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अग्निपुराण अध्याय २१०

अग्निपुराण अध्याय २१०                        

अग्निपुराण अध्याय २१०में सोलह महादानों के नाम; दस मेरुदान, दस धेनुदान और विविध गोदानों का वर्णन है।

अग्निपुराण अध्याय २१०

अग्निपुराणम् दशाधिकद्विशततमोऽध्यायः

Agni puran chapter 210                   

अग्निपुराण दो सौ दसवाँ अध्याय

अग्निपुराणम्/अध्यायः २१०                         

अग्निपुराणम् अध्यायः २१० – महादानानि

अथ दशाधिकद्विशततमोऽध्यायः

अग्निरुवाच

सर्वदानानि वक्ष्यामि महादानानि षोडश ।

तुलापुरुष आद्यन्तु हिरण्यगर्भदानकं ॥०१॥

ब्रह्माण्डं कल्पवृक्षश्च गोसहस्रञ्च पञ्चमं ।

हिरण्यकामधेनुश्च हिरण्याश्वश्च सप्तमं ॥०२॥

हिरण्याश्वरथस्तद्वद्धेमहस्तिरथस्तथा ।

पञ्चलाङ्गलकन्तद्वद्धरादानं तथैव च ॥०३॥

विश्वचक्रं कल्पलता सप्तसागरकं परं ।

रत्नधेनुर्महाभूतघटः शुभदिनेऽर्पयेत् ॥०४॥

मण्डपे मण्डले दानं देवान् प्रार्च्यार्पयेद्द्विजे ।

मेरुदानानि पुण्यानि मेरवो दश तान् शृणु ॥०५॥

धान्यद्रोणसहस्रेण उत्तमोऽर्धार्धतः परौ ।

उत्तमः षोडशद्रोणः कर्तव्यो लवणाचलः ॥०६॥

दशभारैर्गुडाद्रिः स्यादुत्तमोऽर्धार्धतः परौ ।

उत्तमः पलसाहस्रैः स्वर्णमेरुस्तथा परौ ॥०७॥

दशद्रोणैस्तिलाद्रिः स्यात्पञ्चभिश्च त्रिभिः क्रमात् ।

कार्पासपर्वतो विंशभारैश्च दशपञ्चभिः ॥०८॥

विंशत्या घृतकुम्भानामुत्तमः स्याद्घृताचलः ।

दशभिः पलसाहस्रैरुत्तमो रजताचलः ॥०९॥

अष्टभारैः शर्कराद्रिर्मध्यो मन्दोऽर्द्धतोऽर्द्धतः ।

अग्निदेव कहते हैं- वसिष्ठ! अब मैं सभी प्रकार के दानों का वर्णन करता हूँ। सोलह महादान होते हैं। सर्वप्रथम तुलापुरुषदान, फिर हिरण्यगर्भदान, ब्रह्माण्डदान, कल्पवृक्षदान, पाँचवाँ सहस्र गोदान, स्वर्णमयी कामधेनु का दान, सातवाँ स्वर्णनिर्मित अश्व का दान, स्वर्णमय अश्वयुक्त रथ का दान, स्वर्णरचित हस्तिरथ का दान, पाँच हलों का दान, भूमिदान, विश्वचक्रदान, कल्पलतादान, उत्तम सप्त- समुद्रदान, रत्नधेनुदान और जलपूर्ण कुम्भदान। ये दान शुभ दिन में मण्डलाकार मण्डप में देवताओं का पूजन करके ब्राह्मण को देने चाहिये। मेरुदान भी पुण्यप्रद है। 'मेरु' दस माने गये हैं, उन्हें सुनो- धान्यमेरु एक हजार द्रोण धान्य का उत्तम माना गया है, पाँच सौ द्रोण का मध्यम और ढाई सौ द्रोण का अधम माना गया है। लवणाचल सोलह द्रोण का बनाना चाहिये, वही उत्तम माना गया है। गुड़-पर्वत दस भार का उत्तम माना गया है, पाँच भार का मध्यम और ढाई भार का निकृष्ट कहा जाता है। स्वर्णमेरु सहस्र पल का उत्तम, पाँच सौ पलका मध्यम और ढाई सौ पल का निकृष्ट माना गया है। तिलपर्वत क्रमशः दस द्रोण का उत्तम, पाँच द्रोण का मध्यम और तीन द्रोण का निकृष्ट कहा गया है। कार्पास (रुई) पर्वत बीस भार का उत्तम दस भार का मध्यम तथा पाँच भार का निकृष्ट है। बीस घृतपूर्ण कुम्भों का उत्तम घृताचल होता है। रजत- पर्वत दस हजार पल का उत्तम माना गया है। शर्कराचल आठ भार का उत्तम, चार भार का मध्यम और दो भार का मन्द माना गया है ॥ १ – ९अ ॥

दश धेनूः प्रवक्ष्यामि या दत्त्वा भुक्तिमुक्तिभाक् ॥१०॥

प्रथमा गुडधेनुः स्याद्घृतधेनुस्तथापरा ।

तिलधेनुस्तृतीया च चतुर्थी जलधेनुका ॥११॥

क्षीरधेनुर्मधुधेनुः शर्करादधिधेनुके ।

रसधेनुः स्वरूपेण दशमी विधिरुच्यते ॥१२॥

कुम्भाः स्युर्द्रवधेनूनामितरासान्तु राशयः ।

अब मैं दस धेनुओं का वर्णन करता हूँ, जिनका दान करके मनुष्य भोग और मोक्ष को प्राप्त कर लेता है। पहली गुड़धेनु होती है, दूसरी घृतधेनु, तीसरी तिलधेनु, चौथी जलधेनु, पाँचवीं क्षीरधेनु, छठी मधुधेनु, सातवीं शर्कराधेनु, आठवीं दधिधेनु, नवीं रसधेनु और दसवीं गोरूपेण कल्पित कृष्णाजिनधेनु । इनके दान की विधि यह बतलायी जाती है कि तरल पदार्थ सम्बन्धी धेनुओं के प्रतिनिधिरूप से घड़ों में उन पदार्थों को भरकर कुम्भदान करने चाहिये और अन्य धातुओं के रूप में उन उन द्रव्यों की राशि का दान करना चाहिये ॥ १०- १२अ ॥

कृष्णाजिनञ्चतुर्हस्तं प्राग्ग्रीवं विन्यसेद्भुवि ॥१३॥

गोमयेनानुलिप्तायां दर्भानास्तीर्य सर्वतः ।

लघ्वैणकाजिनं तद्वद्वत्सस्य परिकल्पयेत् ॥१४॥

प्राङ्मुखीं कल्पयेद्धेनुमुदक्पादां सवत्सकां ।

उत्तमा गुडधेनुः स्यात्सदा भारचतुष्टयात् ॥१५॥

वत्सं भारेण कुर्वीत भाराभ्यां मध्यमा स्मृता ।

अर्धभारेण वत्सः स्यात्कनिष्ठा भारकेण तु ॥१६॥

(कृष्णाजिनधेनु के दान की विधि यह है - ) गोबर से लिपी-पुती भूमि पर सब ओर दर्भ बिछाकर उसके ऊपर चार हाथ का कृष्णमृगचर्म रखे। उसकी ग्रीवा पूर्व दिशा की ओर होनी चाहिये। इसी प्रकार गोवत्स के स्थान पर छोटे आकार का कृष्णमृगचर्म स्थापित करे। वत्ससहित धेनु का मुख पूर्व की ओर और पैर उत्तर दिशा की ओर समझे। चार भार गुड़ की गुड़धेनु सदा ही उत्तम मानी गयी है। एक भार गुड़ का गोवत्स बनावे। दो भार की गौ मध्यम होती है। उसके साथ आधे भार का बछड़ा होना चाहिये। एक भार की गौ कनिष्ठ कही जाती है। इसके चतुर्थांश का वत्स इसके साथ देना चाहिये। गुड़धेनु अपने गुड़संग्रह के अनुसार बना लेनी चाहिये ॥ १३ - १६ ॥

चतुर्थांशेन वत्सः स्याद्गुडवित्तानुसारतः ।

पञ्च कृष्णलका माषस्ते सुवर्णस्तु षोडश ॥१७॥

पलं सुवर्णाश्चत्वारस्तुला पलशतं स्मृतं ।

स्याद्भारो विंशतितुला द्रोणस्तु चतुराढकः ॥१८॥

पाँच गुञ्जा का एक 'माशा' होता है, सोलह माशे का एक 'सुवर्ण' होता है, चार सुवर्ण का 'पल' और सौ पल की 'तुला' मानी गयी है। बीस तुला का एक 'भार' होता है एवं चार आढक (चौंसठ पल) का एक 'द्रोण' होता है ॥ १७-१८ ॥

धेनुवत्सौ गुडस्योभौ सितसूक्ष्माम्बरावृतौ ।

शुक्तिकर्णाविक्षुपादौ शुचिमुक्ताफलेक्षणौ ॥१९॥

सितसूत्रशिरालौ च सितकम्बलकम्बलौ ।

ताम्रगड्डुकपृष्ठौ तौ सितचामररोमकौ ॥२०॥

विद्रुमभ्रूयुगावेतौ नवनीतस्तनान्वितौ ।

क्षौमपुच्छौ कांस्यदोहाविन्द्रनीलकतारकौ ॥२१॥

सुवर्णशृङ्गाभरणौ रजतक्षुरसंयुतौ ।

नानाफलमया दन्ता गन्धघ्राणप्रकल्पितौ ॥२२॥

गुड़निर्मित धेनु और वत्स को श्वेत एवं सूक्ष्म वस्त्र से ढकना चाहिये। उनके कानों के स्थान में सीप, चरणस्थान में ईख, नेत्रस्थान में पवित्र मौक्तिक, अलकों के स्थान पर श्वेतसूत्र, गलकम्बल के स्थान पर सफेद कम्बल, पृष्ठभाग के स्थान पर ताम्र, रोम स्थान पर श्वेत चँवर, भौंहों के स्थान पर विद्रुममणि, स्तनों के स्थान पर नवनीत, पुच्छ स्थान पर रेशमी वस्त्र, अक्षि- गोलकों के स्थान पर नीलमणि, शृङ्ग और शृङ्गाभरणों के स्थान पर सुवर्ण एवं खुरों की जगह चाँदी रखे। दन्त स्थान पर विविध फल और नासिका स्थान पर सुगन्धित द्रव्य स्थापित करे-

रचयित्वा यजेद्धेनुमिमैर्मन्त्रैर्द्विजोत्तम ।

साथ में काँसे की दोहनी भी रखे। द्विजश्रेष्ठ ! इस प्रकार धेनु की रचना करके निम्नलिखित मन्त्रों से उसकी पूजा करे –

या लक्ष्मीः सर्वभूतानां या च देवेष्ववस्थिता ॥२३॥

धेनुरूपेण सा देवी मम शान्तिं प्रयच्छतु ।

देहस्था या च रुद्राणी शङ्करस्य सदा प्रिया ॥२४॥

धेनुरूपेण सा देवी मम पापं व्यपोहतु ।

विष्णुवक्षसि या लक्ष्मीः स्वाहा या च विभावसोः ॥२५॥

चन्द्रार्कऋक्षशक्तिर्या धेनुरूपास्तु सा श्रिये ।

चतुर्मुखस्य या लक्ष्मीर्या लक्ष्मीर्धनदस्य च ॥२६॥

लक्ष्मीर्या लोकपालानां स धेनुर्वरदास्तु मे ।

स्वधा त्वं पितृमुख्यानां स्वाहा यज्ञभुजां यतः ॥२७॥

सर्वपापहरा धेनुस्तस्माच्छान्तिं प्रयच्छ मे ।

"जो समस्त भूतप्राणियों की लक्ष्मी हैं, जो देवताओं में भी स्थित हैं, वे धेनुरूपिणी देवी मुझे शान्ति प्रदान करें। जो अपने शरीर में स्थित होकर 'रुद्राणी' के नाम से प्रसिद्ध हैं और शंकर की सदा प्रियतमा पत्नी हैं, वे धेनुरूपधारिणी देवी मेरे पापों का विनाश करें। जो विष्णु के वक्षःस्थल पर लक्ष्मी के रूप से सुशोभित होती हैं, जो अग्नि की स्वाहा और चन्द्रमा, सूर्य एवं नक्षत्र देवताओं की शक्ति के रूप में स्थित हैं, वे धेनुरूपिणी देवी मुझे लक्ष्मी प्रदान करें। जो चतुर्मुख ब्रह्मा की साबित्री, धनाध्यक्ष कुबेर की निधि और लोकपालों की लक्ष्मी हैं, वे धेनुदेवी मुझे अभीष्ट वस्तु प्रदान करें। देवि! आप पितरों की 'स्वधा' एवं यज्ञभोक्ता अग्नि की 'स्वाहा' हैं। आप समस्त पापों का हरण करनेवाली एवं धेनुरूप से स्थित हैं, इसलिये मुझे शान्ति प्रदान करें।"

