बृहत् पाराशर होरा शास्त्र अध्याय १४

बृहत् पाराशर होरा शास्त्र अध्याय १४ 

बृहत् पाराशर होरा शास्त्र अध्याय १४ में उपपद फल का वर्णन हुआ है। उपपद लग्न वह है जो लग्न के करीब होता है। संस्कृत में उप का अर्थ होता है निकट , इसलिए लग्न के पद के निकट का घर उपपद लग्न बन जाता है। लग्न के करीब का घर दूसरा घर होता है, इसलिए दूसरे घर का पद उपपद बन जाता है। अगर लग्न पुरुष राशि है तो दूसरे से गिनती करें और अगर लग्न स्त्री राशि है तो १२वें से गिनती करें। कुंडली के १२वें घर के आरूढ़ को उपपद लग्न कहते हैं। उपपद लग्न का उपयोग जीवनसाथी, संतान, वैवाहिक जीवन, शयन-सुख आदि के बारे में जानने के लिए किया जाता है।

बृहत् पाराशर होरा शास्त्र अध्याय १४

बृहत्पाराशर होराशास्त्र अध्याय १४   

Vrihat Parashar hora shastra chapter 14   

बृहत्पाराशरहोराशास्त्रम् चतुर्दशोऽध्यायः

अथ बृहत्पाराशरहोराशास्त्रम् चौदहवाँ अध्याय भाषा-टीकासहितं

बृहत् पाराशर होरा शास्त्र अध्याय १४- उपपदप्रकरणम्

पराशर उवाच-

अधुना सम्प्रवक्ष्याम्युपपदं च द्विजोत्तम ।

यस्य विज्ञानमात्रेण जायते फलसूचकः ।। १ ।।

अब मैं उपपद को कह रहा हूँ, जिसके ज्ञान मात्र से फल का निर्णय होता है ।। १ ।।

लग्ने विषमे विप्र धनस्य पदोपपदम् ।

समे लग्ने व्ययस्य च पदमुपपदं भवेत् ।।२ ।।

लग्न यदि विषम हो तो धनभाव का पद उपपद होता है, यदि समलग्न हो तो बारहवें का पद उपपद होता है॥२॥

तदेवोपारूढगौणपदं च कथ्यते द्विज ।

तस्मादेव फलं सर्वं शुभाशुभं विचारयेत् ।।३ ॥

उपपद को ही उपारूढ़ और गौणपद कहते हैं। इसी से शुभ-अशुभ फलों का विचार करना चाहिए ।। ३ ।।

पापाक्रान्ते पापयुते पापक्षे पापवीक्षिते ।

पापसम्बन्धसंयोगे उपपदाद् द्वितीयके । । ४ । ।

उपपद से दूसरे भाव में पापग्रह हो, पापग्रह की राशि पापग्रह से देखी जाती हो तो ।। ४ ।।

प्रव्रज्या योगो विज्ञेयः संन्यासो भवति ध्रुवम् ।

तथा भार्याविरोधी स्यादथवा स्त्रीविनाशकृत् । ५ ।।

व्रज्या (संन्यास) योग होता है। इसमें उत्पन्न बालक अवश्य संन्यासी होता है तथा स्त्री का विरोधी वा स्त्री का नाश करने वाला होता है ।। ५॥

रवेः पापत्वमात्रैव सिंहक्षे स्वोच्चभे सति ।

पूर्वोक्तं नो फलं ज्ञेयं जायते गृहिणीसुखम् ॥ ६ ॥

यदि सूर्य सिंह राशि में वा अपनी उच्चराशि में हो तो सूर्य पापग्रह नहीं होता है । ऐसी स्थिति का सूर्य उक्त भाव में हो तो प्रव्रज्या योग नहीं होता अपितु स्त्री का सुख होता है ।। ६ ।।

मेषादिपापराशौ चेत्संस्थिते दिवसाधिपे ।

पूर्वोक्तं च फलं ज्ञेयं प्रव्रज्यादारनाशकः ।।७।।

यदि मेषादि पापराशियों में सूर्य हो तो पूर्वोक्त फल होता है और स्त्री का नाश होता है ॥७॥

