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अग्निरुवाच
पुष्पाद्यैः पूजनाद्विष्णोर्न याति
नरकान्दवे ।
आयुषोऽन्ते नरः प्राणैरनिच्छन्नपि
मुच्यते ॥०१॥
जलमग्निर्विषं शस्त्रं
क्षुद्व्याधिः पतनं गिरेः ।
निमित्तं किञ्चिदासाद्य देही प्राणैर्विमुच्यते
॥०२॥
अन्यच्छरीरमादत्ते यातनीयं
स्वकर्मभिः ।
भुङ्क्तेऽथ पापकृत्दुःखं सुखं
धर्माय सङ्गतः ॥०३॥
नीयते यमदूतैस्तु यमं
प्राणिभयङ्करैः ।
कुपथे दक्षिणद्वारि धर्मिकः
पश्चिमादिभिः ॥०४॥
यमाज्ञप्तैः किङ्करैस्तु पात्यते
नरकेषु च ।
स्वर्गे तु नीयते धर्माद्वसिष्ठाद्युक्तिसंश्रयात्
॥०५॥
गोघाती तु महावीच्यां वर्षलक्षन्तु
पीड्यते ।
आमकुम्भे महादीप्ते ब्रह्महा
भूमिहारकः ॥०६॥
महाप्रलयकं यावद्रौरवे पीड्यते शनैः
।
स्त्रीबालवृद्धहन्ता तु
यावदिन्द्राश्चतुर्दश ॥०७॥
महारौरवके रौद्रे
गृहक्षेत्रादिदीपकः ।
दह्यते कल्पमेकं स चौरस्तामिस्रके
पतेत् ॥०८॥
नैककल्पन्तु शूलाद्यैर्भिद्यते
यमकिङ्करैः ।
महातामिस्रके सर्पजलौकाद्यैश्च
पीड्यते ॥०९॥
यावद्भूमिर्मातृहाद्या
असिपत्रवनेऽसिभिः ।
नैककल्पन्तु नरके करम्भवालुकासु च
॥१०॥
येन दग्धो जनस्तत्र दह्यते
वालुकादिभिः ।
काकोले कृमिविष्ठाशी एकाकी
मिष्टभोजनः ॥११॥
कुट्टले मूत्ररक्ताशी
पञ्चयज्ञक्रियोज्झितः ।
सुदुर्गन्धे रक्तभोजी
भवेच्चाभक्ष्यभक्ष्यकः ॥१२॥
अग्निदेव कहते हैं- वसिष्ठ ! अब मैं
नरकों का वर्णन करता हूँ। भगवान् श्रीविष्णु का पुष्पादि उपचारों से पूजन करनेवाले
नरक को नहीं प्राप्त होते। आयु के समाप्त होने पर मनुष्य न चाहता हुआ भी प्राणों से
बिछुड़ जाता है। देहधारी जीव जल, अग्नि,
विष, शस्त्राघात, भूख,
व्याधि या पर्वत से पतन - किसी-न-किसी निमित्त को पाकर प्राणों से
हाथ धो बैठता है। वह अपने कर्मो के अनुसार यातनाएँ भोगने के लिये दूसरा शरीर ग्रहण
करता है। इस प्रकार पापकर्म करनेवाला दुःख भोगता है, परंतु
धर्मात्मा पुरुष सुख का भोग करता है । मृत्यु के पश्चात् पापी जीव को यमदूत बड़े
दुर्गम मार्ग से ले जाते हैं और वह यमपुरी के दक्षिण द्वार से यमराज के पास
पहुँचाया जाता है। वे यमदूत बड़े डरावने होते हैं। परंतु धर्मात्मा मनुष्य पश्चिम
आदि द्वारों से ले जाये जाते हैं। वहाँ पापी जीव यमराज की आज्ञा से यमदूतों द्वारा
नरकों में गिराये जाते हैं, किंतु वसिष्ठ आदि ऋषियों द्वारा
प्रतिपादित धर्म का आचरण करनेवाले स्वर्ग में ले जाये जाते हैं। गोहत्यारा 'महावीचि' नामक नरक में एक लाख वर्षतक पीड़ित किया
जाता है। ब्रह्मघाती अत्यन्त दहकते हुए 'ताम्रकुम्भ' नामक नरक में गिराये जाते हैं और भूमि का अपहरण करनेवाले पापी को महाप्रलय
