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अथैकादशाधिकद्विशततमोऽध्यायः
अग्निरुवाच
एकाङ्गां दशगुर्दद्याद्दश दद्याच्च
गोशती ।
शतं सहस्रगुर्दद्यात्सर्वे तुल्यफला
हि ते ॥०१॥
प्रासादा यत्र सौवर्णा वसोर्धारा च
यत्र सा ।
गन्धर्वाप्सरसो यत्र तत्र यान्ति
सहस्रदाः ॥०२॥
गवां शतप्रदानेन मुच्यते
नरकार्णवात् ।
दत्त्वा वत्सतरीं चैव स्वर्हलोके
महीयते ॥०३॥
गोदानादायुरारोग्यसौभाग्यस्वर्गमाप्नुयात्
।
अग्निदेव कहते हैं—
वसिष्ठ! जिसके पास दस गौएँ हों, वह एक गौ;
जिसके पास सौ गौएँ हों, वह दस गौएँ; जिसके पास एक हजार गौएँ हों, वह सौ गौओं का दान करे
तो उन सबको समान फल प्राप्त होता है। कुबेर की राजधानी अलकापुरी, जहाँ स्वर्णनिर्मित भवन हैं एवं जहाँ गन्धर्व और अप्सराएँ विहार करती हैं,
सहस्र गौओं का दान करनेवाले वहीं जाते हैं। मनुष्य सौ गौओं का दान
करके नरक समुद्र से मुक्त हो जाता है और बछिया का दान करके स्वर्गलोक में पूजित
होता है। गोदान से दीर्घायु, आरोग्य, सौभाग्य
और स्वर्ग की प्राप्ति होती है।
इन्द्रादिलोकपालानां या राजमहिषी
शुभा ॥०४॥
महिषीदानमाहात्म्यादस्तु मे
सर्वकामदा ।
धर्मराजस्य साहाय्ये यस्याः पुत्रः
प्रतिष्ठितः ॥०५॥
महिषासुरस्य जननी या सास्तु वरदा मम
।
महिषीदानाच्च सौभाग्यं
वृषदानाद्दिवं व्रजेत् ॥०६॥
'जो इन्द्र आदि लोकपालों की
मङ्गलमयी राजमहिषी हैं, वे देवी इस महिषीदान के माहात्म्य से
मुझे सम्पूर्ण अभीष्ट वस्तुएँ प्रदान करें। जिनका पुत्र धर्मराज की सहायता में
नियुक्त है एवं जो महिषासुर की जननी हैं, वे देवी मुझे वर
प्रदान करें।'
उपर्युक्त मन्त्र पढ़कर महिषीदान
करने से सौभाग्य की प्राप्ति होती है। वृषदान से मनुष्य स्वर्गलोक में जाता है ॥
१-६ ॥
संयुक्तहलपङ्क्त्याख्यं दानं
सर्वफलप्रदं ।
पङ्क्तिर्दशहला प्रोक्ता दारुजा
वृषसंयुता ॥०७॥
सौवर्णपट्टसन्नद्धान्दत्त्वा
स्वर्गे महीयते ।
दशानां कपिलानां तु दत्तानां
ज्येष्ठपुष्करे ॥०८॥
तत्फलञ्चाक्षयं प्रोक्तं वृषभस्य तु
मोक्षणे ।
धर्मोऽसित्वञ्चतुष्पादश्चतस्रस्ते
प्रिया इमाः ॥०९॥
'संयुक्त हलपङ्क्ति' नामक दान समस्त फलों को प्रदान करता है। काठ के बने हुए दस हलों की पङ्क्ति,
जो सुवर्णमय पट्ट से परस्पर जुड़ी हो और प्रत्येक हल के साथ आवश्यक
संख्या में बैल भी हों तो उसका दान 'संयुक्त हलपङ्क्ति'
नामक दान कहा गया है। वह दान करके मनुष्य स्वर्गलोक में पूजित होता
है। ज्येष्ठपुष्कर तीर्थ में दस कपिला गौओं का दान किया जाय तो उसका फल अक्षय
