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अथ पञ्चदशाधिकद्विशततमोऽध्यायः
अग्निरुवाच
ओङ्कारं यो विजानाति स योगी स हरिः
पुमान् ।
ओङ्कारमभ्यसेत्तस्मान्मृन्मन्त्रसारन्तु
सर्वदं ॥०१॥
अग्निदेव कहते हैं- वसिष्ठ! जो
पुरुष ॐकार को जानता है, वह योगी और
विष्णुस्वरूप है। इसलिये सम्पूर्ण मन्त्रों के सारस्वरूप और सब कुछ देनेवाले ॐकार का
अभ्यास करना चाहिये ।
सर्वमन्त्रप्रयोगेषु प्रणवः प्रथमः
स्मृतः ।
तेन सम्परिपूर्णं यत्तत्पूर्णं कर्म
नेतरत् ॥०२॥
समस्त मन्त्रों के प्रयोग में ॐकार का
सर्वप्रथम स्मरण किया जाता है। जो कर्म उससे युक्त है,
वही पूर्ण है। उससे विहीन कर्म पूर्ण नहीं है।
ओङ्कारपूर्विकास्तिस्रो
महाव्याहृतयोऽव्ययाः ।
त्रिपदा चैव सावित्री विज्ञेयं
ब्रह्मणी मुखं ॥०३॥
आदि में ॐकार से युक्त ('भूः भुवः स्वः' - ये ) तीन शाश्वत महाव्याहृतियों एवं
('तत्सवितुर्वरेण्यं, भर्गो देवस्य
धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्' इस) तीन पदों से युक्त गायत्री
को ब्रह्म का (वेद अथवा ब्रह्मा का मुख जानना चाहिये।
योऽधीतेऽहन्यहन्येतास्त्रीणि
वर्षाण्यतन्त्रितः ।
स ब्रह्मपरमभ्येति वायुभूतः
खमूर्तिमान् ॥०४॥
जो मनुष्य नित्य तीन वर्षोंतक
आलस्यरहित होकर गायत्री का जप करता है, वह
वायुभूत और आकाशस्वरूप होकर परब्रह्म को प्राप्त होता है।
एकाक्षरं परं ब्रह्म
प्राणायामपरन्तपः ।
सावित्र्यास्तु परन्नास्ति
मौनात्सत्यं विशिष्यते ॥०५॥
एकाक्षर ॐकार ही परब्रह्म है और
प्राणायाम ही परम तप है। गायत्री मन्त्र से श्रेष्ठ कुछ भी नहीं है। मौन रहने से
सत्यभाषण करना ही श्रेष्ठ हैं ॥ १-५ ॥
सप्तावर्ता पापहरा दशभिः
प्रापयेद्दिवं ।
विंशावर्ता तु सा देवी नयते
हीश्वरालयं ॥०६॥
अष्टोत्तरशतं जप्त्वा तीर्णः
संसारसागरात् ।
गायत्री की सात आवृत्ति पापों का हरण
करनेवाली हैं, दस आवृत्तियों से वह जपकर्ता को
स्वर्ग की प्राप्ति कराती है और बीस आवृत्ति करने पर तो स्वयं सावित्री देवी जप
करनेवाले को ईश्वरलोक में ले जाती है। साधक गायत्री का एक सौ आठ बार जप करके संसार
सागर से तर जाता है।
रुद्रकुष्माण्डजप्येभ्यो गायत्री तु
विशिष्यते ॥०७॥
न गायत्र्याः परञ्जप्यं न
व्याहृतिसमं हुतं ।
रुद्र-मन्त्रों के जप तथा
कूष्माण्ड- मन्त्रों के जप से गायत्री मन्त्र का जप श्रेष्ठ है। गायत्री से
श्रेष्ठ कोई भी जप करने योग्य मन्त्र नहीं है तथा व्याहृति- होम के समान कोई होम
नहीं है।
गायत्र्याः पादमप्यर्धमृगर्धमृचमेव
वा ॥०८॥
ब्रह्महत्या सुरापानं
सुवर्णस्तेयमेव च ।
गुरुदारागमश्चैव जप्येनैव पुनाति सा
॥०९॥
गायत्री के एक चरण,
