बृहत् पाराशर होरा शास्त्र अध्याय १६

बृहत् पाराशर होरा शास्त्र अध्याय १६  

बृहत् पाराशर होरा शास्त्र अध्याय १६ में द्वादशभाव विचार अंतर्गत लग्नभाव, तनुभाव(धनभाव), सहजभाव, चतुर्थभाव(सुखभाव), पञ्चमभाव(दत्तकपुत्रयोग,सन्तानयोग,पुत्रप्राप्ति-वियोगसमय,सन्तानसंख्याज्ञान), षष्ठ भाव(कुष्ठयोग, गण्डादिरोगयोग, रोगप्राप्तिसमय) फल का विचार का वर्णन हुआ है। 

बृहत् पाराशर होरा शास्त्र अध्याय १६

बृहत्पाराशर होराशास्त्र अध्याय १६     

Vrihat Parashar hora shastra chapter 16   

बृहत्पाराशरहोराशास्त्रम् षोडशोऽध्यायः

अथ बृहत्पाराशरहोराशास्त्रम् सोलहवाँ अध्याय भाषा-टीकासहितं

बृहत् पाराशर होरा शास्त्र अध्याय १६- द्वादशभाव विचार:

अथ द्वादशभावेषु विचार्यत्वमाह

तनोरूपं च ज्ञानं च वर्णं चैव बलाबलम् ।

शीलं वै प्रकृतिं चैव तनुस्थानाद्विचारयेत् ॥ १ ॥

प्रथम भाव से शरीर, रूप (रंग), ज्ञान, वर्ण (ब्राह्मणादि), बल, निर्बल, शील (स्वभाव) और प्रकृति का विचार करना चाहिए ।। १ ।।

धनं धान्यं कुटुम्बं च मृत्युजालममित्रकम् ।

धातुरत्नादिकं सर्वं धनस्थानाद्विचारयेत् ॥ २ ॥

दूसरे भाव में धन, धान्य, कुटुंब, मृत्यु, शत्रु का और धातु, रत्न आदि का विचार करना चाहिए । । २ । ।

विक्रमं भृत्यभ्रात्रादि चोपदेशप्रयाणकम् ।

पित्रोर्वे मरणं विप्र दुश्चक्याच्च निरीक्षयेत् ॥ ३ ॥

तीसरे भाव में नौकर, भाई, उपदेश, यात्रा और पिता के मरण का विचार करना चाहिए । । ३ । ।

वाहनस्याथ बन्धूनां मातृसौख्यादिकानपि ।

निषिक्षेत्रं गृहं चापि पातालाच्च निरीक्षयेत् ॥ ४ ॥

चौथे भाव से वाहन (सवारी) का, बंधुओं का, मातृसुख का, निधि (गड़े धन) का, क्षेत्र (खेत) तथा गृह का विचार करना चाहिए । । ४ । ।

यन्त्रमन्त्री तथा विद्या बुद्धेश्चैव प्रबन्धकम् ।

पुत्रराज्यापभ्रंशादि पश्येत्पुत्रालयाद् बुधः ।।५।।

पाँचवें भाव से यंत्र, मंत्र, विद्या, बुद्धि, प्रबंध, पुत्र और राज्य के स्खलन का विचार करना चाहिए । । ५ । ।

मातुलान्तकशङ्कानां शत्रूंश्चैव व्रणादिकान् ।

सपत्नीमातरञ्चापि शत्रुस्थानान्निरीक्षयेत् ॥ ६ ॥

छठे भाव से मामा के मरण की शंका का, शत्रु और व्रण का और सौतेली माँ का विचार करना चाहिए । । ६ ।।

जायामध्वप्रयाणं च व्यापारं हृतवीक्षणम् ।

मरणं च स्वदेहस्य जायाभावान्निरीक्षयेत् ।।७।।

सप्तम भाव से स्त्री, मार्ग, यात्रा, व्यापार, नष्ट वस्तु और मृत्यु का विचार करना चाहिए ।।७।।

ऋणदानग्रहणयोर्गुदे चैवाङ्कुरादयः ।

गत्यनूकादिकं सर्वं पश्येद्रन्धाद्विचक्षणः ।।८।।

आठवें भाव से ऋण देना - लेना, गुदा की बीमारी, पूर्वजन्म और इस जन्म का विवरण- ये सब विचार करना चाहिए । । ८ । ।

भाग्यं धर्मं च श्यालं च भ्रातृपत्न्यादिकांस्तथा ।

तीर्थयात्रादिकं सर्वं धर्मस्थानान्निरीक्षयेत् ॥ ९ ॥ ॥

नवम भाव से भाग्य, साला, भाई की स्त्री, तीर्थयात्रा आदि का विचार करना चाहिए ।।९।।

राज्यं चाकाशवृत्तिं च मानं चैव पितुस्तथा ।

प्रवासस्य ऋणस्यापि व्योमस्थानानिरीक्षयेत् । । १० ।।

दशम स्थान से राज्य, आकाशवृत्ति, प्रतिष्ठा, पिता, परदेश आदि का विचार करना चाहिए । । १० ।।

नानावस्तुभवस्यापि पुत्रजायादिकस्य च ।

लाभवृद्धिपशूनां च भवस्थानाद्विचारयेत् । । ११ । ।

एकादश भाव से अनेक वस्तुओं की प्राप्ति, पुत्र, स्त्री, पशुओं की वृद्धि तथा लाभ आदि का विचार करना चाहिए ।।११।।

व्ययं च वैरिवृत्तान्तं फलमन्त्यादिकं तथा ।

व्ययभावाच्च तत्सर्वं ज्ञातव्यं हि विपश्चिता । । १२ ।।

बारहवें भाव से व्यय, शत्रु का वृत्तांत आदि का विचार करना चाहिए ।। १२ ।।

यो यो भावपतिर्नष्टस्त्रिकेशाद्यैश्च संयुतः । । १३ ।।

भावं न वीक्षते सम्यग्ग्रहो वापि मृतो यदा ।

स्थविरो वा भवेत्खेटः सुप्तो वापि प्रपीडितः ।

तदा तद्भावजं सौख्यं नष्टं ब्रूयाद्विश‌ङ्कितः । । १४ ।।

जिन-जिन भावों के स्वामी अस्त हों, त्रिकेश (६।८।१२ के स्वामी) से युत हों, भाव को न देखते हों, मृत अवस्था में हों, वृद्ध अथवा सुप्त हों वा पीडित हों तो उन भावों के फल नष्ट हो जाते हैं । ।१३-१४ ।।

यदा सौम्यग्रहैर्दृष्टो भावो भावेशसौम्ययुक् ।

युवा प्रबुद्धराजस्थः कुमारो वापि तद् भवेत् । ।१५ ।।

जो भाव शुभग्रह से दृष्ट हों, भाव अपने स्वामी शुभग्रह से युत हो, भावेश युवा, प्रबुद्ध, राजकुमार अवस्था में हो ।।१५।।

