अग्निपुराण अध्याय २०९

अग्निपुराण अध्याय २०९                        

अग्निपुराण अध्याय २०९ में धन के प्रकार; देश-काल और पात्र का विचार; पात्रभेद से दान के फल-भेद; द्रव्य-देवताओं तथा दान-विधि का कथन का वर्णन है।

अग्निपुराण अध्याय २०९

अग्निपुराणम् नवाधिकद्विशततमोऽध्यायः

Agni puran chapter 209                   

अग्निपुराण दो सौ नवाँ अध्याय

अग्निपुराणम्/अध्यायः २०९                       

अग्निपुराणम् अध्यायः २०९ – दानपरिभाषाकथनं

अथ नवाधिकद्विशततमोऽध्यायः

अग्निरुवाच

दानधर्मान् प्रवक्ष्यामि भुक्तिमुक्तिदान् शृणु ।

दानमिष्टं तथा पूर्तं धर्मं कुर्वन् हि सर्वभाक् ॥०१॥

वापीकूपतडागानि देवतायतनानि च ।

अन्नप्रदानमारामाः पूर्तं धर्मं च मुक्तिदं ॥०२॥

अग्निहोत्रं तपः सत्यं वेदानाञ्चानुपालनं ।

आतिथ्यं वैश्वदेवञ्च प्राहुरिष्टञ्च नाकदं ॥०३॥

ग्रहोपरागे यद्दानं सूर्यसङ्क्रमणेषु च ।

द्वादश्यादौ च यद्दानं पूर्तं तदपि नाकदं ॥०४॥

देशे काले च पात्रे च दानं कोटिगुणं भवेत् ।

अयने विषुवे पुण्ये व्यतीपाते दिनक्षये ॥०५॥

युगादिषु च सङ्क्रान्तौ चतुर्दश्यष्टमीषु च ।

सितपञ्चदशीसर्वद्वादशीष्वष्टकासु च ॥०६॥

यज्ञोत्सवविवाहेषु तथा मन्वन्तरादिषु ।

वैधृतौ दृष्टदुःस्वप्ने द्रव्यब्राह्मणलाभतः ॥०७॥

श्रद्धा वा यद्दिने तत्र सदा वा दानमिष्यते ।

अयने द्वे विषुवे द्वे चतस्रः षडशीतयः ॥०८॥

चतस्रो विष्णुपद्यश्च सङ्क्रात्यो द्वादशोत्तमाः ।

कन्यायां मिथुने मीने धनुष्यपि रवेर्गतिः ॥०९॥

षडशीतिमुखाः प्रोक्ताः षडशीतिगुणाः फलैः ।

अतीतानागते पुण्ये द्वे उदग्दक्षिणायने ॥१०॥

त्रिंशत्कर्कटके नाड्यो मकरे विंशतिः स्मृताः ।

वर्तमाने तुलामेषे नाड्यास्तुभयतो दश ॥११॥

षडशीत्यां व्यतीतायां षष्टिरुक्तास्तु नाडिकाः ।

पुण्याख्या विष्णुपाद्याञ्च प्राक्पश्चादपि षोडश ॥१२॥

श्रवणाश्विधनिष्ठासु नागदैवतमस्तके ।

यदा स्याद्रविवारेण व्यतीपातः स उच्यते ॥१३॥

अग्निदेव कहते हैं - मुनिश्रेष्ठ ! अब मैं भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाले दानधर्मो का वर्णन करता हूँ, सुनो। दान के 'इष्ट' और 'पूर्त' दो भेद हैं। दानधर्म का आचरण करनेवाला सब कुछ प्राप्त कर लेता है। बावड़ी, कुआँ, तालाब, देव- मन्दिर, अन्न का सदावर्त तथा बगीचे आदि बनवाना 'पूर्तधर्म' कहा गया है, जो मुक्ति प्रदान करनेवाला है। अग्निहोत्र तथा सत्यभाषण, वेदों का स्वाध्याय, अतिथि सत्कार और बलिवैश्वदेव- इन्हें 'इष्टधर्म' कहा गया है। यह स्वर्ग की प्राप्ति करानेवाला है। ग्रहणकाल में, सूर्य की संक्रान्ति में और द्वादशी आदि तिथियों में जो दान दिया जाता है, वह 'पूर्त' है। वह भी स्वर्ग प्रदान करनेवाला है। देश, काल और पात्र में दिया हुआ दान करोड़गुना फल देता