बृहत् पाराशर होरा शास्त्र अध्याय १७

बृहत् पाराशर होरा शास्त्र अध्याय १७  

बृहत् पाराशर होरा शास्त्र अध्याय १७ में द्वादशभाव विचार अंतर्गत १-६ से आगे सप्तमभाव (विवाह समय, स्त्री मृत्युसमय), अष्टमभाव, नवमभाव (पितृवैरयोग, भिक्षाशनयोग, पितृमरणयोग, भाग्यहीनयोग), दशमभाव (कर्महीनयोग, शुभकर्मयोग, अशुभयोग), एकादशभाव (लाभभाव), द्वादशभाव फल का वर्णन हुआ है।

बृहत् पाराशर होरा शास्त्र अध्याय १७

बृहत्पाराशर होराशास्त्र अध्याय १७     

Vrihat Parashar hora shastra chapter 16   

बृहत्पाराशरहोराशास्त्रम् सप्तदशोऽध्यायः

अथ बृहत्पाराशरहोराशास्त्रम् सोलहवाँ अध्याय भाषा-टीकासहितं

बृहत् पाराशर होरा शास्त्र अध्याय १७- द्वादशभाव विचार:

बृहत् पाराशर होरा शास्त्र अध्याय १७- अथ सप्तमभावफलम्

कलत्रपो विनास्वर्क्षषडादित्रयसंस्थितः ।

रोगिणीं कुरुते नारीं तथा तुङ्गादिकं विना । । १३१ । ।

सप्तमेश यदि अपनी राशि से भिन्न राशि में ६ ।८ ।१२ भाव में नीचादि राशि में हो तो स्त्री रोगिणी होती है ।।१३१।।

सप्तमे तु स्थिते शुक्रेऽतीवकामी भवेन्नरः ।

यत्र कुत्र स्थिते पापयुते स्त्रीमरणं भवेत् । । १३२ ।।

सातवें स्थान में शुक्र हो तो पुरुष अत्यंत कामी होता है । कहीं किसी भाव में शुक्र पापग्रह से युत हो तो स्त्री की मृत्यु होती है ।। १३२ ।।

दाराधिपः पुण्यग्रहेण युक्तो दृष्टोऽपि वा पूर्णबलः प्रसन्नः ।

सौभाग्ययुक्तो गुणवान्प्रभुश्च दाता विभोग्यं बहुधान्ययुक्तः ।। १३३॥

यदि सप्तमेश शुभग्रह से युत दृष्ट हो, पूर्ण बलवान् हो, असांगत आदि न हो तो पुरुष भाग्यवान्, गुणी, दाता, धन-धान्य से युक्त होता है ।।१३३।।

कलत्रेशेऽस्तनीचशत्रुराशिगतेष्वपि ।

बहुभार्यान्तरं विद्याद्रोगिणीं च विशेषतः । । १३४ ।।

सप्तमेश अस्तंगत हो, नीचराशि में हो, शत्रुराशि में हो तो अनेक स्त्री रोगिणी होती है । । १३४ ।।

परमोच्चगते सप्ताधिनाथे मन्दराशौ शुभखेचरेण दृष्टे ।

अथवा भृगुसदने तुंगे बहुभार्या प्रवदन्ति बुद्धिमन्तः । । १३५ ।।

सप्तमेश परमोच्च में होकर शनि की राशि में शुभग्रह से देखा जाता हो अथवा शुक्र की राशि में उच्च का हो तो अनेक स्त्रियाँ होती हैं । । १३५ ।।

वन्ध्यासंगो भवेद्भानौ चन्द्रे राशिसमस्त्रियः ।

कुजे रजस्वलासंगो वन्ध्यासंगश्च कीर्त्तितः । । १३६ ।।

सातवें सूर्य हो तो विधवा से संबंध होता है। चंद्रमा हो तो सप्तमस्थ राशि की जाति से, भौम हो तो रजस्वला और वंध्या से ।। १३६ ।।

बुधे वेश्या चं हीना च वणिक् स्त्री वा प्रकीर्त्तितः ।

गुरोर्ब्राह्मणभार्या स्याद्गर्भिणीसङ्ग एव च ।। १३७ ।।

बुध हो तो वेश्या, हीना या बनिया की स्त्री से, गुरु हो तो ब्राह्मणी से वा गर्भिणी से । । १३७ ।।

हीना च पुष्पिणी वाच्या मन्दराहुफणीश्वरैः ।

कुजेऽथ सुस्तनी मन्दे व्याधिदौर्बल्यसंयुता । ।१३८ ।

कटिनोर्ध्वकुचायें च शुक्रे स्थूलोत्तमस्तनी ।

शनि, राहु, केतु हों तो नीचजाति ओर रजोधर्मवती से सम्पर्क होता है। सप्तम में भौम हो तो अच्छे स्तनोंवाली, शनि हो तो रोगिणी, दुर्बल, भौम-गुरु हों तो कठिन ऊँचे कुचों वाली, शुक्र हो तो मोटे उन्नत कुचों वाली स्त्री होती है ।। १३८ ।।

पापे द्वादशकामस्थे क्षीणचन्द्रस्तु पञ्चमे ।

जातश्च भार्यावश्यः स्यादिति जातिविरोधकृत् ।। १३९।।

१२वें, ७वें भाव में पापग्रह हों और क्षीण चंद्रमा पाँचवें भाव में हो तो पुरुष स्त्री के वश में होता है और जाति से विरोध करने वाला होता है ।। १३९ ।।

जामित्रे मन्दभौमे च तदीशे मन्दभूमिगे । १४०।।

वेश्या वा जारिणी वापि तस्य भार्या न संशयः ।

भौमांशकगते शुक्रे भौमक्षेत्रगतेऽथवा ।।१४१ ।।

भौमयुक्ते च दृष्टे वा भगचुम्बनतत्परः ।

सातवें भाव में शनि-भौम हों अथवा सप्तमेश शनि के गृह में हो तो उसकी स्त्री वेश्या या जारिणी होती है । यदि शुक्र-भौम के नवांश में हो वा भौम की राशि में हो अथवा भौम से युत वा दृष्ट हो तो पुरुष भगचुम्बन करने वाला होता है ।। १४१।।

