अग्निपुराण अध्याय २२४

अग्निपुराण अध्याय २२४                        

अग्निपुराण अध्याय २२४ में अन्तःपुर के सम्बन्ध में राजा के कर्त्तव्य; स्त्री की विरक्ति और अनुरक्ति की परीक्षा तथा सुगन्धित पदार्थों के सेवन का प्रकार का वर्णन है।

अग्निपुराण अध्याय २२४

अग्निपुराणम् चतुर्विंशत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः

Agni puran chapter 224                    

अग्निपुराण दो सौ चौबीसवाँ अध्याय

अग्निपुराणम्/अध्यायः २२४                        

अग्निपुराणम् अध्यायः २२४ – स्त्रीरक्षादिकामशास्त्रं

अथ चतुर्विंशत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः

पुष्कर उवाच

वक्ष्येऽन्तः पुरचिन्तां च धर्माद्याः पुरुषार्थकाः ।

अन्योन्यरक्षया तेषां सेवा कार्या स्त्रिया नृपैः ।। १ ।।

धर्ममूलोऽर्थविटपस्तथा कर्म्मफलो महान् ।

त्रिवर्गपादपस्तत्र रक्षया फलभाग्‌ भवेत् ।। २ ।।

कामाधीनाः स्त्रियो राम तदर्थं रत्नसङ्‌ग्रहः ।

सेव्यास्ता नातिसेव्यास्च भूभुजा विषयैषिणा ।। ३ ।।

आहारो मैथुनन्निद्रा सेव्या नाति हि रुग्‌ भवेत् ।

मञअचाधिकारे कर्त्तव्याः स्त्रियः सेव्याः स्वरामिकाः ।। ४ ।।

दुष्टान्याचरते या तु नाभिनन्दति तत्कथां।

ऐक्यं द्विषद्भिर्व्रजति गर्वं वहति चोद्धता ।। ५ ।।

चुम्बिता मार्ष्टि वदनं दत्तन्न बहु मन्यते ।

स्वपित्यादौ प्रसुप्तापि तथा पश्चाद्विबुध्यते ।।६ ।।

स्पृष्टा धुनोति गात्राणि गात्रञ्च विरुणाद्धि या ।

ईषच्छृणोति वाक्यानि प्रियाण्यपि पराङ्‌मुखी ।। ७ ।।

न पश्यत्यग्रदत्तन्तु जघनञ्च निगूहति ।

दृष्टे विवर्णवदना मित्रेष्वथ पराङ्मुखी ।। ८ ।।

तत्कामितासु च स्त्रीसु मध्यस्थेव च लक्ष्यते ।

ज्ञातमण्डनकालापि न करोति च मण्डनं ।। ९ ।।

या सा विरक्ता तान्त्यक्त्वा सानुरागां स्त्रियम्भजेत् ।

दृष्ट्वैव हृष्टा भवति वीक्षिते च पराङ्‌मुखी ।। १० ।।

दृश्यमाना तथान्यत्र दृष्टिं क्षिपति चञ्चलां ।

तथाप्युपावर्त्तयितुं नैव शक्रोत्यशेषतः ।। ११ ।।

विवृणीति तथाह्गानि स्वस्या गुह्यानि भार्गव ।

गहितञ्च तथैवाङ्गं प्रयत्नेन निगूहति ।। १२ ।।

तद्दर्शने च कुरुते वालालिड्गनचुम्बनं ।

आभाष्यमाणा भवति सत्यवाक्या तथैव च ।। १३ ।।

स्पृष्टा पुलकितैरङ्गैः स्वेदेनैव च भज्यते ।

करोति च तथा राम सुलभद्रव्ययाचनं ।। १४ ।।

ततः स्वल्पमपि प्राप्य करोति परमां मुदं ।

 नामसङ्कीर्त्तनादेव मुदिता बहु मन्यते ।। १५ ।।

करकजाङ्काङ्कितान्यस्य फलानि प्रेषयत्यपि ।

तत्प्रेषितञ्च हृदये विन्यसत्यपि चादरात् ।। १६ ।।

आलिङ्गनैश्च गात्राणि लिम्पतीवामृतेन या ।

सुप्ते स्वपित्यथादौ च तथा तस्य विबुध्यते ।। १७ ।।

उरू स्पृशति चात्यर्थं सुप्तञ्चैनं विबुध्यते ।

