Slide show
Ad Code
JSON Variables
Total Pageviews
Blog Archive
-
▼
2024
(491)
-
▼
September
(23)
- अग्निपुराण अध्याय २३०
- अग्निपुराण अध्याय २२९
- अग्निपुराण अध्याय २२८
- अग्निपुराण अध्याय २२७
- अग्निपुराण अध्याय २२६
- चण्डी नवशती मन्त्रमाला
- देवीरहस्य नाम स्तोत्र
- सरस्वती सूक्त
- काली सूक्त
- लक्ष्मी सूक्त
- लघु षोढान्यास
- देवी जयमाला
- चण्डिका दल स्तोत्र
- चण्डिका हृदय स्तोत्र
- गुरु कीलक
- कृष्ण कीलक
- अग्निपुराण अध्याय २२५
- अग्निपुराण अध्याय २२४
- बृहत् पाराशर होरा शास्त्र अध्याय १७
- बृहत् पाराशर होरा शास्त्र अध्याय १६
- बृहत् पाराशर होरा शास्त्र अध्याय १५
- अग्निपुराण अध्याय २२३
- अग्निपुराण अध्याय २२२
-
▼
September
(23)
Search This Blog
Fashion
Menu Footer Widget
Text Widget
Bonjour & Welcome
About Me
Labels
- Astrology
- D P karmakand डी पी कर्मकाण्ड
- Hymn collection
- Worship Method
- अष्टक
- उपनिषद
- कथायें
- कवच
- कीलक
- गणेश
- गायत्री
- गीतगोविन्द
- गीता
- चालीसा
- ज्योतिष
- ज्योतिषशास्त्र
- तंत्र
- दशकम
- दसमहाविद्या
- देवी
- नामस्तोत्र
- नीतिशास्त्र
- पञ्चकम
- पञ्जर
- पूजन विधि
- पूजन सामाग्री
- मनुस्मृति
- मन्त्रमहोदधि
- मुहूर्त
- रघुवंश
- रहस्यम्
- रामायण
- रुद्रयामल तंत्र
- लक्ष्मी
- वनस्पतिशास्त्र
- वास्तुशास्त्र
- विष्णु
- वेद-पुराण
- व्याकरण
- व्रत
- शाबर मंत्र
- शिव
- श्राद्ध-प्रकरण
- श्रीकृष्ण
- श्रीराधा
- श्रीराम
- सप्तशती
- साधना
- सूक्त
- सूत्रम्
- स्तवन
- स्तोत्र संग्रह
- स्तोत्र संग्रह
- हृदयस्तोत्र
Tags
Contact Form
Contact Form
Followers
Ticker
Slider
Labels Cloud
Translate
Pages
Popular Posts
-
मूल शांति पूजन विधि कहा गया है कि यदि भोजन बिगड़ गया तो शरीर बिगड़ गया और यदि संस्कार बिगड़ गया तो जीवन बिगड़ गया । प्राचीन काल से परंपरा रही कि...
-
रघुवंशम् द्वितीय सर्ग Raghuvansham dvitiya sarg महाकवि कालिदास जी की महाकाव्य रघुवंशम् प्रथम सर्ग में आपने पढ़ा कि-महाराज दिलीप व उनकी प...
-
रूद्र सूक्त Rudra suktam ' रुद्र ' शब्द की निरुक्ति के अनुसार भगवान् रुद्र दुःखनाशक , पापनाशक एवं ज्ञानदाता हैं। रुद्र सूक्त में भ...
