अग्निपुराण अध्याय २२७
अग्निपुराण अध्याय २२७ में अपराधों
के अनुसार दण्ड के प्रयोग का वर्णन है।
अग्निपुराणम् सप्तविंशत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः
Agni puran chapter 227
अग्निपुराण दो सौ सत्ताईसवाँ अध्याय
अग्निपुराणम्/अध्यायः २२७
अग्निपुराणम् अध्यायः २२७ – राजधर्माः
अथ सप्तविंशत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः
पुष्कर उवाच
दण्डप्रणयनं वक्ष्ये येन राज्ञः परा
गतिः ।
त्रियवं कृष्णलं विद्धि माषस्तत्पञ्चकं
भवेत् ।। १ ।।
कृष्णलानां तथा षष्ट्या कर्षार्द्धं
राम कीर्त्तितं ।
सुवर्णश्च विनिर्द्दिष्टो राम
षोडशमाषकः ।। २ ।।
निष्कः सुवर्णाश्चत्वारो धरणं
दशभिस्तु तैः ।
ताम्ररूप्यसुवर्णानां मानमेतत्
प्रकीर्त्तिंतं ।। ३ ।।
पुष्कर कहते हैं- राम! अब मैं
दण्डनीति का प्रयोग बतलाऊँगा, जिससे राजा को
उत्तम गति प्राप्त होती है। तीन जौ का एक 'कृष्णल' समझना चाहिये, पाँच कृष्णल का एक 'माष' होता है, साठ कृष्णल
(अथवा बारह माष) 'आधे कर्ष' के बराबर
बताये गये हैं। सोलह माष का एक 'सुवर्ण' माना गया है। चार सुवर्ण का एक 'निष्क' और दस निष्क का एक 'धरण' होता
है। यह ताँबे, चाँदी और सोने का मान बताया गया है ॥ १-३ ॥
ताम्रिकैः काषिको राम प्रोक्तः
कार्षापणो बुधैः ।
पणानां द्वे शते सार्द्धं प्रथमः
साहसः स्मृतः ।। ४ ।।
मध्यमः पञ्च विज्ञेयः सहस्रमपि
चोत्तम ।
चौरैरमूषितो यस्तु मूषितोऽस्मीति
भाषते ।। ५ ।।
तत्प्रदातरि भूपाले स दण्ड्यस्तावदेव
तु ।
यो यावद्विपरीतार्थं मिथ्या वा यो
वदेत्तु तं ।। ६ ।।
तौ नृपेण ह्यधर्मज्ञौ दाप्यौ
तद्द्विगुणं दमं ।
कूटसाक्ष्यन्तु कुर्वाणांस्त्रीन्
वर्णांश्च प्रदापयेत् ।। ७ ।।
विवासयेद् ब्राह्मणन्तु भोज्यो
विधिर्न्न हीरितः ।
निक्षेपस्य समं मूल्यं दण्ड्यो निक्षेपभुक्
तथा ।। ८ ।।
वस्त्रादिकस्य धर्म्मज्ञ तथा धर्मो
न हीयते ।
यो निक्षेपं घातयति यश्चानिक्षिप्य
याचते ।। ९ ।।
तावुभौ चौरवच्छास्यौ दण्ड्यौ वा
द्विगुणं दमं ।
अज्ञानाद्यः पुमान् कुर्य्यात्
परद्रव्यस्य विक्रयं ।। १० ।।
निर्द्दोषो ज्ञानपूर्वन्तु चौरवद्दण्डमर्हति
।
मूल्यमादाय यः शिल्पं न दद्याद्
दण्ड्य एव सः ।। ११।।
प्रतिश्रुत्याप्रदातारं सुवर्णं
दण्डयेन्नृपः ।
भृति गृह्य न कुर्य्याद्यः
कर्माष्टौ कृष्णला दमः ।। १२ ।।
अकाले तु त्यजन् भृत्यं दण्ड्यः
स्यात्तावदेव तु ।
क्रीत्वा विक्रीय वा किञ्चिद्यस्येहानुशयो
भवेत् ।। १३ ।।
सोऽन्तर्दशाहात्तत्स्वामी
दद्याच्चैवाददीत च ।
परेण तु दशाहस्य नादद्यान्नैव
दापयेत् ।। १४ ।।
आददद्धि ददच्चैव राज्ञा दण्ड्याः
शततनि षट् ।
परशुरामजी ! ताँबे का जो 'कर्ष' होता है, उसे विद्वानों ने
'कार्षिक' और 'कार्षापण'
