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सोम प्रदोष व्रत कथा

सोम प्रदोष व्रत कथा

इससे पूर्व आपने पढ़ा कि रविवार को पड़ने वाले प्रदोष व्रत को रवि प्रदोष व्रत कथा कहते हैं। सोमवार के दिन भगवान शिव की पूजन का खास दिन माना जाता है। इस दिन पड़ने वाले प्रदोष व्रत को सोम प्रदोष व्रत या सोम प्रदोषम् या चन्द्र प्रदोषम् भी कहा जाता है व इस व्रत कथा को सोम प्रदोष व्रत कथा कहा जाता है। इस दिन साधक अपनी अभीष्ट कामना की पूर्त्ति के लिए शिव की साधना करता है।

सोम प्रदोष व्रत कथा

सोम प्रदोष व्रत कथा पूजन विधि

दिन भर शुद्ध आचरण के साथ व्रत रखें। सोम प्रदोष व्रत करने वाले व्रती 'ऊँ नम: शिवाय' कहते हुए भगवान शिव को पतली धार से जल का अर्पण करें। जिसके बाद दोनों हाथ जो‌ड़कर भगवान शिव का ध्यान कर पूजन करें। इसके बाद प्रदोषस्तोत्रम्प्रदोषस्तोत्राष्टकं का पाठ करें और सोम प्रदोष व्रत की कथा सुने । कथा पूरी होने पर हवन सामग्री मिलाकर 11, 21, 51 या 108 बार 'ऊँ ह्रीं क्लीं नम: शिवाय स्वाहा' मंत्र के साथ आहुति दें। पूजा के आखिरी में भगवान शिव की आरती कर सभी भक्त जनों को आरती दें। इसके बाद व्रत का पारण करें। संभव हो तो शिव चालीसा का भी पाठ करें। पूजन के पश्चात् घी के दीये से भगवान शिव की आरती करें और पूजा का प्रसाद सभी को वितरित करें। इस दिन रात्रि को भी भगवान का ध्यान और पूजन करते रहना चाहिए। सुबह स्नान के बाद ही व्रत खोलें। इसके साथ ही भोजन में केवल मीठी फलाहारी खाद्य पदार्थों का ही उपयोग करें।

सोम प्रदोष व्रत कथा का महत्त्व

प्रदोष के समय भगवान शिव शंकर कैलाश पर्वत के रजत भवन में होते हैं और नृत्य कर रहे होते हैं। इस समय देवी-देवता भगवान के गुणों का स्तवन करते हैं। इस व्रत को करने वालों के सभी दोष खत्म हो जाते हैं। व्रती का हर तरह से कल्याण हो जाता है। शास्त्रों में कहा गया है कि सोमवार को आने वाला प्रदोष व्रत हर इच्छा पूरी करने वाला होता है। सोमवार के दिन भगवान शिव के शिवलिंग पर दूध चढ़ाने से भगवान शिव जीवन की सारी बाधाएं दूर करते हैं। सोम प्रदोष व्रत कई प्रकार के रोगों को भी दूर करता है। अच्छी सेहत के लिए भी यह व्रत किया जाता है। इस दिन भगवान शिव और माता पार्वती जी दोनों की पूजन से दाम्पत्य जीवन के लिए अच्छे जीवनसाथी की प्राप्ति होती है। इसके साथ ही विवाहित इस व्रत को करके सुखमयी वैवाहिक जीवन की प्राप्ति करते हैं।

सोम प्रदोष व्रत की कथा

पूर्वकाल में पुत्रवती ब्राह्मणी थी। उसके दो पुत्र थे । वह ब्राह्मणी बहुत निर्धन थी। दैवयोग से उससे एक दिन महर्षि शाण्डिल्य के दर्शन हुए। महर्षि के मुख से प्रदोष व्रत की महिमा सुनकर उस ब्राह्मणी ने ऋषि से पूजन की विधि पूछी। उसकी श्रद्धा और आग्रह से ऋषि ने उस ब्राह्मणी को शिव पूजन का उपर्युक्त विधान बतलाया और उस ब्राह्मणी से कहा - तुम अपने दोनों पुत्रों से शिव की पूजा कराओ। इस व्रत के प्रभाव से तुम्हे एक वर्ष के पश्चात् पूर्ण सिद्धि प्राप्त होगी।उस ब्राह्मणी ने महर्षि शाण्डिल्य के वचन सुनकर उन बालकों के  सहित नतमस्तक होकर मुनि के चरणों में प्रणाम किया और बोली हे ब्राह्मण, आज मैं आपके दर्शन से धन्य हो गयी हूं। मेरे ये दोनों कुमार आपके सेवक हैं। आप मेरा उद्धार कीजिए। उस ब्राह्मणी को शरणागत जानकर मुनि ने मधुर वचनों द्वारा दोनों कुमारों को शिवजी की आराधना विधि बतलाई । तदन्तर वे दोनों बालक और ब्राह्मणी मुनि को प्रणाम कर शिव मंदिर में चले गए। उस दिन से वे दोनों बालक मुनि के कथनानुसार नियमपूर्वक प्रदोष काल में शिवजी की पूजा करने लगे। पूजा करते हुए उन दोनों को चार महीने बीत गए। एक दिन राजसुत की अनुपस्थिति में शुचिब्रत स्नान करने नदी किनारे चला गया और वहां जल-क्रीड़ा करने लगा। संयोग से उसी समय उसे नदी की दरार में चमकता हुआ धन का बड़ा सा कलश दिखाई पड़ा। उस धनपूरित कलश को देखकर शुचिब्रत बहुत प्रसन्न हुआ। उस कलश को वह सिर पर रखकर घर ले आया।

