बृहत् पाराशर होरा शास्त्र अध्याय १२
बृहत् पाराशर होरा शास्त्र अध्याय १२ इस कारकांशफल अध्याय में कारकांशस्थितग्रह फल, द्वितीयभाव, तृतीय भाव, चतुर्थभाव, पञ्चमभाव, षष्ठभाव, सप्तमभाव, अष्टमभाव, नवमभाव, दशमभाव, एकादशभाव, द्वादशभावफल व विशेषफल का वर्णन हुआ है।
बृहत्पाराशर होराशास्त्र अध्याय १२
Vrihat Parashar hora shastra chapter 12
बृहत्पाराशरहोराशास्त्रम् द्वादशोऽध्यायः
अथ बृहत्पाराशरहोराशास्त्रम् बारहवाँ
अध्याय भाषा-टीकासहितं
बृहत् पाराशर होरा शास्त्र अध्याय १२- अथ कारकांशफलमाह
अधुना सम्प्रवक्ष्यामि
कारकांशाधिकान् ग्रहान् ।
योगसम्बन्धमात्रेग यथावत् फलदा
ग्रहाः ॥ १ ॥
अब मैं कारकांश के स्वामी ग्रहों के
फल को कह रहा हूँ, जिसके संबंध मात्रा
से योग का फल प्राप्त होता है ।। १।।
स्वांशकारककुण्डल्यां
नवमांशाधिपोऽथवा ।
यस्मिन् राशौ स्थिता विप्र
तद्राशिफलमुच्यते । ।२।।
आत्मकारकांश कुंडली में नवांश के
अधिपति जिस राशि में हो उसके अनुसार फल होता है ।।२।।
मेषादिमीनपर्यन्तं सर्वेषां
फलमादिशेत् ।
यथावद्भाषितं पूर्वं शूलिना
रुद्रयामले । । ३ ।
मेष से मीन पर्यन्त सभी राशियों का
फल इस प्रकार है ।। ३ ।।
आज्यांशकारकांशेषु तिष्ठन्ति च यदा
ग्रहाः ।
तदा मूषकमार्जारौ दुःखदौ भयकारकौ
।।४॥
यदि आत्मकारक मेष राशि के नवांश में
हो तो मूसा, बिलार दुःख देते हैं । । ४ । ।
सुयोगे च यदा विप्र मार्जारादि
सुखप्रदौ ।
वृषे च कारकांशे तु भयार्ती च चतुष्पदात्
।।५ ।
शुभग्रह के योग से मूसा,
बिलार आदि सुख देते हैं । वृष का नवांश हो तो चौपाये जानवरों से भय
होता है ।।५।।
शुभे चतुष्पदात्सिद्धिरिति तत्त्वं
द्विजोत्तम ।
मिथुने कारकांशे च
कण्ड्वादिरोगसम्भवः ।।६।।
शुभग्रह का योग हो तो चौपायों से
सुख होता है। मिथुन के नवांश में कारक हो तो खुजली आदि रोगों की संभावना होती है ।
। ६।।
कर्कांशे च जलाद्दुःखं जलभीतिर्न
संशयः ।
कुष्ठादिरोगसम्भूतिः शुभे
फलंविपर्ययः । ।७।।
कर्क के नवांश में कारक हो तो जल से
कष्ट वा जल का भय और कुष्ठ आदि रोग की संभावना होती है । ७ ॥
सिंहांशे कारके खेटे तिष्ठत्येवं
द्विजोत्तम ।
शुनकादि भयं दद्याच्छुभे
सिद्धिप्रदायकः ।।८।।
सिंह के नवांश में हो तो खाज आदि से
भय होता है । शुभग्रह का योग हो तो शुभ फल होता है । । ८ । ।
चरकारकाः
आत्म-
कारक |
अनात्म-
कारक |
भ्रातृ-
कारक |
मातृ-
कारक |
पुत्र-
कारक |
जाति-
कारक |
दारा-
कारक |
भौम |
चंद्रमा |
सूर्य |
गुरु |
बुध |
शुक्र |
शनि |
कन्यायां कारकांशे चेत्तिष्ठत्येवं फलं भवेत् ।
युग्मवत्कण्डुरोगार्त्तिर्वह्निदोषेण
दुःखभाक् ।।९।।
कन्यांश में आत्मकारक हो तो
मिथुनांश के समान ही कंडू (खुजली) आदि रोग से कष्ट होता है । । ९ ।।
तुलाख्यं कारकांशे च व्यापारेषु
रतोऽधिकः ।
क्रयविक्रयकर्त्ता च यदि जातो
नृपालये । । १० ।।
तुला कारकांश हो तो वह व्यापार में
अधिक संलग्न, खरीद-बिक्री करने में पटु होता
है । । १० ।।
वृश्चिके कारकांशे च सर्पादिभयकारकः
।
मातुः पयोधरे पीडा जायते द्विजसत्तम
। । ११ । ।
वृश्चिकांश में कारक हो तो सर्प आदि
से भय और माता के स्तन में पीड़ा होती है । । ११ ।।
चापस्थे कारकांशे च वाहनाद्भयमादिशेत्
।
उच्चात्प्रपतनं वापि कोपी
वस्तुसमन्वितः । । १२ ।।
धनु कारकांश हो तो वाहन से गिरने का
भय वा ऊँचे से गिरने का भय, क्रोधी और
वस्तुसंग्रही होता है ।।१२।।
नक्रकारकांशे विप्र
सिद्धिर्जलचरादयः ।
शङ्खमुक्ताप्रवालादिमत्स्यखेचरदेवताः
।। १३ ।।
मकर के अंश में कारक के होने से
मूँगा आदि, मछली एवं पक्षियों से लाभ होता
है । । १३ ।।
कुम्भाख्यकारकांशे च तडागादीनि
