अग्निपुराण अध्याय २१८
अग्निपुराण अध्याय २१८ में राजा के
अभिषेक की विधि का वर्णन है।
अग्निपुराणम् अष्टादशाधिकद्विशततमोऽध्यायः
Agni puran chapter 218
अग्निपुराण दो सौ अठारहवाँ अध्याय
अग्निपुराणम्/अध्यायः २१८
अग्निपुराणम् अध्यायः २१८ – राज्यभिषेक:
अथ अष्टादशाधिकद्विशततमोऽध्यायः
अग्निरुवाच
पुष्करेण च रामाय राजधर्म्मं हि
पृच्छते।
यथादौ कथितं तद्वद्वशिष्ठ कथयामि ते
।। १ ।।
अग्निदेव कहते हैं- वसिष्ठ!
पूर्वकाल में परशुरामजी के पूछने पर पुष्कर ने उनसे जिस प्रकार राजधर्म का वर्णन
किया था,
वही मैं तुमसे बतला रहा हूँ ॥ १ ॥
पुष्कर उवाच
राजधर्मं प्रवक्ष्यामि सर्वस्मात्
राजधर्मतः ।
राजा भवेत् शत्रुहन्ता प्रजापालः
सुदण्डवान् ।। २ ।।
पालयिष्यति वः सर्वान् धर्म्मस्थान्
व्रतमाचरेत् ।
संवत्सरं स वृणुयात् पुरोहितमथ
द्विजं ।। ३ ।।
मन्त्रिणश्चाखिलान्मज्ञान्महिषीं
धर्म्मलक्षणां ।
संवत्सरं नृपः काले
ससन्भारोऽभिषेचनं ।। ४ ।।
कुर्य्यान्मृते नृते नात्र कालस्य
नियमः स्मृतः ।
तिलैः सिद्धार्थकैः स्नानं
सांवत्सरपुरोहितौ ।। ५ ।।
घोषयित्वा जयं राज्ञो राजा भद्रासने
स्थितः ।
अभयं घोषयेद्
दुर्गान्मोचयेद्राज्यपालके ।। ६ ।।
पुरोधसाऽभिषेकात् प्राक्
कार्य्यैन्द्री शान्तिरेव च ।
उपवास्यभिषेकाहे वेद्यग्नौ
जुहुयान्मनून् ।। ७ ।।
वैष्णवानैन्द्रमन्त्रांस्तु
सावित्रान् वैश्वदैवतान् ।
सौम्यान् स्वस्त्ययनं
शर्म्मआयुष्याभयदाम्मनून् ।। ८ ।।
पुष्कर ने कहा- राम ! मैं सम्पूर्ण
राजधर्मो से संगृहीत करके राजा के धर्म का वर्णन करूँगा । राजा को प्रजा का रक्षक,
शत्रुओं का नाशक और दण्ड का उचित उपयोग करनेवाला होना चाहिये। वह
प्रजाजनों से कहे कि 'धर्म-मार्ग पर स्थित रहनेवाले आप सब
लोगों की मैं रक्षा करूंगा' और अपनी इस प्रतिज्ञा का सदा
पालन करे। राजा को वर्षफल बतानेवाले एक ज्यौतिषी तथा ब्राह्मण पुरोहित का वरण कर
लेना चाहिये। साथ ही सम्पूर्ण राजशास्त्रीय विषयों तथा आत्मा का ज्ञान रखनेवाले
मन्त्रियों का और धार्मिक लक्षणों से सम्पन्न राजमहिषी का भी वरण करना उचित है। |
राज्यभार ग्रहण करने के एक वर्ष बाद राजा को सब सामग्री एकत्रित
करके अच्छे समय में विशेष समारोह के साथ अपना अभिषेक कराना चाहिये। पहलेवाले राजा की
मृत्यु होने पर शीघ्र ही राजासन ग्रहण करना उचित है; ऐसे समय
में काल का कोई नियम नहीं है। ज्यौतिषी और पुरोहित के द्वारा तिल, सर्षप आदि सामग्रियों का उपयोग करते हुए राजा स्नान करे तथा भद्रासन पर
विराजमान होकर समूचे राज्य में राजा की विजय घोषित करे। फिर अभय की घोषणा कराकर
राज्य के समस्त कैदियों को बन्धन से मुक्त कर दे। पुरोहित के द्वारा अभिषेक होने से
पहले इन्द्र देवता की शान्ति करानी चाहिये। अभिषेक के दिन राजा उपवास करके वेदी पर
