अग्निपुराण अध्याय २२२
अग्निपुराण अध्याय २२२ में राजा के
दुर्ग,
कर्तव्य तथा साध्वी स्त्री के धर्म का वर्णन है।
अग्निपुराणम् द्वाविंशत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः
Agni puran chapter 222
अग्निपुराण दो सौ बाईसवाँ अध्याय
अग्निपुराणम्/अध्यायः २२२
अग्निपुराणम् अध्यायः २२२ – दुर्गसम्पत्तिः
अथ द्वाविंशत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः
पुष्कर उवाच
दुर्गसम्पत्तिमाख्यास्ये दुर्गदेशे
वसेन्नृपः ।
वैश्यशूद्रजनप्रायोऽह्यनाहार्य्यस्तथापरैः
।। १ ।।
किञ्चिद्ब्राह्मणसंयुक्तो
बहुकर्म्मकरस्तथा ।
अदेवमातृको भक्तजलो देशः प्रशस्यने
।। २ ।।
परैरपीडीतः पुष्पफलधान्यसमन्वितः ।
अगम्यः परचक्राणां
व्यालतस्करवर्जितः ।। ३ ।।
षण्णामेकतमं दुर्गं तच्च कृत्वा
वसेद् बली ।
धनुर्दुंर्गं महीदुर्गं नरदुर्गं
तथैव च ।। ४ ।।
वार्क्षञ्चैवाम्बुदुर्गञ्च
गिरिदुर्गञ्च भार्गव ।
सर्वोत्तमं शैलदुर्गमभेद्यं
चान्यभेदनं ।। ५ ।।
पूरन्तत्र च हट्टाद्यदेवतायतनादिकं
।
अनुयन्त्रायुधोपेतं सोदकं
दुर्गमुत्तमं ।। ६ ।।
पुष्कर कहते हैं- अब मैं दुर्ग
बनाने के विषय में कहूँगा । राजा को दुर्गदेश ( दुर्गम प्रदेश अथवा सुदृढ़ एवं
विशाल किले) में निवास करना चाहिये। साथ रहनेवाले मनुष्यों में वैश्यों और शूद्रों
की संख्या अधिक होनी चाहिये। दुर्ग ऐसे स्थान में रहे,
जहाँ शत्रुओं का जोर न चल सके। दुर्ग में थोड़े-से ब्राह्मणों का भी
रहना आवश्यक है। राजा के रहने के लिये वही देश श्रेष्ठ माना गया है, जहाँ बहुत से काम करनेवाले लोग (किसान-मजदूर) रहते हों, जहाँ पानी के लिये वर्षा की राह नहीं देखनी पड़ती हो, नदी-तालाब आदि से ही पर्याप्त जल प्राप्त होता रहता हो। जहाँ शत्रु पीड़ा
न दे सकें, जो फल-फूल और धन-धान्य से सम्पन्न हो, जहाँ शत्रु सेना की गति न हो सके और सर्प तथा लुटेरों का भी भय न हो।
बलवान् राजा को निम्नाङ्कित छः प्रकार के दुर्गो में से किसी एक का आश्रय लेकर
निवास करना चाहिये। भृगुनन्दन! धन्वदुर्ग, महीदुर्ग, नरदुर्ग, वृक्षदुर्ग,
जलदुर्ग और पर्वतदुर्ग -ये ही छः*
प्रकार के दुर्ग हैं। इनमें पर्वतदुर्ग सबसे उत्तम है। वह शत्रुओं के लिये अभेद्य
तथा रिपुवर्ग का भेदन करनेवाला है। दुर्ग ही राजा का पुर या नगर है। वहाँ
हाट-बाजार तथा देवमन्दिर आदि का होना आवश्यक है। जिसके चारों ओर यन्त्र लगे हों,
जो अस्त्र- शस्त्रों से भरा हो, जहाँ जल का
सुपास हो तथा जिसके सब ओर पानी से भरी खाइयाँ हों, वह दुर्ग
उत्तम माना गया है ॥ १-६ ॥
* बालू से भरी हुई मरुभूमि को 'धन्वदुर्ग' कहते हैं। ग्रीष्मकाल में वह शत्रुओं के
लिये दुर्गम होता है। जमीन के अन्दर जो निवास करनेयोग्य स्थान बनवाया जाता है,