कारयेत् ।
कीर्त्तिमान्धर्मवान्सोऽपि जायते
द्विजसत्तम । । १४ । ।
कुम्भांश में कारक हो तो तालाब आदि
का रचयिता, यशस्वी और धार्मिक होता है । ।
१४ ।।
मीने च कारकांशे वै
सायुज्यमुक्तिभाग्भवेत् ।
शुभयोगे शुभं ब्रूयान्नशुभं
विपरीतके ।। १५ ।।
मीनांश में कारक हो तो साक्षात् मोक्ष पाता है। शुभग्रह के योग से शुभ फल और पापग्रह के योग से अशुभ फल होता है ।।१५।।
शुभां शुभराशौ वा कारके धनवान्
भवेत्।
लग्नांशे चेच्छुभो वा स्याद्राजा
भवति निश्चितम् ।। १६ ।।
यदि आत्मकारक शुभग्रह के अंश में वा
शुभग्रह की राशि में हो तो जातक धनी होता है। एवं आत्मकारकांश में अथवा लग्नांश में
शुभग्रह हो तो निश्चय ही राजा होता है । । १६ ।।
उपग्रहे शुभांशे
चेत्स्वोच्चस्वर्क्षे शुभर्क्षभे ।
पापदृग्योगरहिते चान्त्ये कैवल्यं
विनिर्दिशेत् ।।१७।।
यदि उपग्रह शुभग्रह के अंश में हो
अथवा अपनी उच्चराशि या अपनी राशि के शुभग्रह की राशि में हो,
पापग्रह के दृष्टि और योग से रहित हो तो अन्त में मोक्ष की प्राप्ति
होती है ।।१७।।
चन्द्रभृग्वारवर्गस्थे कारके
पारदारिकः ।
मिश्र मिश्रं विजानीयाद्विपरीते
विपर्ययम् । । १८ ।।
यदि आत्मकारक चन्द्र,
शुक्र या भौम के षड्वर्ग में हो तो परस्त्री का सुख भोगने वाला होता
है। उपर्युक्त फलों में मिश्रित ग्रह (शुभ और पाप दोनों) का संबंध हो तो मिश्रित
फल और विपरीत हो तो विपरीत फल कहना चाहिए ।। १८ ।।
बृहत् पाराशर होरा
शास्त्र अध्याय १२- कारकांशस्थितग्रहाणां फलम्
अथैकः कारकांशेषु रव्यादिस्तिष्ठति
ग्रहः ।
तेषां फलं प्रवक्ष्यामि शृणु त्वं
द्विजसत्तम । ।१९।।
अब सूर्यादि ग्रहों का फल
आत्मकारकांश के अनुसार कह रहा हूँ । । १९ । ।
कारकांशे यदा सूर्यस्तिष्ठति
द्विजवीर्ययुक् ।
आदावन्ते पुमान् सोऽपि राजकार्येषु
तत्परः ।।२०।।
यदि आत्मकारकांश में बलवान् सूर्य
हो तो जातक अवस्था के आदि और अंत मे राजकर्मचारी होता है ।।२० ॥
कारकांशे तु
पूर्णेन्दुर्दैत्याचार्येण वीक्षितः ।
शतभोगी भवेत्सोऽथ विद्याजीवी च
जायते । । २१ । ।
यदि कारकांश में पूर्णचन्द्रमा हो
और शुक्र से देखा जाता हो तो १०० वर्ष की आयु होती है और विद्या द्वारा जीविका
होती है ।। २१ । ।
कारकांशे यदा भौमे बलाढ्येन
युतेक्षिते ।
रसवादी कुन्तधारी वह्निकृज्जीवनं
भवेत् ।। २२ ।।
यदि कारकांश में भौम हो और किसी बली
ग्रह से युत वा दृष्ट हो तो रस बनाने वाला, कुँत
( माला) धारण करने वाला और अग्नि द्वारा जीविका प्राप्त करने वाला होता है ।। २२
।।
'कारकांशे यदा सौम्यः
तिष्ठत्येव बलाढ्यकः ।
शिल्पको व्यवहारी च वणिक्कृत्यकसे
द्विज ।। २३ ।।
यदि कारकांश में बुध हो तो और बली
हो तो शिल्पी, व्यवहारी और बनिए का कार्य करने
वाला होता है।।२३।।
कारकांशे गुरौ विप्र कर्मनिष्ठापरो
भवेत् ।
सर्वशास्त्राधिकारी च विख्यातः
क्षितिमण्डले ।। २४ ।।
यदि कारकांश में गुरु हो तो कर्म
करने वाला, सभी शास्त्रों का अधिकारी और
पृथ्वी पर प्रसिद्ध होता है ।। २४ ।
कारकांशे यदा शुक्रो राजमान्यः सदा
भवेत् ।
सदिन्द्रियः शतायुश्च कथनीयं
द्विजोत्तम ।। २५ ।।
'यदि कारकांश में शुक्र हो तो
राजा से सम्मान प्राप्त करता है, सुन्दर और १०० वर्ष की आयु
वाला होता है ।। २५ ।
कारकांशे यदा सौरिर्मृत्युलोके
प्रसिद्धियुक् ।
महतां कर्मणां वृत्तिः क्षितिपालेन
पूजितः । । २६ । ।
कारकांश में शनि हो तो संसार में
प्रसिद्ध,
बड़े कार्यों को करने वाला और राजा से पूजित होता है ।। २६ । ।
कारकांशे यदा राहुर्धनुर्धारी
प्रजायते ।
जाङ्गल्यलौहयन्त्रादिकारकश्चौरसङ्गमी
।।२७।।
कारकांश में राहु हो तो धनुष धारण