आधा चरण, सम्पूर्ण ऋचा अथवा आधी ऋचा का भी जप
करनेमात्र से गायत्री देवी साधक को ब्रह्महत्या, सुरापान,
सुवर्ण की चोरी एवं गुरुपत्नीगमन आदि महापातकों से मुक्त कर देती है
॥ ६-९ ॥
पापे कृते तिलैर्होमो गायत्रीजप
ईरितः ।
जप्त्वा सहस्रं गायत्र्या उपवासी स
पापहा ॥१०॥
गोघ्नः पितृघ्नो मातृघ्नो ब्रह्महा
गुरुतल्पगः ।
ब्रह्मघ्नः स्वर्णहारी च सुरापो
लक्षजप्यतः ॥११॥
शुध्यते वाथ वा स्नात्वा
शतमन्तर्जले जपेत् ।
अपः शतेन पीत्वा तु गायत्र्याः
पापहा भवेत् ॥१२॥
शतं जप्ता तु गायत्री पापोपशमनी
स्मृता ।
सहस्रं शप्ता सा देवी उपपातकनाशिनी
॥१३॥
अभीष्टदा कोटिजप्या देवत्वं
राजतामियात् ।
कोई भी पाप करने पर उसके
प्रायश्चित्तस्वरूप तिलों का हवन और गायत्री का जप बताया गया है। उपवासपूर्वक एक
सहस्र गायत्री मन्त्र का जप करनेवाला अपने पापों को नष्ट कर देता है। गो- वध,
पितृवध, मातृवध, ब्रह्महत्या
अथवा गुरुपत्नीगमन करनेवाला, ब्राह्मण की जीविका का अपहरण
करनेवाला, सुवर्ण की चोरी करनेवाला और सुरापान करनेवाला महापातकी
भी गायत्री का एक लाख जप करने से शुद्ध हो जाता है। अथवा स्नान करके जल के भीतर
गायत्री का सौ बार जप करे। तदनन्तर गायत्री से अभिमन्त्रित जल के सौ आचमन करे।
इससे भी मनुष्य पापरहित हो जाता है। गायत्री का सौ बार जप करने पर वह समस्त पापों का
उपशमन करनेवाली मानी गयी है और एक सहस्र जप करने पर उपपातकों का भी नाश करती है।
एक करोड़ जप करने पर गायत्री देवी अभीष्ट फल प्रदान करती है। जपकर्ता देवत्व और
देवराजत्व को भी प्राप्त कर लेता है ॥ १०–१३अ ॥
ओङ्कारं पूर्वमुच्चार्य भूर्भुवः
स्वस्तथैव च ॥१४॥
गायत्री प्रणवश्चान्ते जपे
चैवमुदाहृतं ।
आदि में ॐकार,
तदनन्तर 'भूर्भुवः स्वः' का उच्चारण करना चाहिये। उसके बाद गायत्री- मन्त्र का एवं अन्त में पुनः ॐ
कार का प्रयोग करना चाहिये। जप में मन्त्र का यही स्वरूप बताया गया है ।*
*इसके अनुसार जपनीय मन्त्र का पाठ यों होगा - ॐ भूर्भुवः स्वः
तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् ॐ ।
विश्वामित्र ऋषिच्छन्दो गायत्रं
सविता तथा ॥१५॥
देवतोपनये जप्ये विनियोगो हुते तथा
।
गायत्री मन्त्र के विश्वामित्र ऋषि,
गायत्री छन्द और सविता देवता हैं। उपनयन, जप
एवं होम में इनका विनियोग करना चाहिये।*
* गायत्र्या विश्वामित्र ऋषिर्गायत्री छन्दः सविता देवताग्निमुर्खमुपनयने
जपे होमे या विनियोगः ।
अग्निर्वायू रविर्विद्युत्यमो
जलपतिर्गुरुः ॥१६॥
पर्जन्य इन्द्रो गन्धर्वः पूषा च
तदनन्तरं ।
मित्रोऽथ वरुणस्त्वष्टा वसवो मरुतः
शशी ॥१७॥
अङ्गिरा विश्वनासत्यौ कस्तथा
सर्वदेवताः ।
रुद्रो ब्रह्मा च विष्णुश्च
क्रमशोऽक्षरदेवताः ॥१८॥