Popular Posts
अगहन बृहस्पति व्रत व कथा
मार्तण्ड भैरव स्तोत्रम्
अग्निपुराण अध्याय २२५
अग्निपुराण अध्याय २२५ में राज- धर्म - राजपुत्र - रक्षण आदि का वर्णन है।
अग्निपुराण अध्याय २२५
अग्निपुराणम्
पञ्चविंशत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः
Agni puran chapter 225
अग्निपुराण दो सौ पचीसवाँ अध्याय
अग्निपुराणम्/अध्यायः २२५
अग्निपुराणम् अध्यायः २२५ –
राजधर्माः
अथ पञ्चविंशत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः
पुष्कर उवाच
राजपुत्रस्य रक्षा च कर्त्तव्या
पृथिवीक्षिता ।
धर्मार्थ्कामशास्त्राणि धनुर्वेदञ्च
शिक्षयेत् ।। १ ।।
शिल्पानि
शिक्षयेच्चैवमाप्तैर्मिथ्याप्रियंवदैः ।
शरीररक्षाव्याजेन रक्षिणोऽस्य
नियोजयेत् ।। २ ।।
न चास्य सङ्गो दातव्यः
क्रुद्धलुब्धविमानितैः ।
अशक्यन्तु गुणाधानं कर्त्तु तं
बन्धयेत् सुखैः ।। ३ ।।
अधिकारेषु सर्वेषु विनीतं
विनियोजयेत् ।
मृगयां पानमक्षांश्च राज्यनाशं
स्त्यजेन्नृपः ।। ४ ।।
पुष्कर कहते हैं—
राजा को अपने पुत्र की रक्षा करनी चाहिये तथा उसे धर्मशास्त्र,
अर्थशास्त्र, कामशास्त्र और धनुर्वेद की
शिक्षा देनी चाहिये । साथ ही अनेक प्रकार के शिल्पों की शिक्षा देनी भी आवश्यक है।
शिक्षक विश्वसनीय और प्रिय वचन बोलनेवाले होने चाहिये। राजकुमार की शरीर रक्षा के
लिये कुछ रक्षकों को नियुक्त करना भी आवश्यक है। क्रोधी, लोभी
तथा अपमानित पुरुषों के संग से उसको दूर रखना चाहिये। गुणों का आधान करना सहज नहीं
होता, अतः इसके लिये राजकुमार को सुखों से बाँधना चाहिये। जब
पुत्र शिक्षित हो जाय तो उसे सभी अधिकारों में नियुक्त करे। मृगया, मद्यपान और जुआ – ये राज्य का नाश करनेवाले दोष हैं।
राजा इनका परित्याग करे ॥ १-४॥
दिवास्वप्नं वृथाट्याञ्च
वाक्पारुष्यं विवर्जयेत् ।
निन्दाञ्च
दण्डपारुष्यमर्थदूषणमुत्सृजेत् ।। ५ ।।
आकाराणां समुच्छेदो
दुर्गादीनामसत्क्रिया ।
अर्थानां दूषणं प्रोक्तं
विप्रकीर्णत्वमेव च ।। ६ ।।
अदेशकाले यद्दानमपात्रे दानमेव च ।
अर्थेषु दूषणं
प्रोक्तमसत्कर्मप्रवर्त्तनं ।। ७ ।।
कामं क्रोधं मदं मानं लोभं दर्पञ्च
वर्जयेत् ।
ततो भृत्यजयङ्कृत्वा पौरजानपदं
जयेत् ।। ८ ।।
जयेद्बाह्यानरीन् पश्चाद्वाह्याश्च
त्रिविधारयः ।
गुरवस्ते यथा पूर्वं
कुल्यानन्तरकृत्रिमाः ।। ९ ।।
पितृपैतामद्दं मित्रं सामन्तञ्च तथा
रिपोः ।
कृत्रिमञ्च महाभागा
मित्रन्त्रिविधमुच्यते ।। १० ।।
दिन का सोना,
व्यर्थ घूमना और कटुभाषण करना छोड़ दे। परायी निन्दा, कठोर दण्ड और अर्थदूषण का भी परित्याग करे। सुवर्ण आदि की खानों का विनाश
और दुर्ग आदि की मरम्मत न कराना - ये अर्थ के दूषण कहे गये हैं। धन को थोड़ा-थोड़ा
करके अनेकों स्थानों पर रखना, अयोग्य देश और अयोग्य काल में
अपात्र को दान देना तथा बुरे कामों में धन लगाना - यह सब भी अर्थ का दूषण (धन का
दुरुपयोग) है। काम, क्रोध, मद, मान, लोभ और दर्प का त्याग करे । तत्पश्चात् भृत्यों
