बृहत् पाराशर होरा शास्त्र अध्याय १०
बृहत् पाराशर होरा शास्त्र अध्याय १० में अर्गला योग के लक्षण और फल का वर्णन हुआ है।
बृहत्पाराशर होराशास्त्र अध्याय १०
Vrihat Parashar hora shastra chapter 10
बृहत्पाराशरहोराशास्त्रम् दसमोऽध्यायः
अथ बृहत्पाराशरहोराशास्त्रम् दशम भाषा-टीकासहितं
बृहत् पाराशर होराशास्त्र अध्याय १०- अथाऽर्गलाध्यायः
अथातः सम्प्रवक्ष्यामि
अर्गलार्गलमुत्तमम् ।
यस्य विज्ञानमात्रेण ग्रहाणां च फलं
वदेत् ॥ १ ॥ ॥
अब मैं अर्गला योग के लक्षण और फल
को कह रहा हूँ, जिसके ज्ञान से ग्रहों के फलों
का ज्ञान होता है ।। १ ।।
चतुर्थे च धने लाभे
विद्यमानग्रहार्गला ।
तस्य दृष्ट्यादिकं ज्ञेयं
निर्विशङ्कं द्विजोत्तम । । २ । ।
चौथे, दूसरे और एकादश भाव में ग्रहों के होने से अर्गला योग होता और उसकी दृष्टि
आदि पूर्वोक्त प्रकार से ही होती है ।।२।।
एकग्रहार्गलाल्पं च द्विग्रहा
मध्यमा भवेत् ।
त्रयेण ग्रहयोगेन अर्गला
पूर्णमुच्यते।।३।।
वह भी एक ग्रह के होने से अल्प,
दो ग्रह के होने से मध्यम और तीन ग्रह के होने से पूर्ण अर्गला होती
है ।। ३ ।।
राश्यर्गलापि सा ज्ञेया ग्रहयुक्ता
विशेषतः ।
तुर्यवित्तैकादशेषु यस्य कस्यार्गला
भवेत् ।।४।।
इसी प्रकार किसी राशि से उक्त
स्थानों में राशि की अर्गला होती है। चौथे, दूसरे
और एकादश भाव की अर्गला जिस किसी की होती है।।४।।
द्विविधा सार्गला विप्र ब्रह्मणा
चोदितं पुरा ।
शुभकृत् पापकृच्चैव तन्वादीनां
विचिन्तयेत् ।।५।।
वह दो प्रकार की होती है। शुभग्रह
और पापग्रह कृत होती है । । ५ ।
भिन्नार्गलां पुनर्वक्ष्ये
चतुर्थार्गलपापयुक् ।
तृतीये तु यदा विप्र बहुपापयुते सति
। । ६ । ।
एक भिन्न अर्गला होती है जो कि चौथी
होती है। वह तीसरे भाव में अधिक पापग्रहों के होने से होती है । ६ ।।
बहुपापा तृतीयस्था पापषड्वर्गयोगतः।
पापार्जितः पापदृष्ट्या
संयुक्तार्गलकारकः ।।७।।
तृतीये शुभसम्बन्धे शुभक्षेत्रे
शुभान्विते ।
शुभवर्गे च षड्वर्गे विज्ञेयं
तुर्यमर्गला । । ८ । ।
तीसरे भाव में शुभग्रह का संबन्ध हो,
शुभग्रह की राशि हो, शुभग्रह देखता हो,
शुभग्रह का षड्वर्ग हो तो चौथा अर्गला योग होता है ।। ७-८ ।।
तुर्यवित्तैकादशे च पापयुग्वा
शुभोऽपि वा ।
उभयक्षेत्रसम्बन्धे अर्गलां
कारयेद्विज । । ९ । ।
चौथे, दूसरे, एकादश भाव में पापग्रह युत हो वा शुभग्रह हो,
दोनों के संबंध से अर्गला योग होता है । । ९ । ।
तृतीये बहुपापस्थे बहुयुक्तार्गला
भवेत् ।
निर्बाधिका तु सा ज्ञेया
निर्विशङ्कं द्विजोत्तम । । १० ।।
तीसरे भाव में बहुत से पापग्रह हों
तो बहुयुक्त अर्गला होती है और इसे निर्बाध अर्गला कहते हैं ।। १० ।।
एकेन द्वितयेनापि अर्गला या
भवेद्विज ।
सार्गला नैव विज्ञेया बहुपापयुतिं
विना । । ११ । ।
एक ग्रह या दो ग्रह से जो अर्गला
होती है वह फलद नहीं होती है । । ११ । ।
चतुर्थे धनलाभस्था शुभपापकृतार्गला
।
तस्यापि बाधकाः खेटा
व्योमारिष्फतृतीयगाः । । १२ । ।
चौथे, दूसरे, एकादश में शुभग्रह एवं पापग्रह से अर्गला योग