बतलाया गया है। वृषोत्सर्ग करने से भी अक्षय फल की प्राप्ति होती है। साँड़ को
चक्र और त्रिशूल से अङ्कित करके यह मन्त्र पढ़कर छोड़े-
नमो ब्रह्मण्यदेवेश पितृभूतर्षिपोषक
।
त्वयि मुक्तेऽक्षया लोका मम सन्तु
निरामयाः ॥१०॥
मा मे ऋणोऽस्तु दैवत्यो भौतः
पैत्रोऽथ मानुषः ।
धर्मस्त्वं त्वत्प्रपन्नस्य या गतिः
सास्तु मे ध्रुवा ॥११॥
अङ्गयेच्चक्रशूलाभ्यां मन्त्रेणानेन
चोत्सृजेत् ।
'देवेश्वर! तुम चार चरणों से
युक्त साक्षात् धर्म हो । ये तुम्हारी चार प्रियतमाएँ हैं। पितरों, मनुष्यों और ऋषियों का पोषण करनेवाले वेदमूर्ति वृष! तुम्हारे मोचन से
मुझे अमृतमय शाश्वत लोकों की प्राप्ति हो। मैं देवऋण, भूतऋण,
पितृऋण एवं मनुष्यऋण से मुक्त हो जाऊँ। तुम साक्षात् धर्म हो;
तुम्हारा आश्रय ग्रहण करनेवालों को जो गति प्राप्त होती हो, वह नित्य गति मुझे भी प्राप्त हो ' ॥ ७ – ११अ ॥
एकादशाहे प्रेतस्य यस्य चोत्सृज्यते
वृषः ॥१२॥
मुच्यते प्रेतलोकात्तु षण्मासे
चाव्दिकादिषु ।
दशहस्तेन कुण्डेन
त्रिंशत्कुण्डान्निवर्तनं ॥१३॥
तान्येव दशविस्ताराद्गोचर्मे
तत्प्रदोऽघभित् ।
गोभूहिरण्यसंयुक्तं कृष्णाजिनन्तु
योऽर्पयेत् ॥१४॥
सर्वदुष्कृतकर्मापि सायुज्यं
ब्रह्मणो व्रजेत् ।
भाजनन्तिलसम्पूर्णं मधुना पूर्णमेव
च ॥१५॥
दद्यात्कृष्णतिलानाञ्च प्रस्थमेकञ्च
मागधं ।
शय्यां दत्त्वा तु सगुणां
भुक्तिमुक्तिमवाप्नुयात् ॥१६॥
जिस मृत व्यक्ति के एकादशाह,
षाण्मासिक अथवा वार्षिक श्राद्ध में वृषोत्सर्ग किया जाता है, वह प्रेतलोक से मुक्त हो जाता है। दस हाथ के डंडे से तीस डंडे के बराबर की
भूमि को 'निवर्तन' कहते हैं। दस
निवर्तन भूमि की 'गोचर्म' संज्ञा है।
इतनी भूमि का दान करनेवाला मनुष्य अपने समस्त पापों का नाश कर देता है। जो गौ,
भूमि और सुवर्णयुक्त कृष्णमृगचर्म का दान करता है, वह सम्पूर्ण पापों के करने पर भी ब्रह्मा का सायुज्य प्राप्त कर लेता है।
तिल एवं मधु से भरा पात्र मगधदेशीय मान के अनुसार एक प्रस्थ ( चौसठ पल) कृष्णतिल का
दान करे। इसके साथ उत्तम गुणों से युक्त शय्या देने से दाता को भोग और मोक्ष की प्राप्ति
होती है ॥ १२-१६ ॥
हैमीं प्रतिकृतिं कृत्वा दत्त्वा
स्वर्गस्तथात्मनः ।
विपुलन्तु गृहं कृत्वा दत्त्वा
स्याद्भुक्तिमुक्तिभाक् ॥१७॥
गृहं मठं सभां स्वर्गी दत्त्वा
स्याच्च प्रतिश्रियं ।
दत्त्वा कृत्वा गोगृहञ्च निष्पापः
स्वर्गमाप्नुयात् ॥१८॥
यममाहिषदानात्तु निष्पापः
स्वर्गमाप्नुयात् ।
ब्रह्मा हरो हरिर्देवैर्मध्ये च
यमदूतकः ॥१९॥
पाशी तस्य शिरश्छित्त्वा तं
दद्यात्स्वर्गभाग्भवेत् ।