नाम दिया है ढाई सौ पण (पैसे) 'प्रथम साहस'
दण्ड माना गया है, पाँच सौ पण 'मध्यम साहस' और एक हजार पण 'उत्तम
साहस' दण्ड बताया गया है। चोरों के द्वारा जिसके धन की चोरी
नहीं हुई है तो भी जो चोरी का धन वापस देनेवाले राजा के पास जाकर झूठ ही यह कहता
है कि 'मेरा इतना धन चुराया गया है, उसके
कथन की असत्यता सिद्ध होने पर उससे उतना ही धन दण्ड के रूप में वसूल करना चाहिये।
जो मनुष्य चोरी में गये हुए धन के विपरीत जितना धन बतलाता है, अथवा जो जितना झूठ बोलता है-उन दोनों से राजा को दण्ड के रूप में दूना धन
वसूल करना चाहिये; क्योंकि वे दोनों ही धर्म को नहीं जानते।
झूठी गवाही देनेवाले क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र-इन तीनों
वर्णों को कठोर दण्ड देना चाहिये; किंतु ब्राह्मण को केवल
राज्य से बाहर कर देना उचित है। उसके लिये दूसरे किसी दण्ड का विधान नहीं है।
धर्मज्ञ ! जिसने धरोहर हड़प ली हो, उस पर धरोहर के रूप में
रखे हुए वस्त्र आदि की कीमत के बराबर दण्ड लगाना चाहिये; ऐसा
करने से धर्म की हानि नहीं होती। जो धरोहर को नष्ट करा देता है, अथवा जो धरोहर रखे बिना ही किसी से कोई वस्तु माँगता है - उन दोनों को चोर
के समान दण्ड देना चाहिये; या उनसे दूना जुर्माना वसूल करना
चाहिये। यदि कोई पुरुष अनजान में दूसरे का धन बेच देता है तो वह (भूल स्वीकार करने
पर) निर्दोष माना गया है; परंतु जो जान-बूझकर अपना बताते हुए
दूसरे का सामान बेचता है, वह चोर के समान दण्ड पाने का
अधिकारी है जो अग्रिम मूल्य लेकर भी अपने हाथ का काम बनाकर न दे, वह भी दण्ड देने के ही योग्य है। जो देने की प्रतिज्ञा करके न दे, उस पर राजा को सुवर्ण ( सोलह माष) का दण्ड लगाना चाहिये। जो मजदूरी लेकर
काम न करे, उस पर आठ कृष्णल जुर्माना लगाना चाहिये। जो असमय में
भृत्य का त्याग करता है, उस पर भी उतना ही दण्ड लगाना चाहिये
। कोई वस्तु खरीदने या बेचने के बाद जिसको कुछ पश्चात्ताप हो, वह धन का स्वामी दस दिन के भीतर दाम लौटाकर माल ले सकता है। (अथवा खरीददार
को ही यदि माल पसंद न आवे तो वह दस दिन के भीतर उसे लौटाकर दाम ले सकता है।) दस
दिन से अधिक हो जाने पर यह आदान-प्रदान नहीं हो सकता। अनुचित आदान-प्रदान करनेवाले
पर राजा को छः सौ का दण्ड लगाना चाहिये ॥ ४ – १४अ ॥
वरे दोषानविख्याप्य यः कन्यां
वरयेदिह ।। १५ ।।
दत्ताप्यदत्ता सा सस्य राज्ञा
दण्ड्यः शतद्वयं ।
प्रदाय कन्यां योऽन्यस्मै पुनस्तां
सम्प्रयच्छति ।। १६ ।।
दण्डः कार्य्यो नरेन्द्रेण
तस्याप्युत्तमसाहसः ।
सत्यङ्कारेण वाचा च युक्तं
पुण्यमसंशयं ।। १७ ।।
लुब्धोऽन्यत्र च विक्रेता षट्शतं
दण्डमर्हति ।