ईशेक्षणवशात्तत्र भावसौख्यं वदेद्बुधः ।

एवं हि सर्वभावेषु ज्ञेयो साधारणो नयः । । १६ ।।

भाव को भावेश देखता हो तो उस भाव के सुख की वृद्धि होती है । यह नियम सभी भावों में साधारणतः समझना चाहिए । । १६ ।।

शुक्रः शुक्रश्च नेत्रं च चन्द्रमा मनसस्तथा ।

आत्मा वै दिनकृत्तत्र जीवो जीवितसौख्यदः । । १७ ॥

शुक्रधातु का स्वामी, नेत्र और मन का चन्द्रमा, आत्मा का सूर्य, गुरु सुख का ।। १७ ।।

क्रोधः पराक्रमी भौमो बुधो बालत्वधीमतः ।

शनिर्दुःखप्रदो ज्ञेयो राहुरैश्वर्यदायकः ।। १८ ।।

क्रोध, पराक्रम का भौम, बुध बुद्धि का, शनि दुःख का और राहु ऐश्वर्य का स्वामी होता है । । १८ ।।

शिरोनेत्रे तथा कर्णे नासा चापि कपोलकौ ।

हनूमुखं तथा वाच्यं लग्नादाद्यदृकाणके । । १९ ।।

एक लग्न में तीन द्रेष्काण होते हैं। यदि जन्म समय लग्न में प्रथम द्रेष्काण हो तो लग्न को मुख, , १२ भाव को नेत्र, , ११ भाव को कान, , १२ को नाक, , ९ भाव को कपोल, , ८ भाव को दाढ़ी, ७ भाव को मुख कल्पना करना चाहिए । । १९ । ।

लग्नान्मध्यदृकाणे च कण्ठांशी बाहुकौ तथा ।

पार्श्वे च हृदयक्रोडे नाभिं चैव यथाक्रमम् ।। २० ।।

दूसरा द्रेष्काण हो तो लग्न को कण्ठ, , १२ भाव को कंधा, ,११ भाव को बाहु, ,१० भाव को पार्श्व, ,९ भाव को हृदय, , ८ भाव को पेट, ७ भाव को नाभि कल्पना करना चाहिए ।। २० ।।

वस्तिर्लिङ्गगुदे वृषणावुरू जानुजङ्घके ।

पदेति चैवमुदितैर्वाममङ्गं तृतीयके । । २१ ।।

तीसरा द्रेष्काण हो तो लग्न को वस्ति (नाभि-लिंग के मध्य का स्थान), २। १२ भाव को लिंग और गुदा, ३।१० भाव को जंघा, ५।९ भाव को घुटना, ६।८ भाव को ठेहुने के नीचे, ७ भाव को पैर समझना चाहिए। सप्तम से १२ भाव तक वामभाग और लग्न से छठे भाव तक दाहिने भाग की कल्पना करना चाहिए । । २१ । ।

यस्मिन्नङ्गे स्थितः क्रूरस्तत्र चिह्नं समादिशेत् ।

ससौम्यैर्नियतं विप्र सौम्यैर्लक्ष्मं समादिशेत् । । २२ ।।

अंग के जिस भाग में पापग्रह हों वहाँ चिह्न कहना चाहिए। यदि बुध के साथ पापग्रह हो तो निश्चय ही चिह्न होता है और शुभग्रह हो तो उस अंग में लक्षण होता है ।। २२ ।।

बृहत् पाराशर होरा शास्त्र अध्याय १६- अथ तनुभावफलम्

देहाधिपः पापयुतोऽष्टमस्थो व्ययारिगोवाङ्गसुखं निहन्ति ।

सर्वत्र भावेषु च योजनीयमेवं बुधैर्भाववशात्फलं हि ।। २३ ।।

लग्नेश पापग्रह से युत होकर आठवें, बारहवें, छठे हो तो शरीर सुख नहीं होता है। यही नियम सभी भावों का है, यानि जिस भाव का स्वामी पापग्रह से युत होकर ६, , १२ वें भाव के फल का अभाव होता हैं ।। २३ ।।

पापो विलग्नाधिपतिर्विलग्ने चन्द्रेण युक्तो यदि बालकः स्यात् ।

तदातिरोगं स हि केन्द्रसंस्थस्त्रिकोणलाभेषु गदं निहन्ति ॥ ॥ २४ ॥

यदि लग्नेश पापग्रह चन्द्रमा से युक्त होकर लग्न में हो तो बालक अत्यंत रोगी होता है। यदि वह केन्द्र - त्रिकोण और लाभभाव में हो तो रोग का नाश करता है ।। २४ ।।

लग्नाधिपोऽथ जीवो वा शुक्रो वा यदि केन्द्रगः ।

स जातो धनवांल्लोके दीर्घायू राजवल्लभः । । २५ ।।

लग्नेश वा गुरु या शुक्र केन्द्र में हो तो जातक धनी, दीर्घायु और राजप्रिय होता है ।। २५ ।।

केन्द्रत्रिकोणेषु न यस्य पापा

लग्नाधिपः सुरगुरुश्च चतुष्टयस्थौ ।

भुक्त्वा सुखानि विविधानि च पुण्यकर्मा

जीवेत्तु वर्षशतमेव विमुक्तरोगः । । २६ ।।

जिसके जन्मांग में केन्द्र- त्रिकोण भाव में पापग्रह न हों और लग्नेश तथा गुरु केन्द्र में हों तो वह बालक पुण्यकर्त्ता, अनेक प्रकार के सुखों को भोगने वाला एवं दीर्घायु होता है ।। २६ ।।

लग्नेशे चरराशिस्थे शुभग्रहनिरीक्षिते ।

श्रीमान्महाभोगी देहपुष्टिसमन्वितः ।। २७ ।।

लग्नेश चरराशि में हो तथा शुभग्रह से देखा जाता हो तो बालक यशस्वी, धनी, भोगों को भोगने वाला और बलवान् होता है ।। २७ ।।

शुक्रो बुधोऽथवा जीवो लग्ने चन्द्रसमन्वितः ।

लग्नात्केन्द्रगतो वापि राजलक्षणसंयुतः ।। २८ । ।

यदि शुक्र, बुध वा गुरु चन्द्रमा से युत होकर लग्न से केन्द्र में गये हों तो बालक राजलक्षण से युक्त होता है।।२८।।

रविचन्द्रौ च ह्येकस्थावेकांशकसमन्वितौ ।

त्रिमात्रं च त्रिभिर्मासैर्भ्रात्रा पित्रा च जीवति । । २९ । ।

रवि-चन्द्रमा एक स्थान में एक ही अंश में हों तो बालक को तीन मास के अन्दर तीन माताएँ होती हैं और भाई पिता से जीवित रहता है ।। २९ ।।

लग्ने राहुसमायुक्ते तथा सोमनिरीक्षिते ।

लग्नांशे मन्दसूरी चेज्जातश्च यमलो भवेत्।।३० ।।

लग्न में राहु हो, उसे चन्द्रमा देखता हो तथा लग्न के नवमांश में शनि- गुरु हों तो यमल बालक होते हैं । । ३० ।।

