अग्निपुराण अध्याय २२०

अग्निपुराण अध्याय २२०                        

अग्निपुराण अध्याय २२० में राजा के द्वारा अपने सहायकों की नियुक्ति और उनसे काम लेने का ढंग का वर्णन है।

अग्निपुराण अध्याय २२०

अग्निपुराणम् विंशत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः

Agni puran chapter 220                   

अग्निपुराण दो सौ बीसवाँ अध्याय

अग्निपुराणम्/अध्यायः २२०                          

अग्निपुराणम् अध्यायः २२० – सहायसम्पत्तिः  

अथ विंशत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः

पुष्कर उवाच

सोऽभिषिक्तः सहामात्यो जयेच्छत्रून्नृपोत्तमः ।

राज्ञा सेनापतिः कार्यो ब्राह्मणः क्षत्रियोऽथ वा ।। १ ।।

कुलीनो नीतिशास्त्रज्ञः प्रतीहारश्च नीतिवित् ।

दूतश्च प्रियवादी स्यादक्षीणोऽतिंबलान्वितः ।। २ ।।

पुष्कर कहते हैं- अभिषेक हो जाने पर उत्तम राजा के लिये यह उचित है कि वह मन्त्री को साथ लेकर शत्रुओं पर विजय प्राप्त करे उसे ब्राह्मण या क्षत्रिय को, जो कुलीन और नीतिशास्त्र का ज्ञाता हो, अपना सेनापति बनाना चाहिये। द्वारपाल भी नीतिज्ञ होना चाहिये। इसी प्रकार दूत को भी मृदुभाषी, अत्यन्त बलवान् और सामर्थ्यवान् होना उचित है ॥ १-२ ॥