उपपदाच्च द्वितीयं वै शुभसम्बन्धदृष्टियुक् ।

शुभर्क्षे शुभसंयोगे पूर्वोक्तफलदो भवेत् ।।८।।

उपपद से दूसरे भाव में शुभग्रह का संबंध हो, शुभग्रह देखते हों अथवा शुभग्रह की राशि हो तो पूर्वोक्त फल होता है।।८।।

उपपदे द्वितीये वा नीचांशे नीचखेटयुक् ।

नीच सम्बन्धयोगे वा प्रव्रज्यादारनाशकृत् ।।९।।

उपपद में उससे दूसरे भाव में नीचांश वा नीच राशि में नीच ग्रह युक्त हो, नीचस्थ ग्रह से संबंध होता हो तो प्रव्रज्या योग और स्त्री का नाश होता है ।।९।।

उच्चांशे उच्चराशौ वा उच्चसम्बन्धदृष्टियुक् ।

बहुदारा भवेत्तस्य रूपलक्षणसंयुताः । । १० ।।

यदि उच्चांश का उच्चराशि में उच्चस्थ ग्रह से संबंध और दृष्टि हो तो उसे रूपवती अनेक स्त्रियाँ होती हैं ।। १० ।।

उपपदे द्वितीये वा युग्म संस्थिते यदा ।

तत्र प्रजातः पुरुषः बहुदारसमन्वितः । । ११ । ।

उपपद वा दूसरे भाव में मिथुन राशि हो तो जातक को अनेक स्त्रियाँ होती हैं ।। ११ ।।

उपपदे द्वितीये वा स्वस्वामिखेटसंयुते ।

उत्तरायुषि निर्दारो भवत्येव न संशयः । । १२ ।।

स्वराशौ संस्थिते वापि नित्याख्ये दारकारके ।

उत्तराभव ! निर्दारः स नरो भवेत् । । १३ ।।

उपपद या दूसरा भाव अपने स्वामी शुभग्रह से युत हो तो आयुष्य के उत्तरार्ध में बिना स्त्री के पुरुष होता है ।।१२-१३।।

उपपदेऽपि तुङ्गर्क्षे नित्याख्ये दारकारके ।

उत्तमकुलाद्दारलाभो नीचस्थे तु विपर्ययः । ।१४।।

उपपद में उच्च में नित्य स्त्रीकारक हो तो उत्तम कुल से स्त्री का लाभ होता है । नीच राशि में हो तो विपर्यय होता है।। १४।।

शुभग्रहयुते दृष्टे उपपदे दारकारके ।

सुन्दरी लभ्यते भार्या भव्या रूपवती द्विज ।। १५ ।।

उपपद और स्त्रीकारक शुभग्रह से युत दृष्ट हों तो बहुत सुन्दर स्त्री प्राप्त होती है । । १५ ।।

उपपदे द्वितीये वा शनिराहुयुते सति ।

अपवादात्स्त्रियस्त्यागो भार्यानाशोऽथवा भवेत् । ।१६।।

उपपद वा द्वितीय में शनि-राहु युत हों तो अपवाद के कारण स्त्री का त्याग या स्त्री का नाश होता है । । १६ ।।

उपपदे च द्वितीये वा शिखिशुक्रौ स्थितौ यदा ।

रक्तप्रदररोगार्त्ता जायते तस्य भामिनी । । १७ ।।

उपपद या द्वितीय में केतु-शुक्र युत हों तो स्त्री रक्तप्रदर रोग से रोगिणी होती है ।। १७ ।।

उपपदादिषु संयोगो बुधकेत्वोर्द्विजोत्तम ।

अस्थिस्रावयुता बाला गृहे तस्य न संशयः । । १८ ।।

यदि बुध-केतु का संयोग हों तो अस्थिस्राव से स्त्री रोगिणी होती है।।१८।।

रविराहुस्तथा पङ्गुरुपपदे योगकारकः ।

अस्थिज्वरवती बाला तप्ताङ्गा च दिवानिशम् । ।१९ ।।

रवि, राहु, शनि उपपद में हों तो स्त्री अस्थिज्वर से पीड़ित होती है ।। १९ ।।

उपपदे बुधकेतुभ्यां योगसम्बन्धके द्विज ।

स्थूलाङ्गी गृहिणी तस्य जायते नात्र संशयः । ॥ २० ॥

उपपद में बुध-केतु का योग वा संबंध हो तो उसकी स्त्री स्थूल शरीर की होती है ।। २० ।।

