अग्निपुराण अध्याय २१६
अग्निपुराण अध्याय २१६ में गायत्री
मन्त्र के तात्पर्यार्थ का वर्णन है।
अग्निपुराणम् षोडशाधिकद्विशततमोऽध्यायः
Agni puran chapter 216
अग्निपुराण दो सौ सोलहवाँ अध्याय
अग्निपुराणम्/अध्यायः २१६
अग्निपुराणम् अध्यायः २१६ – गायत्रीनिर्वाणं
अथ षोडशाधिकद्विशततमोऽध्यायः
अग्निरुवाच
एवं सन्ध्याविधिं कृत्वा गायत्रीञ्च
जपेत्स्मरेत् ।
गायञ्च्छिष्यान्
यतस्त्रायेत्भार्यां प्राणांस्तथैव च ॥०१॥
ततः स्मृतेयं गायत्री सावित्रीय ततो
यतः ।
प्रकाशनात्सा
सवितुर्वाग्रूपत्वात्सरस्वती ॥०२॥
अग्निदेव कहते हैं- वसिष्ठ ! इस
प्रकार संध्या का विधान करके गायत्री का जप और स्मरण करे। यह अपना गान करनेवाले
साधकों के शरीर और प्राणों का त्राण करती है, इसलिये
इसे 'गायत्री' कहा गया है। सविता
(सूर्य) से इसका प्रकाशन- प्राकट्य हुआ है, इसलिये यह 'सावित्री' कहलाती है। वाक्स्वरूपा होने से 'सरस्वती' नाम से भी प्रसिद्ध है ॥ १-२ ॥
तज्ज्योतिः परमं ब्रह्म भर्गस्तेजो
यतः स्मृतं ।
भा दीप्ताविति रूपं हि भ्रस्जः
पाकेऽथ तत्स्मृतं ॥०३॥
ओषध्यादिकं पचति भ्राजृ दीप्तौ तथा भवेत्
।
भर्गः स्याद्भ्राजत इति बहुलं छन्द
ईरितं ॥०४॥
वरेण्यं सर्वतेजोभ्यः श्रेष्ठं वै
परमं पदं ।
स्वर्गापवर्गकामैर्वा वरणीयं सदैव
हि ॥०५॥
वृणोतेर्वरणार्थत्वाज्जाग्रत्स्वप्नादिवर्जितं
।
नित्यशुद्धबुद्धमेकं
सत्यन्तद्धीमहीश्वरं ॥०६॥
अहं ब्रह्म परं ज्योतिर्ध्ययेमहि
विमुक्तये ।
'तत्' पद से
ज्योति: स्वरूप परब्रह्म परमात्मा अभिहित है। 'भर्गः'
पद तेज का वाचक है; क्योंकि 'भा' धातु दीप्त्यर्थक है और उसी से 'भर्ग' शब्द सिद्ध है। 'भातीति
भर्गः - इस प्रकार इसकी व्युत्पत्ति है। अथवा 'भ्रस्ज पाके'
– इस धातुसूत्र के अनुसार पाकार्थक 'भ्रस्ज'
धातु से भी 'भर्ग' शब्द
निष्पन्न होता है; क्योंकि सूर्यदेव का तेज ओषधि आदि को
पकाता है। 'भ्राजृ' धातु भी
दीप्त्यर्थक होता है। 'भ्राजते इति भर्गः' - इस व्युत्पत्ति के अनुसार 'भ्राज' धातु से भी 'भर्ग' शब्द बनता
है। 'बहुलं छन्दसि' - इस वैदिक
व्याकरणसूत्र के अनुसार उक्त सभी धातुओं से आवश्यक प्रत्यय, आगम
एवं विकार की ऊहा करने से 'भर्ग' शब्द
बन सकता है। 'वरेण्य' का अर्थ है- 'सम्पूर्ण तेजों से श्रेष्ठ परमपदस्वरूप' अथवा स्वर्ग
एवं मोक्ष की कामना करनेवालों के द्वारा सदा ही वरणीय होने के कारण भी वह 'वरेण्य' कहलाता है; क्योंकि 'वृञ्' धातु वरणार्थक है। 'धीमहि
' पद का यह अभिप्राय है कि 'हम जाग्रत्
और सुषुप्ति आदि अवस्थाओं से अतीत नित्य शुद्ध, बुद्ध,
एकमात्र सत्य एवं ज्योतिःस्वरूप परब्रह्म परमेश्वर का मुक्ति के
लिये ध्यान करते हैं ॥ ३-६अ ॥
तज्ज्योतिर्भगवान्
विष्णुर्जगज्जन्मादिकारणं ॥०७॥
शिवं केचित्पठन्ति स्म शक्तिरूपं
पठन्ति च ।
केचित्सूर्यङ्केचिदग्निं वेदगा
अग्निहोत्रिणः ॥०८॥
अग्न्यादिरूपो विष्णुर्हि वेदादौ
ब्रह्म गीयते ।
तत्पदं परमं विष्णोर्देवस्य सवितुः
स्मृतं ॥०९॥
महदाज्यं सूयते हि स्वयं
ज्योतिर्हरिः प्रभुः ।
पर्जन्यो वायुरादित्यः
शीतोष्णाद्यैश्च पाचयेत् ॥१०॥
जगत्की सृष्टि आदिके कारण भगवान्
श्रीविष्णु ही वह ज्योति हैं। कुछ लोग शिव को वह ज्योति मानते हैं,
कुछ लोग शक्ति को मानते हैं और कोई सूर्य को तथा कुछ अग्निहोत्री
वेदज्ञ अग्नि को वह ज्योति मानते हैं। वस्तुतः अग्नि आदि रूपों में स्थित विष्णु
ही वेद-वेदाङ्गों में 'ब्रह्म' माने
गये हैं। इसलिये 'देवस्य सवितुः'- अर्थात्
जगत्के उत्पादक श्रीविष्णुदेव का ही वह परमपद माना गया है; क्योंकि