पुष्कर कहते हैंअब मैं अन्तःपुर के विषय में विचार करूँगा। धर्म, अर्थ और काम- ये तीन पुरुषार्थ 'त्रिवर्ग' कहलाते हैं। इनकी एक-दूसरे के द्वारा रक्षा करते हुए स्त्रीसहित राजाओं को इनका सेवन करना चाहिये। 'त्रिवर्ग' एक महान् वृक्ष के समान है। 'धर्म' उसकी जड़, 'अर्थ' उसकी 'शाखाएँ और 'काम' उसका फल है। मूलसहित उस वृक्ष की रक्षा करने से ही राजा फल का भागी हो सकता है। राम ! स्त्रियाँ काम के अधीन होती हैं, उन्हीं के लिये रत्नों का संग्रह होता है। विषयसुख की इच्छा रखनेवाले राजा को स्त्रियों का सेवन करना चाहिये, परंतु अधिक मात्रा में नहीं। आहार, मैथुन और निद्रा- इनका अधिक सेवन निषिद्ध है; क्योंकि इनसे रोग उत्पन्न होता है। उन्हीं स्त्रियों का सेवन करे अथवा पलंग पर बैठावे, जो अपने में अनुराग रखनेवाली हों। परंतु जिस स्त्री का आचरण दुष्ट हो, जो अपने स्वामी की चर्चा भी पसंद नहीं करती, बल्कि उनके शत्रुओं से एकता स्थापित करती है, उद्दण्डतापूर्वक गर्व धारण किये रहती है, चुम्बन करने पर अपना मुँह पोंछती या धोती है, स्वामी की दी हुई वस्तु का अधिक आदर नहीं करती, पति के पहले सोती है, पहले सोकर भी उनके जागने के बाद ही जागती है, जो स्पर्श करने पर अपने शरीर को कँपाने लगती है, एक- एक अङ्ग पर अवरोध उपस्थित करती है, उनके प्रिय वचन को भी बहुत कम सुनती है और सदा उनसे पराङ्मुख रहती है, सामने जाकर कोई वस्तु दी जाय, तो उस पर दृष्टि नहीं डालती, अपने जघन (कटि के अग्रभाग) को अत्यन्त छिपाने-पति के स्पर्श से बचाने की चेष्टा करती है, स्वामी को देखते ही जिसका मुँह उतर जाता है, जो उनके मित्रों से भी विमुख रहती है, वे जिन-जिन स्त्रियों के प्रति अनुराग रखते हैं, उन सबकी ओर से जो मध्यस्थ (न अनुरक्त न विरक्त ) दिखायी देती है तथा जो शृङ्गार का समय उपस्थित जानकर भी शृङ्गार धारण नहीं करती,वह स्त्री 'विरक्त' है। उसका परित्याग करके अनुरागिणी स्त्री का सेवन करना चाहिये। अनुरागवती स्त्री स्वामी को देखते ही प्रसन्नता से खिल उठती है, दूसरी ओर मुख किये होने पर भी कनखियों से उनकी ओर देखा करती है, स्वामी को निहारते देख अपनी चञ्चल दृष्टि अन्यत्र हटा ले जाती है, परंतु पूरी तरह हटा नहीं पाती तथा भृगुनन्दन ! अपने गुप्त अङ्गों को भी वह कभी - कभी व्यक्त कर देती है और शरीर का जो अंश सुन्दर नहीं है, उसे प्रयत्नपूर्वक छिपाया करती है, स्वामी के देखते-देखते छोटे बच्चे का आलिङ्गन और चुम्बन करने लगती है, बातचीत में भाग लेती और सत्य बोलती है, स्वामी का स्पर्श पाकर जिसके अंगों में रोमाञ्च और स्वेद प्रकट हो जाते हैं, जो उनसे अत्यन्त सुलभ वस्तु ही माँगती है और स्वामी से थोड़ा पाकर भी अधिक प्रसन्नता प्रकट करती हैं, उनका नाम लेते ही आनन्दविभोर हो जाती तथा विशेष आदर करती है, स्वामी के पास अपनी अंगुलियों के चिह्न से युक्त फल भेजा करती है तथा स्वामी की भेजी हुई कोई वस्तु पाकर उसे आदरपूर्वक छाती से लगा लेती है, अपने आलिंगनों द्वारा मानो स्वामी के शरीर पर अमृत का लेप कर देती है, स्वामी के सो जाने पर सोती और पहले ही जग जाती है तथा स्वामी के ऊरुओं का स्पर्श करके उन्हें सोते से जगाती है ॥ १-१७अ ॥