को जीतकर नगर और देश के लोगों को वश में करे। इसके बाद बाह्यशत्रुओं को जीतने का प्रयत्न
करे। बाह्यशत्रु भी तीन प्रकार के होते हैं - एक तो वे हैं, जिनके
साथ पुस्तैनी दुश्मनी हो; दूसरे प्रकार के शत्रु हैं - अपने
राज्य की सीमा पर रहनेवाले सामन्त तथा तीसरे हैं- कृत्रिम - अपने बनाये हुए शत्रु
। इनमें पूर्व-पूर्व शत्रु गुरु ( भारी या अधिक भयानक) हैं। महाभाग ! मित्र भी तीन
प्रकार के बतलाये जाते हैं - बाप-दादों के समय के मित्र, शत्रु
के सामन्त तथा कृत्रिम ॥ ५ - १० ॥
स्वाम्यमात्यञ्जनपदा दुर्गं
दण्डस्तथैव च।
कोपो मित्रञ्च धर्मज्ञ सप्ताङ्गं
राज्यमुच्यते ।। ११ ।।
मूलं स्वामी स वै रक्ष्यस्तस्माद्राज्यं
बिशेषतः ।
राज्याङ्गद्रोहिणं हन्यात्काले
तीक्ष्णो मृदुर्भवेत् ।। १२ ।।
एवं लोकद्वयं राज्ञो भृत्यैर्हासं
विवर्जयेत् ।
भृत्याः परिभवन्तीह नृपं
हर्षणसत्कथं ।। १३ ।।
लोकसङ्ग्रहणार्थाय कृतकव्यसनो
भवेत् ।
स्मितपूर्वाभिभाषी स्यात् लोकानां
रञ्जनं चरेत् ।। १४ ।।
दीर्घसूत्रस्य नृपतेः
कर्महानिर्ध्रुवं भवेत् ।
रागे दर्पे च माने च द्रोहे पापे च
कर्मणि ।। १५ ।।
अप्रिये चैव बक्तव्ये दीर्घ्सूत्रः
प्रशस्यते।
गुप्तमन्त्रो भवेद्राजा नापदो
गुप्तमन्त्रतः ।। १६ ।।
धर्मज्ञ परशुरामजी ! राजा,
मन्त्री, जनपद, दुर्ग,
दण्ड (सेना), कोष और मित्र- ये राज्य के सात
अंग कहलाते हैं। राज्य की जड़ है- स्वामी (राजा), अतः उसकी
विशेषरूप से रक्षा होनी चाहिये। राज्याङ्ग के विद्रोही को मार डालना उचित है। राजा
को समयानुसार कठोर भी होना चाहिये और कोमल भी ऐसा करने से राजा के दोनों लोक सुधरते
हैं। राजा अपने भृत्यों के साथ हँसी- परिहास न करे; क्योंकि
सबके साथ हँस-हँसकर बातें करनेवाले राजा को उसके सेवक अपमानित कर बैठते हैं। लोगों
को मिलाये रखने के लिये राजा को बनावटी व्यसन भी रखना चाहिये। वह मुसकाकर बोले और
ऐसा बर्ताव करे, जिससे सब लोग प्रसन्न रहें। दीर्घसूत्री
(कार्यारम्भ में विलम्ब करनेवाले ) राजा के कार्य की अवश्य हानि होती है, परंतु राग, दर्प, अभिमान,
द्रोह, पापकर्म तथा अप्रिय भाषण में
दीर्घसूत्री (विलम्ब लगानेवाले) राजा की प्रशंसा होती है। राजा को अपनी मन्त्रणा
गुप्त रखनी चाहिये। उसके गुप्त रहने से राजा पर कोई आपत्ति नहीं आती ॥ ११-१६ ॥
ज्ञायते हि कृतं कर्म्म नारब्धं
तस्य राज्यकं।
आकारैरिङ्गितैर्गत्या चैष्टया
भाषितेन च ।। १७ ।।
नेत्रवक्त्रविकाराभ्यां
गृह्यतेऽन्तर्गतं पुनः ।
नैकस्तु मन्त्रयेनुमन्त्रं न राजा
बहुभिः सह ।। १८ ।।
बहुभिर्मन्त्रयेत् कामं राजा
मन्त्रान् पृथक् पृथक्।
मन्त्रिणामपिनो कुर्यान्मन्त्री
मन्त्रप्रकाशनं ।। १९ ।।
क्वापि कस्यापि३ विश्वासो बवतीहसदा
नृणां ।
निश्चयश्च तथा मन्त्रे कार्य्य एकेन
सूरिणा ।। २० ।।
नश्येदविनयाद्राजाराज्यञ्च
विनयाल्लभेत् ।
त्रैविद्येभ्यस्त्रयीं विद्यां
दण्डनीतिञ्च शाश्वतीं ।। २१ ।।
आन्वीक्षिकीञ्चार्थविद्यां
वार्त्तारम्भांश्च लोकतः ।