दद्यार्द्धनुं न यः पालो गृहीत्वा
भक्तवेतनं ।। १८ ।।
स तु दण्ड्यः शतं राज्ञा सुवर्णं
वाप्यरक्षिता ।
धनुःशतं परीणा्हो ग्रामस्य तु
समन्ततः ।। १९ ।।
द्विगुणं त्रिगुणं वापि नगरस्य च
कल्पयेत् ।
वृति तत्र प्रकुर्वीत यामुष्ट्रो
नावलोकयेत् ।। २० ।।
तत्रापरिवृते धान्ये हिंसिते नैव
दण्डनं ।
गृहन्तडागमारामं क्षेत्रं वा भीषया
हरन् ।। २१ ।।
शतानि पञ्च दण्ड्यः स्यादज्ञानाद्द्विशतोदमः
।
मर्यादाभेदकाः सर्वे दण्ड्याः
प्रथमसाहसं ।। २२ ।।
जो वर के दोषों को न बताकर किसी
कन्या का वरण करता है, उसको वचन द्वारा दी
हुई कन्या भी नहीं दी हुई के ही समान है। राजा को चाहिये कि उस व्यक्ति पर दो सौ का
दण्ड लगावे। जो एक को कन्या देने की बात कहकर फिर दूसरे को दे डालता है, उस पर राजा को उत्तम साहस (एक हजार पण ) - का दण्ड लगाना चाहिये। वाणी द्वारा
कहकर उसे कार्य रूप में सत्य करने से निस्संदेह पुण्य की प्राप्ति होती है। जो
किसी वस्तु को एक जगह देने की प्रतिज्ञा करके उसे लोभवश दूसरे के हाथ बेच देता है,
उस पर छ: सौ का दण्ड लगाना चाहिये। जो ग्वाला मालिक से भोजन खर्च और
वेतन लेकर भी उसकी गाय उसे नहीं लौटाता, अथवा अच्छी तरह उसका
पालन-पोषण नहीं करता, उस पर राजा सौ सुवर्ण का दण्ड लगावे । गाँव
के चारों ओर सौ धनुष के घेरे में तथा नगर के चारों ओर दो सौ या तीन सौ धनुष के घेरे
में खेती करनी चाहिये, जिसे खड़ा हुआ ऊँट न देख सके। जो खेत
चारों ओर से घेरा न गया हो, उसकी फसल को किसी के द्वारा
नुकसान पहुँचने पर दण्ड नहीं दिया जा सकता। जो भय दिखाकर दूसरों के घर, पोखरे, बगीचे अथवा खेत को हड़पने की चेष्टा करता है,
उसके ऊपर राजा को पाँच सौ का दण्ड लगाना चाहिये। यदि उसने अनजान में
ऐसा किया हो तो दो सौ का ही दण्ड लगाना उचित है। सीमा का भेदन करनेवाले सभी लोगों को
प्रथम श्रेणी के साहस (ढाई सौ पण ) -का दण्ड देना चाहिये ॥ १५ - २२ ॥
शतं ब्राह्मणमाक्रुश्य क्षत्रियो
दण्डमर्हति ।
वैश्यश्च द्विशतं राम शूद्रश्च
बधमर्हति ।। २३ ।।
पञ्चाशद्ब्राह्मणो दण्ड्यः
क्षत्रियस्याभिशंसने ।
वैश्ये वाप्यर्द्धपञ्चाशच्छूद्रे
द्वादशको दमः ।। २४ ।।
क्षत्रियस्याप्नुयाद्वैश्यः साहसं
पूर्वमेव तु ।
शूद्रः क्षत्रियमाक्रुश्य
जिह्वाच्छेदनमाप्नुयात् ।। २५ ।।
धर्मोपदेशं विप्राणां शूद्रः
कुर्वंश्च दण्डभाक् ।
श्रुतदेशादिवितथी दाप्यो
द्विगुणसाहसं ।। २६ ।।
उत्तमः साहसस्तस्य यः पापैरुत्तमान्
क्षिपेत् ।
प्रमादाद्यैर्मया प्रोक्तं प्रीत्या
दण्डार्द्धमर्हति ।। २७ ।।
मातरं पितरं ज्येष्ठं भ्रातरं
श्वशुरं गुरुं ।
आक्षारयञ्छतं दण्ड्यः पन्थानं
चाददद्गुरोः ।। २८ ।।
अन्त्यजातिर्द्विजातिन्तु
येनाङ्गेनापराध्नुयात् ।
तदेवच्छेदयेत्तस्य