बृहत् पाराशर होरा शास्त्र अध्याय १६- अथ धनभावफलम्

शुक्रेण युक्तो यदि नेत्रनाथः शुक्रस्य स्वोच्चांशगृहे गतो वा ।

सम्बन्धवान्स्याद्यदि देहपेन नेत्रं विधत्ते विपरीतभावम् ।। ३१ ।।

यदि धन भाव का स्वामी शुक्र से युक्त हो और शुक्र के उच्च, नवांश, गृह में हो और लग्नेश से संबंध करता हो तो टेढ़े नेत्र होते हैं । । ३१ । ।

तत्र स्थितौ चन्द्ररवी निशान्धं जात्यन्धतां नेत्रपदेहपार्काः ।

पैत्रर्क्षनाथेन युतास्तदान्ध्यं कुर्वन्ति मात्रादिफलं तथेदृक् ।। ३२ ।।

यदि चन्द्र-सूर्य धनेश - लग्नेश से युक्त होकर दुःस्थ हों तो जन्मांध होता है। पिता आदि के स्वामी युत हों तो उन्हें भी अंधा समझना चाहिए ।। ३२ ।।

दोषकृन्न च सर्वत्र स्वोच्चस्वर्क्षगतो ग्रहः ।

षडादित्रयसंस्थश्चेत्तदा दोषकृच्छुभः ।। ३३ ।

यदि दोषकर्त्ता ग्रह अपनी उच्च राशि में हो तो दोष नहीं करता । यदि छठे, आठवें एवं बारहवें में हो तो दोष करता है । ३३ ।।

वागीशवाग्गृहाधीशौ षंडादित्रयसंस्थितौ ।

मूकतां कुरुतेऽप्येवं पितृमातृगृहाधिपाः । । ३४ ॥

गुरु और द्वितीयेश छठे, आठवें, बारहवें भाव में हों तो मूक (गूंगा) होता है। इसी प्रकार पिता, माता आदि के भावेश हों तो उन्हें भी मूक कहना चाहिए ॥३४॥

विद्याधिपो जीवबुधावविद्यामरित्रयस्था कुरुतोऽथ तौ चेत् ।

केन्द्रत्रिकोणस्थगृहोच्चसंस्थौ प्रयच्छतां द्रागनवद्यविद्याम् ।। ३५ ।।

गुरु, बुध और द्वितीयेश छठे, आठवें और बारहवें भाव में हों तो मूर्ख होता है । यदि ये केन्द्र - त्रिकोण अपने गृह उच्च राशि में हों तो शीघ्र ही विद्वान् होता है ।। ३५ ।।

धनाधिपो - गुरुर्यस्य धनराशिस्थितो यदि ।

भौमेन सहितो वापि धनवान् स नरो भवेत् ।। ३६ ।।

धनेश और भौम दूसरे भाव में हो तो पुरुष धनी होता है ।। ३६ । ।

धनेशे लाभराशिस्थे लाभेशे वा धनङ्गते ।

तावुभौ केन्द्रराशिस्थो धनवान्स नरो भवेत् ।। ३७।।

धनेश ११ वें भाव में हो और लाभेश दूसरे भाव में हो अथवा दोनों केन्द्र हों तो धनी होता है ।। ३७।।

धनेशे केन्द्रराशिस्थे लाभेशे तत्त्रिकोणगे ।

गुरुशुक्रयुते दृष्टे धनलाभमुदीरयेत् ।। ३८ ।।

धनेश केन्द्र में हो और लाभेश उससे त्रिकोण में हो तथा गुरु-शुक्र से युत - दृष्ट हो तो धन का लाभ होता है।।३८।

वित्तेशो रिपुभावस्थ लाभेशो तद्गतो यदि ।

वित्तलाभी पापयुक्तौ दृष्टौ निर्धन एव सः । । ३९ ।।

धनेश, लाभेश छठे में हों अथवा धन-लाभ पापयुत और पापदृष्ट हों तो निर्धन होता है । । ३९ ।।

वित्तलाभाधिपौ दुःस्थौ पापखेचरसंयुतौ ।

जन्मप्रभृतिदारिद्र्यं भिक्षानं लभते नरः । । ४० ॥

धनेश, लाभेश पापग्रह से युत होकर छठे, आठवें, बारहवें भाव में हों तो जन्म से ही दरिद्र होता है और भिक्षा माँगकर खाने वाला होता है ।।४०।।

षष्ठाष्टमव्ययस्थौ चेद्धनलाभाधिपौ यदि ।

लाभे कुजे धने राहौ राजदण्डाद्धनक्षयः । । ४१॥

यदि धनेश एवं लाभेश छठें, आठवें, बारहवें भाव में हो और ११वें भाव में भौम, धन भाव में राहु हो तो राजदंड से धन का नाश होता है । । ४१ । ।

लाभे जीवे धने शुक्रे तदीशे शुभसंयुते ।

व्यये शुभग्रहयुते धर्ममूलाद्धनव्ययः ।।४२।।

११ वें भाव में गुरु, दूसरे भाव में शुक्र हो और धनेश शुभग्रह से युत हो और बारहवें भाव में शुभग्रह हो तो धर्म के कारण द्रव्य का व्यय होता है ।। ४२ ।।

कुटुम्बराशेरधिपः ससौम्ये केन्द्रत्रिकोणे च सुहृद्गृही वा ।

सौम्यर्क्षयुक्तो यदि जातपुण्यः कुटुम्बसंरक्षणवाग्विभूतः ।। ४३।।

द्वितीय भाव का स्वामी शुभग्रह से युक्त होकर केन्द्र- त्रिकोण में भिन्न क्षेत्र में वा अपनी राशि में वा शुभग्रह की राशि में हो तो पुण्यवान् कुटुम्ब की रक्षा करने वाला होता है ।।४३।।

कुटुम्बनाथे परमोच्च युक्ते देवेन्द्रपूज्ये च समीक्षिते वा ।

तथाविधे तद्भवनेऽभिजातः सहस्ररक्षो भुवनप्रतापी ।। ४४ ।।

धनेश अपने उच्च में हो और गुरु से देखा जाता हो तो सहस्र द्रव्य को रखने वाला होता है ।। ४४ ।।

तन्नाथे भृगुणा बुधेन सहिते पारावतांशे तथा

स्वोच्चेनाथ सुहृद्गृहे धनपतौ स्वस्थानकोलाहलः । । ४५ ।।

धनेश शुक्र-बुध से युक्त हो, पारावतांश में हो, अपने उच्च मित्र के गृह में हो तो प्रसिद्ध धनी होता है । । ४५ ।।

कुटुम्बराशिस्थपतौं यदि स्याद्भृगौ बुधे तादृशभावनाथे ।

स्वोच्चे सुहृत्क्षेत्रगतेऽथवा स्यात्परोपकारी जनरक्षकः स्यात्।।४६ ।।

धनेश शुक्र वा बुध अपने उच्च मित्र के गृह में हो तो परोपकारी जनरक्षक होता है ।। ४६ ।।