त्रिमुखाख्यमिदं दानं गृहीत्वा तु
द्विजोऽघभाक् ॥२०॥
चक्रं रूप्यमयं कृत्वा के धृत्वा
तत्प्रदापयेत् ।
हेमयुक्तं
द्विजायैतत्कालचक्रमिदम्महत् ॥२१॥
अपनी स्वर्णमयी प्रतिमा बनवाकर दान
करनेवाला स्वर्ग में जाता है। विशाल गृह का निर्माण कराके उसका दान देनेवाला भोग
एवं मोक्ष- दोनों को प्राप्त करता है। गृह, मठ,
सभाभवन (धर्मशाला) एवं आवासस्थान का दान करके मनुष्य स्वर्गलोक में
जाकर सुख भोगता है। गोशाला बनवाकर दान करनेवाला पापरहित होकर स्वर्ग को प्राप्त
होता है। यम देवता- सम्बन्धी महिषदान करने से मनुष्य निष्पाप होकर स्वर्गलोक को
जाता है। देवताओं सहित ब्रह्मा, शिव और विष्णु के बीच में
पाशधारी यमदूत की (स्वर्णादिमयी) मूर्तियाँ स्थापित करके यमदूत के सिर का छेदन करे;
फिर उस मूर्तिमण्डल का ब्राह्मण को दान कर दे। ऐसा करने से दाता तो
स्वर्गलोक का भागी होता है, किंतु इस 'त्रिमुख'
नामक दान को ग्रहण करके द्विज पाप का भागी होता है। चाँदी का चक्र
बनवाकर उसे जल में रखकर उसके निमित्त से होम करे पश्चात् वह चक्र ब्राह्मण को दान
कर दे। यह महान् 'कालचक्रदान' माना गया
है ॥ १७-२१ ॥
आत्मतुल्यन्तु यो लौहं ददेन्न नरकं
व्रजेत् ।
पञ्चाशत्पलसंयुक्तं लौहदण्डं तु
योऽर्पयेत् ॥२२॥
वस्त्रेणाच्छाद्य विप्राय यमदण्डो न
विद्यते ।
मूलं फलादि वा द्रव्यं संहतं वाथ
चैकशः ॥२३॥
मृत्युज्जयं समुद्दिश्य
दद्यादायुर्विवर्धये ।
पुमान् कृष्णतिलैः कार्यो
रौप्यदन्तः सुवर्णदृक् ॥२४॥
खड्गोद्यतकरो दीर्घो जवाकुसुममण्डलः
।
रक्ताम्वरधरः स्रग्वी
शङ्कमालाविभूषितः ॥२५॥
उपानद्युगयुक्ताङ्घ्रिः
कृष्णकम्बलपार्श्वकः ।
गृहीतमांसपिण्डश्च वामे वै
कालपूरुषः ॥२६॥
सम्पूज्य तञ्च गन्धाद्यैः
ब्राह्मणायोपपादयेत् ।
मरणव्याधिहीनः स्याद्राजराजेश्वरो
भवेत् ॥२७॥
गोवृषौ तु द्विजे दत्त्वा
भुक्तिमुक्तिमवाप्नुयात् ।
जो अपने वजन के बराबर लोहे का दान
करता है,
वह नरक में नहीं गिरता जो पचास पल का लौहदण्ड वस्त्र से ढककर
ब्राह्मण को दान करता है, उसे यमदण्ड से भय नहीं होता।
दीर्घायु की इच्छा रखनेवाला मृत्युञ्जय के उद्देश्य से फल, मूल
एवं द्रव्य को एक साथ अथवा पृथक् पृथक् दान करे । कृष्णतिल का पुरुष निर्मित करे।
उसके चाँदी के दाँत और सोने की आँखें हों। वह मालाधारी दीर्घाकार पुरुष दाहिने हाथ
में खड्ग उठाये हुए हो। लाल रंग के वस्त्र धारण किये जपापुष्पों से अलंकृत एवं
शङ्ख की माला से विभूषित हो। उसके दोनों चरणों में पादुकाएं हों और पार्श्वभाग में
