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बृहत्पाराशर होराशास्त्र अध्याय ११
Vrihat Parashar hora shastra chapter 11
बृहत्पाराशरहोराशास्त्रम् एकदशोऽध्यायः
अथ बृहत्पाराशरहोराशास्त्रम् एकदश भाषा-टीकासहितं
बृहत् पाराशर होराशास्त्र अध्याय ११- अथ कारकाध्यायः
अथाग्रे सम्प्रवक्ष्यामि ग्रहाणां
कारकान् द्विज ।
आत्मादिकारकान् सप्त यथावत् कथयामि
ते । । १ । ।
हे द्विज ! अब मैं ग्रहों के आत्मा
आदि सात कारकों को कहूँगा । । १ । ।
रव्यादिशनिपर्यन्ता भवन्ति
सप्तकारकाः ।
अंशैः समौ ग्रहौ द्वौ च राह्वन्तान्
गणयेद्विज । २ ॥
रवि आदि ग्रह सात किसी-किसी के मत
से राहु पर्यन्त आठ कारक होते हैं। यदि दो ग्रहों में अंश साम्य हो तो राहु पर्यंत ८ ग्रहों में कारक का विचार करना चाहिए ।
। २ । ।
रव्यादिपङ्गपर्यन्तमंशाधिकग्रहो द्विज
।
कारकेन्द्रोऽथ स ज्ञेयो आत्माकारक
उच्यते ।।३।।
रवि से राहु पर्यंत ग्रहों में भी
जो ग्रह अंश से अधिक हो वह आत्मकारंक ग्रहों का राजा होता है ।। ३ ।।
अंशसाम्यग्रहो यत्र कलाधिक्यं च
पश्यति ।
कलासाम्ये पलाधिक्यमात्माकारक
ईर्यते । । ४ । ।
जहाँ ग्रहों के अंश तुल्य हो वहाँ
कला से अधिकता लेना चाहिए और कला समान हो तो विकला से जो अधिक हो वही आत्मकारक
होता है।।४।।
तत्र राशिकलाधिक्ये नैव ग्राह्यः
प्रधानकः ।
अंशाधिक्ये कारकः स्यादल्पभागोऽन्तकारकः
।।५।।
राशि और कला से अधिक हो तो वह
आत्मकारक नहीं होता है। जिसका अंश अधिक हो वही आत्मकारक होता है,
अल्प अंश वाला अंतिमकारक होता है । ५ ॥
मध्यांशो मध्यखेटः स्यादुपखेटः स एव
हि ।
अघोsध: कारका ज्ञेयाश्चराणि सप्तकारकाः।।६।।
दोनों के मध्य अंश वाले अन्य कारक
होते हैं। क्रम से कारक होते हैं उसी को उपकारक कहते हैं । । ६।।
तेषां मध्ये प्रधानं तु आत्मकारक
उच्यते ।
जातकराट् स विज्ञेयः सर्वेषां
मुख्यकारकः । ।७।।
इन सभी में आत्मकारक प्रधान जातक का
स्वामी होता है, इसी को मुख्यकारक कहते हैं । ।
७ ।।
यथा भूमौ प्रसिद्धोऽस्ति नराणां
क्षितिपालकः।
सर्ववार्ताधिकारी च
बन्धकृन्मोक्षकृत्तथा । ॥८॥
जिस प्रकार पृथ्वी पर मनुष्यों में
राजा बंधन, मोक्ष आदि सभी बातों का अधिकारी
होता है । । ८ । ।
पुत्रामात्यप्रजानां तु
तत्तद्दोषगुणैस्तथा ।
बन्धकृन्मोक्षकृद्वि तथा सम्मानकारकः
। । ९ ।।
वही पुत्र,