उपपदे बुधक्षेत्रे भौमर्क्षे चाथवा द्विज ।

मन्दारौ संस्थितौ तत्र नासिकारोगयुग्भवेत् ।। २१ । ।

उपपद में बुध की राशि या भौम की राशि हो और शनि भौम युत हों तो स्त्री की नाक में रोग होता है ।। २१ ।।

यदि तत्र युतो सौरिः गुरुणा सहितो भवेत् ।

कर्णरोगवली बाला नेत्ररोगयुता तथा । । २२ ।।

यदि गुरु-शनि का योग हो तो स्त्री कान तथा आँख के रोग वाली होती है ।। २२ ।।

कुजसौम्या चान्यक्षेत्रे उपपदे द्विजोत्तम ।

योगे स्वर्भानुदेवेज्यों दन्तार्ता गृहिणी भवेत् ।। २३ ।।

यदि भौम- बुध वा गुरु-राहु उपपद में हों तो दाँत के रोग से पीड़ित स्त्री होती है ।। २३ ।।

उपपदे च कुम्भस्थे मीनस्थेऽपि तथा द्विज ।

शनिस्वर्भानुयोगश्चेत्पंग्वंगी तस्य भामिनी ।। २४ ।।

उपपद में कुम्भ या मीन राशि हो और उसमें शनि-राहु का योग हो तो उसकी स्त्री पंगुल (वातव्याधि से) होती है।।२४।।

ये योगाः पूर्वकथिता मया ते विप्रसत्तम ।

शुभयुदृष्टिसंयोगे न भवेयुः फलप्रदाः । १२५ ।।

पूर्वोक्त जो योग कहे गये हैं वे यदि शुभग्रह से युक्त या दृष्ट हों तो फलप्रद नहीं होते हैं ।। २५ ।।

लग्नादुपपदाद्वापि यो राशिः सप्तमो द्विज ।

तदीशात्तत्रवांशाच्च फलमेव विचारयेत् ।। २६ ।।

लग्न से वा उपपद से सातवीं राशि के जो स्वामि और उसके नवांश से भी इसी प्रकार फल का विचार करना चाहिए।। २६।।

शनिः शुक्रस्तथा चान्द्रिः सप्तमांशग्रहेभ्यश्च ।

नवमे संस्थितो विप्र अपत्यरहितो नरः । । २७ ।।

उक्त प्रकार से सप्तमेश से नवम में शनि, शुक्र और बुध हों तो पुरुष पुत्रहीन होता है ।। २७ ।।

पदोपपदलग्नाच्च सप्तमांशग्रहेभ्यश्च ।

नवमस्थे गुरौ भावी स्वर्भानौ योगकृत्तथा ।। २८ ।।

बहुपुत्रो भवेन्नूनं प्रतापी बलवीर्ययुक् ।

प्रचण्डविजयी विप्र रिपुनिग्रहकारकः । ।२९ । ।

उपपद से वा सप्तमांश ग्रह से नवमभाव में गुरु, सूर्य, राहु का योग हो तो बड़े बलवान् पराक्रमी, प्रतापी शत्रुओं का दमन करने वाले अनेक पुत्र होते हैं ।।२८- २९ ।।

उक्तस्थाने निशानाथे एकपुत्रो भवेद्विज ।

उक्तस्थाने शुभे पापे पुत्रसौख्यं विलम्बितम् ।। ३० ।।

उक्त स्थानं में चन्द्रमा हो तो एक पुत्र होता है। यदि उक्त स्थान में शुभ - पाप दोनों हों तो विलंब से पुत्र का सुख होता है ।। ३० ।।