काला कम्बल हो। वह कालपुरुष बायें हाथ में मांस-पिण्ड लिये हो। इस प्रकार कालपुरुष
का निर्माण कर गन्धादि द्रव्यों से उसकी पूजा करके ब्राह्मण को दान करे। इससे दाता
मानव मृत्यु और व्याधि से रहित होकर राजराजेश्वर होता है। ब्राह्मण को दो बैलों का
दान देकर मनुष्य भोग और मोक्ष को प्राप्त कर लेता है । २२ – २८अ ॥
रेवन्ताधिष्ठितञ्चाश्वं हैमं
दत्त्वा न मृत्युभाक् ॥२८॥
घण्टादिपूर्णमप्येकं दत्त्वा
स्याद्भुक्तिमुक्तिभाक् ।
सर्वान् कामानवाप्नोति यः प्रयच्छति
काञ्चनं ॥२९॥
सुवर्णे दीयमाने तु रजतं
दक्षिणेष्यते ।
अन्येषामपि दानानां सुवर्णं दक्षिणा
स्मृता ॥३०॥
सुवर्णं रजतं ताम्रं तण्डुलं धान्यमेव
च ।
नित्यश्राद्धं देवपूजा
सर्वमेतददक्षिणं ॥३१॥
रजतं दक्षिणा पित्रे
धर्मकामार्थसाधनं ।
सुवर्णं रजतं ताम्रं मणिमुक्तावसूनि
च ॥३२॥
सर्वमेतन्महाप्राज्ञो ददाति
वसुधान्ददत् ।
पितॄंश्च पितृलोकस्थान् देवस्थाने च
देवताः ॥३३॥
सन्तर्पयति शान्तात्मा यो ददाति वसुन्धराम्
।
खर्वटं खेटकं वापि ग्रामं वा
शस्यशालिनं ॥३४॥
निवर्तनशतं वापि तदर्धं वा गृहादिकं
।
अपि गोचर्ममात्राम्बा दत्त्वोर्वीं
सर्वभाग्भवेत् ॥३५॥
तैलविन्दुर्यथा चाप्सु
प्रसर्पेद्भूगतं तथा ।
सर्वेषामेवदानानमेकजन्मानुगं फलं
॥३६॥
हाटकक्षितिगौरीणां सप्तजन्मानुगं
फलं ।
त्रिसप्तकुलमुद्धृत्य कन्यादो
ब्रह्मलोकभाक् ॥३७॥
गजं सदक्षिणं दत्त्वा निर्मलः
स्वर्गभाग्भवेत् ।
अश्वं
दत्त्वायुरारोग्यसौभाग्यस्वर्गमाप्नुयात् ॥३८॥
दासीं दत्त्वा द्विजेन्द्राय
अप्सरोलोकमाप्नुयात् ।
दत्त्वा ताम्रमयीं स्थालीं पलानां
पञ्चभिः शतैः ॥३९॥
अर्धैस्तदर्धैरर्धैर्वा
भुक्तिमुक्तिमवाप्नुयात् ।
जो मनुष्य सुवर्णदान करता है,
वह सम्पूर्ण अभीष्ट वस्तुओं को प्राप्त कर लेता है। सुवर्ण के दान में
उसकी प्रतिष्ठा के लिये चाँदी की दक्षिणा विहित है। अन्य दानों की प्रतिष्ठा के
लिये सुवर्ण की दक्षिणा प्रशस्त मानी गयी है। सुवर्ण के सिवा, रजत, ताम्र, तण्डुल और धान्य
भी दक्षिणा के लिये विहित हैं। नित्य श्राद्ध और नित्य देवपूजन - इन सबमें दक्षिणा
की आवश्यकता नहीं है। पितृकार्य में रजत की दक्षिणा धर्म, काम
और अर्थ को सिद्ध करनेवाली है। भूमि का दान देनेवाला महाबुद्धिमान् मनुष्य सुवर्ण,
रजत, ताम्र, मणि और
मुक्ता – इन सबका दान कर लेता है, अर्थात्
इन सभी दानों का पुण्यफल पा लेता है। जो पृथ्वीदान करता है, वह
शान्त अन्तःकरणवाला पुरुष पितृलोक में स्थित पितरों को और देवलोक में निवास
करनेवाले देवताओं को पूर्णरूप से तृप्त कर देता है। शस्यशाली खर्वट, ग्राम और खेटक (छोटा गाँव), सौ