है। सूर्य के उत्तरायण और दक्षिणायन प्रवेश के समय, पुण्यमय विषुवकाल में, व्यतीपात, तिथिक्षय, युगारम्भ, संक्रान्ति, चतुर्दशी, अष्टमी, पूर्णिमा, द्वादशी, अष्टका श्राद्ध, यज्ञ, उत्सव, विवाह, मन्वन्तरारम्भ, वैधृतियोग, दुःस्वप्नदर्शन, धन एवं ब्राह्मण की प्राप्ति में दान दिया जाता है। अथवा जिस दिन श्रद्धा हो उस दिन या सदैव दान दिया जा सकता है। दोनों अयन और दोनों विषुव - ये चार संक्रान्तियाँ, 'षडशीतिमुखा' नाम से प्रसिद्ध चार संक्रान्तियाँ तथा 'विष्णुपदा' नाम से विख्यात चार संक्रान्तियाँ-ये बारहों संक्रान्तियाँ ही दान के लिये उत्तम मानी गयी हैं। कन्या, मिथुन, मीन और धनु राशियों में जो सूर्य की संक्रान्तियाँ होती हैं वे 'षडशीतिमुखा' कही जाती हैं, वे छियासीगुना फल देनेवाली हैं। उत्तरायण और दक्षिणायन सम्बन्धिनी (मकर एवं कर्क की) संक्रान्तियों के अतीत और अनागत (पूर्व तथा पर) घटिकाएँ पुण्य मानी गयी हैं। कर्क संक्रान्ति की तीस-तीस घड़ी और मकर- संक्रान्ति की बीस-बीस घड़ी पूर्व और पर की भी पुण्यकार्य के लिये विहित हैं। तुला और मेष की संक्रान्ति वर्तमान होने पर उसके पूर्वापर की दस- दस घड़ी का समय पुण्यकाल है। 'षडशीति- मुखा' संक्रान्तियों के व्यतीत होने पर साठ घड़ी का समय पुण्यकाल में ग्राह्य है। 'विष्णुपदा' नाम से प्रसिद्ध संक्रान्तियों के पूर्वापर की सोलह-सोलह घड़ियों को पुण्यकाल माना गया है। श्रवण अश्विनी और धनिष्ठा को एवं आश्लेषा के मस्तक भाग अर्थात् प्रथम चरण में जब रविवार का योग हो, तब यह 'व्यतीपातयोग' कहलाता है ॥ १-१३ ॥

नवम्यां शुक्लपक्षस्य कार्त्तिके निरगात्कृतं ।

त्रेता सिततृतीयायां वैशाखे द्वापरं युगं ॥१४॥

दर्शे वै माघमासस्य त्रयोदश्यां नभस्यके ।

कृष्णे कलिं विजानीयाज्ज्ञेया मन्वन्तरादयः ॥१५॥

अश्वयुकच्छुक्लनवमी द्वादशी कार्त्तिके तथा ।

तृतीया चैव माघस्य तथा भाद्रपदस्य च ॥१६॥

फाल्गुनस्याप्यमावास्या पौषस्यैकादशी तथा ।

आषाढस्यापि दशमी माघमासस्य सप्तमी ॥१७॥

श्रावणे चाष्टमी कृष्णा तथाषाढे च पूर्णिमा ।

कार्त्तिके फाल्गुने तद्वज्ज्यैष्ठे पञ्चदशी तथा ॥१८॥

कार्तिक शुक्लपक्ष की नवमी को कृतयुग और वैशाख के शुक्लपक्ष की तृतीया को त्रेता प्रारम्भ हुआ। अब द्वापर के विषय में सुनो-माघमास की पूर्णिमा को द्वापरयुग और भाद्रपद के कृष्णपक्ष की त्रयोदशी को कलियुग की उत्पत्ति जाननी चाहिये। मन्वन्तरों का आरम्भकाल या मन्वादि तिथियाँ इस प्रकार जाननी चाहिये - आश्विन शुक्लपक्ष की नवमी, कार्तिक की द्वादशी, माघ एवं भाद्रपद की तृतीया, फाल्गुन की अमावास्या, पौष की एकादशी, आषाढ़ की दशमी, माघमास की सप्तमी, श्रावण के कृष्णपक्ष को अष्टमी, आषाढ़ की पूर्णिमा, कार्तिक, फाल्गुन एवं ज्येष्ठ की पूर्णिमा ॥ १४ - १८ ॥