नेत्रेशे बलसंयुक्ते शोभनाक्षो भवेन्नरः ।

षष्ठाष्टमव्यये युक्ते नेत्रे वैकल्पमादिशेत् ।।४७॥

धनेश बलवान् हो तो सुंदर नेत्रों वाला होता है। यदि छठे, आठवें, बारहवें भाव में हो तो नेत्र में विकारवाला होता है ।। ४७ ।।

धनेशे पापसंयुक्ते धने पापसमन्विते ।

असत्यवादी पिशुनः पवनव्याधिसंयुतः । । ४८ ।।

धनेश पापग्रह से युत हो और धनभाव में पापग्रह हो तो झूठ बोलनेवाला, कृपण और वातव्याधि से युक्त होता है।।४८।।

बृहत् पाराशर होरा शास्त्र अध्याय १६- अथ सहजभावफलम्

सभौमो भ्रातृभावेशो त्रिकभिन्नं च चेत् स्थितः ।

भ्रातृ क्षेत्रगतो वापि भ्रातृभावं विनिर्दिशेत् । । ४९ ।।

मंगल के साथ तीसरे भाव के स्वामी त्रिक (६ । ८ । १२) से भिन्न स्थान में वा तीसरे भाव में हो तो भाइयों का सुख होता है ।। ४९ ।।

तौ पापयोगतः पापक्षेत्रयोगेन वा पुनः ।

उत्पाट्य सहजान्सद्यो निहन्ता शास्त्रनिश्चयात् । । ५० ।।

वे ही दोनों पापग्रह से युत हों और त्रिक में हों तो भाइयों का जन्म होता है, किन्तु बचते नहीं हैं ।। ५० ।।

स्त्रीग्रहो भ्रातृभावेशः स्त्रीग्रहो भ्रातृगोऽपि वा ।

भगिनी स्यात्तदा भ्राता पुंगृहे पुंग्रहो यदि । । ५१ ।।

यदि भ्रातृभाव का स्वामी स्त्रीग्रह हो और तीसरे भाव में भी स्त्रीग्रह हो तो बहिनें होती हैं। पुरुष ग्रह हो तो भाई होते हैं । । ५१ । ।

भ्रातृभे कारके वापि शुभयुक्तनिरीक्षिते ।

भावे वा बलसम्पूर्ण भ्रातॄणां वर्धनं भवेत् । । ५२ । ।

भ्रातृभाव वा भ्रातृकारक शुभग्रह से युतं दृष्ट हो और भ्रातृभाव पूर्ण बलवान् हो तो भाइयों की वृद्धि होती है ।।५२।।

केन्द्रत्रिकोणगे वापि स्वोच्चमित्रस्ववर्गगे ।

नाथे वा कारके वापि भ्रातृलाभं वदेद्बुधः । । ५३ ॥

यदि भ्रातृभावेश वा भ्रातृकारक केन्द्र- त्रिकोण में अपने उच्चमित्र आदि स्ववर्ग में हो तो भाइयों का लाभ होता है।।५३।।

भ्रातृभे बुधसंयुक्ते तदीशे चन्द्रसंयुते ।

कारके मन्दसंयुक्ते भगिन्येकाग्रतो भवेत् ॥ ५४ ॥

भ्रातृभावेश चन्द्रमा से युक्त हो और भ्रातृभाव में बुध हो और भ्रातृकारक शनि से युत हो तो उसके पहले एक बहन होती है ।। ५४ ।।

पश्चात्सहोदरोऽप्येकस्तृतीयस्तु मृतो भवेत् ।

कारके राहुसंयुक्ते विक्रमेशस्तु नीचगः । । ५५ ।।

उसके बाद एक भाई होता है और तीसरा मर जाता है । भ्रातृकारक राहु से युक्त हो और तृतीयेश नीच राशि में हो तो ।। ५५।।

पश्चात्सहोदराभावः पूर्वं तु तत्त्रयं भवेत् ।

भ्रातृस्थानाधिपे केन्द्रे कारके तत्त्रिकोणगे । ५६ ।।

उससे छोटे भाइयों का अभाव और उससे बड़े ३ भाई होते हैं । भ्रातृस्थान के स्वामी केन्द्र में हों और भ्रातृकारक उससे त्रिकोण में ।। ५६ ।।

जीवेन सहितश्चोच्चे संख्या द्वादश सोदराः ।

तत्र पूर्वद्वयं गर्भं जातकाच्च तृतीयकम् ।।५७ ।।

सप्तमश्चैव नवमो द्वादशश्च मृतिप्रदः ।

शेषाः सहोदराः षड्वै भवेयुर्दीर्घजीविनः । । ५८ । ।

गुरु के साथ अपनी उच्चराशि में हो तो १२ भाई होते हैं। उसमें दो बड़े, तीसरा, सातवाँ, नवाँ और बारहवाँ मर जाता है। शेष ६ भाई दीर्घजीवी होकर रहते हैं ।। ५७-५८।।

व्ययेशेन युते भौमे गुरुणा सहितोऽपि वा ।

भ्रातृस्थाने शशियुते सप्तसंख्यास्तु सोदराः । । ५९ ।।

व्ययेश से भौम युत हो वा गुरु से युक्त हो और तीसरे भाव में चन्द्रमा हो तो सात भाई होते हैं ।। ५९ ।।

बृहत् पाराशर होरा शास्त्र अध्याय १६- अथ चतुर्थभावफलम्

हाधिनाथेन युते तु गेहे देह्मधिपेनापि गृहाभिलब्धिः ।

ते षडादौ तु विपर्ययः स्याद्गृहाधिपे देहपतौ च तद्वत् ।। ६० ।।

यदि सुखभाव सुखेश और लग्नेश से युक्त हो तो गृह का लाभ होता हैं। यदि लग्नेश, सुखेशः ६ । ८ । १२ भाव में हो तो गृहप्राप्ति नहीं होती है ।। ६० ।।

केन्द्रत्रिकोणे च शुभग्रहेण युते समीचीनगृहाभिलब्धिः ।

क्षेत्रस्य चिन्ता सदनाधिपेन जीवेन चिन्ता तु सुखस्य कार्या । । ६१ ।।

यदि दोनों केन्द्र - त्रिकोण में हों और शुभग्रह से युक्त हों तो सुन्दर गृह प्राप्त होता है । गृहादि की चिंता सुखेश से, गुरु से सुख की चिंता । । ६१ ।।

दिव्याङ्गनावाहन वस्तुभूषा चिन्ता तु कार्या भृगुणा बुधैद्रैः ।

तमः शनिभ्यामभिचिन्त्यमायुरर्केण तातः शशिना च माता । । ६२ ।।

स्त्री, वाहन, आभूषण की चिन्ता शुक्र से, राहु-शनि से आयु की चिंता, सूर्य से पिता और चंद्रमा से माता की चिंता करनी चाहिए ।। ६२ ।।