करने वाला, जंगली, लोह
के यंत्रों को बनाने वाला, चोर और संयमी होता है ।। २७ ।।
कारकांशे यदा केतुस्तिष्ठति
द्विजसत्तम ।
व्यवहारी गजादीनामुशन्ति परद्रव्यके
। । २८ । ।
कारकांश में केतु हो तो हाथी आदि का
व्यवहार दूसरे के द्रव्य से करने वाला होता है ।। २८ ।।
कारकांशे यदा विप्र संस्थितौ
रविसैंहिकौ ।
सर्पाद्भीतिर्भवेन्मृत्युः
शुभदृष्ट्या निवर्तते । । २९ ।।
यदि कारकांश में सूर्य और राहु हों
तो सर्प से भय या मृत्यु होती है, शुभग्रह की
दृष्टि हो तो निवृत्ति हो जाती है ।। २९ ।।
कारकांशे भानुतमौ शुभषड्वर्गसंयुतौ
।
विषवैद्यौ भवेन्नूनं विषहर्ता
विचक्षण ।। ३० ।।
कारकांश में सूर्य और राहु हों और
शुभ ग्रह के षड्वर्ग में हों तो विषवैद्य या विष का हरण करने वाला होता है ।। ३०
।।
भौमेक्षिते कारकांशे
भानुस्वर्भानुसंयुते ।
अन्यग्रहा न पश्यन्ति
स्ववेश्मपरदाहकः । । ३१ ।।
कारकांश में सूर्य और राहु हों,
उसे भौम देखता हो शेष ग्रह न देखते हो तो अपना और दूसरे का घर जलाने
वाला होता है । । ३१ ।।
सगुलिके कारकांशे
पूर्णेन्दुवीक्षिते द्विज ।
सति चौरैर्नीतधनः स्वयं चौरोऽथवा
भवेत् ॥ ३२ ॥
कारकांश में गुलिक हो और पूर्ण
चन्द्र से देखा जाता हो तो चोरों से धन अपहृत होता है अथवा स्वयं चोर होता है।।३२।।
सगुलिके कारकांशे
अन्यग्रहयुतेक्षिते ।
बुधदृष्टियुते वापि अण्डवृद्धिः
प्रजायते । । ३३ ।।
कारकांश में गुलिक हो और अन्य
ग्रहों से देखा जाता हो अथवा बुध से दृष्ट वा युत हो तो अंडवृद्धि होती है ।। ३३
।।
कारकांशे केतुयुक्ते
पापग्रहनिरीक्षिते ।
श्रोत्रच्छेदं भवेन्नूनं
कर्णरोगार्तिना द्विज । । ३४ ।।
कारकांश में केतु हो और पापग्रह से
देखा जाता हो तो कर्णरोग से पीडित होने से कान काटा जाता है ।। ३४ ।
कारकांशे स्थिते केतौ भृगुणा च
समीक्षिते ।
ते वा जायते विप्र
क्रियाकर्मसमन्वितः । । ३५ ।।
कारकांश में केतु हो और शुक्र से
दृष्ट वा युत हो तो क्रिया-कर्म से युक्त होता है । । ३५ ।।
कारकांशे स्थिते केतौ शनिसौम्यनिरीक्षिते
।
बलवीर्येण रहितो जायते सोऽपि
मानवः।।३६।।
कारकांश में केतु हो,
शनि-बुध से देखा जाता हो तो मनुष्य बलवीर्य से हीन होता है । । ३६
।।
संकेतौ कारकांशे च
बुधशुक्रनिरीक्षिते ।
जायते पौनःपुनिको दासीपुत्रोऽथवा
भवेत् ।। ३७ ।।
कारकांश में केतु हो और बुध-शुक्र
से देखा जाता हो तो रुक-रुक कर बोलने वाला यां दासीपुत्र होता है ।।३७ ।।
सकेतौ कारकांशे च
अन्यग्रहनिरीक्षिते ।
शनिदृष्टिविहीने च सत्याच्च रहितो
भवेत् ।। ३८ ।।
कारकांश में केतु हो,
शनि को छोड़कर शेष ग्रह देखते हों तो असत्य बोलने वाला होता है ॥३८॥
कारकांशे यदा विप्र
भृगुभास्करवीक्षिते ।
राजप्रेष्यो भवेद्बालो जायते नात्र
संशयः । । ३९।।
यदि कारकांश को शुक्र-सूर्य देखते
हों तो जातक राजा का नौकर होता है ।। ३९ ।।
बृहत् पाराशर होरा
शास्त्र अध्याय १२- कारकांशाद्धनभावफलम्
अंशात्कुटुम्बे भृग्वारवर्गे
स्यात्पारदारिकः ।
तयोर्दृग्योगकाभ्यां च भवेदामरणं
किल ।। ४० ।।
कारकांश से धन भाव में शुक्र-भौम का
षड्वर्ग हो तो परस्त्रीगामी होता है। यदि शुक्र-भौम देखते हों तो आमरण
परस्त्रीगामी होता है ।। ४० ।।
केतुना प्रतिबन्धः स्याद्गुरुणा
स्त्रैण एव च ।
राहुणा चार्थनिवृत्तिः स्याद्धने
एवं फलं भवेत् । । ४१॥
केतु देखता हो तो नहीं होता है,
गुरु देखता हो तो स्त्री के वश में होता है, राहु
देखता हो तो परस्त्री के लिए द्रव्य खर्च करता है । । ४१ ।।
कारकांशात्तृतीये च
पापखेटयुतेक्षिते ।
सशूरो जायते बालो
वीर्यवान्बहुविक्रमी । । ४२॥
कारकांश से तीसरे भाव में पापग्रह