कलश भूमि पर रखकर वह अपनी माता से बोला - हे माता, शिवजी की महिमा तो देखो। भगवान ने इस घड़े के रुप में मुझे अपार सम्पति दी है।

उसकी माता घड़े को देखकर आश्चर्य करने लगी और राजसुत को बुलाकर कहा बेटे मेरी बात सुनो। तुम दोनों इस धन को आधा-आधा बाँट लो। माता की बात सुनकर शुचिब्रत बहुत प्रसन्न हुआ परन्तु राजसुत ने अपनी असहमति प्रकट करते हुए कहा हे मां, यह धन तेरे पुत्र के पुण्य से प्राप्त हुआ है। मैं इसमें किसी प्रकार का हिस्सा लेना नहीं चाहता। क्योंकि अपने किये कर्म का फल मनुष्य स्वयं ही भोगता हैं । इस प्रकार शिव पूजन करते हुए एक ही घर में उन्हे एक वर्ष व्यतीत हो गया। एक दिन राजकुमार ब्राह्मण के पुत्र के साथ बसन्त ऋतु में वन विहार करने के लिए गया। वे दोनों जब साथ-साथ वन से बहुत दूर निकल गए, तो उन्हे वहां पर सैकड़ों गन्धर्व कन्यायें खेलती हुई दिखाई पड़ी। ब्राह्मण कुमार उन गन्धर्व कन्याओं को क्रीड़ारत देखकर राजकुमार से बोला यहां पर कन्यायें विहार कर रही हैं इसलिए हम लोगों को अब और आगे नहीं जाना चाहिए। क्योकिं वे गन्धर्व कन्यायें शीघ्र ही मनुष्यों के मन को मोहित कर लेती हैं। इसलिये मैं तो इन कन्याओं से दूर ही रहूंगा।

परन्तु राजकुमार उसकी बात अनसुनी कर कन्याओं के विहार स्थल में निर्भीक भाव से अकेला ही चला गया। उन सभी गन्धर्व कन्याओं में प्रधान सुन्दरी उस समय आये हुए राजकुमार को देखकर मन में विचार करने लगी की कामदेव के समान सुन्दर रूप वाला यह राजकुमार कौन हैं ? उस राजकुमार के साथ बातचीत करने के उद्देश्य से सुन्दरी ने अपनी सखियों से कहा सखियों तुम लोग निकट के वन में जाकर अशोक, चम्पक, मौलसिरी आदि के ताजे फूल तोड़ लाओ। तब तक मैं तुम्हारी प्रतीक्षा में यहीं रुकी रहूंगी। उस गन्धर्व कुमारी की बात सुनते ही सब सखियां वहां से चली गई। सखियों के जाने के बाद वह गन्धर्व कन्या राजकुमार को स्थिर दृष्टि से देखने लगी। उन दोनों में परस्पर प्रेम का संचार होने लगा। गन्धर्व कन्या ने राजकुमार को बैठने के लिये आसन दिया। प्रेमालाप के कारण राजकुमार के सहवास के लिये वह सुन्दरी व्याकुल हो उठी और राजकुमार से प्रश्न करने लगी – "हे कमल के समान नेत्रों वाले, आप किस देश के रहने वाले हैं ? आपका यहां आना क्यों कर हुआ ?" गन्धर्व कन्या की बात सुनकर राजकुमार ने जवाब दिया - "मैं विर्दभराज का पुत्र हूं। मेरे माता-पिता स्वर्गवासी हो चुके हैं। शत्रुओं ने मुझसे मेरा राज्य हरण कर लिया हैं।"

राजकुमार ने अपना परिचय देकर उस गन्धर्व कन्या से पूछा - 'आप कौन है ? किसकी पुत्री हैं ? और इस वन में किस उद्देश्य से आई हैं ? आप मुझसे क्या चाहती हैं।'