क्षिप्रमेवाविचारयन् ।। २९ ।।
अवनिष्ठीवतो दर्पाद् द्वावोष्ठौ
छेदयेन्नृपः ।
अपमूत्रयतो मेढ्रमपशब्दयतो गुदं ।।
३० ।।
उत्कृष्टासनसंस्थस्य
नीचस्याधोनिकृन्तनं ।
यो यदङ्गं च रुजयेत्तदङ्गन्तस्य
कर्त्तयेत् ।। ३१ ।।
अर्द्धपादकराः कार्या
गोगजाश्वोष्ट्रघातकाः ।
वृक्षन्तु विफलं कृत्त्वा सुवर्ण
दण्डमर्हति ।। ३२ ।।
द्विगुणं दाप्येच्छिन्ने पथि सीम्नि
जलाशये ।
द्रव्याणि यो हरेद्यस्य
ज्ञानतोऽज्ञानतोऽपि वा ।। ३३ ।।
स सस्योत्पाद्य तुष्टिन्तु राज्ञे
दद्यात्ततो दमं ।
यस्तु रज्जुं घटं
कूपाद्धरेच्छिन्द्याच्च तां प्रपां ।। ३४ ।।
स दण्डं प्राप्नुयान्मासं दण्ड्यः
स्यात् प्राणिताड़ने ।
धान्यं दशभ्यः कुम्भेभ्यो
हरतोऽभ्यधिकं बधः ।। ३५ ।।
शेषेऽप्येकादशगुणं तस्य दण्डं
प्रकल्पयेत् ।
सुवर्णरजतीदीनां नृस्त्रीणां हरणे
बधः ।। ३६ ।।
येन येन यथाह्गेन स्तेनो नृषु
विचेष्टते ।
तत्तदेव हरेदस्य प्रत्यादेशाय
पार्थिवः ।। ३७ ।।
ब्राह्मणः शाकधान्यादि अल्पं
गृह्णन्न दोषबाक् ।
गोदेवार्थं हरंश्चापि हन्याद्दुष्टं
बधोद्यतं ।। ३८ ।।
गृहक्षेत्रापहर्त्तारं तथा पत्न्यभिगामिनं
।
अग्निनदं गरदं हन्यात्तथा
चाभ्युद्यतायुधं ।। ३९ ।।
परशुरामजी ! ब्राह्मण को नीचा
दिखानेवाले क्षत्रिय पर सौ का दण्ड लगाना उचित है। इसी अपराध के लिये वैश्य से दो
सौ जुर्माना वसूल करे और शूद्र को कैद में डाल दे। क्षत्रिय को कलंकित करने पर ब्राह्मण
को पचास का दण्ड, वैश्य पर दोषारोपण
करने से पचीस का और शूद्र को कलंक लगाने पर उसे बारह का दण्ड देना उचित है। यदि
वैश्य क्षत्रिय का अपमान करे तो उस पर प्रथम साहस (ढाई सौ पण ) का दण्ड लगाना
चाहिये और शूद्र यदि क्षत्रिय को गाली दे तो उसकी जीभ को सजा देनी चाहिये।
ब्राह्मणों को उपदेश करनेवाला शूद्र भी दण्ड का भागी होता है। जो अपने
शास्त्रज्ञान और देश आदि का झूठा परिचय दे, उसे दूने साहस का
दण्ड देना उचित है। जो श्रेष्ठ पुरुषों को पापाचारी कहकर उनके ऊपर आक्षेप करे,
वह उत्तम साहस का दण्ड पाने के योग्य है। यदि वह यह कहकर कि 'मेरे मुँह से प्रमादवश ऐसी बात निकल गयी है, अपना
प्रेम प्रकट करे तो उसके लिये दण्ड घटाकर आधा कर देना चाहिये। माता, पिता, ज्येष्ठ भ्राता श्वशुर तथा गुरु पर आक्षेप
करनेवाला और गुरुजनों को रास्ता न देनेवाला पुरुष भी सौ का दण्ड पाने के योग्य है।
जो मनुष्य अपने जिस अंग से दूसरे ऊँचे लोगों का अपराध करे, उसके
उसी अंग को बिना विचारे शीघ्र ही काट डालना चाहिये। जो घमंड में आकर किसी उच्च
पुरुष की ओर थूके, राजा को उसके ओठ काट लेना उचित है। इसी
प्रकार यदि वह उसकी ओर मुँह करके पेशाब करे तो उसका लिङ्ग और उधर पीठ करके अपशब्द
