अग्निपुराण अध्याय २२३

अग्निपुराण अध्याय २२३                        

अग्निपुराण अध्याय २२३ में राष्ट्र की रक्षा तथा प्रजा से कर लेने आदि के विषय में विचार का वर्णन है।

अग्निपुराण अध्याय २२३

अग्निपुराणम् त्रयोविंशत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः

Agni puran chapter 223                   

अग्निपुराण दो सौ तेईसवाँ अध्याय

अग्निपुराणम्/अध्यायः २२३                        

अग्निपुराणम् अध्यायः २२३ – राजधर्माः

अथ त्रयोविंशत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः

पुष्कर उवाच

ग्रामस्याधिपति कुर्य्याद्दशग्रामाधिपं नृपः ।

शतग्रामाधिपञ्चान्यं तथैव विषयेस्वरं ।। १ ।।

तेषां भोगविभागश्च भवेत् कर्म्मानुरूपतः ।

नित्यमेव तथा कार्य्यं तेतषाञ्चारैः परीक्षणं ।। २ ।।

ग्रामे दोषान् समुत्पन्नान् ग्रामेशः प्रशमं नयेत् ।

अशक्तो दशपालस्य स तु गत्वा निवेदयेत् ।। ३ ।।

श्रुत्वापि दशपालोऽपि तत्र युक्तिमुपाचरेत् ।

पुष्कर कहते हैं— (राज्य का प्रबन्ध इस प्रकार करना चाहिये) राजा को प्रत्येक गाँव का एक-एक अधिपति नियुक्त करना चाहिये। फिर दस-दस गाँवों का तथा सौ-सौ गाँवों का अध्यक्ष नियुक्त करे। सबके ऊपर एक ऐसे पुरुष को नियुक्त करे, जो समूचे राष्ट्र का शासन कर सके। उन सबके कार्यों के अनुसार उनके लिये पृथक्- पृथक् भोग (भरण-पोषण के लिये वेतन आदि ) - का विभाजन करना चाहिये तथा प्रतिदिन गुप्तचरों के द्वारा उनके कार्यों की देख-भाल एवं परीक्षण करते रहना चाहिये। यदि गाँव में कोई दोष उत्पन्न हो कोई मामला खड़ा हो तो ग्रामाधिपति को उसे शान्त करना चाहिये। यदि वह उस दोष को दूर करने में असमर्थ हो जाय तो दस गाँवों के अधिपति के पास जाकर उनसे सब बातें बतावे । पूरी रिपोर्ट सुनकर वह दस गाँव का स्वामी उस दोष को मिटाने का उपाय करे ॥ १- ३अ ॥

वित्ताद्याप्नोति राजा वै विष्यात्तु सुरक्षइतात् ।। ४ ।।

धनवान्धर्म्ममाप्नोति धनवान् काममश्नुते ।

उच्छिद्यन्ते विना ह्यर्थै क्रिया ग्रीष्मे सरिद्यथा ।। ५ ।।

विशेषो नास्ति लोकेषु पतितस्याधनस्य च ।

पतितान्न तु गृह्णन्ति दरिद्रो न प्रयच्छति ।। ६ ।।

धनहीनस्य भार्य्यापि नैका स्यादुपवर्त्तिती ।

राष्ट्रपीडाकरो राजा नरके वसते चिरं ।। ७ ।।

नित्यं राज्ञा तथा बाव्यं गर्भिणी सहधर्मिणी ।

यथा स्वं सुखमुत्सृज्य गर्भस्य सुखमावहेत् ।। ८ ।।

किं यज्ञैस्तपसा तस्य प्रजा यस्य न रक्षिताः ।

सुरक्षिताः प्रचजा यस्य स्वर्गस्तस्य गृहोपमः ।। ९ ।।

अरक्षिताः प्र्जा यस्य नरकं तस्य मन्दिरं ।

राजा षड्‌बागमादत्ते सुकृताद्‌दुष्कृतादपि ।। १० ।।

धर्म्मागमो रक्षणाच्च पापाप्नोत्यरक्षणात् ।

सुभगा विटभीतेव राजवल्लभतस्करैः ।। ११ ।।

भक्ष्यमाणाः प्रजा रक्ष्याः कायस्थैश्च विशेषतः ।

रक्षता तद्‌भयेभ्यस्तु राज्ञो भवति सा प्रजा ।। १२ ।।

अरक्षिता सा भवति तेषामेवेह भोजनं ।

दुष्टसम्मर्द्दनं कुर्य्याच्छास्त्रोक्तं करमाददेत् ।। १३ ।।

कोषे प्र्वेशयेदर्द्धं नित्यञ्चार्द्धं द्विजे ददेत् ।

निधिंद्विजात्तमः प्राप्य गृह्णीयात्सकलं तथा ।। १४ ।।

चतुर्थमष्टमं भागं तथा षोडशमं द्विजः ।

वर्णकमेण दद्याच्च निधिं पात्रे तु धर्म्मतः ।। १५ ।।

अनृतन्तु वदन् दण्ड्यः सुवित्तस्यांशमष्टमं ।

प्रणष्टस्वामिकमृक्‌थं राजा त्र्यव्दं निधापयेत् ।। १६ ।।

अर्वाक्‌ त्र्यब्दाद्धरेत्‌स्वामी परेण नृपतिर्हरेत् ।

ममेदमितिया ब्रूयात् सोऽर्थयुक्तो यथाविधि ।। १७ ।।

सम्पाद्य रूपसङ्ख्यादोन् स्वामी तद्‌ द्रव्यमर्हति ।

बालदायादिकमृक्थं तावद्राजानुपालपेत् ।। १८ ।।

यावत्स्यात्स समावृत्तो यावद्वातीतशैशवः ।

बालपुत्रासु चैवं स्याद्रक्षणं निष्कुलासु च ।। १९ ।।

जब राष्ट्र भलीभाँति सुरक्षित होता है, तभी राजा को उससे धन आदि की प्राप्ति होती है। धनवान् धर्म का उपार्जन करता है, धनवान् ही कामसुख का उपभोग करता है। जैसे गर्मी में नदी का पानी सूख जाता है, उसी प्रकार धन के बिना सब कार्य चौपट हो जाते हैं। संसार में पतित और निर्धन मनुष्यों में कोई विशेष अन्तर नहीं है। लोग पतित मनुष्य के हाथ से कोई वस्तु नहीं लेते और दरिद्र अपने अभाव के कारण स्वयं ही नहीं दे पाता। धनहीन की स्त्री भी उसकी आज्ञा के अधीन नहीं रहती; अतः राष्ट्र को पीड़ा पहुँचानेवाला- उसे कंगाल बनानेवाला राजा अधिक कालतक नरक में निवास करता है। जैसे गर्भवती पत्नी अपने सुख का खयाल छोड़कर गर्भ के बच्चे को सुख पहुँचाने की चेष्टा करती है, उसी प्रकार राजा को भी सदा प्रजा की रक्षा का ध्यान रखना चाहिये। जिसकी प्रजा सुरक्षित नहीं है, उस राजा के यज्ञ और तप से क्या लाभ? जिसने प्रजा की भलीभाँति रक्षा की है, उसके लिये स्वर्गलोक अपने घर के समान हो जाता है। जिसकी प्रजा अरक्षित अवस्था में कष्ट उठाती है, उस राजा का निवासस्थान हैनरक। राजा अपनी प्रजा के पुण्य और पाप में से भी छठा भाग ग्रहण करता है। रक्षा करने से उसको प्रजा के धर्म का अंश प्राप्त होता है और रक्षा न करने से वह लोगों के पाप का भागी होता है। जैसे परस्त्रीलम्पट दुराचारी पुरुषों से डरी हुई पतिव्रता स्त्री की रक्षा करना धर्म है, उसी प्रकार राजा के प्रिय व्यक्तियों, चोरों और विशेषतः राजकीय कर्मचारियों के द्वारा चूसी जाती हुई प्रजा की रक्षा करनी चाहिये । उनके भय से रक्षित होनेपर प्रजा राजा के काम आती है। यदि उसकी रक्षा नहीं की गयी तो वह पूर्वोक्त मनुष्यों का ही ग्रास बन जाती है। इसलिये राजा दुष्टों का दमन करे और शास्त्र में बताये अनुसार प्रजा से कर ले। राज्य की आधी आय सदा खजाने में रख दिया करे और आधा ब्राह्मण को दे दे। श्रेष्ठ ब्राह्मण उस निधि को पाकर सब-का- सब अपने हाथ में ले ले और उसमें से चौथा, आठवाँ तथा सोलहवाँ भाग निकालकर क्रमश: क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र को दे। धन को धर्म के अनुसार सुपात्र के हाथ में ही देना चाहिये। झूठ बोलनेवाले मनुष्य को दण्ड देना उचित है। राजा उसके धन का आठवाँ भाग दण्ड के रूप में ले ले। जिस धन का स्वामी लापता हो, उसे राजा तीन वर्षोंतक अपने अधिकार में रखे। तीन वर्ष के पहले यदि धन का स्वामी आ जाय तो वह उसे ले सकता है। उससे अधिक समय बीत जानेपर राजा स्वयं ही उस धन को ले ले। जो मनुष्य ( नियत समय के भीतर आकर ) 'यह मेरा धन है' ऐसा कहकर उसका अपने से सम्बन्ध बतलाता है, वह विधिपूर्वक (राजा के सामने जाकर ) उस धन का रूप और उसकी संख्या बतलावे। इस प्रकार अपने को स्वामी सिद्ध कर देनेपर वह उस धन को पाने का अधिकारी होता है जो धन छोटे बालक के हिस्से का हो, उसकी राजा तबतक रक्षा करता रहे, जबतक कि उसका समावर्तन संस्कार न हो जाय, अथवा जबतक उसकी बाल्यावस्था न निवृत्त हो जाय। इसी प्रकार जिनके कुल में कोई न हो और उनके बच्चे छोटे हों, ऐसी स्त्रियों की भी रक्षा आवश्यक है । ४- १९ ॥