स्थापित की हुई अग्नि में मन्त्रपाठपूर्वक हवन करे। विष्णु, इन्द्र,
सविता, विश्वेदेव और सोम- देवतासम्बन्धी वैदिक
ऋचाओं का तथा स्वस्त्ययन, शान्ति, आयुष्य तथा अभय देनवाले मन्त्रों का पाठ करे ॥ २ -८ ॥
अपराजिताञ्च कलसं
वह्नेर्दक्षिणपार्श्वगं ।
सम्पातवन्तं हैमञ्च पूजयेद्गन्धषुष्पकैः
।। ९ ।।
प्रदक्षिणावर्त्तशिखस्तप्तजाम्बूनदप्रभः
।
रथौघमेघनिर्घोषो विधूमश्च हुताशनः
।। १० ।।
अनुलोमः सुगन्धश्च
स्वस्तिकाकारसन्निभः ।
प्रसन्नाचिर्म्महाज्वालः
स्फुलिङ्गरहितो हितः ।। ११ ।।
तत्पश्चात् अग्नि के दक्षिण किनारे अपराजिता देवी तथा सुवर्णमय कलश की, जिसमें जल
गिराने के लिये अनेकों छिद्र बने हुए हों, स्थापना करके
चन्दन और फूलों के द्वारा उनका पूजन करे। यदि अग्नि की शिखा दक्षिणावर्त हो,
तपाये हुए सोने के समान उसकी उत्तम कान्ति हो, रथ और मेघ के समान उससे ध्वनि निकलती हो, धुआँ
बिलकुल नहीं दिखायी देता हो, अग्निदेव अनुकूल होकर हविष्य
ग्रहण करते हों, होमाग्नि से उत्तम गन्ध फैल रही हो, अग्नि से स्वस्तिक के आकार की लपटें निकलती हों, उसकी
शिखा स्वच्छ हो और ऊँचे तक उठती हो तथा उसके भीतर से चिनगारियाँ नहीं छूटती हों तो
ऐसी अग्नि ज्वाला श्रेष्ठ एवं हितकर मानी गयी है ॥ ९-११ ॥
न व्रजेयुश्च मध्येन
मार्जारमृगपक्षिणः ।
पर्वताग्रमृदा तावन्मूर्द्धानं
शोधयेन्नृपः ।। १२ ।।
वल्मीकाग्रमृदा कर्णौ वदनं केशवालयात्
।
इन्द्रालयमृदा ग्रीवां हृदयन्तु
नृपाजिरात् ।। १३ ।।
करिदन्तोद्धृतमृदा दक्षिणन्तु तथा
भुजं ।
वृषश्रृङ्गोद्धृतमृदा वामश्चैव तथा
भुजं ।। १४ ।।
सरोमृदा तथा पृष्ठमुदरं सङ्गमान्
मृदा ।
नदीतटद्वयमृदा पार्श्वे
संशोधयेत्तथा ।। १५ ।।
वेश्याद्वारमृदा राज्ञः कटिशौचं
विधीयते ।
यज्ञस्थानाथैवोरू गोस्थानाज्जानुनी
तथा ।। १६ ।।
अश्वस्थानात्तथा जङ्घे रथचक्रमृदाङ्घ्रिके
।
मूर्द्धानं पञ्चगव्येन भद्रासनगतं
नृपं ।। १७ ।।
अभिषिञ्चेदमात्यानां चतुष्टयमथो
घटैः ।
पूर्वतो हेमकुम्भेन घृतपूर्णेन
ब्रह्मणः ।। १८ ।।
रूप्यकुम्भेन याम्ये च क्षीरपूर्णेन
क्षत्रियः ।
दध्ना च ताम्रकुम्भेन वैश्यः
पश्चिमगेन च ।। १९ ।।
राजा और आग के मध्य से बिल्ली,
मृग तथा पक्षी नहीं जाने चाहिये। राजा पहले पर्वतशिखर की मृत्तिका से
अपने मस्तक की शुद्धि करे। फिर बाँबी की मिट्टी से दोनों कान, भगवान् विष्णु के मन्दिर की धूलि से मुख, इन्द्र के
मन्दिर की मिट्टी से ग्रीवा, राजा के आँगन की मृत्तिका से
हृदय, हाथी के दाँतों द्वारा खोदी हुई मिट्टी से दाहिनी बाँह,
बैल के सींग से उठायी हुई मृत्तिका द्वारा बायीं भुजा, पोखरे की मिट्टी से पीठ, दो नदियों के संगम की
मृतिका से पेट तथा नदी के दोनों किनारों की मिट्टी से अपनी दोनों पसलियों का शोधन