करे तो उसकी गुदा काट लेने के योग्य है। इतना ही नहीं, यदि
वह ऊँचे आसन पर बैठा हो तो उस नीच के शरीर के निचले भाग को दण्ड देना उचित है। जो
मनुष्य दूसरे के जिस किसी अंग को घायल करे, उसके भी उसी अंग को
कुतर डालना चाहिये। गौ, हाथी, घोड़े और
ऊँट को हानि पहुँचानेवाले मनुष्यों के आधे हाथ और पैर काट लेने चाहिये। जो किसी
(पराये) वृक्ष के फल तोड़े, उस पर सुवर्ण का दण्ड लगाना उचित
है। जो रास्ता, खेत की सीमा अथवा जलाशय आदि को काटकर नष्ट
करे, उससे नुकसान का दूना दण्ड दिलाना चाहिये। जो जान-बूझकर
या अनजान में जिसके धन का अपहरण करे, वह पहले उसके धन को
लौटाकर उसे संतुष्ट करे। उसके बाद राजा को भी जुर्माना दे जो कुएँ पर से दूसरे की
रस्सी और घड़ा चुरा लेता तथा पौसले नष्ट कर देता है, उसे एक
मासतक कैद की सजा देनी चाहिये। प्राणियों को मारने पर भी यही दण्ड देना उचित है।
जो दस घड़े से अधिक अनाज की चोरी करता है, वह प्राणदण्ड देने
के योग्य है। बाकी में भी अर्थात् दस घड़े से कम अनाज की चोरी करने पर भी, जितने घड़े अन्न की चोरी करे, उससे ग्यारह गुना अधिक
उस चोर पर दण्ड लगाना चाहिये। सोने-चाँदी आदि द्रव्यों, पुरुषों
तथा स्त्रियों का अपहरण करने पर अपराधी को वध का दण्ड देना चाहिये। चोर जिस-जिस
अंग से जिस प्रकार मनुष्यों के प्रतिकूल चेष्टा करता है, उसके
उसी उसी अंग को वैसी ही निष्ठुरता के साथ कटवा डालना राजा का कर्तव्य है। इससे
चोरों को चेतावनी मिलती है। यदि ब्राह्मण बहुत थोड़ी मात्रा में शाक और धान्य आदि
ग्रहण करता है तो वह दोष का भागी नहीं होता। गो-सेवा तथा देव- पूजा के लिये भी कोई
वस्तु लेनेवाला ब्राह्मण दण्ड के योग्य नहीं है। जो दुष्ट पुरुष किसी का प्राण
लेने के लिये उद्यत हो, उसका वध कर डालना चाहिये। दूसरों के
घर और क्षेत्र का अपहरण करनेवाले, परस्त्री के साथ व्यभिचार
करनेवाले, आग लगानेवाले, जहर देनेवाले
तथा हथियार उठाकर मारने को उद्यत हुए पुरुष को प्राणदण्ड देना ही उचित है । २३ -
३९ ॥
राजा गवाभिवाराद्यं
हन्याच्चैवाततायिनः ।
परस्त्रियं न भाषेत प्रतिषिद्धो
विशेन्न हि ।।४०।।
अदण्ड्या स्त्री भवेद्राज्ञा
वरयन्ती पतिं स्वयं ।
उत्तमां सेवमानः स्त्रीं जघन्यो
बधमर्हति ।। ४१ ।।
भर्त्तारं लङ्घयेद्या तां श्वभिः
सङ्घातयेत् स्थिरं ।
सवर्णदूषितां कुर्य्यात्
पिण्डमात्रोपजीविनीं ।। ४२ ।।
ज्यायसा दूषिता नारी मुण्डनं समवाप्नुयात्
।
वैश्यागमे तु विप्रस्य
क्षत्रियस्यान्त्यजागमे ।। ४३ ।।
क्षत्रियः प्रथमं वैश्यो दण्ड्यः
शद्रागमे भवेत् ।
गुहीत्वा वेतनं वेश्या लोभादन्यत्र
गच्छति ।। ४४ ।।
वेतनन्द्विगुणं दद्याद्दण्डञ्च
द्विगुणं तथा।
भार्या पुत्राश्च दासाश्च शिष्यो