गयत्र्या जपकाले तु कथिताः
पापनाशनाः ।
गायत्री मन्त्र के चौबीस अक्षरों के
अधिष्ठातृदेवता क्रमश: ये हैं- अग्नि, वायु,
रवि, विद्युत्, यम,
जलपति, गुरु, पर्जन्य,
इन्द्र, गन्धर्व, पूषा,
मित्र, वरुण, त्वष्टा,
वसुगण, मरुद्गण, चन्द्रमा
अङ्गिरा, विश्वदेव, अश्विनीकुमार,
प्रजापतिसहित समस्त देवगण, रुद्र, ब्रह्मा और विष्णु । गायत्री जप के समय उपर्युक्त देवताओं का उच्चारण किया
जाय तो वे जपकर्ता के पापों का विनाश करते हैं ॥ १४ – १८अ ॥
पादाङ्गुष्ठौ च गुल्फौ च नलकौ
जानुनी तथा ॥१९॥
जङ्घे शिश्रश्च वृषणौ
कटिर्नाभिस्तथोदरं ।
स्तनौ च हृदयं ग्रीवा मुखन्तालु च
नासिके ॥२०॥
चक्षुषी च भ्रुवोर्मध्यं ललाटं
पूर्वमाननं ।
दक्षिणोत्तरपार्श्वे द्वे शिर
आस्यमनुक्रमात् ॥२१॥
गायत्री मन्त्र के एक-एक अक्षर का
अपने निम्नलिखित अङ्गों में क्रमशः न्यास करे। पैरों के दोनों अङ्गुष्ठ,
गुल्फद्वय, नलक (दोनों पिण्डलियाँ), घुटने, दोनों जाँघें, उपस्थ,
वृषण, कटिभाग, नाभि,
उदर, स्तनमण्डल, हृदय,
ग्रीवा, मुख (अधरोष्ठ), तालु,
नासिका, नेत्रद्वय भ्रूमध्य ललाट, पूर्व आनन (उत्तरोष्ठ), दक्षिण पार्श्व, उत्तर पार्श्व, सिर और सम्पूर्ण मुखमण्डल।
पीतः श्यामश्च कपिलो
मरकतोऽग्निसन्निभः ।
रुक्मविद्युद्धूम्रकृष्णरक्तगौरेन्द्रनीलभाः
॥२२॥
स्फाटिकस्वर्णपाण्ड्वाभाः
पद्मरागोऽखिलद्युतिः ।
हेमधूम्ररक्तनीलरक्तकृष्णसुवर्णभाः
॥२३॥
शुक्लकृष्णपालाशाभा गायत्र्या
वर्णकाः क्रमात् ।
गायत्री के चौबीस अक्षरों के वर्ण
क्रमश: इस प्रकार हैं- पीत, श्याम, कपिल, मरकतमणिसदृश, अग्नितुल्य,
रुक्मसदृश, विद्युत्प्रभ, धूम्र, कृष्ण, रक्त, गौर, इन्द्रनीलमणिसदृश, स्फटिकमणितुल्य,
स्वर्णिम, पाण्डु, पुखराजतुल्य,
अखिलद्युति, हेमाभधूम्र,
रक्तनील, रक्तकृष्ण, सुवर्णाभ, शुक्ल, कृष्ण और पलाशवर्ण।
ध्यानकाले पापहरा हुतैषा सर्वकामदा
॥२४॥
गायत्र्या तु तिलैर्होमः
सर्वपापप्रणाशनः ।
गायत्री ध्यान करने पर पापों का
अपहरण करती और हवन करने पर सम्पूर्ण अभीष्ट कामनाओं को प्रदान करती है। गायत्री
मन्त्र से तिलों का होम सम्पूर्ण पापों का विनाश करनेवाला है ।
शान्तिकामो यवैः कुर्यादायुष्कामो
घृतेन च ॥२५॥
सिद्धार्थकैः कर्मसिद्ध्यै पयसा
ब्रह्मवर्चसे ।
पुत्रकामस्तथा दध्ना धान्यकामस्तु
शालिभिः ॥२६॥
शान्ति की इच्छा रखनेवाला जौ का और
दीर्घायु चाहनेवाला घृत का हवन करे। कर्म की सिद्धि के लिये सरसों का, ब्रह्मतेज की प्राप्ति के लिये दुग्ध का, पुत्र की
कामना करनेवाला दधि का और अधिक धान्य चाहनेवाला अगहनी के चावल का हवन करे।
क्षीरवृक्षसमिद्धिस्तु
ग्रहपीडोपशान्तये ।
धनकामस्तथा बिल्वैः श्रीकामः कमलैस्तथा
