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अगहन बृहस्पति व्रत व कथा
मार्तण्ड भैरव स्तोत्रम्
लिङ्गमूर्ति स्तुति
अग्निपुराण अध्याय २१७ में वसिष्ठजी ने इस लिङ्गमूर्ति शिव की स्तुति करके भगवान् शंकर से निर्वाणस्वरूप परब्रह्म की प्राप्ति की । इसे श्रीपरमेश्वरस्तोत्र भी कहा जाता है।
लिङ्गमूर्ति स्तुति
अग्निपुराणम् सप्तदशाधिकद्विशततमोऽध्यायः
वसिष्ठकृत लिंगमूर्ति स्तुति अथवा श्रीपरमेश्वरस्तोत्र
Lingamurti stuti
अग्निपुराणम् अध्यायः २१७ – लिङ्गमूर्ति स्तुति अथवा श्रीपरमेश्वरस्तोत्रम्
लिङ्गमूर्ति स्तुति
अग्निरुवाच
लिङ्गमूर्तिं शिवं स्तुत्वा
गायत्र्या योगमाप्तवान् ।
निर्वाणं परमं ब्रह्म वसिष्ठोऽन्यश्च
शङ्करात् ॥०१॥
अग्निदेव कहते हैं- वसिष्ठ ! किसी
अन्य वसिष्ठ गायत्री जपपूर्वक लिङ्गमूर्ति शिव की स्तुति करके भगवान् शंकर से
निर्वाणस्वरूप परब्रह्म की प्राप्ति की ॥ १ ॥
॥ अथ श्रीपरमेश्वरस्तोत्रम् ॥
वसिष्ठ उवाच-
नमः कनकलिङ्गाय वेदलिङ्गाय वै नमः ।
नमः परमलिङ्गाय व्योमलिङ्गाय वै नमः
॥०२॥
(वसिष्ठ ने कहा-) कनकलिङ्ग को
नमस्कार, वेदलिङ्ग को नमस्कार, परमलिङ्ग
को नमस्कार और आकाशलिङ्ग को नमस्कार है।
नमः सहस्रलिङ्गाय वह्निलिङ्गाय वै
नमः ।
नमः पुराणलिङ्गाय श्रुतिलिङ्गाय वै
नमः ॥०३॥
मैं सहस्रलिङ्ग,
वह्निलिङ्ग, पुराणलिङ्ग और वेदलिङ्ग शिव को
बारंबार नमस्कार करता हूँ।
नमः पाताललिङ्गाय ब्रह्मलिङ्गाय वै
नमः ।
नमो रहस्यलिङ्गाय
सप्तद्वीपोर्धलिङ्गिने ॥०४॥
पाताललिङ्ग,
ब्रह्मलिङ्ग, सप्तद्वीपोर्ध्वलिङ्ग को बारंबार
नमस्कार है।
नमः सर्वात्मलिङ्गाय सर्वलोकाङ्गलिङ्गिने
।
नमस्त्वव्यक्तलिङ्गाय बुद्धिलिङ्गाय
वै नमः ॥०५॥
मैं सर्वात्मलिङ्ग,
सर्वलोकाङ्गलिङ्ग, अव्यक्तलिङ्ग, बुद्धिलिङ्ग को बारंबार नमस्कार करता हूँ।
नमोऽहङ्कारकिङ्गाय भूतलिङ्गाय वै
नमः ।
नम इन्द्रियलिङ्गाय
नमस्तन्मात्रलिङ्गिने ॥०६॥
अहंकारलिङ्ग,
भूतलिङ्ग, इन्द्रियलिङ्ग, तन्मात्रलिङ्ग को नमस्कार है।
नमः पुरुषलिङ्गाय भावलिङ्गाय वै नमः
।
नमो रजोर्धलिङ्गाय सत्त्वलिङ्गाय वै
नमः ॥०७॥
पुरुषलिङ्ग,
भावलिङ्ग, रजोर्ध्वलिङ्ग, सत्त्वलिङ्ग को नमस्कार है।
नमस्ते भवलिङ्गाय
नमस्त्रैगुण्यलिङ्गिने ।
नमोऽनागतलिङ्गाय तेजोलिङ्गाय वै नमः
॥०८॥
मैं भवलिङ्ग,
त्रैगुण्यलिङ्ग, अनागतलिङ्ग, तेजोलिङ्ग को बारंबार नमस्कार करता हूँ।
नमो वायूर्ध्वलिङ्गाय श्रुतिलिङ्गाय
वै नमः ।
नमस्तेऽथर्वलिङ्गाय सामलिङ्गाय वै
नमः ॥०९॥
वायूर्ध्वलिङ्ग,
श्रुतिलिङ्ग, अथर्वलिङ्ग, समलिङ्ग को नमस्कार है।
नमो यज्ञाङ्गलिङ्गाय यज्ञलिङ्गाय वै
नमः ।
नमस्ते तत्त्वलिङ्गाय
देवानुगतलिङ्गिने ॥१०॥
यज्ञाङ्गलिङ्ग,
यज्ञलिङ्ग, तत्त्वलिङ्ग और देवानुगतलिङ्गरूप
आप शंकर को बारंबार नमस्कार करता हूँ।
दिश नः परमं योगमपत्यं मत्समन्तथा ।
ब्रह्म चैवाक्षयं देव शमञ्चैव परं
विभो ॥११॥
अक्षयन्त्वञ्च वंशस्य धर्मे च
मतिमक्षयां ।
प्रभो! आप मुझे परमयोग का उपदेश
कीजिये और मेरे समान पुत्र प्रदान कीजिये । भगवन्! मुझे अविनाशी परब्रह्म एवं
परमशान्ति की प्राप्ति कराइये मेरा वंश कभी क्षीण न हो और मेरी बुद्धि सदा धर्म में
लगी रहे ॥ २ - १२ ॥
अग्निरुवाच
वसिष्ठेन स्तुतः शम्भुस्तुष्टः
श्रीपर्वते पुरा ॥१२॥
वसिष्ठाय वरं दत्त्वा
तत्रैवान्तरधीयत ॥१३॥
अग्निदेव कहते हैं—
प्राचीनकाल में श्रीशैल पर वसिष्ठ के इस प्रकार स्तुति करने पर
भगवान् शंकर प्रसन्न हो गये और वसिष्ठ को वर देकर वहीं अन्तर्धान हो गये ॥ १३ ॥
इत्याग्नेये महापुराणे
गायत्रीनिर्वाणं नाम सप्तदशाधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में 'वसिष्ठकृत लिङ्गमूर्ति स्तुति' नामक दो सौ
सत्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २१७ ॥
आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 218
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