कपित्थचूर्णयोगेन तथा दध्नः स्रजा तथा ।। १८ ।।

घृतं सुगन्धि भवति दुग्धैः क्षिप्तैस्तथा यवैः ।

भोज्यस्य कल्पनैवं स्याद्‌गन्धमुक्तिः प्रदर्श्यते ।। १९ ।।

शौचमाचमनं राम तथैव च विरेचनं ।

भावना चैव पाकश्च बोधनं धूपनन्तथा ।। २० ।।

वासनञ्चैव निर्द्दिष्टं कर्म्माष्टकमिदं स्मृतं ।

कपित्थविल्वजम्वाम्रकरवीरकपल्लबैः ।। २१ ।।

कृत्वोदकन्तु यद्‌द्रव्यं शौवितं शौचनन्तु तत् ।

तेषामभावे शौचन्तु मृगदर्पाम्भसा भवेत् ।। २२ ।।

नखं कुष्ठं घनं मांसी स्पृक्कशैलेयजं जलं ।

तथैव कुङ्कुमं लाक्षा चन्दनागुरुनीरदं ।। २३ ।।

सरलं देवकाष्ठञ्च कर्पूरं कान्तया सह ।

बालः कुन्दुरुकश्चैव गुग्गुलुः श्रीनिवासकः ।। २४ ।।

सह सर्जरसेनैवं धूपद्रव्यैकविंशतिः ।

धूपद्रव्यगणादस्मादेकविंशाद्यथेच्छया ।। २५ ।।

द्वे द्वे द्रव्ये समादाय सर्जभागैर्न्नियोजयेत् ।

नखपिण्याकमलयैः संयोज्य मधुना तथा ।। २६ ।।

धूपयोगा भवन्तीह यथावत् स्वेच्छया कृताः ।

त्वचन्नाडीं फलन्तैलं कुङ्कुमं ग्रन्थिपर्वकं ।। २७ ।।

शैलेयन्तगरं क्रान्तां चोलङ्कर्पूरमेव च ।

मासीं सुराञ्च कुष्ठञ्च स्नानद्रव्याणि निर्दिशेत् ।। २८ ।।

एतेभ्यस्तु समादाय द्रव्यत्रयमथेच्छया ।

मृगदर्पयुतं स्नानं कार्यं कन्दर्पवर्द्धनं ।। २९ ।।

त्वङ्‌मुरानलदैस्तुल्यैर्वालकार्द्धसमायुतैः।

स्नानमुत्पलगन्धि स्यात् सतैलं कुङ्कुमायते ।। ३० ।।

जातीपुष्पसुगन्धि स्यात् तगरार्द्धेन योजितं ।

सद्ध्यामकं स्याद्वकुलैस्तुल्यगन्धि मनोहरं ।। ३१ ।।

मञ्जिष्ठान्तगरं चोलं त्वचं चव्याघ्रनखं नखं ।

गनधपत्रञ्च विन्यस्य गन्धतैलं भवेच्छुभं ।। ३२ ।।

तैलं निपीडितं राम तिलैः पुष्पाधिवासितैः ।

वासनात् पुष्पसट्टशं गन्धेन तु भवेद् ध्रुवं ।। ३३ ।।

एलालवङ्गकक्कोलजातीफलनिशाकराः ।

जातीपत्रिकया सार्द्धं स्वतन्त्रा मुखवासकाः ।। ३४ ।।

कर्पूरं कुङ्कुमं कान्ता मृगदर्पं हरेणुकं ।

कक्कोलैलालवङ्गञ्च जाती कोशकमेव च ।। ३५ ।।

त्वक्‌पत्रं त्रुटिमुस्तौ च लतां कस्तूरिकं तथा ।

कण्टकानि लवङ्गस्य फलपत्रे च जातितः ।। ३६ ।।

कटुकञ्च फलं राम कार्षिकाण्युपकल्पयेत् ।

तच्चूर्णे खदिरं सारं दद्यात्तुर्यं तु वासित ।। ३७ ।।

सहकाररसेनास्मात् कर्त्तव्या गुटिकाः शुभाः ।

मुखे न्यस्ताः सुगन्धास्ता मुखरोगविनाशनाः ।। ३८ ।।

पूगं प्रक्षालितं सम्यक् पञ्चपल्लववारिणा ।

शक्त्या तु गुटिकाद्रव्यैर्वासितं मुखवासकं ।। ३९ ।।