काल तक 'रौरव- नरक में धीरे-धीरे दुःसह पीड़ा दी जाती है। स्त्री,
बालक अथवा वृद्धों का वध करनेवाले पापी चौदह इन्द्रों के राज्यकाल पर्यन्त
'महारौरव' नामक रौद्र नरक में क्लेश
भोगते हैं। दूसरों के घर और खेत को जलानेवाले अत्यन्त भयंकर 'महारौरव' नरक में एक कल्पपर्यन्त पकाये जाते हैं।
चोरी करनेवाले को 'तामिस्त्र' नामक नरक
में गिराया जाता है। इसके बाद उसे अनेक कल्पोंतक यमराज के अनुचर भालों से बींधते
रहते हैं और फिर 'महातामिस्त्र' नरक में
जाकर वह पापी सर्पों और जोकों द्वारा पीड़ित किया जाता है। मातृघाती आदि मनुष्य 'असिपत्रवन' नामक नरक में गिराये जाते हैं। वहाँ
तलवारों से उनके अङ्ग तबतक काटे जाते हैं, जबतक यह पृथ्वी
स्थित रहती है। जो इस लोक में दूसरे प्राणियों के हृदय को जलाते हैं, वे अनेक कल्पोंतक 'करम्भवालुका' नरक में जलती हुई रेत में भुने जाते हैं। दूसरों को बिना दिये अकेले
मिष्टान्न भोजन करनेवाला 'काकोल' नामक
नरक में कीड़ा और विष्ठा का भक्षण करता है। पञ्चमहायज्ञ और नित्यकर्म का परित्याग
करनेवाला 'कुट्टल' नामक नरक में जाकर
मूत्र और रक्त का पान करता है। अभक्ष्य वस्तु का भक्षण करनेवाले को महादुर्गन्धमय
नरक में गिरकर रक्त का आहार करना पड़ता है ॥ १-१२ ॥
तैलपाके तु तिलवत्पीड्यते परपीडकः ।
तैलपाके तु पच्येत शरणागतघातकः ॥१३॥
निरुच्छासे दाननाशी
रसविक्रयकोऽध्वरे ।
नाम्ना वज्रकवाटेन महापाते तदानृती
॥१४॥
दूसरों को कष्ट देनेवाला 'तैलपाक' नामक नरक में तिलों की भाँति पेरा जाता है।
शरणागत का वध करनेवाले को भी 'तैलपाक 'में
पकाया जाता है । यज्ञ में कोई चीज देने की प्रतिज्ञा करके न देनेवाला 'निरुच्छ्वास' में, रस-विक्रय
करनेवाला 'वज्रकटाह' नामक नरक में और
असत्यभाषण करनेवाला 'महापात' नामक नरक में
गिराया जाता है ॥ १३-१४ ॥
महाज्वाले पापबुद्धिः
क्रकचेऽगम्यगामिनः ।
सङ्करी गुडपाके च
प्रतुदेत्परमर्मनुत् ॥१५॥
क्षारह्रदे प्राणिहन्ता क्षुरधारे च
भूमिहृत् ।
अम्बरीषे
गोस्वर्णहृद्द्रुमच्छिद्वज्रशस्त्रके ॥१६॥
मधुहर्ता परीतापे कालसूत्रे
परार्थहृत् ।
कश्मलेऽत्यन्तमांसाशी उग्रगन्धे
ह्यपिण्डदः ॥१७॥
दुर्धरे तु काचभक्षी
वन्दिग्राहरताश्च ये ।
मञ्जुषे नरके लोहेऽप्रतिष्ठे
श्रुतिनिन्दकः ॥१८॥
पूतिवक्त्रे कूटसाक्षी परिलुण्ठे
धनापहा ।
बालस्त्रीवृद्धघाती च कराले
ब्राह्मणार्तिकृत् ॥१९॥
विलेपे मद्यपो विप्रो महाताम्रे तु
मेदिनः ।
तथाक्रम्य पारदारान् ज्वलन्तीमायसीं
शिलां ॥२०॥
शाल्मलाख्ये तमालिङ्गेन्नारी
बहुनरङ्गमा ।