युत हो वा देखते हों तो बालक शूरवीर एवं पराक्रमी होता है ।। ४२ ।।
कारकांशात्तृतीये च
शुभखेटयुतेक्षिते ।
जायते तत्त्वहृदयः कातरोऽपि विशेषतः
। । ४३ ।।
कारकांश से तीसरे भाव में शुभग्रह
हों वा देखते हों तो बालक शुद्ध हृदय का और विशेषकर कातर होता है ।। ४३ ।।
कारकांशात्तृतीये च षष्ठे
पापयुतेक्षिते ।
कृषिकर्मरतो नित्यं जायते नात्र
संशयः ।। ४४ ।।
कारकांश से तीसरे व छठे भाव में
पापग्रह हों या देखते हों तो बालक कृषिकर्म को करने वाला होता है ।। ४४ ।।
बृहत् पाराशर होरा
शास्त्र अध्याय १२- कारकांशाच्चतुर्थभावफलम्
पाताले कारकांशाच्च
शशिशुक्रयुतेक्षिते ।
प्रासादवान् भवेद्बालो
विचित्रगृहवान्भवेत् ।। ४५ ।
कारकांश से चतुर्थ स्थान में
चन्द्रमा,
शुक्र युत हों वा देखते हों तो विचित्र प्रासाद (किला) या गृह वाला
होता है ।।४५।।
कारकांशाच्च पाताले तुङ्गर्क्षे
कोऽपि खेचरः ।
हर्म्यमन्दिरसंयुक्तो ह्येत्युच्चो
बहुदीप्तिमान् । ।४६॥
चौथे में यदि कोई ग्रह अपनी
उच्चराशि का हो तो बहुत ऊँचा, खूबसूरत एवं
प्रकाशमान् गृह होता है ।। ४६ ।।
कारकांशाच्च पाताले
शनिराहुयुतेक्षिते ।
विप्रेच्छाटनपट्टीयुग्जायते मन्दिरं
द्विज ।। ४७ ।।
कारकांश से चौथे भाव में शनि-राहु
हों या देखते हों तो पत्थर गृह होता है ।। ४७ ।।
कारकांशाच्च पाताले
कुजकेतुशनीक्षिते ।
ऐष्टिकं मन्दिरं तस्य जायते नात्र
संशयः । । ४८ । ।
कारकांश से चौथे भाव में भौम,
केतु एवं शनि हों वा देखते हों तो ईटे का मकान होता है । । ४८ । ।
कारकांशाच्च पाताले
गुरुयुक्तनिरीक्षिते ।
दारवं मन्दिरं तस्य जायते नात्र
संशयः । । ४९ ।।
कारकांश से चौथे भाव में गुरु युक्त
हो वा देखता हो तो लकड़ी का गृह होता है ।। ४९ ।।
कारकांशाच्च पाताले
रवियुक्तनिरीक्षिते ।
तृणावेष्टितगृहं तस्य जायते नात्र
संशयः । । ५० ।
कारकांश से चौथे भाव में सूर्य युत
हो वा देखता हो तो फूस का गृह होता है ।। ५० ।।
बृहत् पाराशर होरा
शास्त्र अध्याय १२- कारकांशात्पञ्चमभावफलम्
स्वां तत्सुते वापि
गुरुचन्द्राभ्यां च ग्रन्थकृत्।
भृगुणा किञ्चिदूनोऽसौ तस्मान्न्यूनो
बुधेन च । । ५१ ।।
आत्म कारकांश में अथवा उससे पाँचवें
स्थान में चन्द्रमा - गुरु हों तो ग्रंथ बनाने वाला होता है। यदि शुक्र हो तो कुछ
न्यून होता है और बुध हो तो और भी न्यून होता है । । ५१ ।।
सुराचार्येण सर्वज्ञः ग्रन्थकर्त्ता
तथैव च ।
वेदवेदान्तविच्चापि न वाग्मी
शाब्दिकेऽपिच । ५२ ।।
केवल गुरु हो तो सर्वज्ञ और
ग्रन्थकर्त्ता होता है तथा वेद-वेदान्त को जानने वाला वैयाकरणी होते हुए भी वाग्मी
नहीं होता है ।। ५२ ।।
न्यायज्ञ: धरणीजेन बुधे मीमांसकस्तथा
।
सभाकस्तु शनिना गीतज्ञो रविणा तथा ।
। ५३ ।।
यदि भौम हो तो नैयायिक,
बुध हो मीमांसक, शनि हो तो सभा में मूक रहने
हाला और सूर्य हो तो गानविद्या में पंडित ।। ५३ ।।
शशिना सांख्ययोगज्ञः काव्यज्ञश्च
तथा द्विज ।
केतुना गणितज्ञश्च जायते नात्र
संशयः । । ५४ ।।
चन्द्रमा हो तो सांख्यशास्त्र और
काव्य का पंडित और केतु हो तो गणित का पंडित होता है । । ५४ ।।
उक्तफलानां साफल्यं
गुरुसम्बन्धमात्रतः ।
कारकांशाद्धने केचित्फलमेवं
ब्रुवन्ति हि । । ५५ ।।
जो योग ऊपर कहे गये हैं सभी में
गुरु का योग और दृष्टि हो तो योग का फल अवश्य होता है। किसी-किसी का मत है कि
कारकांश से दूसरे स्थान में भी इसी प्रकार विचार करना चाहिए । । ५५ ।।
बृहत् पाराशर होरा
शास्त्र अध्याय १२- कारकांशात्षष्ठभावफलम्
स्वांशात्तृतीये षष्ठे च
पापस्तिष्ठेच्चे द् द्विज ।
कर्षको जायते बालः नात्र कार्या विचारणा
। । ५६ ।।
आत्मकारक से तीसरे,
