनसा तु विनिश्चित्य ययौ
गोपालसन्निधौ ॥ ७॥
ततोऽसौ सत्यदेवस्य पूजां गोपगणैःसह
।
भक्तिश्रद्धान्वितो भूत्वा चकार
विधिना नृपः ॥ ८॥
लेकिन उसने वह प्रसाद नहीं खाया और
प्रसाद को वहीं छोड़ वह अपने नगर को चला गया। जब वह नगर में पहुंचा तो वहाँ सबकुछ
तहस-नहस हुआ पाया तो वह शीघ्र ही समझ गया कि यह सब भगवान ने ही किया है। वह दुबारा
ग्वालों के पास पहुंचा और विधि पूर्वक पूजा कर के प्रसाद खाया ।
सत्यदेवप्रसादेन
धनपुत्रान्वितोऽभवत् ।
इहलोके सुखं भुक्तत्वा चान्ते
सत्यपुरं ययौ ॥ ९॥
य इदं कुरुते सत्यव्रतं परमदुर्लभम्
।
शृणोति च कथां पुण्यां भक्तियुक्तः
फलप्रदाम् ॥ १०॥
धनधान्यादिकं तस्य भवेत्
सत्यप्रसादतः ।
दरिद्रो लभते वित्तं बद्धो मुच्येत
बन्धनात् ॥ ११॥
भीतो भयात् प्रमुच्येत सत्यमेव न
संशयः ।
ईप्सितं च फलं भुक्त्वा चान्ते
सत्यपुरंव्रजेत् ॥ १२॥
इति वः कथितं विप्राः
सत्यनारायणव्रतम् ।
यत् कृत्वा सर्वदुःखेभ्यो मुक्तो
भवति मानवः ॥ १३॥
विशेषतः कलियुगे सत्यपूजा फलप्रदा ।
केचित् कालं वदिष्यन्ति सत्यमीशं
तमेव च ॥ १४॥
सत्यनारायणं केचित् सत्यदेवं तथापरे
।
नानारूपधरो भूत्वा
सर्वेषामीप्सितप्रदम् ॥ १५॥
भविष्यति कलौ सत्यव्रतरूपी सनातनः ।
श्रीविष्णुना धृतं रूपं
सर्वेषामीप्सितप्रदम् ॥ १६॥
तो श्रीसत्यनारायण भगवान की कृपा से
सब कुछ पहले जैसा हो गया। दीर्घकाल तक सुख भोगने के बाद मरणोपरांत उसे स्वर्गलोक
की प्राप्ति हुई। जो मनुष्य परम दुर्लभ इस व्रत को करेगा तो भगवान सत्यनारायण की
अनुकंपा से उसे धन-धान्य की प्राप्ति होगी। निर्धन धनी हो जाता है और भयमुक्त हो
जीवन जीता है। संतान हीन मनुष्य को संतान सुख मिलता है और सारे मनोरथ पूर्ण होने
पर मानव अंतकाल में बैकुंठधाम को जाता है।
य इदं पठते नित्यं शृणोति
मुनिसत्तमाः ।
तस्य नश्यन्ति पापानि
सत्यदेवप्रसादतः ॥ १७॥
व्रतं यैस्तु कृतं पूर्वं
सत्यनारायणस्य च ।
तेषां त्वपरजन्मानि कथयामि
मुनीश्वराः ॥ १८॥
शतानन्दोमहाप्राज्ञःसुदामाब्राह्मणो
ह्यभूत् ।
तस्मिञ्जन्मनि श्रीकृष्णं ध्यात्वा
मोक्षमवाप ह ॥ १९॥
काष्ठभारवहो भिल्लो गुहराजो बभूव ह
।
तस्मिञ्जन्मनि श्रीरामं सेव्य
मोक्षं जगाम वै ॥ २०॥
उल्कामुखो महाराजो नृपो दशरथोऽभवत्
।
श्रीरङ्गनाथं सम्पूज्य श्रीवैकुण्ठं
तदाऽगमत् ॥ २१॥
र्धामिकः सत्यसन्धश्च
साधुर्मोरध्वजोऽभवत् ।
देहार्धं क्रकचैश्छित्त्वा दत्वा
मोक्षमवाप ह ॥ २२॥
तुङ्गध्वजो महाराजः
स्वायम्भुवोऽभवत् किल ।
सर्वान् धर्मान् कृत्वा
श्रीवैकुण्ठं तदाऽगमत् ॥ २३॥
भूत्वा गोपाश्च ते सर्वे
व्रजमण्डलवासिनः ।
निहत्य राक्षसान् सर्वान् गोलोकं तु
तदा ययुः ॥ २४॥
सूतजी बोले –
जिन्होंने पहले इस व्रत को किया है अब उनके दूसरे जन्म की कथा कहता हूँ। वृद्ध शतानन्द ब्राह्मण ने सुदामा का
जन्म लेकर मोक्ष की प्राप्ति की। लकड़हारे ने अगले जन्म में निषाद बनकर मोक्ष
प्राप्त किया। उल्कामुख नाम का राजा दशरथ होकर बैकुंठ को गए। साधु नाम के वैश्य ने
मोरध्वज बनकर अपने पुत्र को आरे से चीरकर मोक्ष पाया।महाराज तुंगध्वज ने स्वयंभू
होकर भगवान में भक्तियुक्त हो कर्म कर मोक्ष पाया।
॥ इति श्रीस्कन्दपुराणे रेवाखण्डे
श्रीसत्यनारायण व्रतकथायां पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५॥
॥ इस प्रकार श्रीस्कन्दपुराणके
अन्तर्गत रेवाखण्डमें श्रीसत्यनारायणव्रतकथाका यह पाँचवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥५॥
ईतिश्रीसत्यनारायणव्रतकथा
सम्पूर्ण: ॥
श्रीसत्यनारायणव्रतकथा
श्रीसत्यनारायण जी की आरती
जय लक्ष्मी रमणा,
जय श्रीलक्ष्मी रमणा ।
सत्यनारायण स्वामी जन –
पातक – हरणा ।। जय ।।टेक
रत्नजटित सिंहासन अदभुत छबि राजै ।
नारद करत निराजन घंटा-ध्वनि बाजै ।।
जय ।।
प्रकट भये कलि-कारण,
द्विजको दरस दियो ।
बूढ़े ब्राह्मण बनकर कंचन-महल कियो
।। जय ।।
दुर्बल भील कठारो,
जिन पर कृपा करी ।
चन्द्रचूड़ एक राजा,
जिनकी बिपति हरी ।। जय ।।
वैश्य मनोरथ पायो,
श्रद्धा तज दीन्हीँ ।
सो फल फल भोग्यो प्रभुजी फिर
अस्तुति कीन्हीं ।। जय ।।
भाव-भक्ति के कारण छिन-छिन रुप धरयो
।
श्रद्धा धारण कीनी,
तिनको काज सरयो ।। जय ।।
ग्वाल-बाल सँग राजा वन में भक्ति
करी ।
मनवाँछित फल दीन्हों दीनदयालु हरी
।। जय ।।
चढ़त प्रसाद सवायो कदलीफल,
मेवा ।
धूप –
दीप – तुलसी से राजी सत्यदेवा ।। जय ।।
सत्यनारायण जी की आरती जो कोई नर
गावै ।
तन मन सुख संपत्ति मन वांछित फल
पावै ।। जय॥
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