पतिव्रतासु च स्त्रीषु विधबास्वतुरासु च ।

जीवन्तीनान्तु तासां ये संहरेयुः स्ववान्धवाः ।। २० ।।

ताञ्‌छिष्याच्चौरदण्डेन धार्म्मिकः कृथिवीपतिः ।

सामान्यतो हृतञ्चौरैस्तद्वै दद्यात् स्वयं नृपः ।। २१ ।।

चौररक्षाधिकारिब्यो राजापि हृतमाप्नुयात् ।

अहृते यो हृतं ब्रूयान्निः सार्यो दण्ड्य एव सः ।। २२ ।।

न तद्राज्ञा प्रदातव्यं गृहे यद्‌ गृहगैर्हृतं ।

स्राष्ट्रपण्यादादद्याद्राजा विंशतिमं द्विज ।। २३ ।।

शुल्कांशं परदेशाच्च क्षयव्ययप्रकाशकं ।

ज्ञात्वा सङ्कल्पयेच्छुल्कं लाभं वणिग्यथाप्नुयात् ।। २४ ।।

विंशांशं लाभमादद्याद्दण्डनीयस्ततोऽन्यया ।

स्त्रीणां प्रव्रजितानाञ्च तरशुल्कं विवर्जयेत् ।। २५ ।।

तरेषु दासदोषेण नष्टं दासास्तु दापयेत् ।

शूकधान्येषु षड्‌भागं शिम्बिधान्ये तथाष्टमं ।। २६ ।।

राजा वन्यार्थमादद्याद्देशकालानुरूपकं ।

पञ्चषङ्भागमादद्याद् राजा पशुहिरण्ययोः ।। २७ ।।

गन्धौषधिरसानाञ्च भाण्डानां सर्वस्यास्ममयस्य च ।

पत्रशाकतृणानाञ्च वंशवैणवचर्म्मणं ।। २८ ।।

वैदलानाञ्च भाण्डानां सर्वस्याश्ममयस्य च ।

षड्‌भागमेव चादद्यान्मधुमांसस्य सर्षिपः ।। २९ ।।

पतिव्रता स्त्रियाँ भी यदि विधवा तथा रोगिणी हों तो उनकी रक्षा भी इसी प्रकार करनी चाहिये। यदि उनके जीते जी कोई बन्धु बान्धव उनके धन का अपहरण करें तो धर्मात्मा राजा को उचित है कि उन बान्धवों को चोर का दण्ड दे। यदि साधारण चोरों ने प्रजा का धन चुराया हो तो राजा स्वयं उतना धन प्रजा को दे तथा जिन्हें चोरों से रक्षा करने का काम सौंपा गया हो, उनसे चुराया हुआ धन राजा वसूल करे। जो मनुष्य चोरी न होनेपर भी अपने धन को चुराया हुआ बताता हो, वह दण्डनीय है; उसे राज्य से बाहर निकाल देना चाहिये। यदि घर का धन घरवालों ने ही चुराया हो तो राजा अपने पास से उसको न दे। अपने राज्य के भीतर जितनी दूकानें हों, उनसे उनकी आय का बीसवाँ हिस्सा राजा को टैक्स के रूप में लेना चाहिये। परदेश से माल मँगाने में जो खर्च और नुकसान बैठता हो, उसका ब्यौरा बतानेवाला बीजक देखकर तथा मालपर दिये जानेवाले टैक्स का विचार करके प्रत्येक व्यापारी पर कर लगाना चाहिये, जिससे उसको लाभ होता रहे- वह घाटे में न पड़े। आय का बीसवाँ भाग ही राजा को लेना चाहिये। यदि कोई राजकर्मचारी इससे अधिक वसूल करता हो तो उसे दण्ड देना उचित है। स्त्रियों और साधु-संन्यासियों से नाव की उतराई (सेवा) नहीं लेनी चाहिये। यदि मल्लाहों की गलती से नाव पर कोई चीज नुकसान हो जाय तो वह मल्लाहों से ही दिलानी चाहिये। राजा शूकधान्य का*  छठा भाग और शिम्बिधान्य का* आठवाँ भाग करके रूप में ग्रहण करे। इसी प्रकार जंगली फल- मूल आदि में से देश – काल के अनुरूप उचित कर लेना चाहिये। पशुओं का पाँचवाँ और सुवर्ण का छठा भाग राजा के लिये ग्राह्य है। गन्ध, ओषधि, रस, फूल, मूल, फल, पत्र, शाक, तृण, बाँस, वेणु, चर्म, बाँस को चीरकर बनाये हुए टोकरे तथा पत्थर के बर्तनों पर और मधु, मांस एवं घी पर भी आमदनी का छठा भाग ही कर लेना उचित है ॥ २० - २९ ॥