ऊर्ध्वे चैवाग्रहायण्या अष्टकास्तिस्र ईरिताः ।

अष्टकाख्या चाष्टमी स्यादासु दानानि चाक्ष्ययं ॥१९॥

गयागङ्गाप्रयागादौ तीर्थे देवालयादिषु ।

अप्रार्थितानि दानानि विद्यार्थं कन्यका न हि ॥२०॥

दद्यात्पूर्वमुखो दानं गृह्णीयादुत्तरामुखः ।

आयुर्विवर्धते दातुर्ग्रहीतुः क्षीयते न तत् ॥२१॥

नाम गोत्रं समुच्चार्य सम्प्रदानस्य चात्मनः ।

सम्प्रदेयं प्रयच्छन्ति कन्यादाने पुनस्त्रयं ॥२२॥

स्नात्वाभ्यर्च्य व्याहृतिभिर्दद्याद्दानन्तु सोदकं ।

कनकाश्वतिला नागा दासीरथमहीगृहाः ॥२३॥

कन्या च कपिला धेनुर्महादानानि वै दश ।

श्रुतशौर्यतपःकन्यायाज्यशिष्यादुपगतं ॥२४॥

शुल्कं धनं हि सकलं शुल्कं शिल्पानुवृत्तितः ।

कुशीदकृषिवाणिज्यप्राप्तं यदुपकारतः ॥२५॥

पाशकद्यूतचौर्यादिप्रतिरूपकसाहसैः ।

व्याजेनोपावर्जितं कृत्स्नं त्रिविधं त्रिविधं फलं ॥२६॥

अध्यग्न्यध्यावाहनिकं दत्तञ्च प्रीतिकर्मणि ।

भ्रातृमातृपितृप्राप्तं षड्विधं स्त्रीधनं स्मृतं ॥२७॥

ब्रह्मक्षत्रविशां द्रव्यं शूद्रस्यैषामनुग्रहात् ।

बहुभ्यो न प्रदेयानि गौर्गृहं शयनं स्त्र्यियः ॥२८॥

कुलानान्तु शतं हन्यादप्रयच्छन् प्रतिश्रुतं ।

देवानाञ्च गुरूणाञ्च मातापित्रोस्तथैव च ॥२९॥

पुण्यं देयं प्रयत्नेन यत्पुण्यञ्चार्जितं क्वचित् ।

प्रतिलाभेच्छया दत्तं यद्धनं तदपार्थकं ॥३०॥

श्रद्धया साध्यते धर्मो दत्तं वार्यपि चाक्षयं ।

ज्ञानशीलगुणोपेतः परपीडावहिष्कृतः ॥३१॥

अज्ञानां पालनात्त्राणात्तत्पात्रं परमं स्मृतं ।

मातुः शतगुणं दानं सहस्रं पितुरुच्यते ॥३२॥

अनन्तं दुहितुर्दानं सोदर्ये दत्तमक्षयं ।

अमनुष्ये समं दानं पापे ज्ञेयं महाफलं ॥३३॥

वर्णसङ्करे द्विगुणं शूद्रे दानं चतुर्गुणं ।

वैश्ये चाष्टगुणं क्षत्रे षोडशत्वं द्विजव्रुवे ॥३४॥

वेदाध्याये शतगुणमन्तं वेदबोधके ।

पुरोहिते याजकादौ दानमक्षयमुच्यते ॥३५॥

श्रीविहीनेषु यद्दत्तं तदनन्तं च यजवनि ।

अतपस्व्यनधीयानः प्रतिग्रहरुचिर्द्विजः ॥३६॥

अम्भस्यश्मप्लवेनैव सह तेनैव मज्जति ।

स्नातः सम्यगुपस्पृश्य गृह्णीयात्प्रयतः शुचिः ॥३७॥

प्रतिग्रहीता सावित्रीं सर्वदैव प्रकीर्तयेत् ।

ततस्तु कीर्तयेत्सार्धं द्रव्येण सह दैवतं ॥३८॥

प्रतिग्राही पठेदुच्चैः प्रतिगृह्य द्विजोत्तमात् ।

मन्दं पठेत्क्षत्रियात्तु उपांशु च तथा विशः ॥३९॥

मनसा च तथा शूद्रात्स्वस्तिवाचनकं तथा ।

मार्गशीर्षमास की पूर्णिमा के बाद जो तीन अष्टमी तिथियाँ आती हैं, उन्हें तीन 'अष्टका' कहा गया है। अष्टमी का 'अष्टका' नाम है। इन अष्टकाओं में दिया हुआ दान अक्षय होता है। गया, गङ्गा और प्रयाग आदि तीर्थों में तथा मन्दिरों में किसी के बिना माँगे दिया हुआ दान उत्तम जाने। किंतु कन्यादान के लिये यह नियम लागू नहीं है। दाता पूर्वाभिमुख होकर दान दे और लेनेवाला उत्तराभिमुख होकर उसे ग्रहण करे। दान देनेवाले की आयु बढ़ती है, किंतु लेनेवाले की भी आयु क्षीण नहीं होती। अपने और प्रतिगृहीता के नाम एवं गोत्र का उच्चारण करके देय वस्तु का दान किया जाता है। कन्यादान में इसकी तीन आवृत्तियाँ की जाती हैं। स्नान और पूजन करके हाथ में जल लेकर उपर्युक्त संकल्पपूर्वक दान दे। सुवर्ण, अश्व, तिल, हाथी, दासी, रथ, भूमि, गृह, कन्या