राजकुमार की बात सुनकर गन्धर्व कन्या ने कहा – “मैं विद्रविक नामक गन्धर्व की पुत्री अंशुमती हूं। आपको देखकर आपसे बातचीत में करने के लिये ही यहां पर सखियों का साथ छोड़कर रह गई हूं। मै गान विद्या में बहुत निर्पूण हूं। मेरे गान पर सभी देवांगनायें रीझ जाती हैं। मैं चाहती हूं कि आपका और मेरा प्रेम सदा बना रहे। इतनी बात कहकर उस गन्धर्व कन्या ने अपने गले का बहुमुल्य मुक्ताहार राजकुमार के गले में डाल दिया। वह हार उन दोनों के प्रेम का प्रतीक बन गया।इसके पश्चात् राजकुमार ने उस कन्या से कहा – “हे सुन्दरी ! तुमने जो कुछ कहा, वह सब सत्य है। लेकिन आप राजविहिन राजकुमार के पास कैसे रह सकेंगी ? आप अपने पिता की अनुमति के लिये बिना मेरे साथ कैसे चल सकेंगी ?” राजकुमार की बात पर कन्या मुस्करा कर कहने लगी -जो कुछ भी हो, मैं अपनी इच्छा से आपका वरण करुंगी। अब आप परसों प्रातः काल यहां आइयेगा। मेरी बात कभी झूठ नहीं हो सकती। गन्धर्व कन्या ऐसा कहकर पुनः अपनी सखियों के पास चली गई।" इधर वह राजकुमार भी शुचिब्रत के पा जा पहुंचा और अपना सारा  वृतांत कह सुनाया। इसके बाद वे दोनों घर लौट गये । घर पहुंचकर उन लोगों ने ब्राह्मणी को सब हाल कहा, जिसे सुनकर वह ब्राह्मणी भी हर्षित हुई।

गन्धर्व कन्या द्वारा निश्चित दिन वह राजकुमार शुचिब्रत के साथ उसी वन में पहुंचा। वहां पहुंचकर उन लोगों ने देखा गन्धर्वराज अपनी पुत्री अंशुमती के साथ उपस्थित होकर प्रतीक्षा में बैठे हैं। गन्धर्व ने उन दोनों कुमारों का अभिनन्दन करके उन्हे सुन्दर आसन पर बिठाया और राजकुमार से कहा – “मैं परसों कैलाशपुरी को गया था। वहां पर भगवान शंकर पार्वती सहित विराजमान थे। उन्होंने मुझे अपने पास बुलाकर कहा- पृथ्वी पर राज्यच्युत होकर धर्मगुप्त नामक राजकुमार घूम रहा हैं। शत्रुओं ने उसके वंश को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया है वह कुमार सदा ही भक्तिपूर्वक मेरी सेवा किया करता है। इसलिये तुम उसकी सहायता करो, जिससे वह अपने  शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर सके। इसलिये मैं भगवान शंकर की आज्ञा से अपनी पुत्री अंशुमती आपको सौंपता हूं। मैं शत्रुओं के हाथ में गये हुए आपके राज्य को वापिस दिला दूंगा। आप इस कन्या के साथ दस हजार वर्षों तक सुख भोगकर शिवलोक में आने पर भी मेरी पुत्री इसी शरीर में आपके साथ रहेगी।इतना कहकर गन्धर्वराज ने अपनी पुत्री का विवाह राजकुमार के साथ कर दिया। दहेज में अनेक दास-दासियां तथा शत्रुओं पर विजय पाने के लिये गन्धर्वों की चतुरंगिणी सेना भी दी। राजकुमार ने गन्धर्वो की सहायता से शत्रुओं को नष्ट किया और वह अपने नगर में प्रवीष्ट हुआ। मंत्रियों ने राजकुमार को सिंहासन पर - बैठाकर राज्याभिषेक किया। अब वह राजकुमार राज-सुख भोगने लगा। जिस दरिद्र ब्राह्मणी ने उसका पालन पोषण किया था उसे ही राजमाता के पद पर आसीन किया गया। वह शुचिब्रत ही उसका छोटा भाई बना। इस प्रकार प्रदोष व्रत में शिव पूजन के प्रभाव से वह राजकुमार दुर्लभ पद को प्राप्त हुआ। जो मनुष्य प्रदोष काल में अथवा नित्य ही इस कथा को श्रवण करता है, वह निश्चय ही सभी कष्टों से मुक्त हो जाता है और अंत में वह परम पद का अधिकारी बनता है।

उसी दिन से प्रदोष व्रत की प्रतिष्ठा व महत्व बढ़ गया तथा मान्यतानुसार लोग यह व्रत करने लगे। कई जगहों पर अपनी श्रद्धा के अनुसार स्त्री-पुरुष दोनों ही यह व्रत करते हैं। इस व्रत को करने से मनुष्य के सभी कष्ट और पाप नष्ट होते हैं एवं मनुष्य को अभीष्ट की प्राप्ति होती है।

सोम प्रदोष व्रत कथा समाप्त ।

शेष जारी....आगे पढ़ें- भौम प्रदोष व्रत कथा ।

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