* १. 'शूकधान्य' वह अन्न है, जिसके दाने वालों या सीकों से लगते हैं-जैसे गेहूं, जौ आदि।

* २. वह अन्न, जिसके पौधे में फली (छीमी) लगती हो जैसे चना, मटर आदि।

म्रियन्नपि न चादद्याद् ब्राह्मणेभ्यस्तथा करं ।

यस्य राज्ञस्तु विषये श्रोत्रियः सीदति क्षुधा ।। ३० ।।

तस्य सीदति तद्राष्ट्रं व्याधिदुर्भिक्षतस्तरैः ।

श्रुतं वृत्तन्तु विज्ञाय वृत्तिं तस्य प्रकल्पयेत् ।। ३१ ।।

क्षेच्च सर्वतस्त्वेनं पिता पुत्रमिवौरसं ।

संरक्ष्यमाणो राज्ञा यः कुरुते धर्ममन्वहं ।। ३२ ।।

तेनायुर्वर्द्धते राज्ञो द्रविणं राष्ट्रमेव च ।

कर्म्म कुर्युर्न्नरेन्द्रस्य मासेनैकञ्च शिल्पिनः ।। ३३ ।।

भुक्तमात्रेण ये चान्ये स्वशरीरोपजीविनः ॥ ३४ ॥

ब्राह्मणों से कोई प्रिय वस्तु अथवा कर नहीं लेना चाहिये। जिस राजा के राज्य में श्रोत्रिय ब्राह्मण भूख से कष्ट पाता है, उसका राज्य बीमारी, अकाल और लुटेरों से पीड़ित होता रहता है। अतः ब्राह्मण की विद्या और आचरण को जानकर उसके लिये अनुकूल जीविका का प्रबन्ध करे तथा जैसे पिता अपने औरस पुत्र का पालन करता है, उसी प्रकार राजा विद्वान् और सदाचारी ब्राह्मण की सर्वथा रक्षा करे जो राजा से सुरक्षित होकर प्रतिदिन धर्म का अनुष्ठान करता है, उस ब्राह्मण के धर्म से राजा की आयु बढ़ती है तथा उसके राष्ट्र एवं खजाने की भी उन्नति होती है। शिल्पकारों को चाहिये कि महीने में एक दिन बिना पारिश्रमिक लिये केवल भोजन स्वीकार करके राजा का काम करें। इसी प्रकार दूसरे लोगों को भी, जो राज्य में रहकर अपने शरीर के परिश्रम से जीविका चलाते हैं, महीने में एक दिन राजा का काम करना चाहिये ॥ ३० - ३४ ॥

इत्यादिमहापुराणे आग्नेये राजधर्मो नाम त्रयोविंशत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ।

इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में 'राजधर्म का कथन' नामक दो सौ तेईसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २२३ ॥

आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 224

About कर्मकाण्ड

This is a short description in the author block about the author. You edit it by entering text in the "Biographical Info" field in the user admin panel.

0 $type={blogger} :

Post a Comment