॥२७॥
आरोग्यकामो दूर्वाभिर्गुरूत्पाते स
एव हि ।
सौभाग्येच्छुर्गुग्गुलुना
विद्यार्थी पायसेन च ॥२८॥
ग्रहपीड़ा की शान्ति के लिये खैर
वृक्ष की समिधाओं का धन की कामना करनेवाला बिल्वपत्रों का,
लक्ष्मी चाहनेवाला कमल- पुष्पों का, आरोग्य का
इच्छुक और महान् उत्पात से आतङ्कित मनुष्य दूर्वा का, सौभाग्याभिलाषी
गुग्गुल का और विद्याकामी खीर का हवन करे ।
अयुतेनोक्तसिद्धिः स्याल्लक्षेण
मनसेप्सितं ।
कोट्या ब्रह्मबधान्मुक्तः
कुलोद्धारी हरिर्भवेत् ॥२९॥
दस हजार आहुतियों से उपर्युक्त
कामनाओं की सिद्धि होती है और एक लाख आहुतियों से साधक मनोऽभिलषित वस्तु को
प्राप्त करता है। एक करोड़ आहुतियों से होता ब्रह्महत्या के महापातक से मुक्त हो
अपने कुल का उद्धार करके श्रीहरिस्वरूप हो जाता है।
ग्रहयज्ञमुखो वापि
होमोऽयुतमुखोऽर्थकृत् ।
आवाहनञ्च गायत्र्यास्तत
ओङ्कारमभ्यसेत् ॥३०॥
ग्रह यज्ञ प्रधान होम हो,
अर्थात् ग्रहों की शान्ति के लिये हवन किया जा रहा हो तो उसमें भी
गायत्री मन्त्र से दस हजार आहुतियाँ देने पर अभीष्ट फल की सिद्धि होती है ॥ १९-३०
॥
संध्या-विधि
स्मृत्वौङ्कारन्तु गायत्र्या
निबध्नीयाच्छिखान्ततः ।
पुनराचम्य हृडयं नाभिं स्कन्धौ च
संस्पृशेत् ॥३१॥
गायत्री का आवाहन करके ॐकार का
उच्चारण करना चाहिये। गायत्री मन्त्रसहित ॐकार का उच्चारण करके शिखा बाँधे। फिर
आचमन करके हृदय, नाभि और दोनों कंधों का स्पर्श
करे।
प्रणवस्य ऋषिर्ब्रह्मा
गायत्रीच्छन्द एव च ।
देवोऽग्निः परमात्मा स्याद्योगो वै
सर्वकर्मसु ॥३२॥
प्रणव के ब्रह्मा ऋषि,
गायत्री छन्द, अग्नि अथवा परमात्मा देवता हैं।
इसका सम्पूर्ण कर्मों के आरम्भ में प्रयोग होता है।*
* ॐकारस्य ब्रह्मा ऋषिगायत्री छन्दोऽग्निर्देवता शुक्लो वर्णः
सर्वकर्मारम्भे विनियोगः ।
निम्नलिखित मन्त्र से गायत्री देवी का
ध्यान करे-
शुक्ला चाग्निमुखी देव्या
कात्यायनसगोत्रजा ।
त्रैलोक्यवरणा दिव्या
पृथिव्याधारसंयुता ॥३३॥
अक्षरसूत्रधरा देवी पद्मासनगता शुभा
।
तदनन्तर निम्नाङ्कित मन्त्र से
गायत्री देवी का आवाहन करे-
ओं तेजोऽसि महोऽसि बलमसि भ्राजोऽसि देवानान्धामनामाऽसि
।
विश्वमसि विश्वायुः सर्वमसि
सर्वायुः ओं अभि भूः।'
आगच्छ वरदे देवि जप्ये मे सन्निधौ
भव ॥३४॥
गायन्तं त्रायसे यस्माद् गायत्री
त्वं ततः स्मृता ॥
व्याहृतीनान्तु सर्वासामृषिरेव
प्रजापतिः ।
व्यस्ताश्चैव समस्ताश्च
ब्राह्ममक्षरमोमिति ॥३५॥
समस्त व्याहृतियों के ऋषि प्रजापति
ही हैं;
वे सब व्यष्टि और समष्टि दोनों रूपों से परब्रह्मस्वरूप एकाक्षर
ॐकार में स्थित हैं।
विश्वामित्रो यमदग्निर्भरद्वाजोऽथ गौतमः
।
ऋषिरत्रिर्वशिष्ठश्च काश्यपश्च