भ्राता च सोदरः ।। ४५ ।।
कृतापराधास्ताड्याः स्यू रज्वा
वेणुदलेन वा ।
पृष्टेन मस्तके
हन्याच्चौरस्याप्नोति किल्विषं ।। ४६ ।।
राजा गौओं को मारनेवाले तथा आततायी
पुरुषों का वध करे। परायी स्त्री से बातचीत न करे और मना करने पर किसी के घर में न
घुसे । स्वेच्छा से पति का वरण करनेवाली स्त्री राजा के द्वारा दण्ड पाने के योग्य
नहीं है,
किंतु यदि नीच वर्ण का पुरुष ऊँचे वर्ण की स्त्री के साथ समागम करे
तो वह वध के योग्य है। जो स्त्री अपने स्वामी का उल्लंघन (करके दूसरे के साथ
व्यभिचार) करे, उसको कुत्तों से नोचवा देना चाहिये। जो सजातीय
परपुरुष के सम्पर्क से दूषित हो चुकी हो, उसे (सम्पत्ति के
अधिकार से वञ्चित करके) शरीर- निर्वाहमात्र के लिये अन्न देना चाहिये। पति के
ज्येष्ठ भ्राता से व्यभिचार करके दूषित हुई नारी के मस्तक का बाल मुँडवा देना
चाहिये। यदि ब्राह्मण वैश्यजाति की स्त्री से और क्षत्रिय नीच जाति की स्त्री के
साथ समागम करें तो उनके लिये भी यही दण्ड है। शूद्रा के साथ व्यभिचार करनेवाले
क्षत्रिय और वैश्य को प्रथम साहस ( ढाई सौ पण ) -का दण्ड देना उचित है। यदि वेश्या
एक पुरुष से वेतन लेकर लोभवश दूसरे के पास चली जाय तो वह दूना वेतन वापस करे और
दण्ड भी दूना दे। स्त्री, पुत्र, दास,
शिष्य तथा सहोदर भाई यदि अपराध करें तो उन्हें रस्सी अथवा बाँस की
छड़ी से पीट देना चाहिये। प्रहार पीठ पर ही करना उचित है, मस्तक
पर नहीं मस्तक पर प्रहार करनेवाले को चोर का दण्ड मिलता है ॥ ४० – ४६ ॥
रक्षास्वधिकृतैर्यस्तु
प्रजाऽत्यर्थं विलुप्यते ।
तेषां सर्वस्वमादाय राजा कुर्य्यान्
प्रवासनं ।। ४७ ।।
ये नियुक्ताः स्वकार्येषुहन्युः
कार्याणि कर्मिणां ।
निर्घृणाः क्रूरमनसस्तान्निः स्वान्
कारयेन्नृप ।। ४८ ।।
अमात्यः प्राड्विवाको वा यः
कुर्य्यात् कार्य्यमन्यथा ।
तस्य सर्वस्वमादाय तं राजा
विप्रवासयेत् ।। ४९ ।।
गुरुतल्पे भयः कार्य्यः सुरापाणे
सुराध्वजः ।
स्तेयेषु श्वपदं विद्याद्
ब्रह्महत्याशिरः पुमान् ।। ५० ।।
शूद्रादीन् घातयेद्राजा पापान्
विप्रान् प्रवासयेत् ।
महापातकिनां वित्तं वरुणायोपपादयेत्
।। ५१ ।।
ग्रामेष्वपि च ये केचिच्चौराणां
भक्तदायकाः ।
भाण्डार कोषदाश्चैव सर्वांस्तानपि
घातयेत् ।। ५२ ।।
राष्ट्रेषु राष्ट्राधिकृतान्
सामन्तान् पापिनोहरेत् ।
सन्धि कृत्वा तु ये चौर्यं रात्रौ
कुर्वन्ति कस्तराः ।। ५३ ।।
तेषां च्छित्वा नृपो हस्तौ तीक्ष्णे
शूले निवेशयेत् ।
तड़ागदेवतागारभेदकान् घातयेन्नृपः
।। ५४ ।।
समुत्सृजेद्राजमार्गे
यस्त्वमेध्यमनापदि ।
स हि कार्षापणन्दण्ड्यस्तममेध्यञ्च
शोधयेत् ।। ५५ ।।
प्रतिमासङ्क्रमभिदो दद्युः
पञ्चशतानि ते ।
समैश्च विषमं यो वा चरतेक