मंत्री और प्रजा का उनके गुण-दोष के अनुसार बंधन, मोक्ष तथा सम्मान आदि करने वाला होता है । उसी प्रकार कारकराज के वश से
अन्य कारक फल देने वाले होते हैं । । ९ । ।
तथैव कारकों राजा
ग्रहाणामात्मकारकः।
आत्मेत्यादि फलं दत्ते चान्यथा
स्थापयेद्विज । १० ।।
जिस प्रकार राजा के क्रोधित होने से
सभी मंत्री आदि अपने मन का कार्य करने में असमर्थ होते हैं ।। १० ।।
यथा राजाज्ञया विप्र
पुत्रामात्यादयोऽपि च ।
समर्था लोककार्येषु
तथैवान्योन्यकारकः । । ११ । ।
कारकराजवश्येन फलदातान्यकारकः।
यथा राजनि क्रुद्धे च
सर्वेऽमात्यादयो द्विज़ । । १२ ।।
स्वजनानां कार्यकर्त्तुमसमर्था
भवन्ति हि ।
स्निग्धे भूपे यमात्यादिः
स्वशत्रूणां द्विजोत्तम । । १३ ।।
अकार्यं कर्तुं नो
शक्तस्तथैवान्योपकारकः ।
आत्मकारकवश्येन हयमात्यादि फलं ददुः
।। १४ ।।
यदि राजा प्रसन्न होते हैं तो
मंत्री आदि अपने शत्रु का भी अहित नहीं करते हैं, उसी प्रकार अन्य कारक भी आत्मकारक के वश में होते हैं ।। १४ ।।
आत्मकारकखेटेन न्यूनभागो हि
यद्ग्रहः ।
अमात्यसंज्ञा तस्यैव ज्ञायते
द्विजसत्तम । । १५ ।।
आत्मकारक ग्रह से न्यून अंशवाला
ग्रह अमात्यकारक होता है ।। १५ ।।
अमात्यन्यूनो भ्राता च भ्रातृन्यूनं
च मातृकम् ।
मातृकारकखेटेन न्यूनभागो हि यो
ग्रहः । । १६ ।।
इससे न्यून अंश वाला ग्रह
भ्राताकारक, इससे न्यून अंश वाला मातृकारक,
इससे न्यून पुत्रकारक।।१६।।
संपुत्रकारको ज्ञेयस्तद्धीनो
ज्ञातिकारकः।
ज्ञातिकारकखेटेन हीनभागो हि यो
ग्रहः ।। १७ ।।
इससे न्यून अंश वाला ग्रह शांति
(जाति) कारक, इससे न्यून अंश वाला ग्रह ।। १७
।।
दारकारकविज्ञेयो निर्विशङ्कं
द्विजोत्तम ।
चराश्च कारकाः सप्त ब्रह्मणा चोदितः
पुरा । । १८ ।।
स्त्रीकारक होता है । यही सात
चरकारक होते हैं ।। १८ ।।
अंशसाम्यो ग्रहौ द्वौ च जायेतां
यस्य जन्मनि ।
स्वकारकं विना विप्र लुप्यति
चात्मकारकः । । १९ । । ।
यदि ग्रहों के अंश तुल्य हों तो
दोनों ही एक कारक होते हैं ।।१९।।
तत्कारको लुप्यति चेदन्यन्नैवास्ति
कारकम् ।
कारकाणां स्थिराणां च मध्ये सञ्चितयेद्विज
।। २० ।।
वहाँ दोनों का नाश हो जाता है,
फिर स्थिरकारक से ही फल को देखना चाहिए ।। २० ।।
बृहत् पाराशर होरा
शास्त्र अध्याय ११- अथ योगकारकमाह
अधुना सम्प्रवक्ष्यामि खेटान्
कारकसंज्ञकान् ।
यस्य जन्मनि भावानां यथास्थाने च वै
द्विज । । २१ । ।