यथाक्रमं ॥३६॥
सप्तव्याहृतियों के क्रमशः ये ऋषि
हैं- विश्वामित्र, जमदग्नि, भरद्वाज, गौतम, अत्रि, वसिष्ठ तथा कश्यप ।
अग्निर्वायू रविश्चैव
वाक्पतिर्वरुणस्तथा ।
इन्द्रो विष्णुर्व्याहृतीनां
दैवतानि यथाक्रमं ॥३७॥
उनके देवता क्रमशः ये हैं-अग्नि,
वायु, सूर्य, बृहस्पति,
वरुण, इन्द्र और विश्वदेव ।
गायत्र्यष्टिगनुष्टुप्च वृहती पङ्क्तिरेव
च ।
त्रिष्टुप्च जगती चेति
छन्दांस्याहुरनुक्तामात् ॥३८॥
गायत्री,
उष्णिक्, अनुष्टुप् बृहती, पङ्क्ति, त्रिष्टुप् और जगती - ये क्रमशः सात
व्याहृतियों के छन्द हैं।
विनियोगे व्याहृतीनां प्राणायामे च
होमके ।
इन व्याहृतियों का प्राणायाम और होम
में विनियोग होता है।*
* सव्याहृतीनां विश्वामित्रजमदग्नि भरद्वाजगोतमात्रिवसिष्ठकश्यपा ऋषयो
गायत्र्युष्णिगनुटुम्बृहती पङ्क्तित्रिष्टुब्जगत्यश्छन्दांस्यग्नि- वाय्वादित्यबृहस्पतिवरुणेन्द्र
विश्वेदेवा देवता अनादिष्टप्रायचित्ते प्राणायामे विनियोगः ।
आपोहिष्ठेत्यृचा चापान्द्रुपदादीति
वा स्मृता ॥३९॥
तथा हिरण्यवर्णाभिः पावमानीभिरन्ततः
।
विप्रुषोऽष्टौ
क्षिपेदूर्ध्वमाजन्मकृतपापजित् ॥४०॥
अन्तर्जले ऋतञ्चेति
जपेत्त्रिरघमर्षणं ।
आपोहिष्ठेत्यृचोऽस्याश्च
सिन्धुद्वीप ऋषिः स्मृतः ॥४१॥
ॐ आपो हि ष्ठा मयो भुवः,
ॐ ता न ऊर्जे दधातन, ॐ महेरणाय चक्षसे,
ॐ यो वः शिवतमो रसः, ॐ तस्य भाजयतेह नः,
ॐ उशतीरिव मातरः ॐ तस्मा अरं गमाम वः, ॐ यस्य
क्षयायः जिन्वथ, ॐ आपो जनयथा च नः।
इन तीन ऋचाओं का तथा
'ॐ द्रुपदादिव मुमुचानः स्विन्नः
स्नातो मलादिव । पूतं पवित्रेणेवाज्यमापः शुन्धन्तु मैनसः ।'
इस मन्त्र का 'हिरण्यवर्णाः शुचयः' इत्यादि पावमानी ऋचाओं का
उच्चारण करके (पवित्रों अथवा दाहिने हाथ की अङ्गुलियों द्वारा) जल के आठ छींटे ऊपर
उछाले। इससे जीवनभर के पाप नष्ट हो जाते हैं ॥ ३१-४१ ॥
ब्राह्मस्नानाय छन्दोऽस्य गायत्री
देवता जलं ।
मार्जने विनियोगस्य हयावभृथके
क्रतोः ॥४२॥
जल के भीतर 'ऋतं च० - इस अघमर्षण- मन्त्र का तीन बार जप करे।*
'आपो हि ष्ठा' आदि तीन ऋचाओं के सिन्धुद्वीप ऋषि, गायत्री छन्द और
जल देवता माने गये हैं। ब्राह्मस्नान के लिये मार्जन में इसका विनियोग किया जाता
है।*
*१. ॐ ऋतं च सत्यचाभीद्धात्तपसोऽध्यजायत। ततो रात्र्यजायत। ततः समुद्रो
अर्णवः समुद्रादर्णवादधिसंवत्सरो अजायत । अहो रात्राणि विदधद्विश्वस्य मिषतो वशी
सूर्याचन्द्रमसौ धाता यथापूर्वमकल्पयत्। दिवञ्च पृथिवीशान्तरिक्षमयो स्वः ॥
*२. आपोहिष्ठेत्यादि तृचस्य सिन्धुद्वीप ऋषिः, गायत्री छन्दः, आपो देवता
ब्राह्मखानाय मार्जने विनियोगः ।
अघमर्षणसूक्तस्य ऋषिरेवाघमर्षणं ।
अनुष्टुप्च भवेच्छन्दो भाववृत्तस्तु
दैवतं ॥४३॥