उसे 'महीदुर्ग' कहते
हैं। अपने निवास स्थान के चारों ओर अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित भारी सेना का होना
'नरदुर्ग' कहा गया है। दूर तक घने
वृक्षों और पानी से घिरे हुए प्रदेशों अथवा दुर्गम पर्वतमालाओं से पिरे हुए स्थान को
क्रमशः 'वृक्षदुर्ग", 'जलदुर्ग' एवं 'पर्वतदुर्ग'
कहा जाता है।
राजरक्षां प्रवक्ष्यामि रक्ष्यो
भूपो विषादितः ।
पञ्चाङ्गस्तु शिरीषः
स्यान्मूत्रपिष्टो विपार्द्दनः ।। ७ ।।
शतावरी छिन्नरुहा विषघ्नी
तण्डुलीयकं ।
कोषातकी च कल्हारी ब्राह्मी
चित्रपटोलिका ।। ८ ।।
मण्डूकपर्णी वाराही
धात्र्यानन्दकमेव च ।
उन्मादिनी सोमराजी विषघ्नं रत्नमेव
च ।। ९ ।।
वास्तुलक्षणसंयुक्ते वसन् दुर्गे
सुरान्यजेत् ।
प्रजाश्च पालयेद्दुष्टाञ्जयेद्दानानि
दापयेत् ।। १० ।।
अब मैं राजा की रक्षा के विषय में
कुछ निवेदन करूँगा - राजा पृथ्वी का पालन करनेवाला है,
अतः विष आदि से उसकी रक्षा करनी चाहिये। शिरीष वृक्ष की जड़,
छाल, पत्ता, फूल और फल -
इन पाँचों अङ्गों को गोमूत्र में पीसकर सेवन करने से विष का निवारण होता है।
शतावरी, गुडुचि और चौराई विष का नाश करनेवाली है। कोषातकी
(कड़वी तरोई, कहारी (करियारी), ब्राह्मी,
चित्रपटोलिका (कड़वी परोरी), मण्डूकपर्णी (
ब्राह्मी का एक भेद), वाराहीकन्द, आँवला,
आनन्दक, भाँग और सोमराजी (बकुची) – ये दवाएँ
विष दूर करनेवाली हैं। विषनाशक माणिक्य और मोती आदि रत्न भी विष का निवारण
करनेवाले हैं* ॥ ७-१० ॥
* यहाँ लिखी हुई दवाओं का प्रयोग किसी अच्छे वैद्य की सलाह लिये बिना
नहीं करना चाहिये क्योंकि यहाँ संक्षेप में औषध का नाममात्र बताया गया है। सेवन
विधि आयुर्वेद के अन्य ग्रन्थों में देखनी चाहिये। उपर्युक्त दवाओं में शतावरी की
जड़, गुरुचि को लत्तो और चौराई की जड़ का विषनिवारण के लिये
उपयोग किया जाता है। कोषातकी या कड़वी तरोई का फल, बीज इस
कार्य के लिये उपयोगी है। एक वैद्य का कहना है कि कड़वी तराई का दो बीज पावभर दूध में
अच्छी तरह निचोड़े और उसे छानकर पी ले तो वमन और विरेचन-दोनों होते हैं और तबतक
होते रहते हैं, जबतक कि पेट के अंदर का दोष पूर्णरूप से निकल
नहीं जाता। करियारी भी एक प्रकार का विष है और 'विषस्य
विषमौषधम्' के अनुसार उपयोग में लाया जाता है। ब्राह्मी को गुणकारिता
तो प्रसिद्ध ही है। कड़वी परोरौ को भी 'त्रिदोषगरनाशनम्' बताया गया है। इस कार्य में इसका मूल ही ग्राह्य है। वाराहीकन्द
संजीवनकारी औषधों में गिना गया है। यह अष्टवर्ग में प्रतिनिधि औषधि के रूप में
गृहीत है। श्री और वृद्धि नामक दवा के स्थान पर इसका उपयोग किया जाता है। विष