बुधेन बुद्धिः सदनर्क्षसंस्थां गतेन भावेशयुतेन वा स्यात् ।

केन्द्रत्रिकोणेषु गतेषु तत्र प्रपश्यता वापि स्वतुङ्गगेन । । ६३ ।।

बुध से बुद्धि की चिंता करना चाहिए। जब ये कारक उन उन भावों में भावेशों से युत हों तो उन-उन पदार्थों की वृद्धि कहना चाहिए। सुखेश केन्द्र-त्रिकोण में उच्च में गये हुए ग्रह से दृष्ट हो । । ६३ ।।

स्वकीये स्वांगे स्वोच्चे सुखस्थानस्थितो यदि ।

सुखवाहनवृद्धिः स्याच्छङ्खभेर्यादिवाद्ययुक् ।। ६४ ।।

अपने राशि, उच्च और अपनी अंश में होकर सुख-स्थान में हो तो विचित्र प्राकार से मंडित गृह होता है । । ६४ ।।

विचित्रसोधप्राकारं मण्डितं गृहमादिशेत् ।

कर्माधिपेन सहिते नाथे केन्द्रे कोणेऽवस्थिते । । ६५ ।।

यदि सुखेश कर्मेश से युत होकर केन्द्र- त्रिकोण में हो तो सुन्दर गृह होता है । । ६५।।

बन्धुस्थानेश्वरे सौम्ये शुभग्रहनिरीक्षिते ।

शशिजे लग्नसंयुक्ते बन्धुपूज्यो भवेन्नरः । । ६६।।

सुखेश शुभग्रह में हो और शुभग्रह से देखा जाता हो तथा बुध लग्न में हो तो मनुष्य बंधुपूज्य होता है । । ६६ ।।

मातुः स्थाने शुभयुते तदीशे स्वोच्चराशिगे ।

कारके बलसंयुक्ते मातुर्दीर्घायुरादिशेत् । । ६७॥

मातृस्थान में शुभग्रह हो, सुखेश उच्चराशि में हो और मातृकारक बली हो तो माता दीर्घायु होती है । । ६७ ।।

सुखेशे केन्द्रभावस्थे तथा केन्द्रे स्थितो भृगुः ।

शशिजे स्वोच्चराशिस्थे विद्वान्पण्डित एव सः । । ६८ ।।

सुखेश केंद्र में हो और शुक्र भी केंद्र में हो, बुध अपनी उच्च राशि में हो तो बालक विद्वान् एवं पंडित होता है । । ६८ ।।

सुखे मन्दे रवियुते चन्द्रो भाग्यगतो यदि ।

लाभस्थानगते भौमे गोमहिष्यादिलाभकृत् ।।६९ ।।

सुखस्थान में रवि-शनि हों, चंद्रमा नवम स्थान में हो और लाभंस्थान में भौम हो तो गाय, भैंस आदि का लाभ होता है ।। ६९ ।।

लग्नस्थानाधिपे सौम्ये सुखेशे नीचराशिगे ।

कारके व्ययराशिस्थे सुखेशे लाभसंयुते । ।७० ।।

द्वादशे वत्सरे प्राप्ते लाभो वै वाहनस्य च ।

वाहने रविसंयुक्ते स्वोच्चे तद्राशिनायके । । ७१ ।।

लग्नेश शुभग्रह हो, सुखेश नीच राशि में हो, कारक बारहवें भाव में हो और सुखेश ११ वें भाव में हो तो १२ वें वर्ष में वाहन का लाभ होता है। सुख भाव में रवि हो, सुखेश अपनी उच्चराशि का हो और शुक्र से युक्त हो तो ३२ वें वर्ष में वाहन का लाभ होता है ।।७०-७१।।

कर्मेशेन युते बन्धुनाथे तुङ्गांशसंयुते ।

शुक्रेण संयुते तत्र द्वात्रिंशे वाहनं भवेत् । ।७२ ।।

द्विचत्वारिंशके प्राप्ते नरोवाहनभाग्भवेत् ।

कर्मेश युत होकर सुखेश अपनी उच्च राशि में हो तो ४२वें वर्ष में वाहन प्राप्त होता है ।। ७२ ।।

लाभेशे सुखराशिस्थे सुखेशे लाभसंयुते । ।७३ ।।

द्वादशे वत्सरे प्राप्ते नरो वाहनलाभकृत् ।

भावपस्य शुभत्वे तु फलं ज्ञेयं शुभं बुधैः । । ७४ ।।

लाभेश सुख भाव में और सुखेश लाभ भाव में हो तो १२वें वर्ष में वाहन का लाभ होता है। भावेश और भाव की शुभता के आधार पर ही शुभफल की प्राप्ति होती है।।७३-७४।।

चरग्रहसमायुक्ते सुखे तद्राशिनायके ।

षष्ठे भौमे व्ययगते मूकत्वं प्राप्यते नरः । । ७५ ।।

सुख भाव चरग्रह से युक्त हो तथा सुखेश छठे भाव में और व्ययभाव में भौम हों तो जातक मूक (गूंगा) होता है । । ७५ ।।

बृहत् पाराशर होरा शास्त्र अध्याय १६- अथ पञ्चमभावफलम् -

षडादित्रयसंस्थे तु सुताधीशे त्वपुत्रता ।

केन्द्रत्रिकोणसंस्थे तु पुत्रलाभाभिसम्भवः ।। ७६ ।।

पंचमेश ६।८।१२ वें भाव में हो तो संतान का अभाव होता है । यदि केंद्र वा त्रिकोण में हो तो संतान का सुख होता है ।। ७६ ।।

षष्ठस्थाने सुताधीशे लग्नेशे कुजवेश्मनि ।

म्रियते प्रथमापत्यं काकवन्ध्यत्वमाप्नुयात् ।। ७७ ।।

छठे भाव में पंचमेश हो और लग्नेश भौम की राशि में हो तो प्रथम संतान नष्ट हो जाती है तथा स्त्री काकवंध्या होती है ।।७७ ।।

सुताधीशो हि नीचस्थः षडादित्रयसंस्थितः ।

काकवन्ध्या भवेन्नारी सुते केतुबुधौ यदि । ।७८ ।।

पंचमेश अपनी नीचराशि का ६।८ । १२वें भाव में हो और पाँचवें भाव में केतु-बुध हो तो स्त्री काकवंध्या होती है । । ७८ ।।

सुतेशो नीचगो यत्र सुतस्थानं न पश्यति ।

सुते सौरिबुधौ स्यातां काकवन्ध्यत्वमाप्नुयात् ।। ७९ ।।

पंचमेश नीच राशि का हो और पंचम भाव को न देखता हो और पंचम में शनि-बुध हो तो स्त्री काकवंध्या होती है । । ७९ ।।

भाग्येशो मूर्तिवर्ती च सुतेशो नीचगो यदि ।

सुकेतुबुध स्यातां सुतं कष्टाद्विनिर्दिशेत् । ८० ।।

भाग्येश लग्न में हो, पंचमेश अपनी नीच राशि में हो और पाँचवें भाव में केतु-बुधं हों तो कष्ट से पुत्र होता है । । ८० ।।