(अघमर्षण मन्त्र का विनियोग इस
प्रकार करना चाहिये) इस अघमर्षण सूक्त के अघमर्षण ऋषि, अनुष्टुप् छन्द और भाववृत्त देवता हैं। पापनि:सारण के कर्म में इसका
प्रयोग किया जाता है।*
*३. अघमर्षणसूतस्याघमर्षण ऋषिरनुष्टुप्छन्दोभाववृत्तो देवता अघमर्षणे
विनियोगः ।
आपोज्योरी रस इति गायत्र्यास्तु
शिरः स्मृतं ।
ऋषिः प्रजापतिस्तस्य छन्दोहीनं
यजुर्यतः ॥४४॥
ब्रह्माग्निवायुसूर्याश्च देवताः
परिकीर्तिताः ।
'ॐ आपो ज्योती रसोऽमृतं ब्रह्म
भूर्भुवः स्वरोम् ।' यह गायत्री मन्त्र का शिरोभाग है। इसके
प्रजापति ऋषि हैं। यह छन्दरहित यजुर्मन्त्र है; क्योंकि
यजुर्वेद के मन्त्र किसी नियत अक्षरवाले छन्द में आबद्ध नहीं हैं। शिरोमन्त्र के
ब्रह्मा, अग्नि, वायु और सूर्य देवता
माने गये हैं।*
*४. शिरसः प्रजापतिर्ऋषित्रिपदा गायत्री छन्दो ब्रह्माग्निवायुसूयां
देवता यजुः प्राणायामे विनियोगः ।
प्राणरोधात्तु वायुः
स्याद्वायोरग्निश्च जायते ॥४५॥
अग्नेरापस्ततः
शुद्धिस्ततश्चाचमनञ्चरेत् ।
प्राणायाम से वायु, वायु से अग्नि और अग्नि से जल की उत्पत्ति होती है तथा उसी जल से शुद्धि
होती है। इसलिये जल का आचमन निम्नलिखित मन्त्र से करे*-
*५. इसका पाठ आजकल की संध्याप्रतियों में इस प्रकार उपलब्ध होता है-
अन्तश्चरति भूतेषु गुहायां विश्वमूर्तिषु ॥४६॥
तपोयज्ञवषट्कार आपो ज्योती रसोऽमृतं
।*
उदुत्यं जातवेदसमृषिः प्रष्कन्न
उच्यते ॥४७॥
गायत्रीच्छन्द आख्यातं सूर्यश्चैव
तु दैवतम् ।
अतिरात्रे नियोगः स्यादग्नीषोमो
नियोगकः ॥४८॥
'उदुत्यं जातवेदसं०' - इस मन्त्र के प्रस्कण्व ऋषि कहे गये हैं। इसका गायत्री छन्द और सूर्य
देवता हैं। इसका अतिरात्र और अग्निष्टोम याग में विनियोग होता है (परंतु
संध्योपासना में इसका सूर्योपस्थान- कर्म में विनियोग किया जाता है)*।
*६. उदुत्यमिति प्रस्कण्व ऋषिर्गायत्री छन्दः सूर्यो देवता
सूर्योपस्थाने विनियोगः ॥
चित्रं देवेति ऋचके ऋषिः कौत्स
उदाहृतः ।
त्रिष्टुप्छन्दो दैवतञ्च
सूर्योऽस्याः परिकीर्तितं ॥४९॥
'चित्रं देवानां ० ' - इस ऋचा के कौत्स ऋषि कहे गये हैं। इसका छन्द त्रिष्टुप् और देवता सूर्य माने
गये हैं। यहाँ इसका भी विनियोग सूर्योपस्थान में ही है*
॥ ४२-४९॥
७. चित्रमित्यस्य कौत्स
ऋषिस्त्रिष्टुप्छन्दः सूर्यो देवता सूर्योपस्थाने विनियोगः ।
इत्याग्नेये महापुराणे
सन्ध्याविधिर्नाम पञ्चदशाधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में 'संध्याविधि का वर्णन' नामक दो सौ पन्द्रहवाँ अध्याय
पूरा हुआ ॥ २१५ ॥
आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 216
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