मन्दांशकगते शुक्रे मन्दक्षेत्रगतेऽपि वा ।। १४२ ।।

मन्दयुक्ते च दृष्टे च शिश्नचुम्बनतत्परः ।

शुक्र शनि के नवांश में अथवा शनि की राशि में हो, शनि से युत वा दृष्ट हो तो शिश्न (लिंग) का चुम्बन करने वाला होता है । । १४२ ।।

दारेशे स्वोच्चराशिस्थे दारे शुभसमन्विते ।

दारे लग्नेशसंयुक्ते सत्कलत्रसमन्वितः ।।१४३।।

सप्तमेश अपनी उच्चराशि में हो और सप्तम में शुभग्रह हों तथा लग्नेश भी सातवें हो तो अच्छी स्त्री से युक्त होता है।।१४३।।

कलत्रनाथे रिपुनीचसंस्थे मूढोऽथवा पापनिरीक्षिते वा ।

कलत्रभे पापयुते च दृष्टे कलत्रहानिं प्रवदन्ति सन्तः।।१४४।।

सप्तमेश शत्रु राशि में वा अपनी नीचराशि में हो अथवा अस्तंगत हो, पापग्रह से युत वा दृष्ट हो और सप्तम भाव पापयुक्त वा पापदृष्ट हो तो स्त्री की हानि होती है । । १४४ ।।

षष्ठाष्टमव्ययस्थे चेन्मदेशो दुर्बलो यदि ।

नीचराशिगतो वापि दारनाशं विनिर्दिशेत् । । १४५ ।।

सप्तमेश दुर्बल होकर ६/८/१ वें भाव मे हो वा नीचराशि में हो तो स्त्री का नाश होता है । । १४५ ।।

कलत्रस्थानगे चन्द्रे तदीशे व्ययराशिगे ।

कारको बलहीनच दारसौख्यं न विद्यते । । १४६ ।।

सप्तम भाव में चंद्रमा हो और सप्तमेश १२वें भाव में हो और कारक निर्बल हो तो स्त्री का सुख नहीं होता है । । १४६।।

भार्याधिपे नीचगृहे च पापे पापर्क्षगे वा बहुपापयुक्ते ।

क्लीबेग्रहे सप्तमराशिसंस्थे तस्योदयांशे द्विकलत्रसिद्धिः । ।१४७

सप्तमेश नीचराशि में हो और पापग्रह हो, पापग्रह की राशि में हो वा पापग्रह से युत हो और नपुंसक ग्रह सातवें भाव में हो वा नपुंसक की राशि सातवें भाव में हो तो २ स्त्रियाँ होती हैं । । १४७ ।।

कलत्रस्थानंगे भौमे शुक्रे जामित्रगे शनौ ।

लग्नेशे रन्ध्रराशिस्थे कलत्रत्रयवान् भवेत् । ।१४८ । ।

सातवें भाव में भौम, शुक्र, शनि हों और लग्नेश आठवें भाव में हो तो ३ स्त्रियाँ होती हैं । । १४८ । ।

द्विस्वभावगते शुक्रे स्वोच्चे तद्राशिनायके ।

दारेशे बलसंयुक्ते बहुदारसमन्वितः । । १४९ ।।

शुक्र द्विस्वभाव राशि में हो, द्विस्वभाव राशि का स्वामी अपने उच्च में हो और सप्तमेश बली हो तो अनेक स्त्रियाँ होती हैं । । १४९ ।।

बृहत् पाराशर होरा शास्त्र अध्याय १७- विवाहसमयमाह

दारेशे शुभराशिस्थे स्वोच्चस्वर्क्षगतो भृगुः ।

पञ्चमे नवमेऽब्दे च विवाहः प्रायशो भवेत् । । १५० ।।

सप्तमेश शुभग्रह की राशि में हो, शुक्र अपने उच्च या अपनी राशि में हो तो पाँचवें या नवें वर्ष में विवाह होता है।।१५०।।

दारस्थानगते सूर्ये तदीशे भृगुसंयुते ।

सप्तमैकादशे वर्षे विवाहः प्रायशो भवेत् । । १५१ । ।

सप्तम भाव में सूर्य हो, सप्तमेश शुक्र से युत हो तो ७वें या १२वें वर्ष में विवाह होता है । । १५१ । ।

कुटुम्बस्थानगे शुक्रे दारेशे लाभराशिगे।

दशमे षोडशाब्दे च विवाहः प्रायशो भवेत् । । १५२ ।।

दूसरे भाव में शुक्र हो और सप्तमेश ११ वें भाव में हो तो १० वें या १६वें वर्ष में विवाह होता है । । १५२ ।।

लग्नकेन्द्रगते शुक्रे लग्नेशे मन्दराशिगे ।

वत्सरैकादशे प्राप्ते विवाहं लभते नरः । । १५३ ।।

लग्न वा केन्द्र में शुक्र हो और लग्नेश शनि की राशि में हो तो ११ वें वर्ष में विवाह होता है । । १५३ ।।

लग्नात्केन्द्रगते शुक्रे तस्मात्कामगते शनौ ।

द्वादशैकोनविंशे च विवाहः प्रायशो भवेत् । । १५४ ।।

लग्न से केन्द्र में शुक्र हो, उससे सातवें भाव में शनि हो तो १२वें वा १९ वर्ष में विवाह होता है । । १५४ । ।

चन्द्राज्जामित्रगे शुक्रे शुक्राज्जामित्रगे शनौ ।

वत्सरेऽष्टादशे प्राप्ते विवाहं लभते नरः । । १५५ । ।

चन्द्रमा से ७ वें भाव में शुक्र हो और शुक्र से ७वें भाव में शनि हो तो १८वें वर्ष में प्रायः विवाह होता है । । १५५।।

धनेशे लाभराशिस्थे लग्नेशे कर्मराशिभे ।

अब्दे पञ्चदशे जाते विवाहं लभते नरः । । १५६ । ।

द्वितीयेश लाभभाव में हो और लग्नेश १० वें भाव में हो तो १५वें वर्ष में विवाह होता है । । १५६ ।।

धनेशे लाभराशिस्थे लाभेशे धनराशिगे।

अब्दत्रयोदशे प्राप्ते विवाहं लभते नरः । । १५७ ।।

धनेश (द्वितीयेश) लाभभाव में और लाभेश (११ भाव का स्वामी) धन भाव में हो तो १३वें वर्ष में विवाह होता है।। १५७।।