कटुकं दन्तकाष्ठञ्च गोमूत्रे वासितं त्र्यहं ।

कृतञ्च पूगवद्राम मुखसौगन्धिकारकं ।। ४० ।।

त्वक्‌पथ्ययोः समावंशौ शशिभागार्द्धसंयुतौ ।

नागवल्लीसमो भाति मुखवासो मनोहरः ।। ४१ ।।

एवं कुर्य्यात् सदा स्त्रीणं रक्षणं पृथिवीपतिः ।

न चासां विश्वसेज्जातु पुत्रमातुर्विशेषतः ।।

न स्वपेत् स्त्रीगृहे रात्रौ विश्वासः कृत्रिमो भवेत् ।। ४२ ।।

राम! दही की मलाई के साथ थोड़ा-सा कपित्थ (कैथ) का चूर्ण मिला देने से जो घी तैयार होता है, उसकी गन्ध उत्तम होती है। घी, दूध आदि के साथ जौ, गेहूँ आदि के आटे का मेल होने से उत्तम खाद्य पदार्थ तैयार होता है। अब भिन्न-भिन्न द्रव्यों में गन्ध छोड़ने का प्रकार दिखलाया जाता है। शौच, आचमन, विरेचन, भावना, पाक, बोधन, धूपन और वासनये आठ प्रकार के कर्म बतलाये गये हैं। कपित्थ, बिल्व, जामुन, आम और करवीर के पल्लवों से जल को शुद्ध करके उसके द्वारा जो किसी द्रव्य को धोकर या अभिषिक्त करके पवित्र किया जाता है, वह उस द्रव्य का 'शौचन' (शोधन अथवा पवित्रीकरण) कहलाता है। इन पल्लवों के अभाव में कस्तूरीमिश्रित जल के द्वारा द्रव्यों की शुद्धि होती है। नख, कूट, घन (नागरमोथा), जटामांसी, स्पृक्क, शैलेयज (शिलाजीत), जल, कुमकुम (केसर), लाक्षा (लाह), चन्दन, अगुरु, नीरद, सरल, देवदारु, कपूर, कान्ता, वाल (सुगन्धवाला), कुन्दुरुक, गुग्गुल, श्रीनिवास और करायल-ये धूप के इक्कीस द्रव्य हैं। इन इक्कीस धूप- द्रव्यों में से अपनी इच्छा के अनुसार दो-दो द्रव्य लेकर उनमें करायल मिलावे। फिर सबमें नख (एक प्रकार का सुगन्धद्रव्य), पिण्याक (तिल की खली) और मलय-चन्दन का चूर्ण मिलाकर सबको मधु से युक्त करे। इस प्रकार अपने इच्छानुसार विधिवत् तैयार किये हुए धूपयोग होते हैं। त्वचा (छाल), नाड़ी (डंठल), फल, तिल का तेल, केसर, ग्रन्थिपर्वा, शैलेय, तगर, विष्णुक्रान्ता, चोल, कर्पूर, जटामांसी, मुरा, कूट ये सब स्नान के लिये उपयोगी द्रव्य हैं। इन द्रव्यों में से अपनी इच्छा के अनुसार तीन द्रव्य लेकर उनमें कस्तूरी मिला दे। इन सबसे मिश्रित जल के द्वारा यदि स्नान करे तो वह कामदेव को बढ़ानेवाला होता है। त्वचा, मुरा, नलद- इन सबको समान मात्रा में लेकर इनमें आधा सुगन्धवाला मिला दे। फिर इनके द्वारा स्नान करने पर शरीर से कमल की-सी गन्ध उत्पन्न होती है। इनके ऊपर यदि तेल लगाकर स्नान करे तो शरीर का रंग कुमकुम के समान हो जाता है। यदि उपर्युक्त द्रव्यों में आधा तगर मिला दिया