छठे स्थान में पापग्रह हों तो जातक किसान होता है।।५६।।
बृहत् पाराशर होरा
शास्त्र अध्याय १२- कारकांशात्सप्तमभावफलम्
कारकांशांच्च द्यूने
चेद्गुरुचन्द्रयुते द्विज ।
सुन्दरी गृहिणी तस्य पतिभक्तिपरायणा
।। ५७ ।।
आत्मकारक से सातवें भाव में
गुरु-चन्द्रमा हों तो जातक की स्त्री सुन्दरी और पतिव्रतां होती है ।। ५७ ।।
राहुणा विधवा भार्या जायते नात्र
संशयः ।
शनिनाच वयोधिक्या रोगिणी वा
तपस्विनी । । ५८ । ।
यदि सातवें राहु हो तो विधवा स्त्री
का संयोग होता है । यदि शनि हो तो अवस्था में अधिक, रोगिणी या तपस्विनी होती है ।। ५८ ।।
भौमेन विकलाङ्गी च तथा
कान्ताद्यलक्षणा ।
रविणा स्वकुले गुप्ता आसक्ता
परवेश्मनी । । ५९ ।।
भौम हो तो अंग से हीन,
सूर्य हो तो अपने कुल में गुप्तरीति से रहती हुई दूसरे के वश में
रहती है । । ५९ ।।
बुधे कलावती ज्ञेया कलाभिज्ञा
प्रजायते ।
शुक्रेण तद्विज्ञेया निर्विशङ्कं
द्विजोत्तम । । ६० ।।
बुध हो तो कला को जानने वाली स्वयं
कलाविद् होती है । इसी प्रकार शुक्र से भी जानना चाहिए । । ६० ।।
बृहत् पाराशर होरा
शास्त्र अध्याय १२- कारकांशादष्टमभावफलम्
कारकांशाल्लये चन्द्रे
कुजराहुनिरीक्षिते ।
क्षयरोगो भवेत्तस्य
श्वासकासादिरोगयुक् । । ६१ ।।
कारकांश से आठवें भाव में चन्द्रमा
हो और भौम-राहु से देखा जाता हो तो जातक क्षयरोग और श्वास- कास रोग से युक्त होता
है । । ६१ । ।
बृहत् पाराशर होरा
शास्त्र अध्याय १२- कारकांशन्नवमभावफलम्
कारकांशाच्च नवमे शुभखेटयुतेक्षिते
।
सत्यवादी गुरोर्भक्तः स्वधर्मनिरतो
भवेत् । । ६२ ।।
कारकांश से नवम स्थान शुभग्रह से
युत- दृष्ट हो तो जातक सत्यवादी, गुरुभक्त,
अपने धर्म में आसक्त होता है ।। ६२ ।।
कारकांशाच्च नवमे पापग्रहयुतेक्षिते
।
स्वधर्मनिरत बालो मिथ्यावादी
भवेद्विज ।। ६३ ।।
कारकांश से नवम स्थान पापग्रह से
युत दृष्ट हो तो अपने धर्म से रहित और असत्यवादी होता है । । ६३ ।। ·
कारकांशाच्च नवमे शनिराहुयुतेक्षिते
।
गुरुद्रोही भवेद्विप्र शास्त्रेषु
विमुखो नरः । । ६४।।
कारकांश से नवम भाव शनि-राहु से
दृष्ट युत हों तो गुरु से द्रोह करने वाला और मूर्ख होता है । । ६४ ।।
कारकांशाच्च नवमे
गुरुभानुयुतेक्षिते ।
तदापि गुरुद्रोही स्याद्गुरुवाक्यं
न मन्यते । । ६५ ।।
कारकांश से नवम भाव गुरु-सूर्य से
युत-दृष्ट हों तो भी गुरुद्रोही और गुरु के वचन को न माननेवाला होता है । । ६५ ।।
कारकांशाच्च नवमे भृगुभौमयुतेक्षिते
।
षड्वर्गाधिकयोगे च मरणं पारदारिकः ।
। ६६ ।।
कारकांश से नवम भाव शुक्र-भौम से
युत - दृष्ट हों तो और इन्हीं का षड्वर्ग अधिक हो तो परस्त्री के द्वारा मरण होता
है । । ६६ ।।
कारकांशाच्च नवमे बुधयुक्तेक्षिते
द्विज ।
परस्त्रीसङ्गमाद्द्बालो बन्धको
जायते ध्रुवम् ।। ६७ ।।
कारकांश से नवम भाव बुध से युत -
दृष्ट हो तो परस्त्रीसंगम से दुष्ट प्रकृति का होता है । । ६७ ।।
कारकांशाच्च नवमे गुरुयुक्तेक्षिते
यदा ।
स्त्रीलोलुपो भवेद्बालो. विषयी नैव
जायते । । ६८ ।।
कारकांश से नवम भाव गुरु से
युत-दृष्ट हो तो स्त्रीलोलुपं होता है, किन्तु
विषयी नहीं होता है । । ६८ ।।
बृहत् पाराशर होरा
शास्त्र अध्याय १२- कारकांशाद्दशमभावफलम्
दशमे कारकांशाच्च बुधेन समवीक्षिते
।
व्यापारे बहुलाभश्च
महत्कर्मविचक्षणः ।।६९ ।।
कारकांश से दशम भाव बुध से देखा
जाता हो तो व्यापार में बहुत लाभ और बड़े-बड़े काम होते हैं । । ६९ ।।
कारकांशाच्च दशमे रविणा संयुतो यदि
।
गुरुदृष्टे तदा विप्र जायते
योगकारकः । । ७० ।।
कारकांश से दशम में रवि हो और गुरु
से देखा जाता हो तो राजयोग होता है ।। ७० ।।
कारकांशाच्च दशमे शुभखेटनिरीक्षिते