वे स्वयं ज्योतिःस्वरूप भगवान् श्रीहरि महत्तत्त्व आदि का प्रसव (उत्पत्ति) करते
हैं। वे ही पर्जन्य, वायु, आदित्य एवं
शीत-ग्रीष्म आदि ऋतुओं द्वारा अन्न का पोषण करते हैं।
अग्नौ प्रास्ताहुतिः
सम्यगादित्यमुपतिष्ठते ।
आदित्याज्जायते
वृष्टिर्वृष्टेरन्नन्ततः प्रजाः ॥११॥
दधातेर्वा धीमहीति मनसा धारयेमहि ।
अग्नि में विधिपूर्वक दी हुई आहुति
सूर्य को प्राप्त होती है और सूर्य से वृष्टि, वृष्टि
से अन्न और अन्न से प्रजाओं की उत्पत्ति होती है। 'धीमहि'
पद धारणार्थक 'डुधाञ्' धातु
से भी सिद्ध होता है। इसलिये हम उस तेज का मन से धारण- चिन्तन करते हैं- यह भी
अर्थ होगा ।
नोऽस्माकं यश्च भर्गश्च सर्वेषां
प्राणिनां धियः ॥१२॥
प्रचोदयात्प्रेरयेद्बुद्धीर्भोक्तॄणां
सर्वकर्मसु ।
दृष्टादृष्टविपाकेषु
विष्णुसूर्याग्निरूपवान् ॥१३॥
(यः) परमात्मा श्रीविष्णु का वह तेज (नः) हम सब
प्राणियों की (धियः) बुद्धि-वृत्तियों को (प्रचोदयात्) प्रेरित करे। वे ईश्वर ही
कर्मफल का भोग करनेवाले समस्त प्राणियों के प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष परिणामों से
युक्त समस्त कर्मों में विष्णु, सूर्य और
अग्निरूप से स्थित हैं।
ईश्वरप्रेरितो गच्छेत्स्वर्गं
वाश्वभ्रमेव वा ।
ईशावास्यमिदं सर्वं महदादिजगद्धरिः
॥१४॥
स्वर्गाद्यैः क्रीडते देवो योऽहं स
पुरुषः प्रभुः ।
यह प्राणी ईश्वर की प्रेरणा से ही
शुभाशुभ कर्मानुसार स्वर्ग अथवा नरक को प्राप्त होता है। श्रीहरि द्वारा
महत्तत्त्व आदि रूप से निर्मित यह सम्पूर्ण जगत् ईश्वर का आवास स्थान है। वे
सर्वसमर्थ हंसस्वरूप परम पुरुष स्वर्गादि लोकों से क्रीड़ा करते हैं,
इसलिये वे 'देव'* कहलाते हैं।
* 'देव' शब्द क्रीडार्थक 'दिवु' धातु से बनता है।
आदित्यान्तर्गतं यच्च भर्गाख्यं वै
मुमुक्षुभिः ॥१५॥
जन्ममृत्युविनाशाय दुःखस्य
त्रिविधस्य च ।
ध्यानेन पुरुषोऽयञ्च द्रष्टव्यः
सूर्यमण्डले ॥१६॥
आदित्य में जो 'भर्ग' नाम से प्रसिद्ध दिव्य तेज है, वह उन्हीं का स्वरूप है। मोक्ष चाहनेवाले पुरुषों को जन्म-मरण के कष्ट से
और दैहिक, दैविक तथा भौतिक त्रिविध दुःखों से छुटकारा पाने के
लिये ध्यानस्थ होकर इन परमपुरुष का सूर्यमण्डल में दर्शन करना चाहिये।
तत्त्वं सदसि चिद्ब्रह्म विष्णोर्यत्परमं
पदं ।
देवस्य सवितुर्भर्गो वरेण्यं हि
तुरीयकं ॥१७॥
देहादिजाग्रदाब्रह्म अहं ब्रह्मेति
धीमहि ।
योऽसावादित्यपुरुषः सोऽसावहमनन्त ओं
॥१८॥
ज्ञानानि शुभकर्मादीन् प्रवर्तयति
यः सदा ॥१९॥
वे ही 'तत्त्वमसि' आदि औपनिषद महावाक्यों द्वारा प्रतिपादित
सच्चित्स्वरूप परब्रह्म हैं। सम्पूर्ण लोकों का निर्माण करनेवाले सविता देवता का
जो सबके लिये वरणीय भर्ग है, वह विष्णु का परमपद है और वही
गायत्री का ब्रह्मरूप 'चतुर्थ पाद' है।
'धीमहि' पद से यह अभिप्राय ग्रहण करना
चाहिये कि देहादि की जाग्रत् अवस्था में सामान्य जीव से लेकर ब्रह्मपर्यन्त मैं ही
ब्रह्म हूँ और आदित्यमण्डल में जो पुरुष है, वह भी मैं ही
हूँ- मैं अनन्त सर्वतः परिपूर्ण ओम् (सच्चिदानन्द) हूँ। 'प्रचोदयात्'
पद के कर्तारूप से उन परमेश्वर को ग्रहण करना चाहिये, जो सदा यज्ञ आदि शुभ कर्मों के प्रवर्तक हैं । ७ - १९ ॥
इत्याग्नेये महापुराणे
गायत्रीनिर्वाणं नाम षोडशाधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में 'गायत्री मन्त्र के तात्पर्य का वर्णन' नामक दो सौ
सोलहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २१६ ॥
आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 217
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