मूल्यतोऽपि वा ।। ५६ ।।
समाप्नुयान्नरः पूर्वं दमं मध्यममेव
वा ।
द्रव्यमादाय वणिजामनर्घेणावरुन्दतां
।। ५७ ।।
राजा पृथक् पृथक्
कुर्य्याद्दण्डमुत्तमसाहसं ।
द्रव्याणां दूषको यश्च
प्रतिच्छन्दकविक्रयी ।। ५८ ।।
मध्यमं प्राप्नुयाद्दण्डं
कूटकर्त्ता तथोत्तमं ।
कलहापकृतं देयं दण्डश्च
द्विगुणस्ततः ।। ५९ ।।
अभक्ष्यभक्ष्ये विप्रे वा शूद्रे वा
कृष्णलो दमः ।
लुलाशासनकर्त्ता च कूटकृन्नाशकस्य च
।। ६० ।।
एभिश्च व्यवहर्त्तां यः स दाप्यो
दममुत्तमं ।
विषाग्निदां
पतिगुरुविप्रापत्यप्रमापिणीं ।। ६१ ।।
विकर्णकरनासौष्ठीं कृत्वा गोभिः
प्रवासयेत् ।
क्षेत्रवेश्मग्रामवनविदारकास्तथा
नराः ।। ६२ ।।
राजपत्न्यभिगामी च दग्धव्यास्तु
कटाग्निना ।
ऊनं वाप्यधिकं वापि लिखेद्यो
राजशासनं ।। ६३ ।।
पारजायिकचौरौ च मुञ्चतो मण्ड उत्तमः
।
राजयानासनारोढ्र्दण्ड उत्तमसाहसः
।। ६४ ।।
यो मन्येताजितोऽस्मीति न्यायेनापि
पराजितः ।
तमायान्तं पराजित्य६ दण्डयेद्
द्विगुणं दमं ।। ६५ ।।
आह्वानकारी बध्यः
स्यादनाहूतमथाह्वयन् ।
दाण्डिकस्य च यो हस्तादभिमुक्तः
पलायते ।। ६६ ।।
हीनः पुरुषकारेण तद्
दद्याद्दाण्डिको धनं ।।६७॥
जो रक्षा के काम पर नियुक्त होकर
प्रजा से रुपये ऐंठते हों, उनका सर्वस्व छीनकर
राजा उन्हें अपने राज्य से बाहर कर दे। जो लोग किसी कार्यार्थी के द्वारा उसके
निजी कार्य में नियुक्त होकर वह कार्य चौपट कर डालते हैं, राजा
को उचित है कि उन क्रूर और निर्दयी पुरुषों का सारा धन छीन ले । यदि कोई मन्त्री
अथवा प्राड्विवाक (न्यायाधीश) विपरीत कार्य करे तो राजा उसका सर्वस्व लेकर उसे
अपने राज्य से बाहर निकाल दे। गुरुपत्नीगामी के शरीर पर भग का चिह्न अंकित करा दे।
सुरापान करनेवाले महापातकी के ऊपर शराबखाने के झंडे का चिह्न दगवा दे। चोरी करनेवाले
पर कुत्ते का नाखून गोदवा दे और ब्रह्महत्या करनेवाले के भाल पर नरमुण्ड का चिह्न
अंकित कराना चाहिये। पापाचारी नीचों को राजा मरवा डाले और ब्राह्मणों को देश
निकाला दे दे तथा महापातकी पुरुषों का धन वरुण देवता के अर्पण कर दे (जल में डाल
दे। गाँव में भी जो लोग चोरों को भोजन देते हों तथा चोरी का माल रखने के लिये घर
और खजाने का प्रबन्ध करते हों, उन सबका भी वध करा देना उचित
है। अपने राज्य के भीतर अधिकार के कार्य पर नियुक्त हुए सामन्त नरेश भी यदि पाप में
प्रवृत्त हों तो उनका अधिकार छीन लेना चाहिये। जो चोर रात में सेंध लगाकर चोरी
करते हैं, राजा को उचित है कि उनके दोनों हाथ काटकर उन्हें
तीखी शूली पर चढ़ा दे। इसी प्रकार पोखरा तथा देवमन्दिर नष्ट करनेवाले पुरुषों को
भी प्राणदण्ड दे। जो बिना किसी आपत्ति के सड़क पर पेशाब, पाखाना
