अग्निपुराण अध्याय २२९
अग्निपुराण अध्याय २२९ में अशुभ
और शुभ स्वप्नों का विचार का वर्णन है।
अग्निपुराणम् एकोनत्रिंशत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः
Agni puran chapter 229
अग्निपुराण दो सौ उनतीसवाँ अध्याय
अग्निपुराणम्/अध्यायः २२९
अग्निपुराणम् अध्यायः २२९ – स्वप्नाध्यायः
अथ एकोनत्रिंशत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः
पुष्कर उवाच
स्वप्नं शुभाशुभं वक्ष्ये
दुःस्वप्नहरणन्तथा ।
नाभिं विनान्यत्र गात्रे
तृणवृक्षसमुद्भवः ।। १ ।।
चूर्णनं मूद्र्ध्नि कांस्यानां
मुण्डनं नग्नता तथा ।
मलिनाम्बरधारित्वमभ्यङ्गः
पङ्कदिग्धता ।। २ ।।
उच्चात् प्रपतनञ्चैव विवाहो गीतमेव
च ।
तन्त्रीवाद्यविनोदश्च दालारोहणमेव च
।। ३ ।।
अर्जनं पद्मलोहानां सर्पाणामथ मारणं
।
रक्तपुष्पद्रुमाणाञ्च चण्डालस्य
तथैव च ।। ४ ।।
वराहश्वखरोष्ट्राणां तथा
चारोहणक्रिया ।
भक्षणं पक्षिमांसानां तैलस्य
कृशरस्य च ।। ५ ।।
मातुः प्रवेशो जठरे चितारोहणमेव च ।
शक्रध्वजाभिपतनं पतनं शशिसूर्य्ययोः
।। ६ ।।
दिव्यान्तरीक्षभौमानामुत्पातानाञ्च
दर्शनं ।
देवद्विजातिभूपानां गुरूणाङ्कोप एव
च ।। ७ ।।
नर्त्तनं हसनञ्चैव विवाहो गीतमेव च
।
तन्त्रीवाद्यविहीनानां वाद्यानामपि
वादनं ।। ८ ।।
स्त्रोतोवहाधोगमनं स्नानं
गोमयवारिणा ।
पङ्कोदकेन च तथा मशीतोयेन वाप्यथ ।।
९ ।।
आलिड्गनं कुमारीणां पुरुषाणाञ्च
मैथुनं ।
हानिश्चैव स्वगात्राणां विरेको
वमनक्रिया ।। १० ।।
दक्षिणाशाप्रगमनं व्याधिनाभिभवस्तथा
।
फलानामुपहानिश्च धातूनां भेदनं तथा
।। ११ ।।
गृहाणाञ्चैव पतनं गृहसम्मार्जनन्तथा
।
क्रोडा
पिशाचक्रव्यादवानरान्त्यनरैरपि ।। १२ ।।
परादभिभवश्चैव तस्माच्च व्यसनोद्भवः
।
काषायवस्त्रधारित्वं तद्वस्त्रै
क्रीडनं तथा ।। १३ ।।
स्रेहपानावगाहौ च रक्तमाल्यानुलेपनं
।
इत्यधन्यानि स्वप्नानि तेषामकथनं
शुभं ।। १४ ।।
भूयश्च स्वपनं तद्वत् कार्य्यं
स्नानं द्विजार्च्चनं ।
तिलैर्होमो हरिब्रह्मशिवार्कगणपूजनं
।। १५ ।।
तथा स्तुतिप्रपठनं
पुंसूक्तादिजपस्तथा ।
स्वप्नास्तु प्रथमे यामे
संवत्सरविपाकिनः ।। १६ ।।
षड्भिर्मासैर्द्वितीये तु
त्रिभिर्मासैस्त्रियामिकाः ।
चतुर्थे त्वर्द्धमासेन
दशाहादरुणोदये ।। १७ ।।
पुष्कर कहते हैं- अब मैं शुभाशुभ
स्वप्नों का वर्णन करूँगा तथा दुःस्वप्न-नाश के उपाय भी बतलाऊँगा । नाभि के सिवा
शरीर के अन्य अंगों में तृण और वृक्षों का उगना, काँस के बर्तनों का मस्तक पर रखकर फोड़ा जाना, माथा मुँड़ाना,
नग्न होना, मैले कपड़े पहनना, तेल लगना, कीचड़ लपेटना, ऊँचे से
गिरना, विवाह होना, गीत सुनना, वीणा आदि के बाजे सुनकर मन बहलाना, हिंडोले पर चढ़ना,
पद्म और लोहों का उपार्जन, सर्पो को मारना,
लाल फूल से भरे हुए वृक्षों तथा चाण्डाल को देखना, सूअर, कुत्ते, गदहे और ऊँटों पर