उक्तस्थाने कुजशनिर्जायते च ह्यपुत्रवान् ।

परपुत्रयुतो वापि सहोढ सुतवान् भवेत् । । ३१ । ।

उक्त स्थान में भौम-शनि हों तो पुत्रहीन होता है और दूसरे के पुत्र (दत्तक पुत्र) पुत्रवान् होता है, वा सहोदर के पुत्र से पुत्रवाला होता है ।। ३२ ।।

उक्तस्थाने चोजराशौ बहुपुत्रप्रदो भवेत् ।

युग्मराशौ स्थिते तत्र स्वल्पापत्यो भवेन्नरः ।। ३२ ।।

उक्त स्थान में विषम राशि हो तो बहुत पुत्र होते हैं । समराशि हो तो अल्पसंतान होते हैं । । ३२ ।।

उपपदे सिंहलग्ने निशानाथयुतेक्षिते ।

स्वल्पापत्यो भवेन्नूनं कन्यायां कन्यका भवेत् ।।३३॥

उपपद में सिंहलग्न हो और चन्द्रमा से युत वा दृष्ट हो तो थोड़ी संतान होती है, कन्या राशि हो तो कन्या होती है ।।३३।।

सुतभावनवांशाच्च तथापि पुत्रकारकात् ।

यद्वा त्रिंशांशकुण्डल्यां तदंशाच्च सदा द्विज । ३४ ।।

तदीशाश्चिन्तयेद्विप्र सन्ततेर्योगमुत्तमम् ।

एवं सर्वप्रकारेण चिन्तनीयं सदा बुधैः । । ३५ ।।

पंचम भाव के नवांश से, पुत्रकारक से, अथवा त्रिंशांश कुण्डली वा उसके नवांश से वा उसके स्वामी से संतान भावों के उत्तम योगों का विचार करना चाहिए ।।३४- ३५ ।।

उपारूढाच्च त्र्यायस्थौ शनिराहू भ्रातृनाशदौ ।

एकादशे ज्येष्ठभ्रातुस्तृतीये च कनिष्ठकम् ।।३६।।

उपपद से ३रे, ११ वें भाव में शनि-राहु हों तो भाइयों का नाश होता है। ११ वें में ज्येष्ठ भाई का और तीसरे में छोटे भाई का विचार करना चाहिए ।। ३६ ।।

उपपदैकादशस्थाने तृतीये दानवेज्यके ।

व्यवहितगर्भस्य नाशः स्याद्यथा सम्भवति द्विज ।। ३७ ।।

उपपद से ११वें, ३रे स्थान में शुक्र हो तो उससे व्यवहित गर्भ माता का नाश हो जाता है ।। ३७ ।।

लग्नाद्वापि लये भावे दैत्याचार्ययुतेक्षिते ।

व्यवहितगर्भस्य नाशः स्यादित्युक्तं गणकोत्तमैः ।। ३८ ।।

लग्न से आठवें भाव में शुक्र युत हो वा देखता हो तो भी व्यवहित गर्भ का नाश होता है ।। ३८ ।।

तृतीयैकादशे विप्र ! कुजेज्यबुधचन्द्रमाः ।

भ्रातृबाहुल्यता वाच्या प्रतापी बलवत्तरः ।। ३९ ।।

उपपद से ३रे, ११वें भाव में भौम, गुरु, बुध, चन्द्रमा हों तो प्रतापी बलवान् · अधिक भाई होते हैं ।। ३९ ।।

शन्यारसंयुते दृष्टे तृतीयैकादशे द्विज ।

कनिष्ठज्येष्ठयोर्नाशं भिन्नस्ये भिन्नभावहृत् ।।४०।।

, ११ को शनि-भौम देखते हों वा युत हों तो छोटे-बड़े दोनों भाइयों नाश होता है । भिन्न भावों में हो तो उन भावों का नाश करते हैं ।। ४० ।।

भ्रातृस्थाने युते सौरे लाभस्थे वा तृतीयगे ।

स्वमात्रमेव शेषः स्यादन्यं नश्यन्ति वै द्विज । । ४१ । ।

यदि शनि ३रे वा ११वें में हो तो केवल अपने बच जाता है और सभी भाई नष्ट हो जाते हैं ।। ४१ ।।