षडादित्रयसंस्थोऽपि नीचो वाप्यरिसंस्थितः ।

पापाक्रान्ते सुतस्थाने पुत्रं कष्टाद्विनिर्दिशेत् । । ८१ ।।

पंचमेश ६।८ ।१२में हो अथवा नीच में शत्रु की राशि में हो और पंचम भाव में पापग्रह हो तो कष्ट से पुत्र होता है । । ८१ । ।

बृहत् पाराशर होरा शास्त्र अध्याय १६- दत्तकपुत्रयोगः

पुत्रस्थाने बुधक्षेत्रे मन्दक्षेत्रेऽथवा पुनः ।

मन्दमान्दियुते दृष्टे तदा दत्तादयः सुताः । । ८२ । ।

पंचम स्थान में बुध की राशि (३ । ६) हो अथवा शनि की राशि (१०।११) हो, उसमें शनि और गुलिक हो वा उससे देखा जाता हो तो दत्तक पुत्र होता है ।। ८२ ।।

पञ्चमे षड्ग्रहैर्युक्ते तदीशे व्ययराशिगे ।

लग्नेशे दुर्बलो चेत्स्यात्तदा दत्तादयः सुताः । । ८३ ।।

पाँचवें भाव में ६ ग्रह हों, पंचमेश १२वें भाव में हो और लग्नेश, चंद्रमा बलवान् हो तो दत्तक पुत्र से सुख होता है।।८३।।

बृहत् पाराशर होरा शास्त्र अध्याय १६- सन्तानयोगमाह

सुतभवने भृगुजीवसौम्ययाते बलसहितेन विलोकिते युते वा ।

बहुसुतजननं वदन्ति सन्तः सुतभवनेशबलेन चिन्त्यमेतत् । । ८४ ।

संतानं भाव में शुक्र, गुरु, बुध हों तथा बलवान् ग्रह से देखे जाते हों वा युत हों और सुतेश बली हो तो अनेक संतान होती हैं । ८४ ।।

सुतेशे शशिसंयुक्ते तद्वेष्काणगतेऽपि वा ।

तदा हि कन्यकालाभं प्रवदेन्मतिमान्नरः ।।८५।।

सुतेश चंद्रमा से युक्त हो अथवा उसके द्रेष्काण में हो तो अधिक कन्या होती है ।। ८५ ।।

सुतेशे नरराशिस्थे राहुणा सहितो शशी ।

पुत्रस्थानं गते मन्दे परजातं वदेच्छिशुम् ।।८६ ॥

सुतेश पुरुष राशि में हो और चंद्रमा राहु से युत हो और पंचम स्थान में शनि हो तो दूसरे से उत्पन्न बालक होता है । । ८६ ।।

लग्नाद्दशमे चंन्द्रे लग्नादष्टमगो गुरुः ।

पापयुक्तेऽथ सन्दृष्टे अन्यबीजं न संशयः । । ८७ । ।

लग्न से १०वें भाव में चंद्रमा हो तथा लग्न से आठवें भाव में गुरु हो तथा पापग्रह से युत दृष्ट हो तो दूसरे से उत्पन्न बालक होता है।।८७।।

पुत्रस्थानाधिपे स्वोच्चे लग्नाच्चेद्द्द्वित्रिकोणभे ।

गुरुणा संयुते दृष्टे पुत्रभाग्यमुपैति सः । । ८८ ।।

यदि पंचमेश अपनी उच्चराशि में होकर लग्न से २।९।५ भाव में हो और गुरु से युत - दृष्ट हो तो पुत्रसुख को भोगने वाला होता है । । ८८ ।।

त्रिचतुः पापसंयुक्ते सुते च सौम्यरहिते ।

सुतेशे नीचराशिस्थे नीचसंस्थो भवेच्छिशुः । । ८९ ।।

पाँचवें भाव में ३ या ४ पापग्रह हों और शुभग्रह न हो और पंचमेश नीच राशि में हो तो बालक नीच कर्म करने वाला होता है । । ८९ ।।

बृहत् पाराशर होरा शास्त्र अध्याय १६- पुत्रप्राप्ति-वियोगसमयश्च

पुत्रस्थानं गते जीवे तदीशे भृगुसंयुते ।

द्वात्रिंशे च त्रयस्त्रिंशे वत्सरे पुत्रलाभकृत् । । ९० ।।

पंचम स्थान में गुरु हो और पंचमेश शुक्र से युत हो तो ३२ वा ३३वें वर्ष में पुत्र का लाभ होता है ।। ९० ।।

सुतेशे केन्द्रभावस्थे कारकेण समन्विते ।

षट्त्रिंशे त्रिंशदब्दे च पुत्रोत्पत्तिं विनिर्दिशेत् । । ९१ ।।

पंचमेश कारक से युत होकर केंद्र में हो तो ३६वें वर्ष में पुत्र उत्पन्न होता हैं ।। ९१ ।।

लग्नाद्भाग्यंगते जीवे जीवाद्भाग्यगते भृगौ ।

लग्नेशे भृगुसंयुक्ते चत्वारिंशे सुतं लभेत् । । ९२ ।।

लग्न से नवम स्थान में गुरु हो और गुरु से भाग्य ९वें भाव में शुक्र हो तथा लग्नेश शुक्र से युक्त हो तो ४० वें वर्ष में पुत्र का लाभ होता है।। ९२ । ।

पुत्रस्थानं गते राहौ तदीशे पापसंयुते ।

नीचराशिगते जीवे द्वात्रिंशे पुत्रमृत्युदः । । ९३ ।।

पाँचवें भाव में राहु हो, पंचमेश पाप से युत हो और गुरु अपनी नीच राशि में हो तो ३२वें वर्ष में पुत्र की मृत्यु होती है । । ९३ ।।

जीवात्पञ्चमगे पापे लग्नात्पुत्रं गतेऽपि च ।

षड्विंशे च त्रयस्त्रिंशे चत्वारिंशे सुतक्षयः । । ९४ ॥

गुरु से पाँचवें भाव में पापग्रह हों और लग्न से पाँचवें भाव में भी गये हों तो २६ वें और ४० वें वर्ष में पुत्र का नाश होता है । । ९४ ।।

लग्ने मान्दिसमायुक्ते लग्नेशे नीचराशिगे ।

षट्पञ्चाशदब्देषु पुत्रशोकाकुलो भवेत् । । ९५ ।।

लग्न में गुलिक हो और लग्नेश अपनी नीच राशि में हो तो ५६ वें वर्ष में पुत्रशोक होता है । । ९५ ।।

बृहत् पाराशर होरा शास्त्र अध्याय १६- सन्तानसंख्याज्ञानमाह

चतुर्थे पापसंयुक्ते षष्ठे चैव तथैव हि ।

सुतेशे परमोच्चस्थे लग्नेशेन समन्विते । । ९६ । ।

कारके शुभसंयुक्ते दशसंख्यास्तु सूनवः ।

यदि ४, ६ भाव में पापग्रह हों, सुतेश लग्नेश से युत होकर परम उच्च में हो, सुतभावकारक शुभग्रह से युत हो तो दश पुत्र होते हैं ।। ९६।।