रन्ध्राज्जामित्रगे शुक्रे तदीशे भौमसंयुते ।

द्वाविंशे सप्तविंशाब्दे विवाहो लभते नरः । । १५८ । ।

अष्टम भाव से सातवें भाव में शुक्र हो और सप्तमेश भौम से युत हो तो २२वें या २७वें वर्ष में विवाह होता है ।।१५८।।

दारांशकगते लग्ननाथे दारेश्वरे व्यये ।

त्रयोविंशे च षड्विंशे विवाहं लभते नरः । । १५९ ।।

सप्तम भाव के नवांश में लग्नेश हो और सप्तमेश बारहवें भाव में हो तो २३वें या २६वें वर्ष में विवाह होता है । । १५९ ।।

रन्ध्रांशे दारराशिस्थे लग्नांशे भृगुसंयुते ।

पञ्चविंशे त्रयस्त्रिंशे विवाहं लभते नरः । । १६० ।।

अष्टम भाव की नवांश राशि सातवें भाव में हो और लग्न के नवांश में शुक्र युत हो तो २५वें या ३३वें वर्ष में विवाह होता है । । १६० ।।

भाग्याद्भाग्यगते शुक्रे तद्व्यये राहुसंयुते ।

एकत्रिंशात्त्रयस्त्रिंशे दारलाभं विनिर्दिशेत् । ।१६१ । ।

भाग्यस्थान से भाग्यभाव में शुक्र हो, उससे बारहवें भाव में राहु हो तो ३१ वा ३३वें वर्ष में विवाह होता है ।।१६१।।

भाग्याज्जामित्रगे शुक्रे तद्द्यूने दारनायके ।

त्रिंशे वा सप्तत्रिंशाब्दे विवाहं लभते नरः ।। १६२ ।।

भाग्यभाव से ७ वें भाव में शुक्र हो, उससे बारहवें भाव में राहु हो तो ३० वें वा ३७वें वर्ष में विवाह होता है ।।१६२।।

बृहत् पाराशर होरा शास्त्र अध्याय १७- स्त्री मृत्युसमयमाह

दारेशे नीचराशिस्थे शुक्रे रन्ध्रारिसंयुते ।

अष्टादशे त्रयस्त्रिंशे वत्सरे दारनाशनम् । । १६३ ।।

सप्तमेश अपनी नीच राशि में हो और शुक्र ८, ६ भाव में हो तो १८वें या ३३वें वर्ष में स्त्री का नाश होता है । । १६३ । ।

मदेशे नाशराशिस्थे, व्ययेशे मदराशिगे ।

तस्य चैकोनत्रिंशाब्दे दारनाशं विनिर्दिशेत् । । १६४ ।।

सप्तमेश ८वें भाव में हो और व्ययेश सातवें भाव में हो तो २९वें वर्ष में स्त्री का नाश होता है । । १६४ ।।

कुटुम्बस्थानगे राहुः कलत्रे भौमसंयुते ।

पाणिग्रहे विवाहे च सर्पदंष्ट्रे वधूमृतिः । । १६५ ।।

दूसरे भाव में राहु हो और सातवें भाव में भौम हो तो विवाह के बाद ही साँप के काटने से स्त्री की मृत्यु होती है।।१६५।।

रन्ध्रस्थानगते शुक्रे तदीशे सौरिराशिगे ।

द्वादशैकोनविंशाब्दे दारनाशं विनिर्दिशेत् । । १६६ । ।

आठवें भाव में शुक्र हो और अष्टमेश शनि की राशि में हो तो १२-वें या २९वें वर्ष में स्त्री की मृत्यु होती है । । १६६ । ।

लग्नेशे नीचराशिस्थे धनेशे निधनं गते ।

त्रयोदशे तु सम्प्राप्ते कलत्रस्य मृतिं वदेत् । । १६७ ।।

लग्नेश अपनी नीच राशि में हो और धनेश आठवें भाव में हो तो १३ वें वर्ष में स्त्री की मृत्यु होती है । । १६७ ।। ·

शुक्राज्जामित्रगे चन्द्रे चन्द्राज्जामित्रगे बुधे ।

रन्ध्रेशे सुतभावस्थे प्रथमं दशमाब्दिकम् । । १६८ ।।

द्वाविंशे च द्वितीयं च त्रयस्त्रिंशं तृतीयकम् ।

विवाहं लभते मर्त्यो नात्र कार्या विचारणा । । १६९ ।।

शुक्र से सातवें भाव में चन्द्रमा हो और चन्द्रमा से सातवें भाव में बुध हो तथा अष्टमेश पाँचवें भाव में हो तो पहला विवाह १० वें वर्ष में, दूसरा २२वें वर्ष में और तीसरा ३३वें वर्ष में होता है । । १६९ ।।

बृहत् पाराशर होरा शास्त्र अध्याय १७- अथाष्टमभावफलमाह

आयुःस्थानाधिपः पापैः सहैव यदि संस्थितः ।

करोत्यल्पायुषं जातं लग्नेशोऽप्यत्र संस्थितः । । १७० ।।

अष्टमेश पापग्रह और लग्नेश के साथ आठवें भाव में हो तो जातक अल्पायु होता है । । १७० ।।

एवं हि शनिना चिन्ता कार्या तर्कैर्विचक्षणैः ।

कर्माधिपेन च तथा चिन्तनं कार्यमायुषः । ।१७१ ।।

इसी प्रकार तर्क द्वारा शनि और कर्मेश से भी आयु का विचार करना चाहिए । १७१।।

षष्ठे व्ययेऽपि षष्ठेशो व्ययाधीशो रिपौ व्यये ।

लग्नेऽष्टमे स्थितो वापि दीर्घमायुः प्रयच्छति ।। १७२ ।।

षष्ठेश ६ या १२ भाव में हो और व्ययेश ६ या १२ भाव में हो अथवा लग्न वा आठवें भाव में हो तो दीर्घायु होता है ।। १७२।।