जाय तो शरीर से चमेली के फूल की भाँति सुगन्ध आती है। उनमें द्वयामक नामवाली औषध मिला देने से मौलसिरी के फूलों की-सी मनोहारिणी सुगन्ध प्रकट होती है। तिल के तेल में मंजिष्ठ, तगर, चोल, त्वचा, व्याघ्रनख, नख और गन्धपत्र छोड़ देने से बहुत ही सुन्दर और सुगन्धित तेल तैयार हो जाता है। यदि तिलों को सुगन्धित फूलों से वासित करके उनका तेल पेरा जाय तो निश्चय ही वह तेल फूल के समान ही सुगन्धित होता है। इलायची, लवंग, काकोल (कबाबचीनी), जायफल और कर्पूर- ये स्वतन्त्ररूप से एक-एक भी यदि जायफल की पत्ती के साथ खाये जायँ तो मुँह को सुगन्धित रखनेवाले होते हैं। कर्पूर, केसर, कान्ता, कस्तूरी, मेठड़ का फल, कबाबचीनी, इलायची, लवंग, जायफल, सुपारी, त्वक्पत्र, त्रुटि (छोटी इलायची), मोथा, लता, कस्तूरी, लवंग के काँटे, जायफल के फल और पत्ते, कटुकफल- इन सबको एक- एक पैसे भर एकत्रित करके इनका चूर्ण बना ले और उसमें चौथाई भाग वासित किया हुआ खैरसार मिलावे। फिर आम के रस में घोटकर इनकी सुन्दर-सुन्दर गोलियाँ बना ले। वे सुगन्धित गोलियाँ मुँह में रखने पर मुख सम्बन्धी रोगों का विनाश करनेवाली होती है। पूर्वोक्त पाँच पल्लवों के जल से धोयी हुई सुपारी को यथाशक्ति ऊपर बतायी हुई गोली के द्रव्यों से वासित कर दिया जाय तो वह मुँह को सुगन्धित रखनेवाली होती है। कटुक और दाँतन को यदि तीन दिन तक गोमूत्र में भिगोकर रखा जाय तो वे सुपारी की ही भाँति मुँह में सुगन्ध उत्पन्न करनेवाले होते हैं। त्वचा और जंगी हर्रे को बराबर मात्रा में लेकर उनमें आधा भाग कर्पूर मिला दे तो वे मुँह में डालने पर पान के समान मनोहर गन्ध उत्पन्न करते हैं। इस प्रकार राजा अपने सुगन्ध आदि गुणों से स्त्रियों को वशीभूत करके सदा उनकी रक्षा करे । कभी उन पर विश्वास न करे। विशेषतः पुत्र की माता पर तो बिलकुल विश्वास न करे। सारी रात स्त्री के घर में न सोवे; क्योंकि उनका दिलाया हुआ विश्वास बनावटी होता है ॥ १८-४२ ॥

इत्यादिम्हापुराणे आग्नेये स्त्रीरक्षादिकामशास्त्रं नाम चतुर्विंशत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ।

इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में 'राजधर्म का कथन' नामक दो सौ चौबीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २२४ ॥

आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 225 

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