होता है, किन्तु दशम, द्वादश और तीसरा
स्थान उसका बाधक होता है । । १२ ।।
क्रमेण ज्ञायते विप्र चतुर्थं
व्योमबाधकम् ।
धने च व्ययभावं च भवेज्ज्ञेयं
तृतीयकम् ।।१३।।
चौथे का दशम,
दूसरे का द्वादश और एकादश का तीसरा स्थान बाधक होता है ।। १३ ।।
निर्बाधका च फलदा न दातव्यां सबाधका
।
चिन्तनीयं प्रयत्नेन तत्फलं
द्विजपुङ्गव । । १४ ।।
अर्थात् बाधक स्थानों में ग्रहों के
होने से अर्गला योग नहीं होता है। निर्बाध अर्गला फलदायक और सबाधक अर्गला निष्फल
होती है । । १४ ।।
अर्गलाया बाधकानां बाधकान्
कथयेऽधुना ।
नूनं सा निर्बला खेटा ज्ञायते
गणकैस्तदा । । १५ ।।
अर्गला योग से बाधक ग्रहों के
बाधकों को मैं कह रहा हूँ, निश्चय ही वह
निर्बल ग्रह होता है । । १५ ।।
वित्तलाभचतुर्थानां यः पश्यति
शुभार्गलाम् ।
व्ययभ्रातृनभस्थाश्चेद्विपरीतार्गला
द्विज । । १६ ।।
दूसरे,
ग्यारहवें ओर चौथे भाव को देखता हो तो शुभ अर्गला होती है । किन्तु
१२वें, ३रे और १० वें स्थान में स्थित ग्रह देखते हों तो
विपरीत अर्गला होती है ।। १६ ।।
पुनर्योगार्गलं ज्ञेयं त्रिकोणे
पूर्ववद्विज ।
पञ्चमे चार्गलास्थानं
नवमस्तद्विरोधकः । । १७ । ।
इसी प्रकार त्रिकोण (५ । ९ ) अर्गला
योग होता है । ५वें भाव में ग्रह हो तो अर्गला होता है,
किन्तु नवम भाव में कोई ग्रह हो तो अर्गला नहीं होता है ।। १७ ।।
विपरीतेन केतुश्च नवमेऽर्गलकारकः ।
पञ्चमस्थस्तद्विरोधो ज्ञायते
गणकैर्द्विज । । १८ ।।
ग्रह विपरीत यानि ९वें भाव में
अर्गला योगकारक और पाँचवें भाव में वाचक होता है । । १८ ।।
क्रमेण केतुः प्रकरोत्यर्गलां द्विज
।
नवमस्थस्तद्विरोधो लग्नार्गलमिदं
विदुः । । १९ ।।
हे द्विज ! केतु ग्रह भी क्रम से
अर्गला योग करता है। किन्तु नवमस्थ ग्रह उसका विरोधी होता है,
इसे लग्नार्गल कहते हैं । । १९ ।।
राश्यर्गलं च खेटानां
चिन्तयेद्विविधार्गलम्।
यस्या यस्या दशा प्राप्ता तस्यां
तस्यां फलं भवेत् ।।२०।।
इसी प्रकार राशियों का भी अर्गला
योग विचार करना चाहिए ।। २० ।।
यत्र राशिस्थितः खेटस्तस्य
पाकान्तरे भवेत् ।
तत्काले च फलं वाच्यं निर्विशङ्कं
द्विजोत्तम ।। २१ । ।
जो-जो अर्गलायोगकारक ग्रह हों उनके
दशा अन्तर में अर्गला योग का फल होता है । । २१ । ।
सारांश यह है कि जिस किसी भाव या
ग्रह का विचार किया जाय तो यह देखना चाहिए कि उस भाव या ग्रह से चौथे,
दूसरे और ग्यारहवें भाव में कोई ग्रह हो तो उस भाव या ग्रह का
अर्गला योग होता है। किन्तु उक्त अर्गला योग का भंग भी होता है अर्थात् राशि का
ग्रह से चौथे भाव में ग्रह के होने से अर्गला होता यदि राशि का ग्रह से दशमस्थ कोई
ग्रह न हो। इसी दूसरे भाव में योग होता है, किन्तु १२वें कोई
ग्रह न हो तथा ग्यारहवें भाव में योगं होता है, यदि तीसरे
भाव में कोई ग्रह न हो । यदि योगकारक ग्रह से बाधक ग्रह निर्बल या संख्या में कम
हों तो अर्गला का प्रतिबंध नहीं होता है। इसी प्रकार राशि या ग्रह से तीसरे भाव
में तीन से अधिक फल ग्रह हों तो निर्विरोधी अर्गला योग होता है। इसी प्रकार ५ वें