निवारण के कार्य में इसका मूल ग्राह्य है। इसी प्रकार आँवले का फल, भाঁग की पत्ती और बकुची के फल विष दूर करने के लिये उपयोगी होते हैं।
विषनाशक रसों में मोती और माणिक्य आदि का ग्रहण है। आयुर्वेदोक्त रीति से तैयार
किया हुआ इनका भस्म विधिपूर्वक सेवन करने से लाभकारी होता है।
देवद्रव्यादिहरणात् कल्पन्तु नरके
वसेत् ।
देवालयानि कुर्वीत देवपूजारतो नृपः
।। ११ ।।
सुरालयाः पालनीयाः स्थापनीयाश्च
देवताः ।
मृण्मयाद्दारुजं पुण्यं
दारुजादिष्टकामयं ।। १२ ।।
ऐष्टकाच्छैलजं पुण्यं शैलजात्
स्वर्णरत्नजं ।
क्रीडन् सुरगृहं कुर्वन्
भुक्तिमुक्तिमवाप्नुयात् ।। १३ ।।
चित्र्कृद्
गीतवाद्यादिप्रेक्षणीयादिदानकृत् ।
तैलाज्यमधुदुग्धाद्यैः स्नाप्य देवं
दिवं व्रजेत् ।। १४ ।।
पूजयेत् पालयेद्विप्रान्
द्विजस्वन्न हरेन्नृपः ।
सुवर्णमेकं गामेकां
भूमेरप्येकमङ्गुलं ।। १५ ।।
हरन्नरकमाप्नोति यावदाहूतसम्प्लवं ।
दुराचारन्न द्विषेच्च सर्वपापेष्वपि
स्थितं ।। १६ ।।
नैवास्ति ब्राह्मणबधात् पापं
गुरुतरं क्वचित् ।
अदैवं दैवतं कुर्य्युः कुर्य्युर्द्दैवमदैवतं
।। १७ ।।
ब्राह्मणा हि
महाभागास्तान्नमस्येत्सदैव तु ।
राजा को वास्तु के लक्षणों से युक्त
दुर्ग में रहकर देवताओं का पूजन, प्रजा का पालन,
दुष्टों का दमन तथा दान करना चाहिये। देवता के धन आदि का अपहरण करने
से राजा को एक कल्पतक नरक में रहना पड़ता है। उसे देवपूजा में तत्पर रहकर
देवमन्दिरों का निर्माण कराना चाहिये। देवालयों की रक्षा और देवताओं की स्थापना भी
राजा का कर्तव्य है। देवविग्रह मिट्टी का भी बनाया जाता है। मिट्टी से काठ का,
काठ से ईंट का, ईंट से पत्थर का और पत्थर से
सोने तथा रत्न का बना हुआ विग्रह पवित्र माना गया है। प्रसन्नतापूर्वक देवमन्दिर
बनवानेवाले पुरुष को भोग और मोक्ष की प्राप्ति होती है। देवमन्दिर में चित्र
बनवावे, गाने-बजाने आदि का प्रबन्ध करे, दर्शनीय वस्तुओं का दान दे तथा तेल, घी, मधु और दूध आदि से देवता को नहलावे तो मनुष्य स्वर्गलोक में जाता है।
ब्राह्मणों का पालन और सम्मान करे; उनका धन न छीने। यदि राजा
ब्राह्मण का एक सोना, एक गौ अथवा एक अंगुल जमीन भी छीन ले,
तो उसे महाप्रलय होनेतक नरक में डूबे रहना पड़ता है। ब्राह्मण सब
प्रकार के पापों में प्रवृत्त तथा दुराचारी हो तो भी उससे द्वेष नहीं करना चाहिये।
ब्राह्मण की हत्या से बढ़कर भारी पाप दूसरा कोई नहीं है। महाभाग ब्राह्मण चाहें तो
जो देवता नहीं हैं, उन्हें भी देवता बना दें और देवता को भी
देवपद से नीचे उतार दें; अतः सदा ही उनको नमस्कार करना
चाहिये ॥ ११ – १७अ ॥
ब्राह्णणी रुदती हन्ति कुलं राज्यं
प्र्जास्तथा ।। १८ ।।
साध्वीस्त्रीणां पालनञ्च राजा
कुर्य्याच्च धार्मिकः ।