।
स्थिरचित्तो भवेद्बालो गम्भीरो
बहुवीर्यवान् ।।७१ । ।
कारकांश से दशम भाव को शुभग्रह
देखता हो तो बालक स्थिरचित्त, गंभीर और
बलवान् होता है । । ७१ ।।
बृहत् पाराशर होरा
शास्त्र अध्याय १२- कारकांशाद्व्ययभावफुलम्
कारकांशाद्व्ययस्थाने उच्चस्थे च
शुभग्रहे ।
सङ्गतिर्जायते तस्य
शुभलोकमवाप्नुयात् ।। ७२ ।।
कारकांश से बारहवें भाव में अपनी
उच्चराशि में कोई शुभग्रह हो तो उस जातक को सद्गति और शुभ लोक की प्राप्ति होती है
।। ७२ ।।
कारकांशाद्व्यये केतौ
शुभखेटेर्युतेक्षिते ।
तदापि जायते मुक्तिः सायुज्यपदमाप्नुयात्
।।७३।।
कारकांश से बारहवें भाव में केतु हो,
शुभग्रह से देखा जाता हो वा दृष्ट हो तो भी मुक्ति होती है और
स्वर्ग की प्राप्ति होती है ।। ७३ ।।
मेषेऽथ वापि कोदण्डे कारकांशात्
व्यये शिखी ।
शुभग्रहेण सन्दृष्टे
कैवल्यपदमाप्नुयात् ।। ७४ ।।
कारकांश से बारहवें भाव में मेष वा
धनु राशि में केतु हो, शुभग्रह से दृष्ट
हो तो मोक्षपद की प्राप्ति होती है । ।७४ ।।
केवलेऽपि व्यये केतुः
पापग्रहयुतेक्षिते ।
न मुक्तिर्जायते तस्य शुभलोकं न
पश्यति । । ७५ ।।
रविणा संयुतें केतौ
कारकांशाद्व्ययस्थिते ।
गौर्यां भक्तिर्भवेत्तस्य शाक्तिको
जायते नरः । । ७६ ।।
केवल बारहवें भाव में केतु हो और
पापग्रह से युत - दृष्ट हो तो उसकी मुक्ति नहीं होती है और मोक्ष भी नहीं होता है।
कारकांश से बारहवें भाव में केतु सूर्य से युत हो तो पार्वती की भक्ति करने वाला
शाक्त होता है।।७५-७६।।
रविभक्तिर्भवेत्तस्य निर्विशङ्कं
द्विजोत्तम ।
चन्द्रेण संयुते केतौ कारकांशात्
व्ययस्थिते । ।७७।।
कारकांश से बारहवें केतु चन्द्रमा
से युत हो तो सूर्य का उपासक होता है ।। ७७ ।।
शुक्रेण संयुते केतौ कारकांशात्
व्ययस्थिते ।
समुद्रतनयाभक्तिर्जायतेऽसौ समृद्धिमान्
। । ७८ ।।
कारकांश से बारहवें केतु शुक्र से
युत हो तो लक्ष्मी का उपासक और धनी होता है । । ७८ ।।
कुजेन स्कन्दभक्तो वा जायते
द्विजसत्तम ।
वैष्णवो बुधसौरिभ्यां गुरुणा
शिवभक्तिमान् । ।७९।।
भौम हो तो स्कंद (स्वामि कार्तिक)
की भक्ति,
बुध-शनि से युत हो तो विष्णु का उपासक, गुरु
से युत हो तो शिव का उपासक।।७९।।
राहुणा तामसीं दुर्गां
भूतप्रेतादिसेवकृत् ।
हेरम्बभक्तः शिखिना स्कन्दभक्तोऽथ
वा भवेत् । ।८० ।।
राहु हो तो तामसी दुर्गा का और
भूतप्रेतादि का सेवक होता है। केतु हो तो गणेश वा स्कंद का उपासक ।। ८० ।।
कारकांशात् व्यये शौरिः पापराशौ यदा
भवेत् ।
तदैव क्षुद्रदेवस्य भक्तिस्तस्य न
संशयः । । ८१ ॥
कारकांश से बारहवें शनि पापग्रह की
राशि में हो तो क्षुद्रदेवता का उपासक । । ८१ ।
पापर्क्षेऽपि व्यये शुक्रस्तदापि
क्षुद्रसेवकः ।
कारकान्यूनभागो हि अमात्यो जायते
ग्रहः । । ८२ । ।
बारहवें भाव में पापग्रह की राशि
में शुक्र हो तो भी क्षुद्रदेवता का सेवक होता है। आत्मकारक से न्यून अंशवाला
अमात्यकारक होता है ।। ८२ ।
अमात्यात् द्वादशे राशौ पापर्क्षे
पापसंयुते ।
तदापि क्षुद्रदेवस्य भक्तिर्भवति
निश्चितम् ।।८३ ।।
अमात्य से बारहवें भाव में पापग्रह
की राशि पापयुत हो तो भी क्षुद्रदेवता का उपासक होता है ।। ८३ ।।
बृहत् पाराशर होरा
शास्त्र अध्याय १२- विशेषफलमाह
अंशात्त्रिको पापे द्वे तान्त्रिको
जायते नरः ।
पापदृष्टे क्षुद्रदेवः शुभेन
शुभसेवकः।।८४।।
आत्मकारक से ९वें,
५वें भाव में दो पापग्रह हों तो जातक तांत्रिक होता है । पापग्रह
देखता हो तो क्षुद्रदेवता का और शुभग्रह देखता हो तो शुभ देवता का उपासक होता है ।
। ८४ ।
पापैर्निरीक्षिते तत्र
तन्त्रविग्राहको भवेत् ।
शुभैर्निरीक्षिते वापि