करे। वेश्या के दरवाजे की मिट्टी से राजा के कटिभाग की शुद्धि की जाती है, यज्ञशाला की मृत्तिका से वह दोनों ऊरु, गोशाला की
मिट्टी से दोनों घुटनों, घुड़सार की मिट्टी से दोनों जाँघ
तथा रथ के पहिये की मृत्तिका से दोनों चरणों की शुद्धि करे। इसके बाद पञ्चगव्य के
द्वारा राजा के मस्तक की शुद्धि करनी चाहिये। तदनन्तर चार अमात्य भद्रासन पर बैठे
हुए राजा का कलशों द्वारा अभिषेक करें। ब्राह्मणजातीय सचिव पूर्व दिशा की ओर से
घृतपूर्ण सुवर्णकलश द्वारा अभिषेक आरम्भ करे। क्षत्रिय दक्षिण की ओर खड़ा होकर दूध
से भरे हुए चाँदी के कलश से, वैश्य पश्चिम दिशा में स्थित हो
ताम्र कलश एवं दही से तथा शूद्र उत्तर की ओर से मिट्टी के घड़े के जल से राजा का
अभिषेक करे ॥ १२- १९ ॥
मृण्मयेन जलेनोदक्
शूद्रामात्योऽभिषेचयेत् ।
ततोऽभिषेकं नृपतेर्बह्वृ चप्रवरो
द्विजः ।। २० ।।
कुर्वीत मधुना विप्रश्छन्दोगद्य
कुशोदकैः ।
सम्पातवन्तं कलशं तथा गत्वा
पुरोहितः ।। २१ ।।
विधाय वह्निरक्षान्तु सदस्येषु
यथाविधि ।
राजश्रियाभिषेके च ये मन्त्राः
परिकीर्त्तिताः ।। २२ ।।
तैस्तु दद्यान्महाभाग ब्राह्मणानांस्वनैस्तथा
।
ततः पुरोहितो गच्छेद्वेदिमूलन्तदेव
तु ।। २३ ।।
शतच्छिद्रेण पात्रेण
सौवर्णेनाभिषेचयेत्।
या ओषधीत्योषधीभीरथेत्युक्तेति
गन्धकैः ।। २४ ।।
पुष्पैः पुष्पवतीत्येव ब्राह्मणेति
च वीजकैः ।
रत्नैराशः शिशानश्च ये देवाश्च
कुशोदकैः ।। २५ ।।
यजुर्वेद्ययर्व्ववेदी गन्धद्वारेति
संस्पृशेत् ।
शिरः कण्ठं रोचनया
सर्वतीर्थोदकैर्द्विजाः ।। २६ ।।
तदनन्तर बहृचों (ऋग्वेदी विद्वानों)
में श्रेष्ठ ब्राह्मण मधु से और 'छन्दोग'
अर्थात् सामवेदी विप्र कुश के जल से नरपति का अभिषेक करे । इसके बाद
पुरोहित जल गिराने के अनेकों छिद्रों से युक्त (सुवर्णमय) कलश के पास जा, सदस्यों के बीच विधिवत् अग्रिरक्षा का कार्य सम्पादन करके, राज्याभिषेक के लिये जो मन्त्र बताये गये हैं, उनके
द्वारा अभिषेक करे। उस समय ब्राह्मणों को वेद-मन्त्रोच्चारण करते रहना चाहिये।
तत्पश्चात् पुरोहित वेदी के निकट जाय और सुवर्ण के बने हुए सौ छिद्रोंवाले कलश से
अभिषेक आरम्भ करे। 'या ओषधीः० -
इत्यादि मन्त्र से ओषधियों द्वारा, 'अथेत्युक्त्वाः०'
- इत्यादि मन्त्रों से गन्धों द्वारा, 'पुष्पवती:०'
- आदि मन्त्र से फूलों द्वारा, 'ब्राह्मण:०'
- इत्यादि मन्त्र से बीजों द्वारा, 'आशुः
शिशान:०' आदि मन्त्र से रत्नों द्वारा तथा 'ये देवाः०' – इत्यादि मन्त्र से कुशयुक्त जलो द्वारा
अभिषेक करे । यजुर्वेदी और अथर्ववेदी ब्राह्मण 'गन्धद्वारां
दुराधर्षा' - इत्यादि मन्त्र से गोरोचन द्वारा मस्तक तथा
कण्ठ में तिलक करे। इसके बाद अन्यान्य ब्राह्मण सब तीर्थों के जल से अभिषेक करें ॥
२० - २६ ॥
गीतवाद्यादिनीर्घोषैश्चामरव्यजनादिभिः
।
सर्वौषधिमयं कुम्भं
