अग्निपुराण अध्याय २२१
अग्निपुराण अध्याय २२१ में अनुजीवियों
का राजा के प्रति कर्तव्य का वर्णन है।
अग्निपुराणम् एकविंशत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः
Agni puran chapter 221
अग्निपुराण दो सौ इक्कीसवाँ अध्याय
अग्निपुराणम्/अध्यायः २२१
अग्निपुराणम् अध्यायः २२१ – अनुजीविवृत्तं
अथैकविंशत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः
पुष्कर उवाच
भृत्यः कुर्यात्तु राजाज्ञां
शिष्यवत्सच्छ्रियः पतेः ।
न क्षिपेद्वचनं राज्ञो अनुकूलं
प्रियं वदेत् ।। १ ।।
रहोगतस्य वक्तव्यमप्रियं यद्धितं
भवेत् ।
न नियुक्तो हरेद्वित्तं
नोपेक्षेत्तस्य मानकं ।। २ ।।
राज्ञश्च न तथाकार्य्यं
वेशभाषाविचेष्टितं ।
अन्तःपुरचराध्यक्षो
वैरभूतैर्न्निराकृतैः ।। ३ ।।
संसर्ग न व्रजेद्भृत्यो राज्ञो
गुह्यञ्च गोपयेत् ।
प्रदर्श्य कौशलं किञ्चिद्राजानन्तु
विशेषयेत् ।। ४ ।।
राज्ञा यच्छ्रावितं गुह्यं न
तल्लोके प्रकाशयेत् ।
आज्ञाप्यमाने बान्यस्मिन्
किङ्करोमीति वा वदेत् ।। ५ ।।
वस्त्रं रत्नमलङ्कारं राज्ञा दत्तं
च धारयेत् ।
नानिर्द्दिष्टे द्वारि
विशेन्नायोग्ये भुवि राजदृक ।। ६ ।।
जृम्भान्निष्ठीवनङ्कासं कोपं पर्य्यन्तिकाश्रयं
।
भृकुटीं वातमुद्गारं तत्समीपे
विसर्जयेत् ।। ७ ।।
स्वगुणाख्यापने युक्त्या परानेव
प्रयोजयेत् ।
शाठ्यं लौल्यं सपैशून्यं नास्तिक्यं
क्षुद्रतातथा ।। ८ ।।
चापल्यञ्च परित्याज्यं नित्यं
राकजानुजीविना ।
श्रुतेन विद्याशिल्पैश्च
संयोज्यात्मानमात्मना ।। ९ ।।
राजसेवान्ततः कुर्याद् भूतये
भूतिवर्द्धनः ।
नमस्कार्याः सदा चास्य
पुत्रवल्लभमन्त्रिणः ।। १० ।।
सचिवैर्न्नास्य विश्वासो
राजचित्तप्रियञ्चरेत् ।
त्यजेद्विरक्तं रक्तात्तु
वृत्तिमीहेत राजवित् ।। ११ ।।
अपृष्टश्चास्य न ब्रूयात् कामं
कुर्य्यात्तथापदि ।
प्रसन्नो वाक्यसङ्ग्राही रहस्ये न
च शङ्कते ।। १२ ।।
कुशलादिपरिप्रश्नं सम्प्रयच्छति
चासनं ।
तत्कथाश्रवणाद्धृष्टो अप्रियाण्यपि
नन्दते ।। १३ ।।
अल्पं दत्तं प्रगृह्णाति स्मरेत्
कथान्तरेष्वपि ।
इति रक्तस्य कर्त्तव्यं सेवामन्यस्य
वर्जयेत् ।। १४ ।।
पुष्कर कहते हैं- भृत्य को राजा की
आज्ञा का उसी प्रकार पालन करना चाहिये, जैसे
शिष्य गुरु की और साध्वी स्त्रियाँ अपने पति की आज्ञा का पालन करती हैं। राजा की
बात पर कभी आक्षेप न करे, सदा ही उसके अनुकूल और प्रिय वचन बोले
। यदि कोई हित की बात बतानी हो और वह सुनने में अप्रिय हो तो उसे एकान्त में राजा से
कहना चाहिये। किसी आय के काम में नियुक्त होने पर राजकीय धन का अपहरण न करे;
राजा के सम्मान की उपेक्षा न करे। उसकी वेश-भूषा और बोल-चाल की नकल
करना उचित नहीं है। अन्तःपुर के सेवकों के अध्यक्ष का कर्त्तव्य है कि वह ऐसे
पुरुषों के साथ न बैठे, जिनका राजा के साथ वैर हो तथा जो