चढ़ना, चिड़ियों के मांस का भक्षण करना, तेल पीना, खिचड़ी खाना, माता के
गर्भ में प्रवेश करना, चिता पर चढ़ना, इन्द्र
के उपलक्ष्य में खड़ी की हुई ध्वजा का टूट पड़ना, सूर्य और
चन्द्रमा का गिरना, दिव्य, अन्तरिक्ष
और भूलोक में होनेवाले उत्पातों का दिखायी देना, देवता,
ब्राह्मण, राजा और गुरुओं का कोप होना,
नाचना, हँसना, व्याह
करना, गीत गाना, वीणा के सिवा अन्य
प्रकार के बाजों का स्वयं बजाना, नदी में डूबकर नीचे जाना,
गोबर, कीचड़ तथा स्याही मिलाये हुए जल से
स्नान करना, कुमारी कन्याओं का आलिंगन, पुरुषों का एक-दूसरे के साथ मैथुन, अपने अंगों की
हानि, वमन और विरेचन करना, दक्षिण दिशा
की ओर जाना, रोग से पीड़ित होना, फलों की
हानि, धातुओं का भेदन, घरों का गिरना,
घरों में झाड़ देना, पिशाचों, राक्षसों, वानरों तथा चाण्डाले आदि के साथ खेलना,
शत्रु से अपमानित होना, उसकी ओर से संकट का
प्राप्त होना, गेरुआ वस्त्र धारण करना, गेरुए वस्त्रों से खेलना, तेल पीना या उसमें नहाना,
लाल फूलों की माला पहनना और लाल ही चन्दन लगाना - ये सब बुरे स्वप्न
हैं। इन्हें दूसरों पर प्रकट न करना अच्छा है। ऐसे स्वप्न देखकर फिर से सो जाना
चाहिये। इसी प्रकार स्वप्नदोष की शान्ति के लिये स्नान, ब्राह्मणों
का पूजन, तिलों का हवन, ब्रह्मा,
विष्णु, शिव और सूर्य के गणों की पूजा, स्तुति का पाठ तथा पुरुषसूक्त
आदि का जप करना उचित है। रात के पहले प्रहर में देखे हुए स्वप्न एक वर्षतक फल
देनेवाले होते हैं, दूसरे प्रहर के स्वप्न छः महीने में,
तीसरे प्रहर के तीन महीने में, चौथे प्रहर के
पंद्रह दिनों में और अरुणोदय की वेला में देखे हुए स्वप्न दस ही दिनों में अपना फल
प्रकट करते हैं ॥ १-१७ ॥
एकस्यामथ चेद्रात्रौ शुभं वा यदि
वाऽशुभं ।
पश्चाद् दृष्टस्तु यस्तत्र तस्य
पाकं विनिर्दिशेत् ।। १८ ।।
तस्मात्तु शोभने स्वप्ने
पश्चात्स्वापो न शस्यते ।
शैलप्रासादनागाश्ववृषभारोहणं हितं
।। १९ ।।
द्रुमाणां स्वेतपुष्पाणां गगने च
तथा द्विज ।
द्रुमतृणोद्भवो नाभौ तथा च
बहुबाहुता ।। २० ।।
तथा च बहुशीर्षत्वं पलितोद्बव एव च
।
सुशुक्लमाल्यधारित्वं
सुशुक्लाम्बरधारिता ।। २१ ।।
चन्द्रार्कताराग्रहणं परिमार्जनमेव
च ।
शक्रध्वजालिङ्गनञ्च
ध्वजोच्छ्रायक्रिया तथा ।। २२ ।।
भूम्यम्बुधाराग्रहणं६ शत्रूणाञ्चैव
विक्रिया ।
जयो विवादे द्युते च सङ्ग्रामे च तथा
द्विज ।। २३ ।।
भक्षणञ्चार्ट्रमांसानाम्पायसस्य च
भक्षणं ।
दर्शनं रुधिरस्यापि स्नानं वा
रुधिरेण च ।। २४ ।।
सुगरुधिरमद्यानां पानं क्षीरस्य
वाप्यथ ।
अस्त्रैर्विचेष्टनं भूमौ निर्मलं
गगनं तथा ।। २५ ।।
मुखेन दोहनं शस्तं महिषीणां तथा
गवां ।
सिंहीनां हस्तिनीनाञ्च बडवानां तथैव
च ।। २६ ।।
प्रसादो देवविप्रेभ्यो गुरुभ्यश्च
तथा द्विज ।
अम्भसा चाभिषेखस्तु गवां
श्रृङ्गच्युतेन च ।। २७ ।।