निवर्तन से अधिक या उसके आधे विस्तार में बने हुए गृह आदि अथवा गोचर्म (दस
निवर्तन) के माप की भूमि का दान करके मनुष्य सब कुछ पा लेता है। जिस प्रकार तैल-
बिन्दु जल या भूमि पर गिरकर फैल जाता है, उसी प्रकार सभी
दानों का फल एक जन्मतक रहता है। स्वर्ण, भूमि और गौरी कन्या के
दान का फल सात जन्मोंतक स्थिर रहता है। कन्यादान करनेवाला अपनी इक्कीस पीढ़ियों का
नरक से उद्धार करके ब्रह्मलोक को प्राप्त होता है। दक्षिणासहित हाथी का दान
करनेवाला निष्पाप होकर स्वर्गलोक में जाता है। अश्व का दान देकर मनुष्य दीर्घ आयु,
आरोग्य, सौभाग्य और स्वर्ग को प्राप्त कर लेता
है। श्रेष्ठ ब्राह्मण को दासीदान करनेवाला अप्सराओं के लोक में जाकर सुखोपभोग करता
है। जो पाँच सौ पल ताँबे की थाली या ढाई सौ पल, सवा सौ पल
अथवा उसके भी आधे (६२-१/२) पलों की बनी थाली देता है, वह भोग
तथा मोक्ष का भागी होता है ॥। २९ – ३९अ ॥
शकटं वृषसंयुक्तं दत्त्वा यानेन
नाकभाक् ॥४०॥
वस्त्रदानाल्लभेदायुरारोग्यं
स्वर्गमक्षयं ।
धान्यगोधूमकलमयवादीन्
स्वर्गभाग्ददत् ॥४१॥
आसनं तैजसं पात्रं लवणं गन्धचन्दनं
।
धूपं दीपञ्च ताम्वूलं लोहं रूप्यञ्च
रत्नकं ॥४२॥
दिव्यानि नानाद्रव्याणि दत्त्वा
स्याद्भुक्तिमुक्तिभाक् ।
तिलांश्च तिलपात्रञ्च दत्त्वा
स्वर्गमवाप्नुयात् ॥४३॥
अन्नदानात्परं नास्ति न भूतं न
भविष्यति ।
हस्त्यश्वरथदानानि दासीदासगृहाणि च
॥४४॥
अन्नदानस्य सर्वाणि कलां नार्हन्ति
षोडशीं ।
कृत्वापि सुमहत्पापं यः पश्चादन्नदो
भवेत् ॥४५॥
सर्वपापविनिर्मुक्तो लोकानाप्नोति
चाक्षयान् ।
पानीयञ्च प्रपान्दत्त्वा
भुक्तिमुक्तिमवाप्नुयात् ॥४६॥
अग्निं काष्ठञ्च मार्गादौ दत्त्वा
दीप्त्यादिमाप्नुयात् ।
देवगन्धर्वनारीभिर्विमाने सेव्यते
दिवि ॥४७॥
बैलों से युक्त शकटदान करने से
मनुष्य विमान द्वारा स्वर्गलोक को जाता है। वस्त्रदान से आयु,
आरोग्य और अक्षय स्वर्ग की प्राप्ति होती है। धान, गेहूँ, अगहनी का चावल और जौ आदि का दान करनेवाला
स्वर्गलोक को प्राप्त होता है। आसन, धातुनिर्मित पात्र,
लवण, सुगन्धियुक्त चन्दन, धूप-दीप, ताम्बूल, लोहा,
चाँदी, रत्न और विविध दिव्य पदार्थों का दान
देकर मनुष्य भोग और मोक्ष भी प्राप्त करता है। तिल और तिलपात्र का दान देकर मनुष्य
स्वर्ग-सुख का भागी होता है। अन्नदान से बढ़कर कोई दान न तो है, न था और न होगा ही। हाथी, अश्व, रथ, दास-दासी और गृहादि के दान-ये सब अन्नदान की
सोलहवीं कला के समान भी नहीं हैं। जो पहले बड़ा से बड़ा पाप करके फिर अन्नदान कर