जितेन्द्रियो हिशक्रोति वशे
स्थापयितुं प्रजाः ।। २२ ।।
पूज्या देवा द्विजाः सर्वे
दद्याद्दानानि तेषु च ।
द्विजे दानञ्चक्षयोऽयं निधिः
कैश्चिन्नि नाश्यते ।। २३ ।।
सङ्ग्रामेष्वनिवर्त्तित्वं
प्रजानां परिपालनं ।
दानानि ब्राह्मणानाञ्च राज्ञो निः
श्रेयसम्परं ।। २४ ।।
कृपणानाथवृद्धानां विधवानाञ्च
योषितां ।
योगक्षेमञ्च वृत्तिञ्च तथैव
परिकल्पयेत् ।। २५ ।।
वर्णाश्रमव्यवस्थानां
कार्यन्तापसपूजनं ।
न विश्वसेच्च सर्वत्र तापसेषु च
विश्वसेत् ।। २६ ।।
विश्वासयेच्चापि परन्तत्त्वभूतेन
हेतुना ।
वककवच्चिन्तयेदर्थं सिंहवच्च
पराक्रमेत् ।। २७ ।।
वृकवच्चावलुम्पेत् शशवच्च
विनिष्पतेत् ।
दृढप्रहारी च भवेत् तथा शूकरवन्नृपः
।। २८ ।।
चित्राकारश्च शिखिवद् दृढभक्तिस्तथा
श्ववत् ।
भवेच्च मधुराभाषी तथा कोकिलवन्नृपः
।। २९ ।।
काकशङ्की भवेन्नित्यमज्ञातां वसतिं
वसेत्।
नापरीक्षितपूर्वञ्च भोजनं शयनं
स्पृशेत् ।। ३० ।।
नाविज्ञातां स्त्रियं
गच्छेन्नाज्ञातां नावमारुहेत् ।
राष्ट्रकर्षी भ्रस्यते
चराज्यार्थाच्चैव जीवितात् ।। ३१ ।।
भृतो वत्सो जातबलः कर्मयोग्यो यथा
भवेत् ।
तथा राष्ट्रं महाभाग भृतं कर्मसहं
भवेत् ।। ३२ ।।
सर्वं कर्मेदमायत्तं विधाने
दैवपौरुषे ।
तयोर्दैवचचिन्त्यं हि पौरुषे
विद्यते क्रिया ।।
जनानुरागप्रभवा राज्ञो
राज्यमहीश्रियः ।। ३३ ।।
राजा का राज्य सम्बन्धी कोई कार्य
पूरा हो जाने पर ही दूसरों को मालूम होना चाहिये। उसका प्रारम्भ कोई भी जानने न
पावे। मनुष्य के आकार, इशारे, चाल-ढाल, चेष्टा, बातचीत तथा
नेत्र और मुख के विकारों से उसके भीतर की बात पकड़ में आ जाती है। राजा न तो अकेले
ही किसी गुप्त विषय पर विचार करे और न अधिक मनुष्यों को ही साथ रखे। बहुतों से
सलाह अवश्य ले, किंतु अलग-अलग। (सबको एक साथ बुलाकर नहीं।)
मन्त्री को चाहिये कि राजा के गुप्त विचार को दूसरे मन्त्रियों पर भी न प्रकट करे।
मनुष्यों का सदा कहीं, किसी एक पर ही विश्वास जमता है,
इसलिये एक ही विद्वान् मन्त्री के साथ बैठकर राजा को गुप्त मन्त्र
का निश्चय करना चाहिये । विनय का त्याग करने से राजा का नाश हो जाता है और विनय की
रक्षा से उसे राज्य की प्राप्ति होती है । तीनों वेदों के विद्वानों से
त्रयीविद्या, सनातन दण्डनीति, आन्वीक्षिकी
(अध्यात्मविद्या) तथा अर्थशास्त्र का ज्ञान प्राप्त करे। साथ ही वार्ता (कृषि,
गोरक्षा एवं वाणिज्य आदि) - के प्रारम्भ करने का ज्ञान लोक से
प्राप्त करे। अपनी इन्द्रियों को वश में रखनेवाला राजा ही प्रजा को अधीन रखने में
समर्थ होता है। देवताओं और समस्त ब्राह्मणों की पूजा करनी चाहिये तथा उन्हें दान
भी देना चाहिये। ब्राह्मण को दिया हुआ दान अक्षय निधि है; उसे
कोई भी नष्ट नहीं कर सकता । संग्राम में पीठ न दिखाना, प्रजा
का पालन करना और ब्राह्मणों को दान देना – ये राजा के लिये
परम कल्याण की बातें हैं। दीनों, अनाथों, वृद्धों तथा विधवा स्त्रियों के योगक्षेम का निर्वाह तथा उनके लिये