परमोच्चगते जीवे धनेशे राहुसंयुते । ।९७।।

भाग्येशे भाग्यसंयुक्ते संख्यानां नव सूनवः । । ९८ ।।

गुरु परमोच्च में हो, धनेश राहु से युत हो और भाग्येश भाग्यस्थान में हो तो ९ पुत्र होते हैं ।। ९७-९८ ।।

पुत्रभाग्यगते जीवे सुतेशे बलसंयुते ।

धनेशे कर्मराशिस्थे वसुसंख्यास्तु सूनवः । । ९९ । ।

पंचम वा भाग्य स्थान में गुरु हो, पंचमेश बली हो और धनेश १० वें स्थान में हो तो ८ पुत्र होते हैं ।। ९९ ।।

पञ्चमात्पञ्चमे मन्दे सुतस्थे च तदीश्वरे ।

सूनवः सप्तसंख्याश्च द्विगर्भे यमलं भवेत् । । १०० ।।

पाँचवें भाव से पंचम में शनि हो, पाँचवें भाव में पंचमेश हो तो ७ पुत्र होते हैं, जिनमें २ यमल (जुड़वा ) होते हैं । । १०० ।।

वित्तेशे पञ्चमस्थे च सुतस्थे पञ्चमाधिपे ।

षट्संख्या च सुतप्राप्तिस्तेषां च त्रिप्रजामृतिः । । १०१ ।।

धनेश पाँचवें भाव में, पंचमेश पंचम में हो तो ६ पुत्र होते हैं, जिसमें तीन मर जाते हैं । । १०१ । ।

लग्नात्पञ्चमंगे जीवे जीवात्पञ्चमगे शनौ ।

मन्दात्पञ्चमगे राहौ पुत्रमेकं विनिर्दिशेत् । । १०२ ।।

लग्न से पाँचवें भाव में गुरु, गुरु से पाँचवें भाव में शनि हों, शनि से पाँचवें राहु हो तो १ पुत्र होता है ।। १०२ ।।

पञ्चमे पापसंयुक्ते जीवात्पञ्चमगे शनौ ।

सुतेशे भौमसंयुक्ते लग्नेशे धनसङ्गते ।

जातं जातं विनाशं च दीर्घायुश्चैव मानवः । । १०३ ।।

पंचम में पापग्रह हो और गुरु से पाँचवें भाव में शनि हो, पंचमेश भौम से युक्त हो, लग्नेश धनभाव में हो तो जितने बालक उत्पन्न हो सभी मर जावें । । १०३ । ।

बृहत् पाराशर होरा शास्त्र अध्याय १६- अथ षष्ठ भावफलम्

षष्ठाधिपोऽपि पापचेद्देहे वाप्यष्टमे स्थितः ।

तदा व्रणो भवेद्देहे षष्ठस्थानेऽप्ययं विधिः । । १०४ ।।

षष्ठेश (६ठे भांव का स्वामी ) पापग्रह हो और जन्मलग्न वा आठवें भाव में बैठा हो तो शरीर में व्रण ( घाव ) के चिह्न होते हैं। छठे भाव में हो तो भी वही फल होता है । । १०४ ।।

एवं पित्रादिभावेशास्तत्तत्कारकसंयुताः ।

व्रणाधिपयुताश्चापि षष्ठाष्टमयुता यदि । । १०५ ।।

इसी प्रकार पिता आदि भावेशों के साथ षष्ठेश से युत होकर ६/८ भाव में हो तो उनके शरीर में भी व्रण के चिह्न कहना चाहिए। सूर्य षष्ठेश हो तो शिर में ।।१०५ ।।

तेषामपि व्रणं वाच्यमादित्ये च शिरोव्रणम् ।

इन्दुना च मुखे कण्ठे भौमज्ञेन च नाभिषु । । १०६ ॥

चंद्रमा हो तो मुख या कंठ में, भौम- बुध हों तो नाभि में । । १०६ ।।

गुरुणा नासिकायां च भृगुणा नयने पदे ।

शनिना राहुणा कुक्षौ केतुना च तथा भवेत् ।। १०७ ।।

गुरु हो तो नाक में, शुक्ल हो तो आँख और पैर में शनि-राहु हों तो कुक्षि (कोख) में, केतु से भी कुक्षि में चिह्न कहना चाहिए ।। १०७ ।।

लग्नाधिपः कुजक्षेत्रे बुधस्य यदि संस्थितः ।

यत्र कुत्र स्थितो ज्ञेन वीक्षितो मुखरुक्प्रदः । । १०८ ।।

लग्नेश भौम की राशि में वा बुध की राशि में होकर कहीं पर बैठा हो तथा बुध से देखा जाता हो तो मुख में रोग होता है । । १०८ । ।

बृहत् पाराशर होरा शास्त्र अध्याय १६- कुष्ठयोगः

लग्नाधिपो कुजबुधौ चन्द्रेण यदि संयुतौ ।

राहुणा शनिना सार्धं कुष्ठं तत्र विनिर्दिशेत् । । १०९ ।।

यदि भौम वा बुध लग्नेश होकर चंद्रमा, राहु वा शनि से युत हों तो कुष्ठ- रोग होता है । । १०९ । ।

लग्नाधिपं विना लग्ने स्थितश्चेत्तमसा शशी ।

श्वेतकुष्ठं तथा कृष्णकुष्ठं च शनिना सह । । ११० ।।

कुजेन रक्तकुष्ठं स्यात्तत्तदेवं विचारयेत् ।

यदि लग्नेश को छोड़कर चंद्रमा राहु के साथ लग्न में हो तो सफेद कुष्ठ होता है। शनि के साथ हो तो काला कुष्ठ, भौम के साथ हो तो लाल कुष्ठ होता है । । ११० ।।

बृहत् पाराशर होरा शास्त्र अध्याय १६- गण्डादिरोगयोगाः-

लग्ने षष्ठाष्टमाधीशौ रविणा यदि संस्थितौ । । १११ । ।

ज्वरगण्ड: कुजे ग्रन्थिः शस्त्रव्रणमथापि वा ।

बुधेन पित्तं गुरुणा रोगाभावं विनिर्दिशेत् । । ११२ ।।

यदि सूर्य से युत होकर षष्ठेश अष्टमेश लग्न में हों तो ज्वर से उत्पन्न गंडरोग, भौम से युत हो तो गठिया वा शस्त्र से आघात, बुध हो तो पित्त से उत्पन्न गंड और गुरु हो तो रोग का अभाव कहना चाहिए । । ११२ ।।

स्त्रीभिः शुक्रेण शनिना वायुना संयुतो यदि ।

गण्डश्चाण्डालतो नाभौ तमः केत्वोर्युते भयम् । । ११३ ।।

शुक्र से युत हो तो स्त्रीजनित रोग, शनि से युत हो तो वायुजनित गंड, राहु से युत हो तो चांडाल से नाभि में गंडरोग और केतु से युत हो तो भय होता है । । ११३ ।।

