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बृहत् पाराशर होरा शास्त्र अध्याय १३

बृहत् पाराशर होरा शास्त्र अध्याय १३ 

बृहत् पाराशर होरा शास्त्र अध्याय १३ में राशियों का आरूढ़ पद का वर्णन हुआ है। लग्नेश, लग्न से जितने भाव दूर हो उन भावों को गिन लें और लग्नेश जहाँ स्थित है वहाँ से उतने ही भाव गिनें जितने लग्न से लग्नेश तक गिनें थे, जो भाव प्राप्त होता है इस भाव को आरूढ़ लग्न या पद लग्न कहते हैं।

बृहत् पाराशर होरा शास्त्र अध्याय १३

बृहत्पाराशर होराशास्त्र अध्याय १३   

Vrihat Parashar hora shastra chapter 13   

बृहत्पाराशरहोराशास्त्रम् त्रयोदशोऽध्यायः

अथ बृहत्पाराशरहोराशास्त्रम् तेरहवाँ अध्याय भाषा-टीकासहितं

बृहत् पाराशर होरा शास्त्र अध्याय १३- अथाऽऽरूढमाह

अधुना सम्प्रवक्ष्यामि राश्यारूढपदं द्विज ।

राशीनां द्वादशानान्तु यावदीशाश्रयो भवेत् ॥ १ ॥

अब मैं राशि का आरूढ़ - पद कहता हूँ- बारहों राशियों का उसके स्वामी जहाँ बैठे हों, उस राशि के राशि की संख्या जितनी हो । । १ । ।

संख्या त्वीशोदयादग्रे समाना तत्पदं वदेत् ।

राशिवद्ग्रह आरूढं ज्ञायते गणकैर्जनैः ।।२।।

उतनी संख्या और आगे गिनने से जो राशि हो वही आरूढ़ लग्न यां पद होता है। इसी प्रकार अर्थात् राशि के ही समान ग्रहों का भी आरूढ़ लग्न होता है ।।२।।

यावद्दूरं यस्य राशिस्तावत्संख्याक्रमेण वै।

अग्रे लग्नारूढपदं ज्ञायते द्विजसत्तम । । ३ ॥

जिस ग्रह की राशि उस ग्रह से जितनी दूर हो उतनी ही संख्या आगे उस ग्रह की लग्नारूढ़ राशि होती है ।।३।।

जनुर्लग्नाल्लग्नस्वामी यावद्दूरं हि तिष्ठति ।

तावद्दूरं तदग्रे च लग्नारूढं च कथ्यते ॥ ४ ॥

जन्मलग्न से लग्नेश जितनी दूर राशि पर हो उतनी ही राशि आगे जो राशि हो उसे लग्नारूढ़ राशि रहते हैं ।।४।

यदि लग्नेश्वरः स्वर्क्षे कलत्रे संस्थितोऽथवा ।

आरूढलग्नमित्याहुर्जन्मलग्नं द्विजोत्तम ।।५।।

यदि लग्नेश अपनी राशि के सप्तम में हो तो जन्मलग्न ही आरूढ़ लग्न होती है । । ५ ।।

एकं तन्वादिभावानां भावारूढपदं भवेत् ।

यत्र यत्र ग्रहा लग्ने तत्र तत्र सुसंलिखेत् ।। ६ ।।

इसी प्रकार तन्वादि भावों का प्रत्येक का आरूढ़ बनाना चाहिए । ६ ॥

इस प्रकार लग्नारूढ़ को लग्न मानकर चक्र बनावे। उसमें जो ग्रह जिस स्थान में हो वहाँ लिखकर फल कहे ।

विशेष- यहाँ पद और आरूढ़ शब्द दोनों एकार्थक हैं । जैमिनि के मत से यदि लग्नेश लग्न से चौथे भाव में हो तो चतुर्थभावगत राशि और सातवें भाव में हो तो दशमभावगत राशि लग्न का पद होता है । जैसे मिथुन लग्न का स्वामी बुध वृश्चिक राशि में है, मेषादि गणना से वृश्चिक की संख्या ५ है, अतः वृश्चिक से ५वीं मेष राशि ही मिथुन लग्न का पद हुआ। प्रायः लग्न के पद से ही विचार करना चाहिए ।

बृहत् पाराशर होरा शास्त्र अध्याय १३- पदादेकादशस्थानफलम्

पदादेकादशे स्थाने शुभग्रहयुतेक्षिते ।

लक्ष्मीवाञ्जायते बालः प्रजावाञ्छीलसंयुतः ॥७ ॥ 

पद से ११वें भाव में शुभग्रह हों या देखते हों तो बालक धनी, पुत्रवान् और शीलवान् होता है ।।७।।

वित्तोपार्जनन्यायेन नीतिवाञ्जायते सदा ।

नरो न नास्तिको नूनं न तु शास्त्रविरुद्धकृत्।।८।

सन्मार्ग से द्रव्य पैदा करने वाला नीतियुक्त होता है और धार्मिक तथा शास्त्रज्ञ होता है । । ८ । ।

पदादेकादशे विप्र पापखेटयुतेक्षिते ।

अन्यायोपार्जितं वित्तं विरुद्धं शास्त्रमार्गतः ।। ९ ।।

यदि पद से ११ वें भाव में पापग्रह वा पापग्रह देखते हों तो अन्याय से द्रव्य को पैदा करने वाला और शास्त्र से अनभिज्ञ होता है ।।९।।

मिश्रमिश्रफलं ज्ञेयमुच्चमित्रादि क्षेत्रगः ।

बहुधा जायते लाभो यत्र तत्र द्विजोत्तम । । १० ।।

यदि शुभग्रह और पापग्रह दोनों से दृष्ट-युत हों तो दोनों फल होता है। यदि उच्च - मित्र आदि के गृह में हों तो प्रायः लाभ ही होता है । । १० । ।

आरूढाल्लाभभवनं ग्रहः पश्येत्तु न व्ययम्।

यस्य जन्मनि सोऽपि स्यात्प्रबलो धनवानपि । । ११ । ।

यदि शुभाशुभ ग्रह उच्चराशि में बैठे हों और ११ वें भाव को देखते हों तो अनेक प्रकार से लाभ होता है, परन्तु १२वें भाव को न देखते हों तो ।। ११ । ।

दृष्टग्रहाणां बाहुल्ये तथा द्रष्टरि तुङ्गगे ।

सार्गले चापि तत्रापि बह्वर्गलसमागमे । । १२ ।।

यदि बहुत से ग्रह अपनी उच्चराशि में होकर ११ वें भाव को देखते हों और अर्गला योग करते हों । । १२ ।।

शुभग्रहार्गले तत्र तत्राप्युच्चग्रहार्गले ।

सुखानि स्वामिनां दृष्टे लग्नभाग्यादिगेन वा । ।१३।।

उच्चराशिस्थ शुभग्रह का अर्गला योग हो तो बालक अत्यंत सुख को पाता है ।। १३ ।।

जातस्य पुंसः प्राबल्यं निर्दिशेदुत्तरोत्तरम् ।

उक्तयोगेषु खेटाश्चेद्द्वादशं नैव पश्यति । । १४ ।।

लग्न, भाग्य में बैठे हुए ग्रह से देखा जाता हो,जो द्वादशभाव को न देखता हो तो जातक उत्तरोत्तर उन्नति करता है।।१४।।

बृहत् पाराशर होरा शास्त्र अध्याय १३- पदाद्द्वादशभावादीनां फलम्

आरूढाद्द्द्वादशे विप्र शुभपापयुतेक्षिते ।

व्ययाधिक्यं भवेदेवं विशेषोपार्जनात्तथा । । १५ ।।

पद से १२ वें भाव में शुभग्रह-पापग्रह युत हों और देखते हों तो विशेष लाभ के कारण द्रव्य का अधिक खर्च होता है।। १५।।

शुभग्रहे सुमार्गेषु कुमार्गात्पापखेचरैः।

मिश्रमिश्रफलं वाच्यं यथालाभेषु पूर्ववत् । । १६ ।।

शुभग्रह का संबंध होने से सुमार्ग में और पापग्रह का संबंध होने से कुमार्ग में व्यय होता है। दोनों (शुभ- पाप) के रहने से दोनों मार्ग में व्यय होता है ।। १६ ।।

आरूढाद्द्वादशे शुक्रे भानुस्वर्भानुवीक्षिते ।

राजमूलाद्व्ययं वाच्यं चन्द्रदृष्ट्या विशेषतः ।।१७।।

आरूढ से १२वें शुक्र हो, सूर्य-राहु से देखा जाता हो तो राजा के द्वारा व्यय होता है। चन्द्रमा देखता हो तो विशेष व्यय होता ही है । । १७ ।।

आरूढाद्द्वादशे सौम्ये शुभखेटयुतेक्षिते ।

ज्ञातिमध्ये व्ययो नित्यं पापदृक्कलहाद्व्ययः । ।१८।।

आरूढ़ से १२वें भाव में बुध हो और शुभग्रह से दृष्ट वा युत हो तो जाति (भाई-बंधु) में व्यय होता है और पापग्रह देखता हो तो कलह होने से व्यय होता है । । १८ ।।

पदाद्व्यये सुराचार्ये वीक्षिते चान्यखेचरैः ।

करमूलाद्व्ययं वाच्यं करव्याजेन वै द्विज ।। १९ ।।

पद से १२वें भाव में गुरु हो और अन्य ग्रहों से देखा जाता हो तो (लगान) आदि से व्यय होता है । । १९ ।।

आरूढाद्द्वादशे सौरी धरापुत्रेण संयुते ।

अन्यग्रहेक्षिते विप्र भ्रातृमूलाद्धनव्ययम् ।।२०।।

आरूढ से व्ययभाव में शनि हो और भौम से देखा जाता हो तथां शेष ग्रहों से देखा जाता हो तो भाई, कुटुंब के कारण धन का व्यय होता है ।। २० ।।

पदाद्द्वादशे भावे ये योगा गदिता मया ।

लाभस्थानेषु ते योगा लाभयोगकराः सदा।।२१।।

पद से बारहवें भाव में जिन योगों को मैंने कहा है वे ही योग लाभभाव में हों तो लाभ करने वाले होते हैं ।।२१।।

बृहत् पाराशर होरा शास्त्र अध्याय १३- पदात्सप्तमभावफलम्

पदाच्च सप्तमे राहुरथवा संस्थितः शिखी ।

उदरव्यथायुतो बालः शिखिना पीडितोऽधिकम् ।। २२ ।।

पद से सातवें भाव में राहु अथवा केतु हो तो बालक पेट की बीमारी से व्यथित रहता है। केतु से अधिक पीड़ायुक्त होता है ।। २२ ।।

पदाच्च सप्तमे केतुः पापखेटयुतेक्षिते ।

साहसी श्वेतकेशी च दीर्घलिङ्गी भवेन्नरः ।। २३ ।।

पद से सातवें केतु हो और पापग्रह से युत वा दृष्ट हो तो बालक साहसी, सफेद बालों वाला और दीर्घलिंगी होता है ।। २३ ।।

पदाच्च सप्तमे स्थाने गुरुशुक्रनिशाकराः ।

एको द्वयं त्रयं वा स्याल्लक्ष्मीवान् कारयेद्बुधः ।। २४ ।।

पद से सातवें भाव में गुरु, शुक्र, चन्द्रमा तीनों हों वा इनमें एक या दो हों तो बालक धनी होता है ।। २४ ।।

तुङ्गर्क्षे सप्तमे खेटे शुभो वाप्यशुभः पदात् ।

श्रीमान् सोऽपि भवेन्नूनं सत्कीर्त्तिसहितो द्विज ।। २५ ।।

पद से सातवें भाव में अपनी उच्चराशि में शुभग्रह या पापग्रह में से कोई हो तो बालक कीर्तिमान् और लक्ष्मीवान् होता है ।। २५ ।।