राजदरबार से अपमानपूर्वक निकाले गये हों । भृत्य को राजा की गुप्त बातों को दूसरों
पर प्रकट नहीं करना चाहिये। अपनी कोई कुशलता दिखाकर राजा को विशेष सम्मानित एवं
प्रसन्न करना चाहिये । यदि राजा कोई गुप्त बात सुनावें तो उसे लोगों में प्रकाशित
न करे। यदि वे दूसरे को किसी काम के लिये आज्ञा दे रहे हों तो स्वयं ही उठकर कहे- 'महाराज ! मुझे आदेश दिया जाय, कौन सा काम करना है,
मैं उसे करूँगा।' राजा के दिये हुए वस्त्र
आभूषण तथा रत्न आदि को सदा धारण किये रहे। बिना आज्ञा के दरवाजे पर अथवा और किसी
अयोग्य स्थान पर, जहाँ राजा की दृष्टि पड़ती हो, न बैठे। जंभाई लेना, थूकना, खाँसना,
क्रोध प्रकट करना, खाट पर बैठना, भौंहें टेढ़ी करना, अधोवायु छोड़ना तथा डकार लेना
आदि कार्य राजा के निकट रहने पर न करे। उनके सामने अपना गुण प्रकट करने के लिये दूसरों
को ही युक्तिपूर्वक नियुक्त करे। शठता, लोलुपता, चुगली, नास्तिकता, नोचता तथा
चपलता – इन दोषों का राजसेवकों को सदा त्याग करना चाहिये।
पहले स्वयं प्रयत्न करके अपने में वेदविद्या एवं शिल्पकला की योग्यता का सम्पादन
करे। उसके बाद अपना धन बढ़ाने की चेष्टा करनेवाले पुरुष को अभ्युदय के लिये राजा की
सेवा में प्रवृत्त होना चाहिये। उनके प्रिय पुत्र एवं मन्त्रियों को सदा नमस्कार
करना उचित है। केवल मन्त्रियों के साथ रहने से राजा का अपने ऊपर विश्वास नहीं होता;
अतः उनके हार्दिक अभिप्राय के अनुकूल सदा प्रिय कार्य करे। राजा के
स्वभाव को समझनेवाले पुरुष के लिये उचित है कि वह विरक्त राजा को त्याग दे और
अनुरक्त राजा से ही आजीविका प्राप्त करने की चेष्टा करे। बिना पूछे राजा के सामने
कोई बात न कहे; किंतु आपत्ति के समय ऐसा करने में कोई हर्ज
नहीं है। राजा प्रसन्न हो तो वह सेवक के विनययुक्त वचन को मानता है, उसकी प्रार्थना को स्वीकार करता है। प्रेमी सेवक को किसी रहस्य- स्थान
(अन्तःपुर) आदि में देख ले तो भी उस पर शङ्का-संदेह नहीं करता है। वह दरबार में
आये तो राजा उसकी कुशल पूछता है, उसे बैठने के लिये आसन देता
है। उसकी चर्चा सुनकर वह प्रसन्न होता है। वह कोई अप्रिय बात भी कह दे तो वह बुरा
नहीं मानता, उलटे प्रसन्न होता है। उसकी दी हुई छोटी-मोटी
वस्तु भी राजा बड़े आदर से ले लेता है और बातचीत में उसे याद रखता है। उक्त
लक्षणों से राजा अनुरक्त है या विरक्त यह जानकर अनुरक्त राजा की सेवा करे। इसके
विपरीत जो विरक्त है, उसका साथ छोड़ दे ॥ १-१४ ॥
इत्यादिम्हापुराणे आग्नेये
अनुजीविवृत्तं नामैकविंशत्यधिक द्विशततमोऽध्यायः ।
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में 'अनुजीविवृत-कथन' नामक दो सौ इक्कीसवाँ अध्याय पूरा
हुआ ॥ २२१ ॥
आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 222
0 Comments