आदि अपवित्र वस्तु छोड़ता है, उस पर कार्षापणों का दण्ड
लगाना चाहिये तथा उसी से वह अपवित्र वस्तु फेंकवाकर वह जगह साफ करानी चाहिये ।
प्रतिमा तथा सीढ़ी को तोड़नेवाले मनुष्यों पर पाँच सौ कर्ष का दण्ड लगाना चाहिये।
जो अपने प्रति समान बर्ताव करनेवालों के साथ विषमता का बर्ताव करता है, अथवा किसी वस्तु की कीमत लगाने में बेईमानी करता है, उस पर मध्यम साहस (पाँच सौ कर्ष) का दण्ड लगाना चाहिये। जो लोग बनियों से
बहुमूल्य पदार्थ लेकर उसकी कीमत रोक लें, राजा उन पर
पृथक्-पृथक् उत्तम साहस (एक हजार कर्ष)-का दण्ड लगावे । जो वैश्य अपने सामानों को
खराब करके, अर्थात् बढ़िया चीजों में घटिया चीजें मिलाकर
उन्हें मनमाने दाम पर बेचे, वह मध्यम साहस (पाँच सौ कर्ष) का
दण्ड पाने के योग्य है। जालसाज को उत्तम साहस (एक हजार कर्ष ) - का और कलहपूर्वक
अपकार करनेवाले को उससे दूना दण्ड देना उचित है। अभक्ष्य भक्षण करनेवाले ब्राह्मण
अथवा शूद्र पर कृष्णल का दण्ड लगाना चाहिये। जो तराजू पर शासन करता है, अर्थात् डंडी मारकर कम तौल देता है, जालसाजी करता है
तथा ग्राहकों को हानि पहुँचाता है— इन सबको और जो इनके साथ
व्यवहार करता है, उसको भी उत्तम साहस का दण्ड दिलाना चाहिये।
जो स्त्री जहर देनेवाली, आग लगानेवाली तथा पति, गुरु, ब्राह्मण और संतान की हत्या करनेवाली हो,
उसके हाथ, कान, नाक और
ओठ कटवाकर बैल की पीठ पर चढ़ाकर उसे राज्य से बाहर निकाल देना चाहिये। खेत,
घर, गाँव और जंगल नष्ट करनेवाले तथा राजा की
पत्नी से समागम करनेवाले मनुष्य घास-फूस की आग में जला देने योग्य हैं जो राजा की
आज्ञा को घटा-बढ़ाकर लिखता है तथा परस्त्रीगामी पुरुषों और चोरों को बिना दण्ड दिये
ही छोड़ देता है, वह उत्तम साहस के दण्ड का अधिकारी है। राजा
की सवारी और आसन पर बैठनेवाले को भी उत्तम साहस का ही दण्ड देना चाहिये जो
न्यायानुसार पराजित होकर भी अपने को अपराजित मानता है, उसे
सामने आने पर फिर जीते और उस पर दूना दण्ड लगावे । जो आमन्त्रित नहीं है, उसको बुलाकर लानेवाला पुरुष वध के योग्य है। जो अपराधी दण्ड देनेवाले
पुरुष के हाथ से छूटकर भाग जाता है, वह पुरुषार्थ से हीन है।
दण्डकर्ता को उचित है कि ऐसे भीरु मनुष्य को शारीरिक दण्ड न देकर उस पर धन का दण्ड
लगावे ॥ ४७-६७ ॥
इत्यादिमहापुराणे आग्नेये दण्डप्रणयनं
नाम सप्तविंशत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ।
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में 'दण्ड- प्रणयन का कथन' नामक दो सौ सत्ताईसवाँ अध्याय
पूरा हुआ ॥ २२७ ॥
आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 228
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