चन्द्रेण गण्डः सलिलैः कफश्लेष्मादिना भवेत् ।

एवं पित्रादिभावानां तत्तत्कारकयोगतः । । ११४ ।।

चंद्रमा से युत हो तो जल से तथा कफरोग होता है। इसी प्रकार पिता आदि के भावेशों से उन लोगों के भी रोग का विचार करना चाहिए । । ११४ । ।

बृहत् पाराशर होरा शास्त्र अध्याय १६- रोगप्राप्तिसमय:

गण्डो तेषां भवेदेवमूह्यमत्र मनीषिभिः ।

रोगस्थानगते पापे तदीशे पापसंयुते । । ११५ । ।

राहुणा संयुते मन्दे सर्वदा रोगसंयुतः ।

रोगस्थानगते भौमे तदीशे रन्ध्रसंयुते । ।११६ । ।

षड्वर्षे द्वादशे वर्षे ज्वररोगी भवेन्नरः ।

छठे स्थान में पापग्रह हो, षष्ठेश पापयुत हो, राहु से शनि युत हो तो सर्वदा रोगी होता है । षष्ठस्थान में भौम हो और षष्ठेश आठवें भाव में हो तो छठे, बारहवें वर्ष में ज्वररोग से युक्त होता है । । ११६ ।।

षष्ठस्थानगते जीवे तद्गृहे चन्द्रसंयुते । । ११७ ।।

द्वाविंशकोनविंशके कुष्ठरोगं विनिर्दिशेत् ।

छठे भाव में गुरु हो और गुरु की राशि में चंद्रमा हो तो २२वें, १९ -वें वर्ष में कुष्ठरोग होता है । । ११७ ।।

रोगस्थानं गतो राहुः केन्द्रे मान्दिसमन्वितः । । ११८ । ।

लग्नेशे नाशराशिस्थे ष‌विशे क्षयरोगता ।

छठे भाव में राहु हो, केन्द्र में गुलिक हो; लग्नेश आठवें भाव में हो तो २६वें वर्ष में क्षयरोग होता है । । ११८ । ।

व्ययेशे रोगराशिस्थे तदीशे व्ययराशिगे । । ११९ । ।

त्रिंशद्वर्षेकोनवर्षे गुल्मरोगं विनिर्दिशेत् ।

व्ययेश छठे भाव में हो और षष्ठेश बारहवें भाव में हो तो ३०वें वा २९वें वर्ष में गुल्मरोग होता है । । ११९ ।।

रिपुस्थानगते चन्द्रे शनिना संयुते यदि । । १२० ।।

पञ्चपञ्चाशताब्देषु रक्तकुष्ठं विनिर्दिशेत् ।

छठे भाव में शनि से युत चंद्रमा हो तो ५५वें वर्ष में रक्तकुष्ठ होता है । । १२० ।।

लग्नेशे लग्नराशिस्थे मन्दे शत्रुसमन्विते । । १२१ । ।

एकोनषष्टिवर्षे तु वातरोगार्दितो भवेत् ।

लग्नेश लग्न में हो और शनि छठे भाव में हो तो ५९ वें वर्ष में वात-रोग होता है । । १२१ । ।

रन्ध्रेशे रिपुराशिस्थे व्ययेशे लग्नसंस्थिते । । १२२ । ।

चन्द्रे षष्ठेशसंयुक्ते वसुवर्षे मृगाद्भयम् ।

अष्टमेश छठे भाव में हो और व्ययेश लग्न में हो, चन्द्रमा षष्ठेश से युत हो तो ८वें वर्ष में मृग से भय होता है । । १२२ । ।

षष्ठाष्टमगतो राहुस्तस्मादष्टगते शनौ । । १२३ ।।

बालस्य जन्मतो विज्ञ आद्ये चैव द्वितीयके ।

वत्सरेऽग्निभयं तस्य त्रिवर्षे पक्षिदोषभाक् । । १२४ ।।

छठे, आठवें भाव में राहु हो, उससे आठवें भाव में शनि हो तो, बालक को १, २ वर्ष में अग्नि का भय और ३ वर्ष में पक्षि का भय होता है।।१२३।।

षष्ठाष्टमगते सूर्ये तद्व्यये चन्द्रसंयुते ।

पञ्चमे नवमेऽब्दे च जलभीतिं विनिर्दिशेत् । । १२५ ।।

, ८ भाव में सूर्य हो, उससे बारहवें चन्द्रमा हो तो ५, ९ वर्ष में जल से भय होता है ।। १२४ ।।

अष्टमे मन्दसंयुक्ते रन्ध्राद्वे द्वादशे कुजः ।

त्रिंशांके च दशांके च स्फोटकादि विनिर्दिशेत् ।। १२६ ।।

आठवें भाव में शनि हो, उससे बारहवें भाव में भौम हो तो ३०वें वा १० वें वर्ष में चेचक आदि का भय होता है । । १२६ ।।

रन्ध्रेशे राहुसंयुक्ते तदंशे रन्ध्रकोणगे ।

द्वाविंशेऽष्टादशे वर्षे ग्रन्थिमेहादिपीडनम् । । १२७ ।।

अष्टमेश राहु से युत होकर अपने ही अंश में आठवें ५ / ९ भाव में हो तो २२वें, १८वें वर्ष में गठिया, प्रमेह आदि से पीड़ा होती है । । १२७।।

लाभेशे रिपुभावस्थे तदीशे लाभराशिगे ।

एकत्रिंशदेकचत्वारि शत्रुमूलाद्धनक्षयः । ।१२८ ।।

लाभेश छठे भाव में हो और षष्ठेश लाभ भाव में होतो ३१वें, ४१वें वर्ष में शत्रु द्वारा द्रव्य का व्यय होता है । । १२८ ।।

सुतेशे रिपुभावस्थे षष्ठेशे गुरुसंयुते ।

व्ययेशे लग्नभावस्थे तस्य पुत्रो रिपुर्भवेत् । ।१२९ ।।

पंचमेश छठे भाव में हो, षष्ठेश गुरु से युत हो और व्ययेश लग्न में हो तो उसका पुत्र शत्रु होता है । । १२९ ।।

लग्नेशे षष्ठराशिस्थे तदीशे षष्ठराशिगे ।

दशमैकोनविंशे च शुनकाद्भीतिरुच्यते । ।१३० ।।

लग्नेश छठे भाव में हो, षष्ठेश षष्ठ भाव में हो तो १०वें, १९ वें वर्ष में कुत्ता से भय होता है ।। १३० ।।

इति पाराशरहोरायां पूर्वखण्डे सुबोधिन्यां द्वादशभावविचारो नाम षोडशोऽध्यायः ।

शेष आगे जारी.............

आगे जारी............. बृहत्पाराशरहोराशास्त्र अध्याय 17 द्वादशभाव विचार 

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