ये योगाः सप्तमे भावे आरूढात् कथिता मया ।

ते योगा द्यूनवच्चिन्त्या वित्तभावेऽपि वै द्विज ।। २६ ॥

पद से सातवें भाव में जिन योगों को मैंने कहा है उनको उसी प्रकार दूसरे भाव में भी विचार करना चाहिए ।। २६ । ।

तुङ्गस्थो रौहिणेयो वा जीवो वा शुक्र एव वा ।

एको बली धनगतः श्रियं दिशति देहिनः । । २७ ।।

यदि बुध, गुरु, शुक्र इनमें से कोई भी अपनी उच्चराशि में बली होकर धनभाव में हो तो धन को देता है । । २७।।

ये योगाश्च पदे लग्ने यथावद्गदिता मया ।

कारकांशस्थंकुण्डल्यां निर्बाधका विचिन्तयेत् ॥ २८ ॥

जो योग लग्न पद में कहे गये हैं उनको कारकांश कुंडली में भी देखना चाहिए ।। २८ ।।

आरूढाद्वित्त सौम्ये सर्वदेशाधिपो भवेत् ।

सर्वज्ञो वा भवेद्बालः कविर्वाग्मी च भार्गवे । । २९ ।।

पद से दूसरे भाव में शुभग्रह हो तो सभी देशों का स्वामी होता है अथवा सर्वज्ञ होता है। केवल शुक्र हो तो कवि और वक्ता होता है ।। २९ ।।

आरूढात्केन्द्रकोणेषु तथा लाभपदे द्विज ।

लग्नदारपदे वापि सबलग्रहसंयुते ॥ ३० ॥ 

श्रीमांश्च जायते नूनं देशं विख्यातिमान् भवेत् ।

षष्ठाष्टमे व्ययस्थाने श्रीमान्स न भवेत्तदा । । ३१ । ।

पद से केन्द्र तथा कोण में लाभ पद में अथवा लग्न दारपद में बलवान् ग्रह हों तो श्रीमान् और प्रसिद्ध होता है। यदि छठे, आठवें, बारहवें स्थान में हों तो श्रीमान् नहीं होता है । । ३०-३१ । ।

पदाल्लग्ने सप्तमे वा केन्द्रत्रिकोणोपचये ।

सुवीर्यसंस्थिते खेटे भार्याभर्तृसुखप्रदः ।। ३२ ।।

पद से लग्न में वा सातवें वा केन्द्र, त्रिकोण, उपचय स्थान में बली ग्रह हों तो स्त्री, भाई आदि का सुख होता है ।। ३२ ।।

एवं लग्नपदाद्विप्र पुत्रभावादि चिन्तयेत् ।

मित्रामित्रे विजानीयात्त्रिकभावेषु वै द्विज । । ३३ ।।

इसी प्रकार लग्नपद से पुत्रभाव आदि का भी विचार करना चाहिए । यदि दोनों में मित्रता हो तो मित्रता, अन्यथा शत्रुता होती है ।। ३३ ।।

लग्नारूढं दारपदं मिथः केन्द्रगते यदि ।

लाभे वा त्रित्रिकोणे वा तदा राजा धराधिपः । । ३४ ।।

लग्नंपद और दारपंद परस्पर केन्द्रगत, लाभ, तृतीय वा त्रिकोण में हो तो पृथ्वी का राजा होता है । । ३४ ।।

एवं दारादिभावानामर्जयित्वारिमित्रता ।

जातकद्वयमालोक्य चिन्तनीयं विचक्षणैः । । ३५ । ।

इसी प्रकार दारा आदि भावों के शत्रु-मित्रादि का विचार कर उनके फलों को भी कहना चाहिए । । ३५ ।।

इति पाराशरहोरायां पूर्वखण्डे सुबोधिन्यां आरूढफलाध्यायः नवमः।

आगे जारी............. बृहत्पाराशरहोराशास्त्र अध्याय 14 

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