स्वस्थाने स्वांशके वापि मित्रेशे मित्रमन्दिरे ।

दीर्घायुषं करोत्येव लग्नेशोऽष्टमपः पुनः । । १७३ ।।

लग्नेश, अष्टमेश और पंचमेश अपने भाव में, अपने नवांश में वा मित्र की राशि में हो तो दीर्घायु होता है।।१७३।।

लग्नाष्टमकर्मेशमन्दाः केन्द्रत्रिकोणयोः ।

लाभे वा संस्थितास्तद्वत् दिशेयुर्दीर्घमायुषम् ।।१७४।।

लग्नेश, अष्टमेश, कर्मेश और शनि केन्द्र त्रिकोण और लाभ भाव में हों तो दीर्घायु होती है । । १७४ ।।

अष्टमाधिपतौं केन्द्रे लग्नेशे बलवर्जिते ।

विंशद्वर्षाण्यसौ जीवेद्द्वात्रिंशत्परमायुषम् ।।१७५ ।।

अष्टमेश केन्द्र में हो और लग्नेश निर्बल हो तो २० वर्ष या ३२ वर्ष की आयु होती है । । १७५ ।।

रन्ध्रेशे नीचराशिस्थे रन्ध्रे पापग्रहैर्युते ।

लग्नेशे दुर्बले यस्य अल्पायुर्भवति ध्रुवम् ।।१७६ ।।

अष्टमेश अपनी नीच राशि में हो, अष्टम भाव में पापग्रह हों और लग्नेश दुर्बल हो तो अल्पायु होती है । । १७६ ।।

रन्ध्रेशे पापसंयुक्ते रन्ध्रे पापग्रहैर्युते ।

व्यये क्रूरग्रहैर्जाते जातमात्रं मृतिर्भवेत् । । १७७ ।।

अष्टमेश पापग्रह से युक्त हो, आठवें भाव में पापग्रह हों और बारहवें भाव में पापग्रह हों तो उत्पन्न होते ही मृत्यु हो जाती है । ।१७७ ।।

केन्द्रत्रिकोणपापस्थाः षष्ठाष्टेषु शुभा यदि ।

लग्ने रन्ध्रेशनीचस्थे जातः सद्यो मृतो भवेत् । । १७८ ।।

केन्द्र-त्रिकोण में पापग्रह हों, ६/८ भाव में शुभग्रह हों, लग्न अष्टमेश अपनी नीचराशि का हो तो शीघ्र ही मृत्यु होती है । । १७८ ।।

पञ्चमे पापसंयुक्ते रन्ध्रेशे पापसंयुते ।

रन्ध्रे पापग्रहैर्युक्ते अल्पायुष्यः प्रजायते । । १७९ ।।

पाँचवें भाव में पापग्रह हो, अष्टमेश पापग्रह से युत हो और अष्टम भाव पापग्रह से युत हो तो अल्पायु होती है ।। १७ ।।

रन्ध्रेशे रन्ध्रराशिस्थे चन्द्रे, पापसमन्विते

शुभदृग्रहिते विद्वन् मासान्ते च मृतिर्भवेत् । । १८० ।।

अष्टमेश आठवें भाव में और चन्द्रमा पापयुक्त हो, शुभग्रह से न देखा जाता हो तो मास के अंत में मृत्यु होती है ।।१८०।।

लग्नेशे स्वोच्चराशिस्थे चन्द्रे लाभसमन्विते ।

रन्ध्रस्थानगते जीवे दीर्घायुष्यं न संशयः । । १८१ । ।

लग्नेश अपनी उच्चराशि में हो और चन्द्रमा लाभभाव में हो तथा आठवें भाव में गुरु हो तो दीर्घायु होती है, इसमें संशय नहीं है । । १८१ । ।

बृहत् पाराशर होरा शास्त्र अध्याय १७- अथ नवमभावफलमाह

गुरुस्थानगते जीवे तदीशे केन्द्रसंस्थिते ।

लग्नेशे बलसंयुक्ते बहुभाग्याधिपो भवेत् ।। १८२ ॥

नवम स्थान में गुरु हो, नवमेश केन्द्र में हो और लग्नेश बलवान् हो तो बड़ा ही भाग्यवान् होता है । ।१८२ । ।

भाग्येशे बलसंयुक्ते भाग्ये भृगुसमन्विते ।

लग्नात्केन्द्रगते जीवे पितृभाग्यसमन्वितः । । १८३ ।।

भाग्येश बलवान् हो, भाग्यस्थान में शुक्र हो, लग्न से केन्द्र में गुरु हो तो पिता भाग्यवान् होता है । । १८३ ।।

भाग्यस्थानाद्वितीये वा सुखे भौमसमन्विते ।

भाग्येशे नीचराशिस्थे पिता निर्धन एव च । ।१८४ । ।

भाग्यस्थान से दूसरे वा चौथे स्थान में भौम हो और भाग्येश नीच राशि में हो तो पिता निर्धन होता है।।१८४।।

भाग्येशे परमोच्चस्थे भाग्यांशे जीवसंयुते ।

लग्नाच्चतुष्टये शुक्रे पिता दीर्घायुरादिशेत् । । १८५ ।।

भाग्येश परम-उच्चांश में हो, गुरु भाग्यांश में हो, लग्न से केन्द्र में शुक्र हो तो पिता दीर्घायु होता है ।।१८५।।

भाग्येशे केन्द्र भावस्थे गुरुणा च निरीक्षिते ।

तत्पिता वाहनैर्युक्तो राजा वा तत्समो भवेत् । । १८६ ।।

भाग्येश केन्द्र में गुरु से देखा जाता हो तो उसका पिता वाहन से युक्त राजा वा उसके समान होता है ।।१८६।।

भाग्येशे कर्मभावस्थे कर्मेशे भाग्यराशिगे ।

शुभयोगे धनाढ्यश्व कीर्तिमांस्तत्पिता भवेत् ।। १८७ ।

भाग्येश कर्मभाव में हो, कर्मेश भाग्यभाव में हो और शुभग्रह से किसी प्रकार का संपर्क हो तो उसका पिता धनी और कीर्तिमान् होता है ।। १८७ ।।

परमोच्चांशगे सूर्ये भाग्येशे लाभसंस्थिते ।

धर्मिष्ठो नृपवात्सल्यः पितृभक्तो भवेन्नरः । । १८८ । ।

सूर्य परम-उच्चांश में हो, भाग्येश लाभभाव में हो तो जातक धर्मिष्ठ, राजा का प्रेमपात्र और पितृभक्त होता है।। १८८ ।।

लग्नात्रिकोण सूर्ये भाग्येशे सप्तमस्थिते ।

गुरुणा सहिते दृष्टे पितृभक्तिसमन्वितः । । १८९ ।।

भाग्येशे धनभावस्थे धनेशे भाग्यराशिगे ।

द्वात्रिंशात्परतो भाग्यं वाहनं कीर्त्तिसम्भवः । । १९० ।।

लग्न से त्रिकोण में सूर्य हो, भाग्येश धनभाव में और धनेश भाग्यभाव में हो तो ३२वें वर्ष के बाद भाग्य, वाहन और कीर्ति का लाभ होता हैं ।। १९० ।।

बृहत् पाराशर होरा शास्त्र अध्याय १७- पितृवैरयोगः

लग्नेशे भाग्यराशिस्थे षष्ठेशे भाग्यराशिगे ।

अन्योऽन्यवैरं ब्रुवते जनकः कुत्सितो भवेत् । । १९१ । ।

लग्नेश भाग्यभाव में हो और षष्ठेश भाग्यभाव में हो तो परस्पर पिता-पुत्र में वैर होता हैं तथा पिता निन्दनीय होता है ।।९९१।।

बृहत् पाराशर होरा शास्त्र अध्याय १७- भिक्षाशनयोगः

कर्माधिपेन सहितो विक्रमेशो च निर्बलः ।

नीचास्तगो च भाग्येशो योगो भिक्षाशनप्रदः । । १९२ ।।

यदि निर्बल तृतीयेश कर्मेश से युक्त हो और भाग्येश नीच वा अस्त में हो तो जातक भिक्षा से उदरपूर्ति करने वाला होता है । । १९२ ।।

बृहत् पाराशर होरा शास्त्र अध्याय १७- पितृमरणयोगमाह

षष्ठाष्टमव्यये भानू रन्ध्रेशे भाग्यसंयुते ।

व्ययेशे लग्नराशिस्थे षष्ठेशे पञ्चमे स्थिते । । १९३ ।।

जातस्य जननात्पूर्वं जनकस्य मृतिं वदेत् ।

सूर्य ६/८/१२ भाव में हो और अष्टमेश भाग्य भाव में हो तथा व्ययेश लग्न में और षष्ठेश पाँचवें भाव में हो बालक के जन्म से पूर्व ही पिता की मृत्यु हो जाती है ।। १९३ ।।

रन्ध्रस्थानगते सूर्ये रन्ध्रेशे भाग्यभावगे । । १९४ ।।

जातस्य प्रथमाब्दे च पितुर्मरणमादिशेत् ।

आठवें स्थान में सूर्य हो और अष्टमेश भाग्यभाव में हो तो बालक के पहले वर्ष में ही पिता की मृत्यु होती है । । १९४ ।।

व्ययेशे भाग्यराशिस्थे नीचांशे भाग्यनायके ।

तृतीये षोडशे वर्षे जनकस्य मृतिर्भवेत् । । १९५ । ।

व्ययेश भाग्यभाव में, भाग्येश नीचांश में हो तो तीसरे वा सोलहवें वर्ष में पिता की मृत्यु होती है ।। ९९५ ।।

लग्नेशे नाशराशिस्थे रन्ध्रेशे भानुसंयुते ।

द्वितीये द्वादशे वर्षे पितुर्मरणमादिशेत् । । १९६ ।।

लग्नेश आठवें भाव में और अष्टमेश सूर्य से युत हो तो दूसरे वा १२ वें वर्ष में पिता की मृत्यु होती है । । १९६ । ।

भाग्याद्रन्ध्र गते राहौ भाग्याद्भाग्यगते रवौ ।

राहुणा सहिते सूर्ये चन्द्राद्भाग्यगते शनौ । । १९७ ।।

सप्तमैकोनविंशाब्दे तातस्य मरणं भवेत् ।

भाग्यभाव से आठवें भाव में राहु हो, भाग्य से भाग्यभाव में रवि राहु से युक्त हो और चन्द्रमा से भाग्यभाव में शनि हो तो ७वें या १९ वें वर्ष में पिता की मृत्यु होती है । । १९७ ।।

भाग्येशे व्ययराशिस्थे व्ययेशे भाग्यराशिगे । । १९८ । ।

चतुश्चत्वारिवर्षाच्च पितुर्मरणमादिशेत् ।

भाग्येश १२वें भाव में और व्ययेश भाग्यभाव में हो तो ४४वें वर्ष में पिता की मृत्यु होती है ।। १९८ ।।

रव्यंशे च स्थिते चन्द्रे लग्नेशे रन्ध्रसंयुते।।१९९।।

पञ्चत्रिंशैकचत्वारिंशद्वर्षे पितृनाशनम् ।

सूर्य के नवांश में चन्द्रमा हो और लग्नेश आठवें भाव में हो तो ३५वें वा ४१ वें वर्ष में पिता की मृत्यु होती है । । १९९ ।।

पितृस्थानाधिपे सूर्ये मन्दभौमसमन्विते । । २०० ।।

पञ्चाशद्वत्सरे प्राप्ते जनकस्य मृतिर्भवेत् ।

पितृस्थान (१०) का स्वामी सूर्य हो और शनि-भौम से युत हो तो ५० वें वर्ष में पिता की मृत्यु होती है।।२००।।

भाग्यात्सप्तमगे सूर्ये भ्रातृसप्तमगस्तमः । । २०१ । ।

षष्ठे वा पञ्चविंशाब्दे पितुर्मरणमादिशेत् ।

भाग्यभाव से ७ वें सूर्य हो और भ्रातृभाव से ७ वें राहु हो तो छठे वा २५ वें वर्ष में पिता की मृत्यु होती है । । २०१ । ।

रन्ध्रजामित्रगे मन्दे मन्दाज्जामित्रगे रवौ । । २०२ । ।

त्रिंशैकविंशे षड्विंशे जनकस्य मृतिर्भवेत् ।

आठवें से सातवें भाव में शनि हो और शनि से ७ वें भाव में राहु हो तो ३०वें, २१वें वा २६वें वर्ष में पिता की मृत्यु होती है । । २०२ ।।

भाग्येशे नीच राशिस्थे तदीशे भाग्यराशिगे । । २०३ ।।

षड्विंशे च त्रयस्त्रिंशे पितुर्मरणमादिशेत् ।

एवं तातस्य भी विद्वन् फलं ज्ञात्वा समादिशेत् । । २९४।।

 भाग्येश नीच राशि में और नीच राशि का स्वामी भाग्यभाव में हो तो २६वें वा ३३वें वर्ष में पिता की मृत्यु होती है। इस प्रकार से पिता की मृत्यु का विचार कर आदेश देना चाहिए ।।२०३-२०४ ।।

परमोच्चांशगे शुक्रे भाग्येशेन समन्विते ।

भ्रातृस्थाने शनियुते बहुभाग्याधिपो भवेत् । । २०५ । ।

भाग्येश से युत शुक्र परम-उच्चांश में हो और मातृस्थान में शनि हो तो बड़ा भाग्यवान् होता है । । २०५ ।।

गुरुणा संयुते भाग्ये तदीशे केन्द्रराशिगे ।

विंशद्वर्षात्परं चैव बहुभाग्यं विनिर्दिशेत् । । २०६ ।

भाग्यस्थान में गुरु 'और भाग्येश केंद्र में हो तो २२ वर्ष के बाद भाग्योदय होता है । । २०६ ।।

परमोच्चांशगे सौम्ये भाग्येशे भाग्यराशिगे ।

षट्त्रिंशाच्च परं चैव बहुभाग्यं विनिर्दिशेत् । । २०७ ।।

बुध परम उच्चांश में हो और भाग्येश भाग्यभाव में हो तो ३६वें वर्ष के बाद भाग्योदय होता है ।। २०७ ।।

लग्नेशे भाग्यराशिस्थे भाग्येशे लग्नसंयुते ।

गुरुणा संयुते द्यूने धनवाहनलाभकृत् ।। २०८ ।।

लग्नेश भाग्यभाव में और भाग्येश लग्न तथा गुरु सप्तम भाव में हो तो धन-वाहन से युक्त होता है ।। २०८ ।।

बृहत् पाराशर होरा शास्त्र अध्याय १७ - भाग्यहीनयोगः

भाग्याद्भाग्यगतो राहुर्भाग्येशे निधनं गते ।

भाग्येशे नीच राशिस्थे भाग्यहीनो भवेन्नरः । । २०९ ।।

भाग्यस्थान से नवम भाव में राहु हो तथा भाग्येश अपनी नीच राशि के आठवें भाव में हो तो मनुष्य भाग्यहीन होता है । । २०९ ।।

भाग्यस्थानगते मन्दे शशिना च समन्विते ।

लग्नेशे नीचराशिस्थे भिक्षाशी च नरो भवेत् ।। २१० ।।

भाग्यस्थान में शनि चन्द्रमा के साथ हो और लग्नेश नीच राशि में हो तो भिक्षा का अन्न खाने वाला होता है ।। २१०।।

बृहत् पाराशर होरा शास्त्र अध्याय १७- अथ दशमभावफलमाह

कर्माधिपो बलोनश्चेत्कर्मवैकल्यमादिशेत् ।

सैंहिः केन्द्रत्रिकोणस्यो ज्योतिष्टोमादियागकृत् ।।२११ ।।

कर्मेश निर्बल हो तो जातक कर्महीन होता है। राहु केन्द्र-त्रिकोण में हो तो ज्योतिष्टोम आदि यज्ञ करने वाला होता है ।। २११।।

दशमे पापसंयुक्ते लाभे पापसमन्विते ।

दुष्कृतिं लभते मर्त्यः स्वजनानां विदूषकः । । २१२ ।।

दशम भाव में पापग्रह हो और लाभ भाव में पापग्रह हो तो जातक दुष्कीर्ति पाता है । । २१२ ।।

कर्मेशे नाशराशिस्थे राहुणा संयुतेऽपि च ।

जनद्वेषी महामूर्खो दुष्कृतिं लभते नरः । । २१३ । ।

कर्मेश राहु से संयुक्त होकर आठवें भाव में हो तो मनुष्यों से द्वेष करने वाला, महामूर्ख और दुष्कर्म में प्रवृत होता है ।। २१३।।

कर्मेशे द्यूनराशिस्थे मन्दभौमसमन्विते ।

द्यूने पापसंयुक्ते शिश्नोंदरपरायणः । । २१४ ।।

कर्मेश शनि-भौम से युत होकर सप्तम भाव में हो और सप्तमेश पाप से युत हो तो जातकं शिश्न द्वारा उदरपूर्ति (जीविका) करने वाला होता है ।। २१४।।

तुङ्गराशिं समाश्रित्य कर्मेशे गुरुसंयुते ।

भाग्येशे कर्मराशिस्थे यानैश्वर्यप्रतापवान् । । २१५ ।।

अपनी उच्चराशि में कर्मेश गुरु से युत हो और भाग्येश कर्मराशि में हो तो जातक मान-ऐश्वर्य से युक्त प्रतापी होता है।। २१५।।

लाभेशे कर्मराशिस्थे कर्मेशे लग्नसंयुते ।

तावुभौ केन्द्रगौवादि सुखजीवनभाग्भवेत् । । २१६ ।।

लाभेश कर्मराशि में हो और कर्मेश लग्न में हो अथवा दोनों केन्द्र में हों तो सुखी जीवन वाला होता है ।।२१६।।

कर्मेशे बलसंयुक्ते मीने गुरुसमन्विते ।

वस्त्राभरणसौख्यादि लभते नात्र संशयः । । २१७ ।।

कर्मेश बलवान् होकर मीनराशि में गुरुं से युत हो तो जातक वस्त्र, आभूषण सुख आदि से युक्त होता है ।।२१७।।

बृहत् पाराशर होरा शास्त्र अध्याय १७- कर्महीनयोगः

लाभस्थानगते सूर्ये राहुभौमसमन्विते ।

रविपुत्रेण संयुक्ते कर्मच्छेत्ता भवेन्नरः । । २१८ ।।

सूर्याभाव में राहु, भौम, शनि से युत हो तो जातक कर्महीन होता है । २१८ ।।

बृहत् पाराशर होरा शास्त्र अध्याय १७- शुभकर्मयोगाः

मीने जीवे भृगुसुते लग्नेशे बलसंयुते ।

स्वोच्चराशिगते चन्द्रे सम्यग्ज्ञानार्थवान् भवेत् । । २१९ । ।

मीन राशि में गुरु-शुक्र हों, लग्नेश बलवान् हो और चंद्रमा अपनी उच्चराशि में हो तो ज्ञानी और धनी होता है ।। २१९ । ।

कर्मे लाभ राशिस्थ लाभेशे लग्नसंस्थिते ।

कर्मराशिस्थिते शुक्रे रत्नवान् स नरो भवेत् । । २२० ।।

कर्मेश लाभभाव में और लग्नेश लग्न में तथा शुक्र कर्मभाव में हो तो मनुष्य रत्नों से युक्त होता है ।।२२०।।

केन्द्रत्रिकोणगे कर्मनाथे स्वोच्चसमाश्रिते ।

गुरुणा सहिते दृष्टे स कर्मसहितो भवेत् । । २२१ । ।

अपनी उच्च राशि में कर्मेश केंद्र- त्रिकोण में और गुरु से युत - दृष्ट हो तो मनुष्य कर्म श्रेष्ठ होता है ।।२२१।।

कर्मेशे लग्नभावस्थे लग्नेशेन समन्विते ।

केन्द्रत्रिकोणगे चन्द्रे सत्कर्मनिरतो भवेत् ।। २२२ ।।

कर्मेश लग्न में लग्नेश के साथ हो, केन्द्र- त्रिकोण में चंद्रमा हो तो पुरुष सत्कर्म में निरत होता है ।। २२२ ।।

कर्मस्थानगते चन्द्रे तदीशे तत्त्रिकोणगे ।

लग्नेशे केन्द्रभावस्थे सत्कीर्त्तिसहितो भवेत् ॥ २२३ ॥ ॥

कर्मस्थान में चंद्रमा हो और कर्मेश उससे त्रिकोण में हो तथा लग्नेश केंद्र में हों तो कीर्ति से युक्त होता है।।२२३।।

लाभेशे कर्मभावस्थे कर्मेशे बलसंयुते ।

देवेन्द्रगुरुणा दृष्टे सत्कीर्त्तिसहितो भवेत् ॥ २२४ ॥

लाभेश कर्मभाव में हो और कर्मेश बलवान् हो, गुरु से देखा जाता हो तो सत्कीर्ति से युक्त होता है ।। २२४ ॥

कर्मस्थानाधिपे भाग्ये लग्नेशे कर्मसंयुते ।

लग्नात्पञ्चमगे चन्द्रे ख्यातकीर्त्ति विनिर्दिशेत् । । २२५ । ।

कर्मेश भाग्यभाव में और लग्नेश कर्मभाव में हो तथा लग्न से पाँचवें भाव में चंद्रमा हो तो विख्यात कीर्त्तिवाला पुरुष होता है ।। २२५ ।।

बृहत् पाराशर होरा शास्त्र अध्याय १७- अशुभयोगः

कर्मस्थानगते मन्दे नीचखेचरसंयुते ।

कर्मांशे पापसंयुक्ते कर्महीनो भवेन्नरः ।।२२६ ।।

कर्मस्थान में शनि नीचराशिस्थ ग्रह से युत हो और कर्मांश में पापग्रह हो तो जातक कर्महीन होता है ।। २२६ ।।

कर्मेशे नाशराशिस्थे कर्मस्थे पापखेचरे ।

कर्मभात्कर्मगे पापे कर्मवैकल्यमादिशेत् । । २२७ ।।

कर्मेश आठवें भाव में हो और कर्मभाव में पापग्रह हो तथा कर्मभाव से कर्मस्थान में पापग्रह हो तो पुरुष कर्महीन होता है ।। २२७ ।

बृहत् पाराशर होरा शास्त्र अध्याय १७- अथैकादशभावफलमाह

लाभाधिपो यदा लाभे तिष्ठेत्केन्द्रत्रिकोणयोः ।

बहुलाभं तदा कुर्यादुच्चसूर्यांशगोऽपि वा । । २२८ ।।

लाभभाव में वा केंद्र- त्रिकोण में हो वा अपने उच्च में वा सूर्यांश में हो तो भी फल का बहुत लाभ होता है ।। २२८ ।।

लाभेशे धनराशिस्थे धनेशे केन्द्रसंस्थिते ।

गुरुणा सहिते भावे गुरुलाभं विनिर्दिशेत् ।।२२९ ।।

लाभेश धन राशि में हो और धनेश केंद्र में हो तथा गुरु से युत हो तो अधिक लाभ होता है । । २२९ ।।

लाभेशे लाभभावस्थे शुभग्रहसमन्विते ।

षट्त्रिंशे वत्सरे प्राप्ते सहस्रद्वयनिष्कभाक् । । २३० ।।

लाभेश लाभभाव में शुभग्रह से युत हो तो ३६वें वर्ष में २ सहस्र निष्क (मोहर) का लाभ होता है ।। २३० ।।

केन्द्रत्रिकोणगे भावनाथे शुभसमन्विते ।

चत्वारिंशे तु सम्प्राप्ते सहस्रार्धं च निष्कभाक् । । २३१ । ।

लाभेश शुभग्रह से युत होकर केन्द्र- त्रिकोण में हो तो ४० वें वर्ष में पाँच सौ मोहर का लाभ होता है ।। २३१ ।।

लाभस्थाने गुरुयुते धने चन्द्रसमन्विते ।

भाग्यस्थानगते शुक्रे षट्सहस्राधिपो भवेत् ।। २३२ ।।

लाभभाव में गुरु हो और धनस्थान में चंद्रमा हो तथा भाग्यस्थान में शुक्र हो तो ६ हजार मोहर का अधिपति होता है ।। २३२।।·

लाभाच्च लाभगे जीवे गुरुचन्द्रेण संयुते ।

धनधान्याधिपः श्रीमान् रत्नाद्याभरणैर्युतः ।। २३३ ॥

लाभस्थान से लाभ में गुरु चंद्रमा से युत हो तो धन-धान्य का स्वामी, श्रीमान्, रत्न आदि आभूषणों से युक्त होता है।। २३३।।