ताम्बूलधारी ना स्त्री वा भक्तः क्लेशसहप्रियः ।

सान्धिविग्रहिकः कार्य्यः षाड्‌गुण्यादिविशारदः ।। ३ ।।

खड्‌गधारी रक्षकः स्यात्सारथिः स्याद्‌बलादिवित् ।

सूदाध्यक्षो हितो विज्ञो महानसगदतो हि सः ।। ४ ।।

सभासदस्तु धर्मज्ञाः लेखकोऽक्षरविद्धितः ।

आह्वानकालविज्ञाः स्युर्हिता दौवारिका जनाः ।। ५ ।।

रत्नादिज्ञो धनाध्यज्ञः अनुद्वारे हितो नरः ।

स्यादायुर्वेदविद्वैद्यो गजाध्यक्षोऽथ हस्तिवित् ।। ६ ।।

जितश्रमो गजारोही हयाध्यक्षो हयादिबित् ।

दुर्गाध्यक्षो हितो धीमान् स्थपतिर्वास्तुवेदवित् ।। ७ ।।

यन्त्रमुक्ते पाणिमुक्ते अमुक्ते मुक्तधारिते ।

अस्त्राचार्य्यो नियुद्धे च कुशलो नृपतेर्हितः ।। ८ ।।

वृद्धश्चान्तःपुराध्यक्षः पञ्चाशद्वार्षिकाः स्त्रियः ।

सप्तत्यव्दास्तु पुरुषाश्चरेयुः सर्वकर्मसु ।। ९ ।।

जाग्रत्स्यादायुधागारे ज्ञात्वा वृत्तिर्विधीयते ।

उत्तमाधममध्यानि बुद्‌ध्वा कर्माणि पार्थिवः ।। १० ।।

उत्तमाधममध्यानि पुरुषाणि नियोजयेत् ।

जयेच्छुः पृथिवीं राकजा सहायानानयेद्धितान् ।। ११ ।।

धर्मिष्ठान् धर्मकार्येषु शूरान् सङ्‌ग्रामकर्मसु ।

निपुणानर्थकृत्येषु१ सर्वत्र च तथा शुचीन् ।। १२ ।।

राजा को पान देनेवाला सेवक, स्त्री या पुरुष कोई भी हो सकता है। इतना अवश्य है कि उसे राजभक्त, क्लेश- सहिष्णु और स्वामी का प्रिय होना चाहिये। सांधिविग्रहिक (परराष्ट्रसचिव*) उसे बनाना चाहिये, जो संधि, विग्रह, यान, आसन, द्वैधीभाव और समाश्रय - इन छहों गुणों का समय और अवसर के अनुसार उपयोग करने में निपुण हो । राजा की रक्षा करनेवाला प्रहरी हमेशा हाथ में तलवार लिये रहे। सारथि सेना आदि के विषय में पूरी जानकारी रखे। रसोइयों के अध्यक्ष को राजा का हितैषी और चतुर होने के साथ ही सदा रसोईघर में उपस्थित रहना चाहिये। राजसभा के सदस्य धर्म के ज्ञाता हों। लिखने का काम करनेवाला पुरुष कई प्रकार के अक्षरों का ज्ञाता तथा हितैषी हो। द्वार-रक्षा में नियुक्त पुरुष ऐसे होने चाहिये, जो स्वामी के हित में संलग्न हों और इस बात की अच्छी तरह जानकारी रखें कि महाराज कब-कब उन्हें अपने पास बुलाते हैं। धनाध्यक्ष ऐसा मनुष्य हो, जो रत्न आदि की परख कर सके और धन बढ़ाने के साधनों में तत्पर रहे। राजवैद्य को आयुर्वेद का पूर्ण ज्ञान होना चाहिये। इसी प्रकार गजाध्यक्ष को भी गजविद्या से परिचित होना आवश्यक है । हाथी - सवार परिश्रम से थकनेवाला न हो। घोड़ों का अध्यक्ष अश्वविद्या का विद्वान् होना चाहिये । दुर्ग के अध्यक्ष को भी हितैषी एवं बुद्धिमान् होना आवश्यक है। शिल्पी अथवा कारीगर वास्तुविद्या का ज्ञाता हो। जो मशीन से हथियार चलाने, हाथ से शस्त्रों का प्रयोग करने, शस्त्र को न छोड़ने, छोड़े हुए शस्त्र को रोकने या निवारण करने में तथा युद्ध की कला में कुशल और राजा का हित चाहनेवाला हो, उसे ही अस्त्राचार्य के पद पर नियुक्त करना चाहिये। रनिवास का अध्यक्ष वृद्ध पुरुष को बनाना चाहिये। पचास वर्ष की स्त्रियाँ और सत्तर वर्ष के बूढ़े पुरुष अन्तः पुर के सभी कार्यों में लगाये जा सकते हैं। शस्त्रागार में ऐसे पुरुष को रखना चाहिये, जो सदा सजग रहकर पहरा देता रहे । भृत्यों के कार्यों को समझकर उनके लिये तदनुकूल जीविका का प्रबन्ध करना उचित है। राजा को चाहिये कि वह उत्तम, मध्यम और निकृष्ट कार्यों का विचार करके उनमें ऐसे ही पुरुषों को नियुक्त करे। पृथ्वी पर विजय चाहनेवाला भूपाल हितैषी सहायकों का संग्रह करे। धर्म के कार्यों में धर्मात्मा पुरुषों को, युद्ध में शूरवीरों को और धनोपार्जन के कार्यों में अर्थकुशल व्यक्तियों को लगावे। इस बात का ध्यान रखे कि सभी कार्यों में नियुक्त हुए पुरुष शुद्ध आचार-विचार रखनेवाले हों ॥। ३ - १२ ॥

* वह मन्त्री, जिसको दूसरे देश के राजाओं से सुलह की बातचीत करने या युद्ध छेड़ने का अधिकार दिया गया हो।

स्त्रीषु षण्डान्नियुञ्जीत तीक्ष्णान् दारुणकर्मसु ।

यो यत्र विदितो राज्ञा शुचित्वेन तु तन्नरं ।। १३ ।।

धर्मे चार्थे च कामे च नियुञ्जीताधमेऽधमान् ।

राजा यथार्हं कुर्य्याच्च उपधाभिः परीक्षितान् ।। १४ ।।

समन्त्र च यथान्यायात् कुर्य्याद्धस्तिवनेचरान् ।

तत्पदान्वेषणे यत्तानध्यक्षांस्तत्र कारयेत् ।। १५ ।।

यस्मिन् कर्मणि कौशल्यं यस्य तस्मिन् नियोजयेत् ।

पितृपैताम्हान् भृत्यान् सर्वकर्मसु योजयेत् ।। १६ ।।

विना दायादकृत्येषु तत्र ते हि समागताः ।

परराजगृहात् प्राप्तान् जनान् संश्रयकाम्यया ।। १७ ।।

दुष्टानप्यथ वाऽदुष्टान् संश्रयेत प्रयत्नतः ।

दुष्टं ज्ञात्वा विश्वसेन्न तद्‌वृत्तिं वर्त्तयेद्वशे ।। १८ ।।

देशान्तरागतान् पार्श्वे चारैर्ज्ञात्वा हि पूजयेत् ।

शत्रवोऽग्निर्विषं सर्पो निस्त्रिंशमपि चैकतः ।। १९ ।।

भृत्यावशिष्टं विज्ञेयाः कुभृत्याश्च तथैकतः।

चारचक्षुर्भवेद्राजा नियुञ्जीत सदाचरान् ।। २० ।।

जनस्याविहितान् सोम्यांस्तथाज्ञातान् परस्परं ।

वणिजो मन्त्रकुशलान् सांवत्सरचिकित्सकान् ।। २१ ।।

तथा प्रव्रजिताकारान् बलाबलविवेकिनः ।

नैकस्य राजा श्रद्दध्याच्छ्रद्दध्याद् बहुवाक्यतः ।। २२ ।।

रागापरागौ भृत्यानां जनस्य च गुणागुणान् ।

शुभानामशुभानाञ्च ज्ञानङ्कुर्य्याद्वसाय च ।। २३ ।।

अनुरागकरं कर्म चरेज्जह्याद्विरागजं ।

जनानुरागया लक्ष्म्यां राजा स्याज्जनरञ्जनात् ।। २४ ।।

स्त्रियों की देख-भाल में नपुंसकों को नियुक्त करे। कठोर कर्मों में तीखे स्वभाववाले पुरुषों को लगावे । तात्पर्य यह कि राजा धर्म-अर्थ अथवा काम के साधन में जिस पुरुष को जहाँ के लिये शुद्ध एवं उपयोगी समझे, उसकी वहीं नियुक्ति करे। निकृष्ट श्रेणी के कामों में वैसे ही पुरुषों को लगावे । राजा के लिये उचित है कि वह तरह तरह के उपायों से मनुष्यों की परीक्षा करके उन्हें यथायोग्य कार्यों में नियोजित करे। मन्त्री से सलाह ले, कुछ व्यक्तियों को यथोचित वृत्ति देकर हाथियों के जंगल में तैनात करे तथा उनका पता लगाते रहने के लिये कई उत्साही अध्यक्षों को नियुक्त करे। जिसको जिस काम में निपुण देखे, उसको उसी में लगावे और बाप-दादों के समय से चले आते हुए भृत्यों को सभी तरह के कार्यों में नियुक्त करे। केवल उत्तराधिकारी के कार्यों में उनकी नियुक्ति नहीं करे; क्योंकि वहाँ वे सब-के-सब एक समान हैं। जो लोग दूसरे राजा के आश्रय से हटकर अपने पास शरण लेने की इच्छा से आवें, वे दुष्ट हों या साधु, उन्हें यत्नपूर्वक आश्रय दे। दुष्ट साबित होने पर उनका विश्वास न करे और उनकी जीविकावृत्ति को अपने ही अधीन रखे। जो लोग दूसरे देशों से अपने पास आये हों, उनके विषय में गुप्तचरों द्वारा सभी बातें जानकर उनका यथावत् सत्कार करे। शत्रु, अग्नि, विष, साँप और तलवार एक ओर तथा दुष्ट स्वभाववाले भृत्य दूसरी ओर, इनमें दुष्ट भृत्यों को ही अधिक भयंकर समझना चाहिये । राजा को चारचक्षु होना उचित है। अर्थात् उसे गुप्तचरों द्वारा सभी बातें देखनीउनकी जानकारी प्राप्त करनी चाहिये। इसलिये वह हमेशा सबकी देख-भाल के लिये गुप्तचर तैनात किये रहे। गुप्तचर ऐसे हों, जिन्हें दूसरे लोग पहचानते न हों, जिनका स्वभाव शान्त एवं कोमल हो तथा जो परस्पर एक-दूसरे से भी अपरिचित हों। उनमें कोई वैश्य के रूप में हो, कोई मन्त्र-तन्त्र में कुशल, कोई ज्यौतिषी, कोई वैद्य, कोई संन्यास- वेषधारी और कोई बलाबल का विचार करनेवाले व्यक्ति के रूप में हो। राजा को चाहिये कि किसी एक गुप्तचर की बात पर विश्वास न करे। जब बहुतों के मुख से एक तरह की बात सुने, तभी उसे विश्वसनीय समझे। भृत्यों के हृदय में राजा के प्रति अनुराग है या विरक्ति किस मनुष्य में कौन-से गुण तथा अवगुण हैं, कौन शुभचिन्तक हैं और कौन अशुभ चाहनेवाले अपने भृत्यवर्ग को वश में रखने के लिये राजा को ये सभी बातें जाननी चाहिये। वह ऐसा कर्म करे, जो प्रजा का अनुराग बढ़ानेवाला हो। जिससे लोगों के मन में विरक्ति हो, ऐसा कोई काम न करे। प्रजा का अनुराग बढ़ानेवाली लक्ष्मी से युक्त राजा ही वास्तव में राजा है। वह सब लोगों का रञ्जन करने-उनकी प्रसन्नता बढ़ाने के कारण ही 'राजा' कहलाता है ॥ १३-२४ ॥

इत्यादिमहापुराणे आग्नेये सहायसम्पत्तिर्नाम विंशत्यधिक द्विशततमोऽध्यायः ।

इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में 'राजा की सहायसम्पत्ति का वर्णन' नामक दो सौ बीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २२० ॥

आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 221

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