अग्निपुराण अध्याय २१४

अग्निपुराण अध्याय २१४                        

अग्निपुराण अध्याय २१४ में नाड़ीचक्र का वर्णन है।

अग्निपुराण अध्याय २१४

अग्निपुराणम् चतुर्दशाधिकद्विशततमोऽध्यायः

Agni puran chapter 214                   

अग्निपुराण दो सौ चौदहवाँ अध्याय

अग्निपुराणम्/अध्यायः २१४                        

अग्निपुराणम् अध्यायः २१४ – मन्त्रमाहात्म्यं

अथ चतुर्दशाधिकद्विशततमोऽध्यायः

अग्निरुवाच

नाडीचक्रं प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञानाज्ज्ञायते हरिः ।

नाभेरधस्ताद्यत्कन्दमङ्कुरास्तत्र निर्गताः ॥१॥

द्वासप्ततिसहस्राणि नाभिमध्ये व्यवस्थिताः ।

तिर्यगूर्ध्वमधश्चैव व्याप्तन्ताभिः समन्ततः ॥२॥

चक्रवत्संस्थिता ह्येताः प्रधाना दशनाडयः ।

इडा च पिङ्गला चैव सुसुम्णा च तथैव च ॥३॥

गान्धारी हस्तिजिह्वा च पृथा चैव यथा तथा ।

अलम्बुषा हुहुश्चैव शङ्खिनी दशमी स्मृता ॥४॥

दश प्राणवहा ह्येता नाडयः परिकीर्तिताः ।

प्राणोऽपानः समानश्च उदानो व्यान एव च ॥५॥

नागः कूर्मोऽथ कृकरो देवदत्तो धनञ्जयः ।

प्राणस्तु प्रथमो वायुर्दशानामपि स प्रभुः ॥६॥

प्राणः प्राणयते प्राणं विसर्गात्पूरणं प्रति ।

नित्यमापूरयत्येष प्राणिनामुरसि स्थितः ॥७॥

निःश्वासोच्छ्वासकासैस्तु प्राणो जीवसमाश्रितः ।

प्रयाणं कुरुते यस्मात्तस्मात्प्राणः प्रकीर्तितः ॥८॥

अधो नयत्यपानस्तु आहारञ्च नृणामधः ।

मूत्रशुक्रवहो वायुरपानस्तेन कीर्तितः ॥९॥

पीतभक्षितमाघ्रातं रक्तपित्तकफानिलं ।

समन्नयति गात्रेषु समानो नाम मारुतः ॥१०॥

स्पन्दयत्यधरं वक्त्रं नेत्ररागप्रकोपनं ।

उद्वेजयति मर्माणि उदानो नाम मारुतः ॥११॥

व्यानो विनामयत्यङ्गं व्यानो व्याधिप्रकोपनः ।

प्रतिदानं तथा कण्ठाद्व्यापानाद्व्यान उच्यते ॥१२॥

उद्गारे नाग इत्युक्तः कूर्मश्चोन्मीलने स्थितः ।

कृकरो भक्षणे चैव देवदत्तो विजृम्भिते ॥१३॥

धनञ्जयः स्थितो घोषे मृतस्यापि न मुञ्चति ।

जीवः प्रयाति दशधा नाडीचक्रं हि तेन तत् ॥१४॥

अग्निदेव कहते हैं - वसिष्ठ ! अब मैं नाड़ीचक्र के विषय में कहता हूँ, जिसके जानने से श्रीहरि का ज्ञान हो जाता है। नाभि के अधोभाग में कन्द (मूलाधार) है, उससे अङ्कुरों की भाँति नाड़ियाँ निकली हुई हैं। नाभि के मध्य में बहत्तर हजार नाड़ियाँ स्थित हैं। इन नाड़ियों ने शरीर को ऊपर-नीचे, दायें-बायें सब ओर से व्यास कर रखा है और ये चक्राकार होकर स्थित हैं। इनमें प्रधान दस नाड़ियाँ हैं - इड़ा, पिङ्गला, सुषुम्णा, गान्धारी,हस्तिजिह्वा, पृथा, यशा, अलम्बुषा, कुहू और दसवीं शङ्खिनी ये दस प्राणों का वहन करनेवाली प्रमुख नाड़ियाँ बतलायी गयीं। प्राण, अपान, समान, उदान, व्यान, नाग, कूर्म, कृकर, देवदत्त और धनंजय-ये दस 'प्राणवायु' हैं। इनमें प्रथम वायु प्राण दसों का स्वामी है। यह प्राण- रिक्तता की पूर्ति प्रति प्राणों को प्राणयन(प्रेरण) करता है और सम्पूर्ण प्राणियों के हृदयदेश में स्थित रहकर अपान वायु द्वारा मल-मूत्रादि के त्याग से होनेवाली रिक्तता को नित्य पूर्ण करता है। जीव में आश्रित यह प्राण श्वासोच्छ्वास और कास आदि द्वारा प्रयाण (गमनागमन) करता है, इसलिये इसे 'प्राण' कहा गया है। अपानवायु मनुष्यों के आहार को नीचे की ओर ले जाता है और मूत्र एवं शुक्र आदि का भी नीचे की ओर वहन करता है, इस अपानयन के कारण इसे 'अपान' कहा जाता है। | समान वायु मनुष्यों के खाये - पीये और सूँघे हुए पदार्थों को एवं रक्त, पित्त, कफ तथा वात को सारे अङ्गों में समानभाव से ले जाता है, इस कारण उसे 'समान' कहा गया है। उदान नामक वायु मुख और अधरों को स्पन्दित करता है, नेत्रों की अरुणिमा को बढ़ाता है और मर्मस्थानों को उद्विग्न करता है, इसीलिये उसका नाम 'उदान' है। 'व्यान' अङ्गों को पीड़ित करता है। यही व्याधि को कुपित करता है और कण्ठ को अवरुद्ध कर देता है। व्यापनशील होने से इसे 'व्यान' कहा गया है। 'नागवायु' उद्गार (डकार वमन आदि) में और 'कूर्मवायु' नयनों के उन्मीलन (खोलने) - में प्रवृत्त होता है। 'कृकर' भक्षण में और 'देवदत्त' वायु जंभाई में अधिष्ठित है। 'धनंजय' पवन का स्थान घोष है। यह मृत शरीर का भी परित्याग नहीं करता। इन दसों द्वारा जीव प्रयाण करता है, इसलिये प्राणभेद से नाड़ीचक्र के भी दस भेद हैं ॥ १ - १४ ॥

सङ्क्रान्तिर्विषुवञ्चैव अहोरात्रायनानि च ।

अधिमास ऋणञ्चैव ऊनरात्र धनन्तथा ॥१५॥

ऊनरात्रं भवेद्धिक्का अधिमासो विजृम्भिका ।

ऋणञ्चात्र भवेत्कासो निश्वासो धनमुच्यते ॥१६॥

उत्तरं दक्षिणं ज्ञेयं वामं दक्षिणसञ्ज्ञितं ।

मध्ये तु विषुवं प्रोक्तं पुटद्वयविनिःस्मृतं ॥१७॥

सङ्क्रान्तिः पुनरस्यैव स्वस्थानात्स्थानयोगतः ।

सुसुम्णा मध्यमे ह्यङ्गे इडा वामे प्रतिष्ठिता ॥१८॥

पिङ्गला दक्षिणे विप्र ऊर्ध्वं प्राणो ह्यहः स्मृतं ।

अपानो रात्रिरेवं स्यादेको वायुर्दशात्मकः ॥१९॥

आयामो देहमध्यस्थः सोमग्रहणमिष्यते ।

देहातितत्त्वमायामं आदित्यग्रहणं विदुः ॥२०॥

संक्रान्ति, विषुव, दिन, रात, अयन, अधिमास, ऋण, ऊनरात्र एवं धन-ये सूर्य की गति से होनेवाली दस दशाएँ शरीर में भी होती हैं। इस शरीर में हिक्का ( हिचकी) ऊनरात्र, विजृम्भिका (जंभाई) अधिमास, कास (खाँसी) ऋण और निःश्वास 'धन' कहा जाता है। शरीरगत वामनाड़ी 'उत्तरायण' और दक्षिणनाड़ी 'दक्षिणायन' है। दोनों के मध्य में नासिका के दोनों छिद्रों से निर्गत होनेवाली श्वासवायु 'विषुव' कहलाती है। इस विषुववायु का ही अपने स्थान से चलकर दूसरे स्थान से युक्त होना 'संक्रान्ति' है। द्विजश्रेष्ठ वसिष्ठ ! शरीर के मध्यभाग में 'सुषुम्णा' स्थित है, वामभाग में 'इड़ा' और दक्षिणभाग में 'पिङ्गला' है। ऊर्ध्वगतिवाला प्राण 'दिन' माना गया है और अधोगामी अपान को 'रात्रि' कहा गया है। एक प्राणवायु ही दस वायु के रूप में विभाजित है। देह के भीतर जो प्राणवायु का आयाम (बढ़ना) है, उसे 'चन्द्रग्रहण' कहते हैं। वही जब देह से ऊपर तक बढ़ जाता है, तब उसे 'सूर्यग्रहण' मानते हैं ॥ १५-२० ॥

उदरं पूरयेत्तावद्वायुना यावदीप्सितं ।

प्राणायामी भवेदेष पूरका देहपूरकः ॥२१॥

पिधाय सर्वद्वाराणि निश्वासोच्छ्वासवर्जितः ।

सम्पूरणकुम्भवत्तिष्ठेत्प्राणायामः स कुम्भकः ॥२२॥

मुञ्चेद्वायुं ततस्तूर्ध्वं श्वासेनैकेन मन्त्रवित् ।

उच्छ्वासयोगयुक्तश्च वायुमूर्द्वं विरेचयेत् ॥२३॥

उच्चरति स्वयं यस्मात्स्वदेहावस्थितः शिवः ।

तस्मात्तत्त्वविदाञ्चैव स एव जप उच्च्यते ॥२४॥

अयुते द्वे सहस्रैकं षट्शतानि तथैव च ।

अहोरात्रेण योगीन्द्रो जपसङ्ख्यां करोति सः ॥२५॥

अजपा नाम गायत्री ब्रह्मविष्णुमहेश्वरी ।

अजपां जपते यस्तां पुनर्जन्म न विद्यते ॥२६॥

चन्द्राग्निरविसंयुक्ता आद्या कुण्डलिनी मता ।

हृत्प्रदेशे तु सा ज्ञेया अङ्कुराकारसंस्थिता ॥२७॥

सृष्टिन्यासो भवेत्तत्र स वै सर्गावलम्बनात् ।

स्रवन्तं चिन्तयेत्तस्मिन्नमृतं सात्त्विकोत्तमः ॥२८॥

देहस्थः सकलो ज्ञेयो निष्फलो देहवर्जितः ।

हंसहंसेति यो ब्रूयाद्धंसो देवः सदाशिवः ॥२९॥

तिलेषु च यथा तैलं पुष्पे गन्धः समश्रितः ।

पुरुषस्य तथा देहे स वाह्याभ्यन्तरां स्थितः ॥३०॥

ब्रह्मणो हृदये स्थानं कण्ठे विष्णुः समाश्रितः ।

तालुमध्ये स्थितो रुद्रो ललाटे तु महेश्वरः ॥३१॥

प्राणाग्रन्तु शिवं विद्यात्तस्यान्ते तु परापरं ।

पञ्चधा सकलः प्रोक्तो विपरीतस्तु निष्कलः ॥३२॥

साधक अपने उदर में जितनी वायु भरी जा सके, भर ले। यह देह को पूर्ण करनेवाला, 'पूरक' प्राणायाम है श्वास निकलने के सभी द्वारों को रोककर, श्वासोच्छास की क्रिया से शून्य हो परिपूर्ण कुम्भ की भाँति स्थित हो जाय - इसे 'कुम्भक' प्राणायाम कहा जाता है। तदनन्तर मन्त्रवेत्ता साधक ऊपर की ओर एक ही नासारन्ध्र से वायु को निकाले। इस प्रकार उच्छ्वासयोग से युक्त हो वायु का ऊपर की ओर विरेचन (निःसारण) करे (यह 'रेचक' प्राणायाम है)। यह श्वासोच्छ्वास की क्रिया द्वारा अपने शरीर में विराजमान शिवस्वरूप ब्रह्म का ही ('सोऽहं' 'हंसः' के रूप में) उच्चारण होता है, अतः तत्त्ववेत्ताओं के मत में वही 'जप' कहा गया है। इस प्रकार एक तत्त्ववेत्ता योगीन्द्र श्वास-प्रश्वास द्वारा दिन रात में इक्कीस हजार छ: सौ की संख्या में मन्त्र जप करता है। यह ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर से सम्बन्ध रखनेवाली 'अजपा' नामक गायत्री है। जो इस अजपा का जप करता है, उसका पुनर्जन्म नहीं होता। चन्द्रमा, अग्नि तथा सूर्य से युक्त मूलाधार निवासिनी आद्या कुण्डलिनी- शक्ति हृदयप्रदेश में अंकुर के आकार में स्थित है। सात्त्विक पुरुषों में उत्तम वह योगी सृष्टिक्रम का अवलम्बन करके सृष्टिन्यास करे तथा ब्रह्मरन्ध्रवर्ती शिव से कुण्डलिनी के मुखभाग में झरते हुए अमृत का चिन्तन करे। शिव के दो रूप हैं-सकल और निष्कल सगुण साकार देह में विराजित शिव को 'सकल' जानना चाहिये और जो देह से रहित हैं, वे 'निष्कल' कहे गये हैं। वे 'हंस-हंस' का जप करते हैं। 'हंस' नाम है- 'सदाशिव' का जैसे तिलों में तेल और पुष्पों में गन्ध की स्थिति है, उसी प्रकार अन्तर्यामी पुरुष (जीवात्मा) में बाहर और भीतर भी सदाशिव का निवास है। ब्रह्मा का स्थान हृदय में है, भगवान् विष्णु कण्ठ में अधिष्ठित हैं, तालु के मध्यभाग में रुद्र, ललाट में महेश्वर और प्राणों के अग्रभाग में सदाशिव का स्थान है। उनके अन्त में परात्पर ब्रह्म विराजमान हैं। ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र, महेश्वर और सदाशिव - इन पाँच रूपों में 'सकल' (साकार या सगुण) परमात्मा का वर्णन किया गया है। इसके विपरीत परमात्मा, जो निर्गुण निराकाररूप है, उसे 'निष्कल' कहा गया है ।। २१-३२ ॥

प्रासादं नादमुत्थाप्य शततन्तु जपेद्यदि ।

षण्मासात्सिद्धिमाप्नोति योगयुक्तो न संशयः ॥३३॥

गमागमस्य ज्ञानेन सर्वपापक्षयो भवेत् ।

अणिमादिगुणैश्वर्यं षड्भिर्मासैरवाप्नुयात् ॥३४॥

स्थूलः सूक्ष्मः परश्चेति प्रासादः कथितो मया ।

ह्रस्वो दीर्घः प्लुतश्चेति प्रासादं लक्षयेत्त्रिधा ॥३५॥

ह्रस्वो दहति पापानि दीर्घो मोक्षप्रदो भवेत् ।

आप्यायने प्लुतश्चेति मूर्ध्नि विन्दुविभूषितः ॥३६॥

आदावन्ते च ह्रस्वस्य फट्कारो मारणे हितः ।

आदावन्ते च हृदयमाकृष्टौ सम्प्रकीर्तितम् ॥३७॥

देवस्य दक्षिणां मूर्तिं पञ्चलक्षं स्थितो जपेत् ।

जपान्ते घृतहोमस्तु दशसाहस्रिको भवेत् ॥३८॥

एवमाप्यायितो मन्त्रो वश्योच्चाटादि कारयेत् ।

जो योगी अनाहत नाद को प्रासाद तक उठाकर अनवरत जप करता है, वह छः महीनों में ही सिद्धि प्राप्त कर लेता है, इसमें संशय नहीं है। गमनागमन के ज्ञान से समस्त पापों का क्षय होता है और योगी अणिमा आदि सिद्धियों, गुणों और ऐश्वर्य को छः महीनों में ही प्राप्त कर लेता है। मैंने स्थूल, सूक्ष्म और पर के भेद से तीन प्रकार के प्रासाद का वर्णन किया है। प्रासाद को ह्रस्व, दीर्घ और प्लुत- इन तीन रूपों में लक्षित करे। 'ह्रस्व' पापों को दग्ध कर देता है, 'दीर्घ' मोक्षप्रद होता है और 'प्लुत' आप्यायन (तृप्तिप्रदान) करने में समर्थ है। यह मस्तक पर बिन्दु (अनुस्वार) - से विभूषित होता है। ह्रस्व-प्रासाद-मन्त्र के आदि और अन्त में 'फट्' लगाकर जप किया जाय तो यह मारण कर्म में हितकारक होता है। यदि उसके आदि-अन्त में 'नमः' पद जोड़कर जपा जाय तो वह आकर्षण साधक बताया गया है। महादेवजी के दक्षिणामूर्तिरूप सम्बन्धी मन्त्र का खड़े होकर यदि पाँच लाख जप किया जाय तथा जप के अन्त में घी का दस हजार होम कर दिया जाय तो वह मन्त्र आप्यायित (सिद्ध) हो जाता है। फिर उससे वशीकरण, उच्चाटन आदि कार्य कर सकते हैं ॥ ३३-३८अ ॥

ऊर्ध्वे शून्यमधः शून्यं मध्ये शून्यं निरामयं ॥३९॥

त्रिशून्यं यो विजानाति मुच्यतेऽसौ ध्रुवं द्विजः ।

प्रासादं यो न जानाति पञ्चमन्त्रमहातनुं ॥४०॥

अष्टत्रिंशत्कलायुक्तं न स आचार्य उच्यते ।

तथोङ्कारञ्च गायत्रीं रुद्रादीन् वेत्त्य.असौ गुरुः ॥४१॥

जो ऊपर शून्य, नीचे शून्य और मध्य में भी शून्य है, उस त्रिशून्य निरामय मन्त्र को जो जानता है, वह द्विज निश्चय ही मुक्त हो जाता है। पाँच मन्त्रों के मेल से महाकलेवरधारी अड़तीस कलाओं से युक्त प्रासाद मन्त्र को जो नहीं जानता है, वह आचार्य नहीं कहलाता है जो ओंकार, गायत्री तथा रुद्रादि मन्त्रों को जानता है, वही गुरु है ॥ ३९-४१ ॥

इत्याग्नेये महापुराणे मन्त्रमाहात्म्यं नाम चतुर्दशाधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥

इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में 'नाड़ीचक्र कथन' नामक दो सौ चौदहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २१४ ॥

आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 215 

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