तन्त्रानुग्रहकारकः । । ८५ । ।
यदि पापग्रह देखते हों तो निग्राहक
और शुभग्रह देखते हों तो अनुग्राहक होता है ।। ८५ ।।
कारकांशेन्दुशुकौ च
शुभग्रहनिरीक्षितौ ।
रसवादी भवेद्बालो धातूनां भस्मकारकः
। । ८६ ॥
कारकांश में चन्द्रमा और शुक्र हों
तथा शुभग्रह से देखे जाते हों तो रस बनाने वाला वैद्य होता है । । ८६ ।।
शुक्रेन्दू बुधसन्दृष्टौ सद्वैद्यो
हि नरो भवेत् ।
पीयूषपाणिः कुशलः सर्वरोगहरो द्विज
। । ८७ ।।
शुक्र-चन्द्रमा को बुध देखता हो तो
सद्वैद्य,
कुशल और सभी रोगों को हरने वाला होता है ।। ८७ ।।
अंशाच्चतुर्थगे चन्द्रे
दैत्याचार्यनिरीक्षिते ।
श्वेतकुष्ठी भवेन्नूनं निर्विशङ्कं
द्विजोत्तम ।। ८८ ।।
कारक चौथे स्थान में चन्द्रमा हो और
शुक्र से देखा जाता हो तो श्वेतकुष्ठी होता है ।। ८८ ।।
अंशाच्चतुर्थगे चन्द्रे धरापुत्रेण
वीक्षिते ।
राजरोगो भवेत्तस्य रक्तपित्तार्तिको
भवेत् ।। ८९ ।।
कारक से चौथे स्थान में चन्द्रमा को
भौम देखता हो तो राजरोग (यक्ष्मा) और रक्तपित्त से कष्ट होता है । । ८९ ।।
अंशाच्चतुर्थगे चन्द्रे शिखिना
वीक्षिते सति ।
नीलकुष्ठं भवेत्तस्य निर्विशङ्कं
द्विजोत्तम । । ९० ।।
केतु कारकांश से चौथे चन्द्रमा को
देखता हो तो नीलकुष्ठ होता है ।।९० ।।
चतुर्थे पञ्चमे वापि युतौ राहुकुजो
यदि ।
क्षयरोगो भवेत्तस्य चन्द्रदृष्ट्या
विशेषतः । ।९१।।
कारकांश से चौथे या पाँचवें
राहु-भौम हों तो क्षयरोग होता है। चन्द्रमा देखता हो तो विशेषकर कुष्ठरोग होता है
।।९१।।
स्वशात्सुते वापि केवलः संस्थितः
कुजः ।
पटकादि भवेत्तस्य निर्विशङ्कं द्विजोत्तम
। । ९२ ।।
कारकांश से चौथे या पाँचवें केवल
भौम हो तो पिटक आदि क्षुद्र रोग होते हैं ।। ९२।।
तत्र स्थिते च शिखिना
ग्रहणीरोगपीडितः ।
स्वर्भानुर्गुलिके तत्र विषवैद्यो
विषार्त्तिकः । । ९३।।
यदि उन्हीं भावों में केतु हो तो
संग्रहणी रोग होता है । यदि उक्त भावों में राहु और गुलिक हो तो विषवैद्य या विष
से कष्ट पाने वाला होता है ।। ९३ ।।
कारकांशाद्धने तुर्ये केवले
संस्थिते शनौ ।
धनुर्विद्याधिको बालो जायते नात्र
संशयः । । ९४ । ।
कारकांश से दूसरे या चौथे भाव में
शनि हो तो धनुष विद्या को जानने वाला होता है । । ९४ ।।
कारकांशात्सुखे वित्ते केवले
संस्थिते शिखी ।
घटिकायन्त्रवादी
स्यादिष्टशोधनतत्परः ।। ९५ ।।
कारकांश से चौथे वा दूसरे भाव में
यदि केतु हो तो घटिकायंत्र को जानने वाला होता है । । ९५ ।।
उक्तस्थाने स्थिते सौम्ये जातस्तु
परमहंसकः ।
तथा संन्यस्तकं ज्ञेयं निर्विशङ्को
द्विजोत्तम । । ९६ ।।
पूर्वोक्त स्थान में बुध हो तो
परमहंस या संन्यासी दंडधारी । । ९६ । ।
उक्तस्थानस्थिते राहौ
लोहयन्त्रादिकारकः ।
रविणा खड्गधारी च कुजेन कुन्तंधारकः
। । ९७ ।।
राहु हो तो लोह के यंत्रों को बनाने
वाला,
रवि हो तो खड्ग धारण करनेवाला और भौम हो तो कुंत (भाला) धारण करने
वाला होता है । । ९७ ।।
चन्द्रेज्यौ कारकांशे च तथा
तत्पञ्चमे स्थितौ ।
ग्रन्थकर्त्ता भवेन्नूनं
सर्वविद्याविशारदः । । ९८ ।।
चन्द्रमा और गुरु कारकांश में हो
अथवा उससे पाँचवें भाव में हो तो बालक सभी विद्याओं को जानने वाला और ग्रंथकार
होता है । । ९८ ।।
उक्तस्थानगते शुक्रे
स्वल्पग्रन्थकरो द्विज ।
उक्तस्थानगते सौम्ये
किञ्चिद्ग्रन्थकरो हयसौ । ।९९ ।।
यदि उक्त स्थान में शुक्र हो तो
अल्प ग्रंथकार होता है। यदि बुध हो तो कुछ ग्रंथकार होता है ।। ९९ ।।
शुक्रेण काव्यकर्ता च प्राकृतग्रन्थतत्परः
।
गुरुणा सर्वग्रन्थानां कारको
द्विजसत्तम । । १०० ।।
शुक्र हो तो काव्य करने वाला,
गुरु हो तो सभी ग्रंथों को करनेवाला होता है । । १०० ।।