अब मैं योग करने वाले कारक ग्रहों
को कह रहा हूँ ।। २१ । ।
स्वर्क्षे तुङ्गे च मित्रर्क्षे
कण्टके संस्थिता ग्रहाः ।
अन्योन्यकारका विप्र कर्मगास्तु
विशेषतः । । २२ ।।
जन्म समय ग्रह अपनी उच्चराशि,
अपनी राशि वा अपने मित्र की राशि में होकर परस्पर केन्द्र में हों
तो परस्पर कारक ( भाग्योदय) करने वाले होते हैं। इसमें भी दशम स्थान में विशेष
योगकारक होते हैं।। २२ ।।
लग्ने सुखे तथा कामे ग्रहभाववशेन च
।
भवन्ति कारका विप्र विशेषेण च
खेगताः ।। २३ ।।
लग्न चतुर्थ,
सप्तम, दशम में कारक होते हैं, विशेषतः दशम में कारक होता है ।। २३ ।।
स्वमित्रच्चगो हेतुरन्योन्यं यदि
केन्द्रगः ।
ससुहृद्गणसम्पन्नः सोऽपि कारक एव वै
।। २४ ।।
यदि ग्रह अपने मित्र,
राशि, उच्च में होकर परस्पर केन्द्र में हों
तों वे भी परस्पर कारक होते हैं ।। २४ ।।
नीचान्वये यस्य जन्म बभूव
द्विजसत्तम ।
पतन्ति कारका लग्ने प्रधानत्वं च स
आप्नुयात् ।।२५।।
नीच वंश में उत्पन्न हो और योगकारक
ग्रहों से योग होता हो तो वह अपने कुल में प्रधान होता है ।। २५ ।।
राज्ञां कुले समुत्पन्नो राजा भवति
निश्चितम् ।
एवं कुलानुसारेण कारकाणां फलं भवेत्
। । २६ ।।
और राजकुल में उत्पन्न हो और योग
होता हो तो अवश्य राजा होता है। इस प्रकार कुल के अनुसार कारकों का फल होता है ॥ ॥
२६ ॥ ॥
बृहत् पाराशर होरा
शास्त्र अध्याय ११- अथ स्थिरकारकमाह
अधुना सम्प्रवक्ष्यामि कारकाणि
स्थिराणिच ।
सूर्यादीनां ग्रहाणां च वीर्यवान्
कारको भवेत् ॥ ॥ २७ ॥ ॥
अब मैं स्थिर कारकों को कह रहा हूँ
। सूर्य आदि ग्रहों के बलाबल के अनुसार ये कारक होते हैं ।। २७ ।।
बलवान् जायते विप्र जन्मनि
रविशुक्रयोः।
स पितृकारको ज्ञेयो निर्विशङ्कं
द्विजोत्तम ॥ २८ ॥ ॥
जन्मकाल में रवि और शुक्र में जो
बलवान् हो वह पितृकारक होता है।।२८।।
चन्द्रारयोश्च बलवान् मातृकारक
उच्यते ।
भौमतस्तु विशेषेण भगिनीदारभ्रातृकौ
॥ ॥ २९ ॥ ॥
चंद्रमा और भौम में जो बलवान् हो वह
भावकारक होता है ॥ विशेषता: भौम से बहिन और साला (स्त्री के भाई) का विचार होता है
॥ २९ ॥
बुधान्मातुलमाख्यातो मातृतुल्यानपि
द्विज ।
गुरुणा चात्र विज्ञेया
पुत्रस्वामिपितामहाः ॥३०॥
बुध से मामा और मातृसदृश (मौसी) आदि
का विचार होता है।गुरू से पुत्र और पितामह आदि का विचार होता है॥३०॥
स्वभार्यामातृपितरौ तथा मातामही
द्विज ।