देता है, वह सम्पूर्ण पापों से छूटकर अक्षय लोकों को पा लेता
है। जल और प्याऊ का दान देकर मनुष्य भोग और मोक्ष दोनों को सिद्ध कर लेता है।
(शीतकाल में) मार्ग आदि में अग्नि और काष्ठ का दान करने से मनुष्य तेजोयुक्त होता
है और स्वर्गलोक में देवताओं, गन्धर्वो तथा अप्सराओं द्वारा
विमान में सेवित होता है ॥ ४०-४७ ॥
घृतं तैकञ्च लवणं दत्त्वा
सर्वमवाप्नुयात् ।
छत्रोपानहकाष्ठादि दत्त्वा स्वर्गे सुखी
वसेत् ॥४८॥
प्रतिपत्तिथिमुख्येषु
विष्कुम्भादिकयोगके ।
चैत्रादौ वत्सरादौ च अश्विन्यादौ
हरिं हरं ॥४९॥
ब्रह्माणं लोकपालादीन् प्रार्च्य
दानं महाफलं ।
वृक्षारामान्
भोजनादीन्मार्गसंवाहनादिकान् ॥५०॥
घृत, तैल और लवण का दान देने से सब कुछ मिल जाता है। छत्र, पादुका और काष्ठ आदि का दान करके स्वर्ग में सुखपूर्वक निवास करता है।
प्रतिपदा आदि पुण्यमयी तिथियों में, विष्कुम्भ आदि योगों में,
चैत्र आदि मासों में, संवत्सरारम्भ में और
अश्विनी आदि नक्षत्रों में विष्णु, शिव, ब्रह्मा तथा लोकपाल आदि की अर्चना करके दिया गया दान महान् फलप्रद है।
वृक्ष, उद्यान, भोजन, वाहन आदि तथा पैरों में मालिश के लिये तेल आदि देकर मनुष्य भोग और मोक्ष को
प्राप्त कर लेता है । ४८-५० ॥
पादाभ्यङ्गादिकं दत्त्वा
भुक्तिमुक्तिमवाप्नुयात् ।
त्रीणि तुल्यफलानीह गावः पृथ्वी
सरस्वती ॥५१॥
व्राह्मीं सरस्वतीन्दत्त्वा निर्मलो
ब्रह्मलोकभाक् ।
सप्तद्वीपमहीदः स ब्रह्मज्ञानं
ददाति यः ॥५२॥
अभयं सर्वभूतेभ्यो यो
दद्यात्सर्वभाङ्नरः ।
पुराणं भारतं वापि रामायणमथापि वा
॥५३॥
लिखित्वा पुस्तकं दत्त्वा
भुक्तिमुक्तिमवाप्नुयात् ।
वेदशास्त्रं नृत्यगीतं योऽध्यापयति
नाकभाक् ॥५४॥
वित्तं दद्यादुपाध्याये छात्राणां
भोजनादिकं ।
किमदत्तं भवेत्तेन
धर्मकामादिदर्शिना ॥५५॥
इस लोक में गौ,
पृथ्वी और विद्या का दान- ये तीनों समान फल देनेवाले हैं।
वेद-विद्या का दान देकर मनुष्य पापरहित हो ब्रह्मलोक में प्रवेश करता है जो (योग्य
शिष्य को ) ब्रह्मज्ञान प्रदान करता है, उसने तो मानो
सप्तद्वीपवती पृथ्वी का दान कर दिया। जो समस्त प्राणियों को अभयदान देता है,
वह मनुष्य सब कुछ प्राप्त कर लेता है। पुराण, महाभारत
अथवा रामायण का लेखन करके उस पुस्तक का दान करने से मनुष्य भोग और मोक्ष की
प्राप्ति कर लेता है। जो वेद आदि शास्त्र और नृत्य गीत का अध्यापन करता है,
वह स्वर्गगामी होता है। जो उपाध्याय को वृत्ति और छात्रों को भोजन
आदि देता है, उस धर्म एवं कामादि पुरुषार्थों के रहस्यदर्शी