आजीविका का प्रबन्ध करे। वर्ण और आश्रम धर्म की रक्षा तथा तपस्वियों का सत्कार
राजा का कर्त्तव्य है। राजा कहीं भी विश्वास न करे, किंतु
तपस्वियों पर अवश्य विश्वास करे। उसे यथार्थ युक्तियों के द्वारा दूसरों पर अपना
विश्वास जमा लेना चाहिये। राजा बगुले की भाँति अपने स्वार्थ का विचार करे और (अवसर
पाने पर) सिंह के समान पराक्रम दिखावे। भेड़िये की तरह झपटकर शत्रु को विदीर्ण कर
डाले, खरगोश की भाँति छलाँगें भरते हुए अदृश्य हो जाय और सूअर
की भाँति दृढ़तापूर्वक हार करे। मोर की भाँति विचित्र आकार धारण करे, घोड़े के समान दृढ़ भक्ति रखनेवाला हो और कोयल की तरह मीठे वचन बोले कौए
की तरह सबसे चौकन्ना रहे: रात में ऐसे स्थान पर रहे, जो
दूसरों को मालूम न हो; जाँच या परख किये बिना भोजन और शय्या
को ग्रहण न करे। अपरिचित स्त्री के साथ समागम न करे; बेजान
पहचान की नाव पर न चढ़े। अपने राष्ट्र की प्रजा को चूसनेवाला राजा राज्य और
जीवन-दोनों से हाथ धो बैठता है। महाभाग ! जैसे पाला हुआ बछड़ा बलवान् होने पर काम
करने के योग्य होता है, उसी प्रकार सुरक्षित राष्ट्र राजा के
काम आता है। यह सारा कर्म दैव और पुरुषार्थ के अधीन है। इनमें दैव तो अचिन्त्य है,
किंतु पुरुषार्थ में कार्य करने को शक्ति है। राजा के राज्य,
पृथ्वी तथा लक्ष्मी की उत्पत्ति का एकमात्र कारण है- प्रजा का
अनुराग (अतः राजा को चाहिये कि वह सदा प्रजा को संतुष्ट रखे।) ॥१७–३३॥
इत्याकदिमहापुराणे आग्नेये
राकजधर्मो नाम पञ्चविंशत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ।
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में 'राजधर्म का कथन' नामक दो सौ पचीसवाँ अध्याय पूरा हुआ
॥२२५॥
आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 226
Related posts
vehicles
business
health
Featured Posts
Labels
- Astrology (7)
- D P karmakand डी पी कर्मकाण्ड (10)
- Hymn collection (38)
- Worship Method (32)
- अष्टक (54)
- उपनिषद (30)
- कथायें (127)
- कवच (61)
- कीलक (1)
- गणेश (25)
- गायत्री (1)
- गीतगोविन्द (27)
- गीता (34)
- चालीसा (7)
- ज्योतिष (32)
- ज्योतिषशास्त्र (86)
- तंत्र (182)
- दशकम (3)
- दसमहाविद्या (51)
- देवी (190)
- नामस्तोत्र (55)
- नीतिशास्त्र (21)
- पञ्चकम (10)
- पञ्जर (7)
- पूजन विधि (80)
- पूजन सामाग्री (12)
- मनुस्मृति (17)
- मन्त्रमहोदधि (26)
- मुहूर्त (6)
- रघुवंश (11)
- रहस्यम् (120)
- रामायण (48)
- रुद्रयामल तंत्र (117)
- लक्ष्मी (10)
- वनस्पतिशास्त्र (19)
- वास्तुशास्त्र (24)
- विष्णु (41)
- वेद-पुराण (691)
- व्याकरण (6)
- व्रत (23)
- शाबर मंत्र (1)
- शिव (54)
- श्राद्ध-प्रकरण (14)
- श्रीकृष्ण (22)
- श्रीराधा (2)
- श्रीराम (71)
- सप्तशती (22)
- साधना (10)
- सूक्त (30)
- सूत्रम् (4)
- स्तवन (109)
- स्तोत्र संग्रह (711)
- स्तोत्र संग्रह (6)
- हृदयस्तोत्र (10)
No comments: