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अथ चतुरधिकद्विशततमोऽध्यायः
अग्निरुवाच
व्रतं मासोपवासञ्च सर्वोत्कृष्टं
वदामि ते ।
कृत्वा तु वैष्णवं यज्ञं
गुरोराज्ञामवाप्य च ॥०१॥
कृच्छ्राद्यैः स्वबलं बुद्ध्वा
कुर्यान्मासोपवासकं ।
वानप्रस्थो यतिर्वाथ नारी वा विधवा
मुने ॥०२॥
अग्निदेव कहते हैं—
मुनिश्रेष्ठ वसिष्ठ ! अब मैं तुम्हारे सम्मुख सबसे उत्तम मासोपवास-
व्रत का वर्णन करता हूँ। वैष्णव यज्ञ का अनुष्ठान करके, आचार्य
की आज्ञा लेकर, कृच्छ्र आदि व्रतों से अपनी शक्ति का अनुमान
करके मासोपवासव्रत करना चाहिये। वानप्रस्थ, संन्यासी एवं
विधवा स्त्री- इनके लिये मासोपवास- व्रत का विधान है ॥ १-२ ॥
आश्विनस्यामले पक्षे
एकादश्यामुपोषितः ।
व्रतमेतत्तु
गृह्णीयाद्यावत्त्रिंशद्दिनानि तु ॥०३॥
अद्यप्रभृत्यहं विष्णो
यावदुत्थानकन्तव ।
अर्चये त्वामनश्नन् हि यावत्त्रिंशद्दिनानि
तु ॥०४॥
कार्त्तिकाश्विनयोर्विष्णोर्यावदुत्थानकन्तव
।
म्रिये यद्यन्तरालेऽहं व्रतभङ्गो न
मे भवेत् ॥०५॥
आश्विन शुक्ल पक्ष को एकादशी को
उपवास रखकर तीस दिनों के लिये निम्नलिखित संकल्प करके मासोपवास- व्रत ग्रहण करे
श्रीविष्णो! मैं आज से लेकर तीस दिनतक आपके उत्थान कालपर्यन्त निराहार रहकर आपका
पूजन करूँगा। सर्वव्यापी श्रीहरे! आश्विन शुक्ल एकादशी से आपके उत्थानकाल कार्तिक
शुक्ल एकादशी के मध्य में यदि मेरी मृत्यु हो जाय तो (आपकी कृपा से) मेरा व्रत
भङ्ग न हो ।'
त्रिकालं पूजयेद्विष्णुं
त्रिःस्नातो गन्धपुष्पकैः ।
विष्णोर्गीतादिकं जप्यन्ध्यानं
कुर्याद्व्रती नरः ॥०६॥
वृथावादम्परिहरेदर्थाकाङ्क्षां
विवर्जयेत् ।
नाव्रतस्थं
स्पृशेत्कञ्चिद्विकर्मस्थान्न चालयेत् ॥०७॥
देवतायतने
तिष्ठेद्यावत्त्रिंशद्दिनानि तु ।
द्वादश्यां पूजयित्वा तु भोजयित्वा
द्विजान्व्रती ॥०८॥
समाप्य दक्षिणां दत्त्वा पारणन्तु
समाचरेत् ।
भुक्तिमुक्तिमवाप्नोति कल्पांश्चैव
त्रयोदश ॥०९॥
व्रत करनेवाला दिन में तीन बार
स्नान करके सुगन्धित द्रव्य और पुष्पों द्वारा प्रातः,
मध्याह्न एवं सायंकाल श्रीविष्णु का पूजन करे तथा
विष्णु-सम्बन्धी गान, जप और ध्यान करे। व्रती पुरुष वकवाद का
परित्याग करे और धन की इच्छा भी न करे। वह किसी भी व्रतहीन मनुष्य का स्पर्श न करे
और शास्त्रनिषिद्ध कर्मों में लगे हुए लोगों का चालक- प्रेरक न बने। उसे तीस दिनतक
देवमन्दिर में ही निवास करना चाहिये। व्रत करनेवाला मनुष्य कार्तिक के शुक्लपक्ष की
द्वादशी को भगवान् श्रीविष्णु की पूजा करके ब्राह्मणों को भोजन करावे
तदनन्तर उन्हें दक्षिणा देकर और स्वयं पारण करके व्रत का विसर्जन करे। इस प्रकार
तेरह पूर्ण मासोपवास- व्रतों का अनुष्ठान करनेवाला भोग और मोक्ष- दोनों को प्राप्त
कर लेता है ॥ ३-९ ॥
कारयेद्वैष्णवं यज्ञं
यजेद्विप्रांस्त्रयोदश ।
तावन्ति वस्त्रयुग्मानि
भाजनान्यासनानि च ॥१०॥
छत्राणि सपवित्राणि तथोपानद्युगानि
च ।
योगपट्टोपवीतानि दद्याद्विप्राय
तैर्मतः ॥११॥
(उपर्युक्त विधि से तेरह
मासोपवास-व्रतों का अनुष्ठान करने के बाद व्रत करनेवाला व्रत का उद्यापन करे।) वह
वैष्णवयज्ञ करावे, अर्थात् तेरह
ब्राह्मणों का पूजन करे। तदनन्तर उनसे आज्ञा लेकर किसी ब्राह्मण को तेरह
ऊर्ध्ववस्त्र, अधोवस्त्र, पात्र,
आसन, छत्र, पवित्री,
पादुका, योगपट्ट और यज्ञोपवीतों का दान करे ॥
१०-११ ॥
अन्यविप्राय शय्यायां हैमं विष्णुं
प्रपूज्य च ।
आत्मनश्च तथामूर्तिं वस्त्राद्यैश्च
प्रपूजयेत् ॥१२॥
तत्पश्चात् शय्या पर अपनी और
श्रीविष्णु की स्वर्णमयी प्रतिमा का पूजन करके उसे किसी दूसरे ब्राह्मण को दान करे
एवं उस ब्राह्मण का वस्त्र आदि से सत्कार करे। तदनन्तर व्रत करनेवाला यह कहे-
सर्वपापविनिर्मुक्तो विप्रो
विष्णुप्रसादतः ।
विष्णुलोकं गमिष्यामि विष्णुरेव
भवाम्यहं ॥१३॥
मैं सम्पूर्ण पापों से मुक्त होकर
ब्राह्मणों और श्रीविष्णु भगवान् के कृपा प्रसाद से विष्णुलोक को जाऊँगा। अब मैं
विष्णुस्वरूप होता हूँ।'
व्रज व्रज देवबुद्धे विष्णोः स्थानमनामयं
।
विमानेनामलस्तत्र
तिष्ठेद्विष्णुस्वरूपधृक् ॥१४॥
इसके उत्तर में ब्राह्मणों को कहना
चाहिये- 'देवात्मन्! तुम विष्णु के उस रोग-शोकरहित परमपद को जाओ जाओ और वहाँ विष्णु
का स्वरूप धारण करके विमान में प्रकाशित होते हुए स्थित होओ।'
द्विजानुक्त्वाथ तां शय्यां गुरवेऽथ
निवेदयेत् ।
कुलानां शतमुद्धृत्य
विष्णुलोकन्नयेद्व्रती ॥१५॥
मासोपवासी यद्देशे स देशो निर्मलो
भवेत् ।
किं पुनस्तत्कुलं सर्वं यत्र
मासोपवासकृत् ॥१६॥
व्रतस्थं मूर्छितं दृष्ट्वा
क्षीराज्यञ्चैव पाययेत् ।
नैते व्रतं विनिघ्रन्ति
हविर्विप्रानुमोदितं ॥१७॥
क्षीरं गुरोर्हितौषध्य आपो मूलफलानि
च ।
विष्णुर्महौषधं कर्ता
व्रतमस्मात्समुद्धरेत् ॥१८॥
फिर व्रत करनेवाला द्विजों को प्रणाम करके वह शय्या आचार्य को दान करे। इस विधि से व्रत करनेवाला अपने सौ कुलों का उद्धार करके उन्हें विष्णुलोक में ले जाता है। जिस देश में मासोपवास- व्रत करनेवाला रहता है, वह देश पापरहित हो जाता है। फिर उस सम्पूर्ण कुल की तो बात ही क्या है, जिसमें मासोपवास- व्रत का अनुष्ठान करनेवाला उत्पन्न हुआ होता है। व्रतयुक्त मनुष्य को मूर्च्छित देखकर उसे घृतमिश्रित दुग्ध को पान कराये। निम्नलिखित वस्तुएँ व्रत को नष्ट नहीं करती- ब्राह्मण की अनुमति से ग्रहण किया हुआ हविष्य, दुग्ध, आचार्य की आज्ञा से ली हुई ओषधि, जल, मूल और फल' इस व्रत में भगवान् श्रीविष्णु ही महान् ओषधिरूप हैं' – इसी विश्वास से व्रत करनेवाला इस व्रत से उद्धार पाता है॥१३-१८ ॥
इत्याग्नेये महापुराणे
मासोपवासव्रतं नाम चतुरधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें 'मासोपवास- व्रत का वर्णन' नामक दो सौ चारवाँ अध्याय
पूरा हुआ ॥ २०४ ॥
आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 205
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