भाव में भी अर्गला योग होता है, यदि नवम में कोई ग्रह न हो
तो । केतुग्रह का विपरीत अर्गला योग होता है अर्थात् बाधक स्थान में अर्गला और
योगस्थान में प्रतिबंधक होता है।
बृहत् पाराशर होरा
शास्त्र अध्याय १०- अथाऽर्गलाफलम्
पदे लग्ने सप्तमे वा निराभासार्गला
द्विज ।
निर्बन्धा चार्गला तत्र दृष्ट्या
भाग्यं भवेन्नरः ।।२२।।
पद या लग्न से सातवें भाव में
निराभासा (निर्बाध ) अर्गला होता है । यदि यह अर्गला हो तो भाग्यवान् मनुष्य होता
है ।। २२ ।।
अर्गलां प्रतिबन्धं च
प्रथमाङ्ग्रेर्विचिन्तयेत् ।
धनधान्यपुत्रपशुदाराबन्धुकुलैर्युतः
।। २३ ।।
शरीरारोग्यमैश्वर्यभृत्यवाहनसंयुतः।
हरभक्तः सुधर्मज्ञो दृष्ट्या
भाग्यस्य लक्षणम् ।। २४ ।।
अर्गला का प्रतिबंध एक स्थान में
स्थित ग्रह से प्रथम चरण और दूसरे के चौथे चरण से, तीसरे और दूसरे चरण से देखना चाहिए। ऊपर कहे हुए प्रथम श्लोक के अनुसार
अर्गला हो तो मनुष्य धन, धान्य, पुत्र,
पशु, स्त्री और बन्धु बान्धवों से युक्त,
नीरोग शरीर, ऐश्वर्य, नौकर,
वाहन और ऐश्वर्य से युक्त होता है । । २३-२४ ।।
शुभग्रहार्गला विप्र
बहुद्रव्यप्रदायका ।
पापेन स्वल्पवित्तः
स्यान्निर्विशङ्कं द्विजोत्तम ।। २५ ।।
शुभग्रह की अर्गला बहुत द्रव्य को
देने वाली होती है और पापग्रह की अर्गला अल्प धन को देने वाली होती है ।। २५ ।।
उभयार्गला भवेत्तत्र कदाचिद्धनवान्
भवेत् ।
कदांचिद्वित्तचिन्तार्तिर्जायते
द्विजसत्तम ।।२६।।
यदि दोनों (शुभ-पाप) से मिश्रित
अर्गला हो तो कदाचित् धनी होता है। कदाचित् धन संबंधी चिंता से कष्ट होता है ।। २६
।।
यत्र जन्मनि सोऽपि स्याच्छुभदृष्टे
शुभार्गला ।
तेन दृष्टेक्षिते लग्ने
प्रबल्यायोपकल्प्यते । । २७।।
यदि जन्मकाल में शुभग्रह से दृष्ट
शुभ अर्गला हो और उसी शुभग्रह लग्न युत वा दृष्ट हो तो लग्न प्रबल होती है ।। २७
।।
यदि पश्येद्ग्रहस्तत्र
विपरीतार्गलसंस्थितः ।
प्रथमां तुं
विजानीयाद्विपरीतार्गलां द्विज ।। २८ ।।
यदि अर्गला के प्रतिबंधक स्थानीय
ग्रह यानि विपरीत अर्गलायोग कारक ग्रह देखते हों तो विपरीत फल होता है ।।२८।।
लग्नसप्तमयोगेन भाग्ययोगं
विचिन्तयेत् ।
भाग्यप्रबलता ज्ञेया
लग्नसप्तशुभार्गला ।। २९।।
लग्न और सप्तम के योग से भाग्ययोग
की चिंता करनी चाहिए । लग्न सप्तम में शुभ कृत अर्गला हो तो भाग्य की प्रबलता
जाननी चाहिए ।। २९ । ।
शुभार्गले स्ववृद्धिः स्यात्पापे
स्वल्पधनं वदेत् ।
उभयार्गले तु तत्रैव क्वचिद्वृद्धिः
क्वचित् क्षयम् । ३० ।।
शुभग्रही अर्गला में धन की वृद्धि
और पापग्रह की अर्गला में अल्पधन की हानि होती है । । ३० ।।
तत्तद्राशिदशायां तु
अर्गलाफलसिद्धये ।
शुभो वाऽप्यशुभो वापि ह्यर्गला
फलदायकः ।।३१ ।।
उन-उन राशियों के अर्गला फल को देने
वाले शुभग्रह शुभफल और पापग्रह अशुभ फल को देने वाले होते हैं । । ३१ । ।
इति बृहत्पाराशरहोरायां पूर्वखण्डे
सुबोधिन्यां अर्गलाफलकथनं नाम सप्तमोऽध्यायः ।
आगे जारी............. बृहत्पाराशरहोराशास्त्र अध्याय 11
0 Comments