अग्निपुराण अध्याय २००

अग्निपुराण अध्याय २००                        

अग्निपुराण अध्याय २०० में दीपदान – व्रत की महिमा एवं विदर्भराजकुमारी ललिता का उपाख्यान का वर्णन है।

अग्निपुराण अध्याय २००

अग्निपुराणम् द्विशततमोऽध्यायः

Agni puran chapter 200                   

अग्निपुराण दो सौवाँ अध्याय

अग्निपुराणम्/अध्यायः २००                      

अग्निपुराणम् अध्यायः २०० – दीपदान

अथ द्विशततमोऽध्यायः

अग्निरुवाच

दीपदानव्रतं वक्ष्ये भुक्तिमुक्तिप्रदायकं ।

देवद्विजातिकगृहे दीपदोऽब्दं स सर्वभाक् ॥०१॥

चतुर्मासं विष्णुलोकी कार्त्तिके स्वर्गलोक्यपि ।

दीपदानात्परं नास्ति न भूतं न भविष्यति ॥०२॥

दीपेनायुष्यचक्षुष्मान्दीपाल्लक्ष्मीसुतादिकं ।

सौभाग्यं दीपदः प्राप्य स्वर्गलोके महीयते ॥०३॥

विदर्भराजदुहिता ललिता दीपदात्मभाक् ।

चारुधर्मक्ष्मापपत्नी शतभार्याधिकाभवत् ॥०४॥

ददौ दीपसहस्रं सा विष्णोरायतने सती ।

पृष्टा सा दीपमाहात्म्यं सपत्नीभ्य उवाच ह ॥०५॥

अग्निदेव कहते हैं- वसिष्ठ ! अब मैं भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाले 'दीपदान व्रत 'का वर्णन करता हूँ। जो मनुष्य देवमन्दिर अथवा ब्राह्मण के गृह में एक वर्षतक दीपदान करता है, वह सब कुछ प्राप्त कर लेता है। चातुर्मास्य में दीपदान करनेवाला विष्णुलोक को और कार्तिक में दीपदान करनेवाला स्वर्गलोक को प्राप्त होता है। दीपदान से बढ़कर न कोई व्रत है, न था और न होगा ही। दीपदान से आयु और नेत्रज्योति की प्राप्ति होती है। दीपदान से धन और पुत्रादि की भी प्राप्ति होती है। दीपदान करनेवाला सौभाग्ययुक्त होकर स्वर्गलोक में देवताओं द्वारा पूजित होता है। विदर्भराजकुमारी ललिता दीपदान के पुण्य से ही राजा चारुधर्मा की पत्नी हुई और उसकी सौ रानियों में प्रमुख हुई। उस साध्वी ने एक बार विष्णुमन्दिर में सहस्र दीपों का दान किया। इस पर उसकी सपत्नियों ने उससे दीपदान का माहात्म्य पूछा। उनके पूछने पर उसने इस प्रकार कहा- ॥ १-५ ॥

ललितोवाच

सौवीरराजस्य पुरा मैत्रेयोऽभूत्पुरोहितः ।

तेन चायतनं विष्णोः कारितं देविकातटे ॥०६॥

कार्त्तिके दीपकस्तेन दत्तः सम्प्रेरितो मया ।

वक्त्रप्रान्तेन नश्यन्त्या मार्जारस्य तदा भयात् ॥०७॥

निर्वाणवान् प्रदीप्तोऽभूद्वर्त्या मूषिकया तदा ।

मृता राजात्मजा जाता राजपत्नी शताधिका ॥०८॥

असङ्कल्पितमप्यस्य प्रेरणं यत्कृतं मया ।

विष्ण्वायतनदीपस्य तस्येदं भुज्यते फलं ॥०९॥

जातिस्मरा ह्यतो दीपान् प्रयच्छामि त्वहर्निशं ।

एकदश्यां दीपदो वै विमाने दिवि मोदते ॥१०॥

जायते दीपहर्ता तु मूको वा जड एव च ।

अन्धे तमसि दुष्पारे नरके पतते किल ॥११॥

विक्रोशमानांश्च नरान् यमकिङ्कराहतान् ।

विलापैरलमत्रापि किं वो विलपिते फलं ॥१२॥

यदा प्रमादिभिः पूर्वमत्यन्तसमुपेक्षितः ।

जन्तुर्जन्मसहस्रेभ्यो ह्येकस्मिन्मानुषो यदि ॥१३॥

तत्राप्यतिविमूढात्मा किं भोगानभिधावति ।

स्वहितं विषयास्वादैः क्रन्दनं तदिहागतं ॥१४॥

भुज्यते च कृतं पूर्वमेतत्किं वो न चिन्तितं ।

परस्त्रीषु कुचाभ्यङ्गं प्रीतये दुःखदं हि वः ॥१५॥

मुहूर्तविषयास्वादोऽनेककोट्यब्ददुःखदः ।

परस्त्रीहारि यद्गीतं हा मातः किं विलप्यते ॥१६॥

कोऽतिभारो हरेर्नाम्नि जिह्वया परिकीर्तने ।

वर्तितैलेऽल्पमूल्येऽपि यदग्निर्लभ्यते सदा ॥१७॥

दानाशक्तैर्हरेर्दीपो हृतस्तद्वोऽस्ति दुःखदं ।

इदानीं किं विलापेन सहध्वं यदुपागतं ॥१८॥

ललिता बोली- पहले की बात है, सौवीरराज के यहाँ मैलेय नामक पुरोहित थे। उन्होंने देवि का नदी के तट पर भगवान् श्रीविष्णु का मन्दिर बनवाया। कार्तिक मास में उन्होंने दीपदान किया। बिलाव के डर से भागती हुई एक चुहिया ने अकस्मात् अपने मुख के अग्रभाग से उस दीपक की बत्ती को बढ़ा दिया। बत्ती के बढ़ने से वह बुझता हुआ दीपक प्रज्वलित हो उठा। मृत्यु के पश्चात् वही चुहिया राजकुमारी हुई और राजा चारुधर्मा की सौ रानियों में पटरानी हुई। इस प्रकार मेरे द्वारा बिना सोचे- समझे जो विष्णुमन्दिर के दीपक की वर्तिका बढ़ा दी गयी, उसी पुण्य का मैं फल भोग रही हूँ। इसी से मुझे अपने पूर्वजन्म का स्मरण भी है। इसलिये मैं सदा दीपदान किया करती हूँ। एकादशी को दीपदान करनेवाला स्वर्गलोक में विमान पर आरूढ़ होकर प्रमुदित होता है। मन्दिर का दीपक हरण करनेवाला गूँगा अथवा मूर्ख हो जाता है। वह निश्चय ही 'अन्धतामिस्र' नामक नरक में गिरता है, जिसे पार करना दुष्कर है। वहाँ रुदन करते हुए मनुष्यों से यमदूत कहता है-"अरे ! अब यहाँ विलाप क्यों करते हो? यहाँ विलाप करने से क्या लाभ है ? पहले तुमलोगों ने प्रमादवश सहस्रों जन्मों के बाद प्राप्त होनेवाले मनुष्य- जन्म की उपेक्षा की थी। वहाँ तो अत्यन्त मोहयुक्त चित्त से तुमने भोगों के पीछे दौड़ लगायी। पहले तो विषयों का आस्वादन करके खूब हँसे थे, अब यहाँ क्यों रो रहे हो? तुमने पहले ही यह क्यों नहीं सोचा कि किये हुए कुकर्मों का फल भोगना पड़ता है। पहले जो परनारी का कुचमर्दन तुम्हें प्रीतिकर प्रतीत होता था, वही अब तुम्हारे दुःख का कारण हुआ है। मुहूर्तभर का विषयों का आस्वादन अनेक करोड़ वर्षों तक दुःख देनेवाला होता है। तुमने परस्त्री का अपहरण करके जो कुकर्म किया, वह मैंने बतलाया। अब 'हा! मातः' कहकर विलाप क्यों करते हो? भगवान् श्रीहरि के नाम का जिह्वा से उच्चारण करने में कौन- सा बड़ा भार है ? बत्ती और तेल अल्प मूल्य की वस्तुएँ हैं और अग्नि तो वैसे ही सदा सुलभ है। इस पर भी तुमने दीपदान न करके विष्णु- मन्दिर के दीपक का हरण किया, वही तुम्हारे लिये दुःखदायी हो रहा है। विलाप करने से क्या लाभ? अब तो जो यातना मिल रही हैं, उसे सहन करो॥ ६-१८ ॥

अग्निरुवाच

ललितोक्तञ्च ताः श्रुत्वा दीपदानाद्दिवं ययुः ।

तस्माद्दीपप्रदानेन व्रतानामधिकं फलं ॥१९॥

अग्निदेव कहते हैं- ललिता की सौतें उसके द्वारा कहे हुए इस उपाख्यान को सुनकर दीपदान के प्रभाव से स्वर्ग को प्राप्त हो गयीं। इसलिये दीपदान सभी व्रतों से विशेष फलदायक है ॥ १९ ॥

इत्याग्नेये महापुराणे दीपदानव्रतं नाम द्विशततमोऽध्यायः ॥

इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में 'दीपदान की महिमा का वर्णन' नामक दो सौवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२००॥

आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 201 

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