धारयेयुर्नृपाग्रतः ।। २७ ।।
तं पश्येद्दर्पणं राजा घृतं वै
मङ्गलादिकं ।
अभ्यर्च्य विणुं
ब्रह्माणमिन्द्रादींश्च ग्रहेश्वरान् ।। २८ ।।
व्याघ्रचर्म्मोत्तरां
शय्यामुपविष्ठः पुरोहितः ।
मधुपर्क्कादिकं दत्त्वा पट्टबन्धं
प्रकारयेत् ।। २९ ।।
राज्ञोमुकुटबन्धञ्च
पञ्चक्षन्मात्तरं ददेत् ।
ध्रुवाद्यैरिति च विशेद वृषजं
वृषदंशजं ।। ३० ।।
द्वीपिजं सिंहजं व्याघ्रजातञ्चर्म्म
तदासने ।
अमात्यसचिवादींश्च प्रतीहारः
प्रदर्शयेत् ।। ३१ ।।
गोजाचविगृहदानाद्यैः
सांवत्सरपुरोहितौ ।
पूजयित्वा द्विजान् प्रार्च्य
ह्यन्यभूगोन्नमुख्यकैः ।। ३२ ।।
वह्निं प्रदक्षिणीकृत्य गुरुं
नत्वाथ पृष्ठतः ।
वृषमालभ्य गां वत्सां पूजयित्वाश्च
मन्त्रितं ।। ३३ ।।
अश्वमारुह्य नागश्च पूजयेत्तं
समारुहेत् ।
परिभ्रमेद्राजमार्गे बलयुक्तः
प्रदक्षिणं ।। ३४ ।।
पुरं विशेच्च दानाद्यैः प्रार्च्य
सर्वान् विसर्ज्जयेत् ।। ३५ ।।
उस समय कुछ लोग गीत और बाजे आदि के
शब्दों के साथ चँवर और व्यजन धारण करें। राजा के सामने सर्वोषधियुक्त कलश लेकर
खड़े हों। राजा पहले उस कलश को देखें, फिर
दर्पण तथा घृत आदि माङ्गलिक वस्तुओं का दर्शन करें। इसके बाद विष्णु, ब्रह्मा और इन्द्र आदि देवताओं तथा ग्रहपतियों का पूजन करके राजा
व्याघ्रचर्मयुक्त आसन पर बैठे। उस समय पुरोहित मधुपर्क आदि देकर राजा के मस्तक पर
मुकुट बाँधे । पाँच प्रकार के चमड़ों के आसन पर बैठकर राजा को मुकुट बँधाना चाहिये।
'धुवाद्यैः० ' - इत्यादि मन्त्र
के द्वारा उन आसनों पर बैठे। वृष, वृषभांश, वृक, व्याघ्र और सिंह - इन्हीं पाँचों के चर्म का उस
समय आसन के लिये उपयोग किया जाता है। अभिषेक के बाद प्रतीहार अमात्य और सचिव आदि को
दिखाये- प्रजाजनों से उनका परिचय दे। तदनन्तर राजा गौ, बकरी,
भेड़ तथा गृह आदि दान करके सांवत्सर (ज्यौतिषी) और पुरोहित का पूजन
करे। फिर पृथ्वी, गौ तथा अन्न आदि देकर अन्यान्य ब्राह्मणों की
भी पूजा करे। तत्पश्चात् अग्नि की प्रदक्षिणा करके गुरु (पुरोहित) - को प्रणाम
करे। फिर बैल की पीठ का स्पर्श करके, गौ और बछड़े की पूजा के
अनन्तर अभिमन्त्रित अश्व पर आरूढ़ होवे उससे उतरकर हाथी की पूजा करके, उसके ऊपर सवार हो और सेना साथ लेकर प्रदक्षिणक्रम से सड़क पर कुछ दूर तक
यात्रा करे। इसके बाद दान आदि के द्वारा सबको सम्मानित करके विदा कर दे और स्वयं
राजधानी में प्रवेश करे ।। २७ - ३५ ॥
इत्यादिमहापुराणे आग्नेये
राज्यभिषेको नाम अष्टादशाधिक द्विशततमोऽध्यायः ।
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में 'राज्याभिषेक का कथन' नामक दो सौ अठारहवाँ अध्याय
पूरा हुआ ॥ २१८ ॥
आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 219
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