उक्तस्थानगतः शौरिः सभाजाड्यो
भवेन्नरः ।
मीमांसको भवेन्नूनमुक्तस्थानगते
बुधः । । १०१ । ।
यदि शनि हो तो सभामूक होता है। उक्त
स्थान में बुध हो तो मीमांसक होता है । । १०१ । ।
कारकांशे धरासूनुर्लग्ने वा
नवपञ्चमे ।
नैयायिको भवेन्नूनं सुष्ठुकाव्यकरो
नरः । । १०२ । ।
कारकांश लग्न में वा नवम- पंचम में
हो तो नैयायिक और कविता करनेवाला होता है । । १०२ ।।
कारकांशे निशानाथे त्रिकोणे चाथ
लग्नगे ।
सांख्यशास्त्रज्ञनिपुणो जायते
मतिमान्नरः । । १०३ ।।
कारकांश में वा त्रिकोण वा लग्न में
यदि चन्द्रमा हो तो सांख्यशास्त्र को जानने वाला होता है । । १०३ ।।
कारकांशे स्थिते केतौ पञ्चमे वापि
संस्थिते ।
गणितज्ञो भवेन्नूनं
ज्योतिश्शास्त्रविशारदः । । १०४ ।।
कारकांश में या पाँचवें भाव में
केतु हो तो गणित को जानने वाला ज्योतिषशास्त्र में प्रवीण होता है । । १०४ ।।
सुराचार्येण
सम्बन्धात्साम्प्रदायिकसिद्धिकृत् ।
ये योगा पञ्चमे भावे यथावद्भाषितं
मया । । १०५ । ।
सभी योगों में गुरु का संबंध होने
से साम्प्रदायिक कार्यों की सिद्धि होती है। जो योग पाँचवें भाव में कहा है उसमें
गुरु का योग होने से फल होता है ।। १०५ ।।
वित्तस्थानेऽपि ते ज्ञेया
पूर्ववत्फलसिद्धिदम् ।
कोऽपि तृतीयभावे तु कथयन्ति पुरो
द्विज । । १०६।।
जो योग मैंने पाँचवें भाव में कहे
हैं उन्हें दूसरे भाव में भी जानना चाहिए। किसी प्राचीन आचार्य ने तीसरे भाव में
भी देखने को कहा है । । १०६ ।।
कारकांशे धने केतौ तथा भाग्यालये
गते ।
पापग्रहेण सन्दृष्टे वाचालश्च
भवेन्नरः ।। १०७ ।।
कारकांश में वा उससे दूसरे या ९वें
भाव या ५ वें भाव में केतु हो और पापग्रह से देखा जाता हो तो मनुष्य वाचाल होता है
। । १०७।।
अंशाल्लग्नात्तथारूढाद्धने रन्ध्रे
स्थिते द्विज ।
'पापसाम्ये च
विज्ञेयो योगः केमद्रुमो भवेत् । । १०८ ।।
कारकांश लग्न तथा आरूढलग्न से दूसरे,
आठवें भाव में यदि समान पापग्रह हो तो केमद्रुम योग होता है।।१०८।।
चन्द्रदृष्टिविशेषेण योगः केमद्रुमो
मतः ।
द्वितीयाष्टमभावाभ्यां योगोऽयं
कथ्यते द्विज । । १०९ ।।
चन्द्रमा देखता हो तो विशेष रूप से
केमद्रुम होता है। दूसरे और आठवें भाव में विशेषकर यह योग होता है । । १०९ ।।
कारकांशेषु ये योगाः पूर्वोक्ता
गदितो मया ।
तत्तद्राशिदशापाके सर्वेषां
फलमादिशेत् । । ११० ।
कारकांश से जिन योगों को मैंने कहा
है उनका फल उन राशियों के दशा - अंतर में होता है । । ११० ।।
एवं
दशाप्रदाद्राशेर्द्वितीयाष्टमयोर्द्विज ।
ग्रहसाम्ये च विज्ञेयः केमदुः
शशिनेक्षिते । । १११ । ।
इसी प्रकार दशाप्रद राशि से दूसरे,
आठवें भाव में ग्रहसाम्य हो और चन्द्रमा देखता हो तो केमद्रुम योग
होता है।।१११।।
दशाप्रारम्भसमये शोधयेज्जन्मलग्नवत्
।
सूर्यादिखेचरान् स्पष्टान्
साधयेज्जन्मवद्द्द्विज । ।११२ । ।
दशा प्रवेश समय में सूर्यादि ग्रहों
और लग्न को साधना चाहिए । । ११२ ।।
तत्र वित्ताष्टमे भावे ग्रहसाम्यो
यदा भवेत् ।
तदा केमद्रुमो
ज्ञेयश्चन्द्रदृष्ट्या विशेषतः । ।११३ । ।
उस समय उक्त भावों में ग्रहसाम्य और
चन्द्रमा की दृष्टि हो तो केमद्रुम योग होता है ।। ११३ ।।
एवं तन्वादिभावानां दशारम्भेषु
योजयेत् ।
तत्तद्ग्रहानुसारेण फलं वाच्यं
बुधैः सदा । । ११४ । ।
इसी प्रकार तनु आदि भावों की दशा के
आरंभ में भी योजना करना चाहिए। क्योंकि उस समय के ग्रह के अनुसार ही फल होता है।।
११४।।
इति: बृहत्पाराशरहोरायां पूर्वखण्डे
सुबोधिन्यां कारकांशफलकथनं नामाऽष्टमोऽध्यायः ।
आगे जारी............. बृहत्पाराशरहोराशास्त्र अध्याय 13
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