और कपिला गौ का दान-ये दस 'महादान' हैं। विद्या, पराक्रम, तपस्या, कन्या, यजमान और शिष्य से मिला हुआ सम्पूर्ण धन दान नहीं, शुल्करूप है। शिल्पकला से प्राप्त धन भी शुल्क ही है। खेती, वाणिज्य और दूसरे का उपकार करके प्राप्त किया हुआ धन, पासे, जूए, चोरी आदि प्रतिरूपक (स्वाँग बनाने) और साहसपूर्ण कर्मसे उपार्जित किया हुआ धन तथा छल-कपटसे पाया हुआ धन- ये तीन प्रकारके धन क्रमशः सात्त्विक, राजस एवं तामस-तीन प्रकार के फल देते हैं। विवाह के समय मिला हुआ, ससुराल को विदा होते समय प्रीति के निमित्त प्राप्त हुआ, पति द्वारा दिया गया, भाई से मिला हुआ, माता से प्राप्त हुआ तथा पिता से मिला हुआ ये छः प्रकार के धन 'स्त्री धन' माने गये हैं। ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों के अनुग्रह से प्राप्त हुआ धन शूद्र का होता है। गौ, गृह, शय्या और स्त्री-ये अनेक व्यक्तियों को नहीं दी जानी चाहिये। इनको अनेक व्यक्तियों के साझे में देना पाप है। प्रतिज्ञा करके फिर न देने से प्रतिज्ञाकर्ता के सौ कुलों का विनाश हो जाता है। किसी भी स्थान पर उपार्जित किया हुआ पुण्य देवता, आचार्य एवं माता-पिता को प्रयत्नपूर्वक समर्पित करना चाहिये। दूसरे से लाभ की इच्छा रखकर दिया हुआ धन निष्फल होता है। धर्म की सिद्धि श्रद्धा से होती है; श्रद्धापूर्वक दिया हुआ जल भी अक्षय होता है। जो ज्ञान, शील और सद्गुणों से सम्पन्न हो एवं दूसरों को कभी पीड़ा न पहुँचाता हो, वह दान का उत्तम पात्र माना गया है। अज्ञानी मनुष्यों का पालन एवं त्राण करने से वह 'पात्र' कहलाता है। माता को दिया गया दान सौगुना और पिता को दिया हुआ हजार गुना होता है। पुत्री और सहोदर भाई को दिया हुआ दान अनन्त एवं अक्षय होता है। मनुष्येतर प्राणियों को दिया गया दान सम होता है, न्यून या अधिक नहीं । पापात्मा मनुष्य को दिया गया दान अत्यन्त निष्फल जानना चाहिये । वर्णसंकर को दिया हुआ दान दुगुना, शूद्र को दिया हुआ दान चौगुना, वैश्य अथवा क्षत्रिय को दिया हुआ आठगुना, ब्राह्मणब्रुव* (नाममात्र के ब्राह्मण) को दिया हुआ दान सोलहगुना और वेदपाठी ब्राह्मण को दिया हुआ दान सौगुना फल देता है। वेदों के अभिप्राय का बोध करानेवाले आचार्य को दिया हुआ दान अनन्त होता है। पुरोहित एवं याजक आदि को दिया हुआ दान अक्षय कहा गया है। धनहीन ब्राह्मणों को और यज्ञकर्ता ब्राह्मण को दिया हुआ दान अनन्त फलदायक होता है। तपोहीन, स्वाध्यायरहित और प्रतिग्रह में रुचि रखनेवाला ब्राह्मण जल में पत्थर की नौका पर बैठे हुए के समान है; वह उस प्रस्तरमयी नौका के साथ ही डूब जाता है। ब्राह्मण को स्नान एवं जल का उपस्पर्शन करके प्रयत्नपूर्वक पवित्र हो दान ग्रहण करना चाहिये । प्रतिग्रह लेनेवाले को सदैव गायत्री का जप करना चाहिये एवं उसके साथ ही साथ प्रतिगृहीत द्रव्य और देवता का उच्चारण करना चाहिये। प्रतिग्रह लेनेवाले श्रेष्ठ ब्राह्मण से दान ग्रहण करके उच्चस्वर में, क्षत्रिय से दान लेकर मन्दस्वर में तथा वैश्य का प्रतिग्रह स्वीकार करके उपांशु (ओठों को बिना हिलाये ) जप करे। शूद्र से प्रतिग्रह लेकर मानसिक जप और स्वस्तिवाचन करे ।। १९ – ३९अ ॥