मनुष्य ने क्या नहीं दे दिया ॥ ५१-५५ ॥
वाजपेयसहस्रस्य सम्यग्दत्तस्य
यत्फलं ।
तत्फलं सर्वमाप्नोति विद्यादानन्न
संशयः ॥५६॥
शिवालये विष्णुगृहे सूर्यस्य भवने
तथा ।
सर्वदानप्रदः स स्यात्पुस्तकं
वाचयेत्तु यः ॥५७॥
त्रैलोक्ये चतुरो
वर्णाश्चत्वारश्चाश्रमाः पृथक् ।
ब्रह्माद्या देवताः सर्वा
विद्यादाने प्रतिष्ठताः ॥५८॥
विद्या कामदुघा धेनुर्विद्या
चक्षुरनुत्तमं ।
उपवेदप्रदानेन गन्धर्वैः सह मोदते
॥५९॥
वेदाङ्गानाञ्च दानेन
स्वर्गलोकमवाप्नुयात् ।
धर्मशास्त्रप्रदानेन धर्मेण सह
मोदते ॥६०॥
सिद्धान्तानां प्रदानेन
मोक्षमाप्नोत्यसंशयं ।
विद्यादानमवाप्नोति
प्रदानात्पुस्तकस्य तु ॥६१॥
शास्त्राणि च पुराणानि दत्त्वा
सर्वमवाप्नुयात् ।
शिष्यांश्च शिक्षयेद्यस्तु
पुण्डलीकफलं लभेत् ॥६२॥
सहस्र वाजपेय यज्ञों में विधिपूर्वक
दान देने से जो फल होता है, विद्यादान से
मनुष्य वह सम्पूर्ण फल प्राप्त कर लेता है, इसमें तनिक भी
संदेह नहीं है। जो शिवालय, विष्णुमन्दिर तथा सूर्यमन्दिर में
ग्रन्थवाचन करता है, वह सभी दानों का फल प्राप्त करता है।
त्रैलोक्य में जो ब्राह्मणादि चार वर्ण और ब्रह्मचर्यादि चार आश्रम हैं, वे तथा ब्रह्मा आदि समस्त देवगण विद्यादान में प्रतिष्ठित हैं। विद्या
कामधेनु है और विद्या उत्तम नेत्र है। गान्धर्व आदि उपवेदों का दान करने से मनुष्य
गन्धर्वों के साथ प्रमुदित होता है, वेदाङ्गों के दान से
स्वर्गलोक को प्राप्त करता है और धर्मशास्त्र के दान से धर्म के सांनिध्य को
प्राप्त होकर दाता प्रमुदित होता है। सिद्धान्तों के दान से मनुष्य निस्संदेह
मोक्ष प्राप्त करता है। पुस्तक-प्रदान से विद्यादान के फल की प्राप्ति होती है।
इसलिये शास्त्रों और पुराणों का दान करनेवाला सब कुछ प्राप्त कर लेता है। जो
शिष्यों को शिक्षादान करता है, वह पुण्डरीकयाग का फल प्राप्त
करता है ॥ ५६- ६२ ॥
येन जीवति तद्दत्त्वा फलस्यान्तो न
विद्यते ।
लोके स्रेष्ठतमं सर्वमात्मनश्चापि
यत्प्रियं ॥६३॥
सर्वं पितॄणां दातव्यं
तेषामेवाक्षयार्थिना ।
विष्णुं रुद्रं पद्मयोनिं
देवीविघ्नेश्वरादिकान् ॥६४॥
पूजयित्वा प्रदद्याद्यः पूजाद्रव्यं
स सर्वभाक् ।
देवालयं च प्रतिमां
कारयत्सर्वमाप्नुयात् ॥६५॥
सम्मार्जनं चोपलेपं कुर्वन्
स्यान्निर्मलः पुमान् ।
नानामण्डलकार्यग्रे
मण्डलाधिपतिर्भवेत् ॥६६॥
गन्धं पुष्पं धूपदीपं नैवेद्यञ्च
प्रदक्षिणं ।
घण्टाध्वजवितानञ्च प्रेक्षणं
वाद्यगौतकं ॥६७॥
वस्त्रादिदत्त्वादेवाय
भुक्तिमुक्तिमवाप्नुयात् ।