लाभेशे लग्नभावस्थे लग्नेशे लाभसंयुते ।

त्रयस्त्रिंशे तु सम्प्राप्ते सहस्रनिष्कभाग्भवेत् ।। २३४ ॥

लाभेश लग्न में हो और लग्नेश लाभभाव में हो तो ३३वें वर्ष में १ हजार मोहर का लाभ होता है । । २३४ ।।

धनेशे लाभराशिस्थे तदीशे धनराशिगे।

विवाहात्परतश्चैव बहुभाग्यं समादिशेत् । । २३५ ।।

धनेश लाभ भाव में और लाभेश धनभाव में हो तो विवाह के बाद अनेक प्रकार से भाग्योदय होता है । । २३५ ।।

धैर्येशे लाभराशिस्थे. लाभेशे भ्रातृसंस्थिते ।

भ्रातृभावाद्धनप्राप्तिर्दिव्याभरणसंयुतः । । २३६ ।

तृतीय भावेश ११ वें भाव में और लाभेश तीसरे भाव में हो तो भाइयों से धन का लाभ होता है ।। २३६ ।।

बृहत् पाराशर होरा शास्त्र अध्याय १७- अथ द्वादशभावाफलम्

चन्द्रो व्ययाधिपो धर्मलाभमन्त्रेषु संस्थितः ।

स्वोच्चस्वर्क्षनिजांशे वा लाभधर्मात्मजांशके ।

दिव्यागारादिपर्यङ्को दिव्यगन्यैकभोगवान् । । २३७ ।।

परार्थ्यं रमणो दिव्यवस्त्रमाल्यादिभूषणः ।

परार्थ्यसंयुतो वित्तो दिनानि नवतिः प्रभुः ।। २३८ ।।

चंद्रमा व्ययेश होकर ९ । ११ । ५ वें भाव में हो वा अपनी उच्चराशि, अपनी राशि धनभाव के नवांश में हो अथवा लाभ नवम- पंचम के नवांश में हो तो दिव्य मकान, शय्या, गंध, दूसरे के द्रव्य को भोगने वाला होता है।।२३७-२३८ ।।

एवं स्वशत्रुनीचांशेऽष्टमांशे वाष्टमे रिपौ ।

संस्थितः कुरुते जातं कान्तासुखविवर्जितम् । । २३९ ।।

इसी प्रकार अपने शत्रु की नीचराशि के नवांश में अष्टमभाव के नवांश में, आठवें या छठे भाव में हो तो जातक को स्त्री का सुख नहीं होता है ।। २३९ ।।

व्ययाधिक्यपरिक्लान्तं दिव्यभोगनिराकृतम् ।

स हि केन्द्रत्रिकोणस्यः स्वस्त्रियालङ्कृतः स्वयम् ।।२४० ।।

और अधिक खर्च से खिन्न होकर दिव्य भोग आदि से रहित होता है। यदि वह केन्द्र- त्रिकोण में हो तो स्त्रीसुख से युक्त होता है ।। २४० ।।

लग्नस्य पूर्वार्धगतानभोगाः फलं प्रदद्युस्तु प्रत्यते ।

परार्धषट्कोपगता: परोक्षं फलं वदन्तीति बुधाः पुराणाः । । २४१ । ।

लग्न के पूर्वार्ध (१० से ३ भाव तक) मतांतर से (७।८।९।१०।११।१२) में स्थित ग्रह प्रत्यक्ष में फल देने वाले होते हैं और परार्ध (४।५।६।७।८।९) भाव में मतांतर से (१।२।३।४।५।६) में स्थित ग्रह परोक्ष (अप्रत्यक्ष सूर्य) से फल देने वाले होते हैं ।।२४१।।

व्ययस्थानगतो राहुर्भोमार्करविसंयुतः ।

तदीशेऽप्यर्कसंयुक्ते नरके पतनं भवेत् । । २४२ ।।

बारहवें भाव में राहु भौमं सूर्य के साथ हो, व्यंयेश भी सूर्य से युक्त हो तो जातक नरक में जाता है।।२४२।।

व्ययस्थानगते सौम्ये तदीशे स्वोच्चराशिगे ।

शुभयुक्ते शुभैर्दृष्टे मोक्षः स्यान्नात्र संशयः । । २४३॥

बारहवें भाव में बुध हो, व्ययेश अपनी उच्च राशि में हो, शुभ ग्रह से युत और दृष्ट हो तो मोक्ष होता है ।।२४३।।

व्ययेशे पापसंयुक्ते व्यये पापसमन्विते ।

पापग्रहेण सन्दृष्टे देशाद्देशान्तरं गतः । । २४३ ॥

व्ययेश पापग्रह से युत हो और व्ययभाव में पापग्रह हो और पापग्रह से देखा जाता हो तो देश-विदेश में जाने वाला होता है ।। २४४ ।।

व्ययेशे शुभराशिस्थे व्ययर्क्षे शुभसंयुते ।

शुभग्रहेण सन्दृष्टे स्वदेशात्सञ्चरो भवेत् । । २४५ ।।

व्ययेश शुभराशि में हो और व्ययभाव में शुभग्रह हो, शुभग्रह से देखा जाता हो तो अपने देश से अन्य देश को जाने वाला होता है ।। २४५ ।।

व्यये मन्दादिसंयुक्ते भूमिजेन समन्विते ।

शुभदृष्टैर्न सम्प्राप्तिः पापमूलाद्धनार्जनम्।। २४६।

व्ययभाव शनि-भौम से युत हो, शुभग्रह से न देखा जाता हो तो पाप करने से धन की हानि होती है ।।२४७।।

लग्नेशे व्ययराशिस्थे व्ययेशे लग्नसंयुते ।

भृगुपुत्रेण संयुक्ते धर्ममूलाद्धनव्ययम्।।२४७।।

लग्नेश बारहवें भाव में हो और व्ययेश लग्न में हो, शुक्र से युत हो तो धर्म करने में धन का व्यय होता है।।२४७।।

इति पाराशरहोरायां पूर्वखण्डे सुबोधिन्यां द्वादशभावविचारो नाम सप्तदशोऽध्यायः ।

आगे जारी............. बृहत्पाराशरहोराशास्त्र अध्याय 1८

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