गर्भाधानादिभिर्मन्त्रैर्वेदोपनयनेन च । नाध्यापयति नाधीते स भवेद्ब्राह्मणवः (व्यासस्मृति ४ । ४२)

'जिसके गर्भाधान के संस्कार और वेदोक्त यज्ञोपवीत संस्कार हुए हैं, परंतु जो अध्ययन-अध्यापन का कार्य नहीं करता, वह 'ब्राह्मणब्रुव' कहलाता है।'

अभयं सर्वदैवत्यं भूमिर्वै विष्णुदेवता ॥४०॥

कन्या दासस्तथा दासी प्राजापत्याः प्रकीर्तिताः ।

प्राजापत्यो गजः प्रोक्तस्तुरगो यमदैवतः ॥४१॥

तथा चैकशफं सर्वं याम्यश्च महिषस्तथा ।

उष्ट्रश्च नैर्ऋतो धेनू रौद्री छागोऽनलस्तथा ॥४२॥

आप्यो मेषो हरिः क्रीड आरण्याः पशवोऽनिलाः ।

जलाशयं वारुणं स्याद्वारिधानीघटादयः ॥४३॥

समुद्रजानि रत्नानि हेमलौहानि चानलः ।

प्राजापत्यानि शस्यानि पक्वान्नमपि सत्तम ॥४४॥

गान्धर्वं गन्धमित्याहुर्वस्त्रं वार्हस्पतं स्मृतं ।

वायव्याः पक्षिणः सर्वे विद्या ब्राह्मी तथाङ्गकं ॥४५॥

सारस्वतं पुस्तकादि विश्वकर्मा तु शिलप्के ।

वनस्पतिर्द्रुमादीनां द्रव्यदेवा हरेस्तनुः ॥४६॥

मुनिश्रेष्ठ! अभय के सर्वदेवगण देवता हैं, भूमि के विष्णु देवता हैं, कन्या और दास-दासी के देवता प्रजापति कहे गये हैं, गज के देवता भी प्रजापति ही हैं। अश्व के यम, एक खुरवाले पशुओं के सर्वदेवगण, महिष के यम, उष्ट्र के निर्ऋति, धेनु के रुद्र, बकरे के अग्नि, भेड़ सिंह एवं वराह के जलदेवता, वन्य पशुओं के वायु, जलपात्र और कलश आदि जलाशयों के वरुण, समुद्र से उत्पन्न होनेवाले रत्नों तथा स्वर्ण-लौहादि धातुओं के अग्नि, पक्वान्न और धान्यों के प्रजापति, सुगन्ध के गन्धर्व, वस्त्र के बृहस्पति, सभी पक्षियों के वायु, विद्या एवं विद्याङ्गों के ब्रह्मा, पुस्तक आदि की सरस्वती देवी, शिल्प के विश्वकर्मा एवं वृक्षों के वनस्पति देवता हैं। ये समस्त द्रव्य देवता भगवान् श्रीहरि के अङ्गभूत हैं ॥ ४०-४६ ॥

छत्रं कृष्णाजिनं शय्या रथ आसनमेव च ।

उपानहौ तथा यानमुत्तानाङ्गिर ईरितं ॥४७॥

रणोपकरणं शस्त्रं ध्वजाद्यं सर्वदैवतं ।

गृहञ्च सर्वदैवत्यं सर्वेषां विष्णुदेवता ॥४८॥

शिवो वा न ततो द्रव्यं व्यतिरिक्तं यतोऽस्ति हि ।

द्रव्यस्य नाम गृह्णीयाद्ददानीति तथा वदेत् ॥४९॥

तोयं दद्यात्ततो हस्ते दाने विधिरयं स्मृतः ।

विष्णुर्दाता विष्णुर्द्रव्यं प्रतिगृह्णामि वै वदेत् ॥५०॥

स्वस्ति प्रतिग्रहं धर्मं भुक्तिमुक्ती फलद्वयं ।

गुरून् भृत्यान्न जिहीर्षुरर्चिष्यन् देवताः पितॄन् ॥५१॥

सर्वतः प्रतिगृह्णीयान्न तु तृप्येत्स्वयन्ततः ।

शूद्रीयन्न तु यज्ञार्थं धनं शूद्रस्य तत्फलं ॥५२॥

छत्र, कृष्णमृगचर्म, शय्या, रथ, आसन, पादुका तथा वाहन - इनके देवता 'ऊर्ध्वाङ्गिरा' (उत्तानाङ्गिरा ) कहे गये हैं। युद्धोपयोगी सामग्री, शस्त्र और ध्वज आदि के सर्वदेवगण देवता हैं। गृह के भी देवता सर्वदेवगण ही हैं। सम्पूर्ण पदार्थों के देवता विष्णु अथवा शिव हैं; क्योंकि कोई भी वस्तु उनसे भिन्न नहीं है। दान देते समय पहले द्रव्य का नाम ले। फिर 'ददामि' (देता हूँ) ऐसा कहे। फिर संकल्प का जल दान लेनेवाले के हाथ में दे। दान में यही विधि बतलायी गयी है। प्रतिग्रह लेनेवाला यह कहे- 'विष्णु दाता हैं, विष्णु ही द्रव्य हैं और मैं इस दान को ग्रहण करता हूँ; यह धर्मानुकूल प्रतिग्रह कल्याणकारी हो। दाता को इससे भोग और मोक्षरूप फलों की प्राप्ति हो।' गुरुजनों (माता-पिता) और सेवकों के उद्धार के लिये देवताओं और पितरों का पूजन करना हो तो उसके लिये सबसे प्रतिग्रह ले; परंतु उसे अपने उपयोग में न लावे शूद्र का धन यज्ञकार्य में ग्रहण न करे; क्योंकि उसका फल शूद्र को ही प्राप्त होता है ॥ ४७-५२ ॥

गुडतक्ररसाद्याश्च शूद्राद्ग्राह्या निवर्तिना ।

सर्वतः प्रतिगृह्णीयादवृत्याकर्षितो द्विजः ॥५३॥

नाध्यापनाद्याजनाद्वा गर्हिताद्वा प्रतिग्रहात् ।

दोषो भवति विप्राणां ज्वलनार्कसमा हि ते ॥५४॥

कृते तु दीयते गत्वा त्रेतास्वानीय दीयते ।

द्वापारे याचमानाय कलौ त्वनुगमान्विते ॥५५॥

मनसा पात्रमुद्दिश्य जलं भूमौ विनिक्षिपेत् ।

विद्यते सागरस्यान्तो नान्तो दानस्य विद्यते ॥५६॥

वृत्तिरहित ब्राह्मण शूद्र से गुड़, तक्र, रस आदि पदार्थ ग्रहण कर सकता है। जीविकाविहीन द्विज सब का दान ले सकता है; क्योंकि ब्राह्मण स्वभाव से ही अग्नि और सूर्य के समान पवित्र है। इसलिये आपत्तिकाल में निन्दित पुरुषों को पढ़ाने, यज्ञ कराने और उनसे दान लेने से उसको पाप नहीं लगता। कृतयुग में ब्राह्मण के घर जाकर दान दिया जाता है, त्रेता में अपने घर बुलाकर, द्वापर में माँगने पर और कलियुग में अनुगमन करने पर दिया जाता है। समुद्र का पार मिल सकता है, किंतु दान का अन्त नहीं मिल सकता। दाता मन-ही- मन सत्पात्र के उद्देश्य से निम्नलिखित संकल्प करके भूमि पर जल छोड़े-

अद्य सोमार्कग्रहणसङ्क्रान्त्यादौ च कालके ।

गङ्गागयाप्रयागादौ तीर्थदेशे महागुणे ॥५७॥

तथा चामुकगोत्राय तथा चामुकशर्मणे ।

वेदवेदाङ्गयुक्ताय पात्राय सुमहात्मने ॥५८॥

यथानाम महाद्रव्यं विष्णुरुद्रादिदैवतं ।

पुत्रपौत्रगृहैश्वर्यपत्नीधर्मार्थसद्गुणा ॥५९॥

कीत्तिविद्यामहाकामसौभाग्यारोग्यवृद्धये ।

सर्वपापोपशान्त्यर्थं स्वर्गार्थं भुक्तिमुक्तये ॥६०॥

एतत्तुभ्यं सम्प्रददे प्रीयतां मे हरिः शिवः ।

दिव्यान्तरीक्षभौमादिसमुत्पातौघघातकृत् ॥६१॥

धर्मार्थकाममोक्षाप्त्यै ब्रह्मलोकप्रदोऽस्तु मे ।

'आज मैं चन्द्रमा अथवा सूर्य के ग्रहण या संक्रान्ति के समय गङ्गा, गया अथवा प्रयाग आदि अनन्त गुण सम्पन्न तीर्थदेश में अमुक गोत्रवाले वेद-वेदाङ्गवेत्ता महात्मा एवं सत्पात्र अमुक शर्मा को विष्णु, रुद्र अथवा जो देवता हों, उन देवता-सम्बन्धी अमुक महाद्रव्य कीर्ति, विद्या, महती कामना, सौभाग्य और आरोग्य के उदय के लिये, समस्त पापों की शान्ति एवं स्वर्ग के लिये, भोग और मोक्ष के प्राप्त्यर्थ आपको दान करता हूँ। इससे देवलोक, अन्तरिक्ष और भूमि सम्बन्धी समस्त उत्पातों का विनाश करनेवाले मङ्गलमय श्रीहरि मुझ पर प्रसन्न हों और मुझे धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष की प्राप्ति कराकर ब्रह्मलोक प्रदान करें।'

यथानामसगोत्राय विप्रायामुकशर्मणे ॥६२॥

एतद्दानप्रतिष्ठार्थं सुवर्णं दक्षिणां ददे ।

(तदनन्तर यह संकल्प पढ़े) 'अमुक नाम और गोत्रवाले ब्राह्मण अमुक शर्मा को मैं इस दान की प्रतिष्ठा के निमित्त सुवर्ण की दक्षिणा देता हूँ।'

अनेन दानवाक्येन सर्वदानानि वै ददेत् ॥६३॥

इस दान वाक्य से समस्त दान दे ॥ ५३ - ६३ ॥

इत्याग्नेये महापुराणे दानपरिभाषा नाम नवाधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥

इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में 'दान- परिभाषा आदि का वर्णन' नामक दो सौ नवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २०९ ॥

आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 210

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