तृतीयैकादशे केतुर्बाहुल्यं स्याद्भगिन्ययोः ।

भ्रात्रोः स्वल्पसुखं तस्य निर्विशङ्कं द्विजोत्तम ।। ४२ ।

,११ वें भाव में केतु हो तो बहनें अधिक होती हैं और भाइयों का सुख अल्प होता है ।। ४२ ।।

सप्तमेशाद्वितीये वै सैंहिकेययुतेक्षिते ।

दंष्ट्रावान् स भवेद्बालो बहुर्भाग्ययुतो भवेत् ॥ ४३ ॥

सप्तमेश से दूसरे भाव में राहु युक्त हो अथवा देखता हो तो बालक के दाँत बड़े-बड़े होते हैं और वह भाग्यशाली होता है । । ४३ ।।

सप्तमेशा द्वितीये चेत्पुच्छनाथयुतेक्षिते ।

स्तब्धवाग् जायते बालस्तथा स्खलितवाग्विज ॥ ४४ ॥

सप्तमेश से दूसरे भाव को केतु देखता हो वा युत हो तो बालक हकलाकर बोलने वाला होता है ।। ४४ ।।

आरूढान्मृत्युभावस्थे पापाख्ये शुभवर्जिते ।

शुभसम्बन्धरहिते चोशे भवति निश्चितम् । । ४५ ।।

पद से आठवें भाव में पापग्रह हों, शुभग्रह से संबंध न हो तो चोर होता है ।। ४५।।

आरूढभावे सौम्ये तु सर्वदेशाधिपो भवेत् ।

सर्वज्ञस्तत्र जीवे स्यात्कविर्वाग्मी च भार्गवे ॥ ४६ ॥

पद में बुध हो तो चक्रवर्त्ती होता है, गुरु हो तो सर्वज्ञ होता है और शुक्र हो तो कवि तथा वक्ता होता है । ।४६।।

सप्तमे द्वादशे स्थाने सैंहिकेययुतेक्षिते ।

ज्ञानवांश्च भवेद्बालो बहुभाग्ययुतो द्विज ।।४७।।

सातवें, बारहवें भाव में राहु हो अथवा देखता हो तो बालक ज्ञानी तथा बहुत भाग्यशाली होता है । । ४७।।

आरूढाच्च पदाद्वापि धनस्ये शुभखेचरे ।

सर्वद्रव्याधिपो धीमान् जायते द्विजसत्तम ।। ४८ ।।

आरूढ़ से वा पद से दूसरे भाव में शुभग्रह हो तो सम्पूर्णं द्रव्य का अधिपति और बुद्धिमान् होता है ।।४८ ।।

उपपदाद्धनपो यत्र वर्तते वित्तभे यदा ।

पापखेचरसंयुक्ते चौरो भवति निश्चितम् ।। ४९ ।।

उपपद से द्वितीयेश यदि धनभाव में हो और पापग्रह से संबंध करता हो तो निश्चय ही चोर होता है ।। ४९ ।।

अमात्यानुचराद्विप्र देवभक्तिं विचिन्तयेत् ।

नीचत्वादेव नीचत्वं शुभपापाच्छुभाशुभम् ।।५० ।।

भ्रातृकारक से भी पूर्ववद् देवभक्ति- विचार करना चाहिए। यदि नीच ग्रह का संबंध हो तो नीच देवता और शुभ-पाप के संबंध द्वारा शुभ-पाप देवता को समझना चाहिए ।। ५० ।।

कारकांशे पापखगैः पापांशे पापयोगकृत् ।

पापवर्गे शुभैर्हीने जायते परजातकः । । ५१ ॥

कारकांश में पापग्रह, पापांश में पापग्रह से योग करते हुए पापग्रह के वर्ग में हों, शुभग्रह का सम्बन्ध न हो तो दूसरे से उत्पन्न हुआ होता है । । ५१ ।।

इति पाराशरहोरायां पूर्वखण्डे सुबोधिन्यां उपपदफलं नाम दशमोऽध्यायः ।

आगे जारी............. बृहत्पाराशरहोराशास्त्र अध्याय 15 

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