स्त्रिया प्रहृष्टया भाव्यं
गृहकार्यैकदक्षया ।। १९ ।।
सुसंम्कृतोपस्करया व्यये
चामुक्तहस्तया ।
यस्मै दद्यात्पिता त्वेनां
शुश्रषेत्तं पति सदा ।। २० ।।
मृते भर्त्तरि स्वर्य्यायात् ब्रह्मचर्ये
स्थिताङ्गना ।
परवेश्मरुचिर्न्न स्यान्न स्यात्
कलहशालिनी ।। २१ ।।
मण्डनं वर्जयेन्नारी तथा
प्रोषितभर्तृका ।
देवताराधनपरा तिष्ठेद्भर्त्तृहिते
रता ।। २२ ।।
धारयेन्मङ्गलार्थाय
किञ्चिदाभरणन्तथा ।
भर्त्राग्नि या विशेन्नारी सापि
स्वर्गमवाप्नुयात् ।। २३ ।।
श्रियः सम्पूजनङ्कार्य्यं
गृहसम्मार्जनादिकं ।
द्वादश्यांकात्तिके विष्णुं गां
सवत्सां ददेत्तथा ।। २४ ।।
सावित्र्या रक्षितो भर्त्ता
सत्याचारब्रतेन च ।
सप्तम्यां मार्गशीर्षे तु
सितेऽभ्यर्च्य दिवाकरं ।। २५ ।।
पुत्रानाप्नोति च स्त्रीः नात्र
कार्य्या विचारणा ॥ २६ ॥
यदि राजा के अत्याचार से ब्राह्मणी को
रुलाई आ जाय तो वह उसके कुल, राज्य तथा
प्रजा- सब का नाश कर डालती है। इसलिये धर्मपरायण राजा को उचित है कि वह साध्वी
स्त्रियों का पालन करे। स्त्री को घर के काम-काज में चतुर और प्रसन्न होना चाहिये।
वह घर के प्रत्येक सामान को साफ - सुथरा रखे खर्च करने में खुले हाथवाली न हो।
कन्या को उसका पिता जिसे दान कर दे, वही उसका पति है। अपने
पति की उसे सदा सेवा करनी चाहिये। स्वामी की मृत्यु हो जाने पर ब्रह्मचर्य का पालन
करनेवाली स्त्री स्वर्गलोक में जाती है। वह दूसरे के घर में रहना पसंद न करे और
लड़ाई-झगड़े से दूर रहे। जिसका पति परदेश में हो, वह स्त्री श्रृङ्गार
न करे, सदा अपने स्वामी के हितचिन्तन में लगी रहकर देवताओं की
आराधना करे। केवल मङ्गल के लिये सौभाग्यचिह्न के रूप में दो-एक आभूषण धारण किये
रहे। जो स्त्री स्वामी के मरने पर उसके साथ ही चिता की आग में प्रवेश कर जाती है,
उसे भी स्वर्गलोक की प्राप्ति होती है। लक्ष्मी की पूजा और घर की
सफाई आदि रखना गृहिणी का मुख्य कार्य है। कार्तिक की द्वादशी को विष्णु की पूजा
करके बछड़ेसहित गौ का दान करना चाहिये। सावित्री ने अपने सदाचार और व्रत के
प्रभाव से पति की मृत्यु से रक्षा की थी। मार्गशीर्ष शुक्ला सप्तमी को सूर्य की
पूजा करने से स्त्री को पुत्रों की प्राप्ति होती है; इसमें
तनिक भी अन्यथा विचार करने की आवश्यकता नहीं है ॥ १८- २६ ॥
इत्यादिमहापुराणे आग्नेये राजधर्मो
नाम द्वाविंशत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ।
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में 'दुर्ग- सम्पत्ति वर्णन तथा नारीधर्म का कथन' नामक दो
सौ बाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २२२ ॥
आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 223
0 Comments