चन्द्राद् भ्रष्टेन वा राम ज्ञेयं
राकज्यप्रदं हि तत् ।
राज्याभिषेकश्च तथा छेदनं
शिरसोऽप्यथ ।। २८ ।।
मरणं वह्निलाभश्च वह्निदाहो
गृहादिषु ।
लब्धिश्च राकजलिङ्गानां
तन्त्रीवाद्याभिवादनं ।। २९ ।।
यस्तु पश्यति स्वप्नान्ते राजानं
कुञ्जरं हयं ।
हिरण्यं वृषभङ्गाञ्च कुटुम्बस्तस्य
वर्द्धते ।। ३० ।।
वृषेभगृहशैलाग्रवृक्षारोहणरोदनं ।
घृतविष्ठानुलेपो वा अगम्यागमनं तथा
।।
सितवस्त्रं प्रसन्नाम्भः फली वृक्षो
नभोऽमलं ।। ३१ ।।
यदि एक ही रात में शुभ और अशुभ-
दोनों ही प्रकार के स्वप्न दिखायी पड़ें तो उनमें जिसका पीछे दर्शन होता है,
उसी का फल बतलाना चाहिये। अतः शुभ स्वप्न देखने के पश्चात् सोना
अच्छा नहीं माना जाता है। स्वप्न में पर्वत, महल, हाथी, घोड़े और बैल पर चढ़ना हितकर होता है।
परशुरामजी ! यदि पृथ्वी पर या आकाश में सफेद फूलों से भरे हुए वृक्षों का दर्शन हो,
अपनी नाभि से वृक्ष अथवा तिनका उत्पन्न हो, अपनी
भुजाएँ और मस्तक अधिक दिखायी दें, सिर के बाल पक जायँ तो
उसका फल उत्तम होता है। सफेद फूलों की माला और श्वेत वस्त्र धारण करना, चन्द्रमा, सूर्य और ताराओं
को पकड़ना, परिमार्जन करना, इन्द्र की
ध्वजाका आलिंगन करना, ध्वजा को ऊँचे उठाना, पृथ्वी पर पड़ती हुई जल की धारा को अपने ऊपर रोकना, शत्रुओं
की बुरी दशा देखना, वाद-विवाद, जूआ तथा
संग्राम में अपनी विजय देखना, खीर खाना, रक्तका देखना, खून से नहाना, सुरा,
मद्य अथवा दूध पीना, अस्त्रों से घायल होकर धरती
पर छटपटाना, आकाश का स्वच्छ होना तथा गाय, भैंस, सिंहिनी, हथिनी और घोड़ी
को मुँह से दुहना – ये सब उत्तम स्वप्न हैं। देवता, ब्राह्मण और गुरुओं की प्रसन्नता, गौओं के सींग अथवा
चन्द्रमा से गिरे हुए जल के द्वारा अपना अभिषेक होना ये स्वप्न राज्य प्रदान
करनेवाले हैं, ऐसा समझना चाहिये। परशुरामजी ! अपना
राज्याभिषेक होना, अपने मस्तक का काटा जाना, मरना, आग में पड़ना, गृह आदि में
लगी हुई आग के भीतर जलना, राजचिह्नों का प्राप्त होना,
अपने हाथ से वीणा बजाना- ऐसे स्वप्न भी उत्तम एवं राज्य प्रदान
करनेवाले हैं। जो स्वप्न के अन्तिम भाग में राजा, हाथी,
घोड़ा, सुवर्ण, बैल तथा
गाय को देखता है, उसका कुटुम्ब बढ़ता है। बैल, हाथी, महल की छत, पर्वत शिखर
तथा वृक्ष पर चढ़ना, रोना, शरीर में घी
और विष्ठा का लग जाना तथा अगम्या स्त्री के साथ समागम करना ये सब शुभ स्वप्न हैं ॥
१८-३१ ॥
इत्यादिमहापुराणे आग्नेये
स्वप्नाध्यायो नाम एकोनत्रिंशत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ।
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में 'सुभाशुभ स्वप्न एवं दुःस्वप्न-निवारण' दो सौ उनतीसवाँ
अध्याय पूरा हुआ॥२२९॥
आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 230
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