एवमामन्त्रितां धेनुं ब्राह्मणाय निवेदयेत् ॥२८॥

समानं सर्वधेनूनां विधानं चैतदेव हि ।

सर्वयज्ञफलं प्राप्य निर्मलो भुक्तिमुक्तिभाक् ॥२९॥

इस प्रकार अभिमन्त्रित की हुई धेनु ब्राह्मण को दान दे। अन्य सब धेनुदानों की भी साधारणतया यही विधि है। इससे मनुष्य सम्पूर्ण यज्ञों का फल प्राप्त कर पापरहित हुआ भोग और मोक्ष दोनों को सिद्ध कर लेता है । १९ - २९ ॥

स्वर्णशृङ्गो शफै रौप्यैः सुशीला वस्त्रसंयुता ।

कांस्योपदोहा दातव्या क्षीरिणी गौः सदक्षिणा ॥३०॥

दातास्याः स्वर्गमाप्नोति वत्सरान् सोमसम्मितान् ।

कपिला चेत्तारयति भूयश्चासप्तमं कुलं ॥३१॥

सोने के सींगों से युक्त चाँदी के खुरोंवाली सीधी-सादी दुधारू गौ, काँसे की दोहनी, वस्त्र एवं दक्षिणा के साथ देनी चाहिये। ऐसी गौ का दान करनेवाला उस गौ के शरीर में जितने रोएँ होते हैं, उतने वर्षों तक स्वर्ग में निवास करता है। यदि कपिला का दान किया जाय तो वह सात पीढ़ियों का उद्धार कर देती है । ३०-३१ ॥

स्वर्णशृङ्गीं रौप्यखुरां कांस्यदोहनकान्वितां ।

शक्तितो दक्षिणायुक्तां दत्त्वा स्याद्भुक्तिमुक्तिभाक् ॥३२॥

सवत्सरोमतुल्यानि युगान्युभयतोमुखीं ।

दत्त्वा स्वर्गमवाप्नोति पूर्वेण विधिना ददेत् ॥३३॥

स्वर्णमय शृङ्गों से युक्त, रजतमण्डित खुरोंवाली कपिला गौ का काँसे के दोहनपात्र और यथाशक्ति दक्षिणा के साथ दान करके मनुष्य भोग और मोक्ष प्राप्त कर लेता है। 'उभयतोमुखी* गौ का दान करके दाता बछड़ेसहित गौ के शरीर में जितने रोएँ होते हैं, उतने युगोंतक स्वर्ग में जाकर सुख भोगता है। उभयतोमुखी गौ का भी दान पूर्वोक्त विधि से ही करना चाहिये ॥ ३२-३३ ॥

पादद्वयं मुखं योन्यां प्रसवन्त्याः प्रदृश्यते तदा च द्विमुखी गौः स्याद्देया यावन्न सूयते ॥ (बृहत्पराशरसंहिता १० । ४४)

"जब प्रसव करती हुई गौ को योनि में प्रसव होते हुए वत्स के दो पैर और मुख दिखायी देते हैं, उस समय वह 'उभयतोमुखी' कही जाती है उसका तभीतक दान करना चाहिये, जबतक पूर्ण प्रसव नहीं हो जाता। "

आसन्नमृत्युना देया सवत्सा गौस्तु पूर्ववत् ।

मरणासन्न मनुष्य को भी पूर्वोक्त विधि से ही बछड़ेसहित गौ का दान करना चाहिये। (और यह संकल्प करना चाहिये - )

यमद्वारे महावीरे तप्ता वैतरणी नदी ॥३४॥

तान्तर्तुञ्च ददाम्येनां कृष्णां वैतरणीञ्च गां ॥३५॥

अत्यन्त भयंकर यमलोक के प्रवेश द्वार पर तप्तजल से युक्त वैतरणी नदी प्रवाहित होती है। उसको पार करने के लिये मैं इस कृष्णवर्णा वैतरणी गौ का दान करता हूँ' ॥ ३४ ॥

इत्याग्नेये महापुराणे महादानानि नाम दशाधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥

इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में 'महादानों का वर्णन नामक दो सौ दसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥२१०॥

आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 211 

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