भृगुद्वारा विजानीयादेतेषां
शुक्रकारकाः ॥ ॥३१ ॥ ॥
सास-ससुर और नानी का विचार शुक्र से
होता है । यही उनका कारक होता है ।। ३१ ।।
सूर्याच्च पुण्यभे तात इन्दोर्माता
चतुर्यता: ।
कुजात्तृतीयतो भ्राता मातुलो
रिपुभाद्बुधात् ॥ ॥३२॥ ॥
सूर्य से ९वें स्थान में पिता का,
चन्द्रमा से चतुर्थ स्थान पर माता का, भौम से
तीसरे भाई का, बुध से छठे मामा का ॥ ३२ ॥
देवेज्यात्पञ्चमे पुत्रो
दैत्येज्याद्यूनभे स्त्रियः ॥
मन्दादष्टमतो मृत्युस्तातादीनां
विचिन्तयेत् ॥ ॥३३॥ ॥
गुरु से पांचवें पुत्र का,
शुक्र से सातवें स्त्री का और शनि से आठवें भाव में आयु का विचार
करना चाहिए ।।३३।।
बृहत् पाराशर होरा
शास्त्र अध्याय ११- अथ भावकारकमाह
अधुना सम्प्रवक्ष्यामि विशेषं
भावकारकम् ।
जनुर्लग्नं च विद्याद्वै
आत्मकारकमेव च ।। ३४ ।।
अब विशेषकर भावकारक को कह रहा हूँ ।
जन्मलग्न आत्मकारक ।। ३४ ।।
धनभावं विजानीयाद्दारकारकमेव च ।
एकादशे ज्येष्ठ भ्रातुस्तृतीये च
कनिष्ठकाः । । ३५ ।।
धनभाव स्वीकारक,
ग्यारहवाँ ज्येष्ठ भाई का और तीसरा कनिष्ठ । । ३५ ।।
सुते सुतं विजानीयाद्दारा
सप्तमभावतः ।
सुतस्थाने ग्रहस्तिष्ठेत्सोऽपि कारक
उच्यते ।। ३६ ।।
पंचम भाव पुत्र का और सातवाँ स्त्री
का कारक होता है । पाँचवें भाव में यदि कोई ग्रह हो तो वह भी उस भाव का कारक होता
है ।। ३६ ।।
सूर्यो गुरुः कुजः सोमो गुरुर्भीमः
सितः शनिः ।
गुरुश्चन्द्रसुतो जीवो मन्दश्च
भावकारकः । । ३७।।
क्रम से सूर्य,
गुरु, भौम, बुध, गुरु, भौम, शुक्र, शनि, गुरु, बुध, गुरु और शनि ये लग्नादि भावों के कारक होते हैं ।। ३७ ।।
पुनस्तन्वादयो भावा:
स्थाप्यास्तेषां शुभाशुभम् ।
लाभं तृतीयं रन्ध्रं च
शत्रुभावव्ययं तथा ।
एषां योगेन यो भावस्तन्नाशं
प्राप्नुयाद्ध्रुवम् ।। ३८ ।।
फिर भी लक्ष आदि भावों के शुभ-अशुभ
को लिखकर उनके शुभाशुभ का निर्णय करना चाहिए । एकादश,
तृतीय, आठवाँ, छठवाँ और
बारहवाँ भाव - इनके साथ जिस भाव का सम्बन्ध होता है उस भाव के फल का नाश हो जाता
है अर्थात् इन भावों के स्पष्ट दृश्यादि का योग करने से जो भाव बने वह नष्ट हो
जाता है ।। ३८ ।।
चत्वारो राशयो भद्राः केन्द्रकोणशुभावहाः
।
तेषां संयोगमात्रेण अशुभोऽपि शुभो
भवेत् ।। ३९ ।।
केन्द्र और कोण ये चार भाव शुभद है।
इनके संयोग से जो भाव हो वह भी अशुभ होता है ।। ३१ । ।
बृहत् पाराशर होराशास्त्र अध्याय ११- अथ सूर्यादिग्रहाणां कारकत्वमाह
राज्यविद्रुमरक्तवस्त्रमाणिक्यराजवन-
पर्वतक्षेत्रपितृकारको रविः । । १ ।
।
राज्य,
मूँगा, रक्तवस्त्र, मानिक,
राज, वन, पर्वत, क्षेत्र और पिता का कारक सूर्य होता है । । १ । ।
मातृमनःपुष्टिगन्धरसेक्षुगोधूमक्षारक-
द्विजशक्तिकार्यसस्यरजतादिकारकश्चन्द्रः
।।२।।
माता, मन, शरीरपुष्टि, गंधद्रव्य,
रस, ऊख, गेहूँ, क्षारपदार्थ, ब्राह्मण, शक्तिकार्य,
धान्य और चाँदी आदि का कारक चन्द्रमा है ।।२।।
सत्त्वसद्मभूमिपुत्रशीलचौर्यरोगब्रह्मभ्रातृ-
पराक्रमाग्निसाहसराजशत्रुकारक: कुजः
।।३॥
ओज, भूमि, पुत्र, शील, चोर, रोग, ब्रह्म, भाई, पराक्रम, अग्नि, साहस और राजशत्रु के कारक भौम हैं । । ३ ।।
ज्योतिर्विद्यामातुलगणितकार्यनर्तनवैद्य-
हास्यभी श्रीशिल्पविद्यादिकारको
बुधः । ॥४॥
ज्योतिष विद्या,
मामा, गणित विद्या, नृत्य,
वैद्यक, हास्य, भय, लक्ष्मी, शिल्पविद्या का कारक बुध है ।।४।।
स्वकर्मयजनदेवब्राह्मणधनगृहकाञ्चन-
वस्त्रपुत्रमित्रान्दोलनादिकारको
गुरुः ॥ ५ ॥
अपने कार्य,
यज्ञ, देवता, ब्राह्मण,
धन, गृह, सुवर्ण,
वस्त्र, पुत्र, मित्र, आंदोलन आदि के कारक गुरु हैं ।। ५ ।।
कलत्रकार्मुकसुखगीतशास्त्र-
काव्यपुष्पसुकुमारयौवनाभरणरजत-
यानस्वर्गलोकमौक्तिक-
विभवकवितारसादिकारको भृगुः॥६॥
स्त्री,
धनुष, सुख, गीतशास्त्र,
काव्यशास्त्र, पुष्प, यौवन,
आभूषण, चाँदी, सवारी,
स्वर्गलोक, मोती, वैभव,
कविता, रस आदि के कारक शुक्र हैं ।। ६ ।।
महिषहवगजतैलवस्त्रशृङ्गार-
प्रयाणसर्व राज्यसर्वायुधगृहयुद्ध -
सन्चारशूनीतमणिविघ्नकेशशल्य-
शूलरोगंदासदासीजनायुष्यकारकः शनिः ।
। ७ ।।
भैंस, घोड़ा, हाथी, तेल, वस्त्र, शृंगार, यात्रा,
सभी प्रकार के राज्य, सभी प्रकार के आयुध,
गृह, युद्ध संचार, शूद्र,
नीलममणि, विघ्न, केश,
हड्डी, शूलरोग, नौकर,
नौकरानी, आयुष्य के कारक शनि है । । ७ ।।
प्रयाणसमवसर्परात्रिसकलसुप्तार्थद्यूतकारको
राहुः । । ८ । ।
यात्राकाल,
सर्प, रात्रि, सम्पूर्ण
खोये हुए द्रव्य, जूआ का कारक राहु है ॥ ८ ॥
व्रणरोगचर्मातिशूलस्फुटक्षुधार्तिकारकः
केतुः । । ९ । ।
फोड़ा आदि रोग,
चर्मरोग, अत्यंत शूल, भूख
से कष्ट आदि का कारक कन्तु है ॥ १९ ॥ ॥
इतिं कारकाध्यायः ।
आगे जारी............. बृहत्पाराशरहोराशास्त्र अध्याय 12
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