कस्तूरिकां शिह्लकञ्च
श्रीखण्डमगुरून्तथा ॥६८॥
कर्पूरञ्च तथामुस्तं गुग्गुलुं
विजयं ददेत् ।
घृतप्रस्थेन संस्थाप्य
सङ्क्रान्त्यादौ स सर्वभाक् ॥६९॥
स्नानं पलशतं ज्ञेयमभ्यङ्गं
पञ्चविंशतिः ।
पलानान्तु सहस्रेण महास्नानं
प्रकीर्तितं ॥७०॥
दशापराधास्तोयेन क्षीरेण
स्नापनाच्छतं ।
सहस्रं पयसा दध्ना घृतेनायुतमिष्यते
॥७१॥
दासीदासमलङ्कारं गोभूम्यश्वगजादिकं
।
देवाय दत्त्वा सौभाग्यं धनायुष्मान्
व्रजेद्दिवं ॥७२॥
जीविका दान के तो फल का अन्त ही
नहीं है। जो अपने पितरों को अक्षय लोकों की प्राप्ति कराना चाहें,
उन्हें इस लोक के सर्वश्रेष्ठ एवं अपने को प्रिय लगनेवाले समस्त
पदार्थों का पितरों के उद्देश्य से दान करना चाहिये। जो विष्णु, शिव, ब्रह्मा, देवी और गणेश
आदि देवताओं की पूजा करके पूजा- द्रव्य का ब्राह्मण को दान करता है, वह सब कुछ प्राप्त करता है। देवमन्दिर एवं देवप्रतिमा का निर्माण
करानेवाला समस्त अभिलषित वस्तुओं को प्राप्त करता है। मन्दिर में झाड़ू-बुहारी और
प्रक्षालन करनेवाला पुरुष पापरहित हो जाता है। देवप्रतिमा के सम्मुख विविध मण्डलों
का निर्माण करनेवाला मण्डलाधिपति होता है। देवता को गन्ध, पुष्प,
धूप, दीप, नैवेद्य, प्रदक्षिणा, घण्टा, ध्वजा,
चंदोवा और वस्त्र आदि समर्पित करने से एवं उनके दर्शन और उनके
सम्मुख गाने-बजाने से मनुष्य भोग और मोक्ष दोनों को प्राप्त करता है। भगवान् को
कस्तूरी, सिंहलदेशीय चन्दन, अगुरु,
कपूर तथा मुस्त आदि सुगन्धि-द्रव्य और विजयगुग्गुल समर्पित करे और
संक्रान्ति आदि के दिन एक प्रस्थ घृत से स्नान कराके मनुष्य सब कुछ प्राप्त कर
लेता है। 'स्नान' सौ पल का और पच्चीस
पल का 'अभ्यङ्ग' मानना चाहिये। 'महास्रान' हजार पल का कहा गया है। भगवान् को
जलस्रान कराने से दस अपराध, दुग्धस्नान कराने से सौ अपराध,
दुग्ध एवं दधि दोनों से स्नान कराने से सहस्र अपराध और घृतस्नान
कराने से दस हजार अपराध विनष्ट हो जाते हैं। देवता के उद्देश्य से दास-दासी,
अलंकार, गौ, भूमि,
हाथी- घोड़े और सौभाग्य- द्रव्य देकर मनुष्य धन और दीर्घायु से
युक्त होकर स्वर्गलोक को प्राप्त होता है ॥ ६३ - ७२ ॥
इत्याग्नेये महापुराणे नानादानानि
नामैकादशाधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में 'नाना प्रकार के दानों की महिमा का वर्णन' नामक दो सौ
ग्यारहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २११ ॥
आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 212
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