पापपूर्ण विचार रखनेवाला 'महाज्वाल 'में, अगम्या स्त्री के
साथ गमन करनेवाला 'क्रकच' में, वर्णसंकर संतान उत्पन्न करनेवाला 'गुडपाक' में, दूसरों के मर्मस्थानों में पीड़ा पहुँचानेवाला 'प्रतुद 'में, प्राणिहिंसा
करनेवाला 'क्षारह्रद' में, भूमि का अपहरण करनेवाला 'क्षुरधार' में, गौ और स्वर्ण की चोरी करनेवाला 'अम्बरीष' में, वृक्ष काटनेवाला
'वज्रशस्त्र' में, मधु चुरानेवाला 'परीताप' में,
दूसरों का धन अपहरण करनेवाला 'कालसूत्र' में, अधिक मांस खानेवाला 'कश्मल
में और पितरों को पिण्ड न देनेवाला 'उग्रगन्ध' नामक नरक में यमदूतों द्वारा ले जाया जाता है। घूस खानेवाले 'दुर्धर' नामक नरक में और निरपराध मनुष्यों को कैद
करनेवाले 'लौहमय मंजूष' नामक नरक में
यमदूतों द्वारा ले जाकर कैद किये जाते हैं। वेदनिन्दक मनुष्य 'अप्रतिष्ठ' नामक नरक में गिराया जाता है। झूठी गवाही
देनेवाला 'पूतिवक्त्र में, धन का अपहरण
करनेवाला 'परिलुण्ठ' में, बालक, स्त्री और वृद्ध की हत्या करनेवाला तथा
ब्राह्मण को पीड़ा देनेवाला 'कराल' में,
मद्यपान करनेवाला ब्राह्मण 'विलेप' में और मित्रों में परस्पर भेदभाव करानेवाला 'महाप्रेत'
नरक को प्राप्त होता है। परायी स्त्री का उपभोग करनेवाले पुरुष और
अनेक पुरुषों से सम्भोग करनेवाली नारी को 'शाल्मल' नामक नरक में जलती हुई लौहमयी शिला के रूप में अपनी उस प्रिया अथवा प्रिय का
आलिङ्गन करना पड़ता है । १५ - २०अ ॥
आस्फोटजिह्वोद्धरणं
स्त्रीक्षणान्नेत्रभेदनं ॥२१॥।
अङ्गारराशौ क्षिप्यन्ते मातृपुत्र्यादिगामिनः
।
चौराः क्षुरैश्च भिद्यन्ते
स्वमांसाशी च मांसभुक् ॥२२॥
मासोपवासकर्ता वै न याति नरकन्नरः ।
एकादशीव्रतकरो भीष्मपञ्चकसद्व्रती
॥२३॥
नरकों में चुगली करनेवालों की जीभ
खींचकर निकाल ली जाती है, परायी स्त्रियों को
कुदृष्टि से देखनेवालों की आँखें फोड़ी जाती हैं, माता और
पुत्री के साथ व्यभिचार करनेवाले धधकते हुए अंगारों पर फेंक दिये जाते हैं,
चोरों को छुरों से काटा जाता है और मांस भक्षण करनेवाले नरपिशाचों को
उन्हीं का मांस काटकर खिलाया जाता है। मासोपवास, एकादशीव्रत
अथवा भीष्मपञ्चकव्रत करनेवाला मनुष्य नरकों में नहीं जाता ॥ २१-२३ ॥
इत्याग्नेये महापुराणे
नरकस्वरूपवर्णनं नाम त्र्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में 'एक सौ नवासी नरकों के स्वरूप का वर्णन' नामक दो सौ
तीनवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २०३ ॥
आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 204
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