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श्रीजानकी मंगल में गोस्वामी
तुलसीदास जी ने जगज्जननी आद्याशक्ति भगवती श्री जानकी जी तथा परात्पर पुर्ण
पुरूषोत्तम भगवान् श्रीराम के परम मंगलमय विवाहोत्सव का बड़े ही मधुर शब्दों में
वर्णन किया है। जनक पुर में स्वयंवर की तैयारी से आरंभ करके विश्वामित्र के
अयोध्या जाकर श्रीराम -लक्ष्मण को यज्ञ रक्षा के व्याज से अपने साथ ले जाने,
यज्ञ-रक्षा के अनन्तर धनुष-यज्ञ दिखाने के बहाने उन्हें जनकपुर ले
जाने, रंग-भूमि में पधारकर श्रीराम के धनुष तोडने तथा श्री
जनकराजतनयया के उन्हें वरमाला पहनाने, लग्न-पत्रिका तथा तिलक
की सामग्री लेकर जनकपुरोधा महर्षि शतानन्दजी के अयोध्या जाने, महाराज दशरथ के बारात लेकर जनकपुर जाने, विवाह-संस्कार
सम्पन्न होने के अनन्तर बारात के बिदा होने के कल्याणमय पाणिग्रहण का काव्यमय
चित्रण किया है। इसके अतिरिक्त मार्ग में भृगुनन्दन परशुरामजी से भेंट होने तथा
अन्त में अयोध्या पहुँचने पर वहाँ आनन्द मनाये जाने आदि प्रसंगों का संक्षेप में
बड़ा ही सरस एवं सजीव वर्णन किया गया है। जो प्रायः रामचरितमानस से मिलता जुलता ही
है। कहीं -कहीं तो रामचरित मानस के शब्द ज्यों के त्यों दुहराये गये हैं। श्री
सीतारामजी के इस परम पावन चरित्र का मार्मिक एवं रोचक वर्णन करके इस छोटे से काव्य
का उपसंहार किया है।
जानकी मंगल स्तोत्र
Janaki mangal stotra
श्रीजानकी मङ्गलम्
॥ श्रीजानकी-मङ्गल ॥
श्रीजानकी मङ्गल स्तोत्र हिन्दी भावार्थ सहित
मङ्गलाचरण
गुरु गनपति गिरिजापति गौरि गिरापति
।
सारद सेष सुकबि श्रुति संत सरल मति
॥ १ ॥
हाथ जोरि करि बिनय सबहि सिर नावौं ।
सिय रघुबीर बिबाह जथामति गावौं ॥ २
॥
गुरु, गणपति (गणेशजी), शिवजी, पार्वतीजी,
वाणी के स्वामी बृहस्पति अथवा विष्णुभगवान्, शारदा,
शेष, सुकवि, वेद और
सरलमति संत-सबको हाथ जोड़कर विनयपूर्वक सिर नवाता हूँ और अपनी बुद्धि के अनुसार
श्रीरामचन्द्रजी और जानकीजी के विवाहोत्सव का गान करता हूँ ॥ १-२ ॥
स्वयंवर की तैयारी
सुभ दिन रच्यौ स्वयंबर मंगलदायक ।
सुनत श्रवन हिय बसहि सीय रघुनायक ॥
३ ॥
देस सुहावन पावन बेद बखानिय ।
भूमि तिलक सम तिरहुति त्रिभुवन
जानिय ॥ ४ ॥
पृथ्वी का तिलकस्वरूप और तीनों
लोकों में विख्यात जो परम पवित्र शोभाशाली और वेदविदित तिरहुत देश है,
वहाँ एक अच्छे दिन श्रीजानकी का मङ्गलप्रद स्वयंवर रचा गया, जिसका श्रवण करने से श्रीराम और सीताजी हृदय में बसते हैं ॥ ३-४ ॥
तहैं बस नगर जनकपुर परम उजागर ।
सीय लच्छि जहें प्रगटी सब सुख सागर
॥ ५ ॥
वहाँ (तिरहुत देश में) जनकपुर नामक
एक प्रसिद्ध नगर बसा हुआ था, जिसमें सुखों
की समुद्र लक्ष्मीस्वरूपा श्रीजानकीजी प्रकट हुई थीं ॥ ५ ॥
जनक नाम तेहिं नगर बसै नरनायक ।
सब गुन अवधि न दूसर पटतर लायक ॥ ६ ॥
उस नगर में जनक नाम के एक राजा
निवास करते थे, जो सारे गुणों की सीमा थे और
जिनके समान कोई दूसरा नहीं था ॥ ६ ॥
भयउ न होइहि है न जनक सम नरवइ ।
सीय सुता भइ जासु सकल मंगलमइ ॥ ७ ॥
जनक के समान नरपति न हुआ,
न होगा, न है, जिनकी
पुत्री सर्वमङ्गलमयी जानकीजी हुईं ॥ ७ ॥
नृप लखि कुँअरि सयानि बोलि गुर
परिजन ।
करि मत रच्यो स्वयंबर सिव धनु धरि
पन ॥ ८ ॥
राजा ने राजकुमारी को वयस्क होते
देख अपने गुरु और परिवार के लोगों को बुलाकर सलाह की और शिव-धनुष को शर्त के रूप
में रखकर स्वयंवर रचा । [अर्थात् यह शर्त रखकर स्वयंवर रचा कि जो शिवजी का धनुष
चढ़ा देगा, वही कन्या से विवाह करेगा] ॥ ८
॥
पनु धरेउ सिव धनु रचि स्वयंबर अति
रुचिर रचना बनी ।
जनु प्रगटि चतुरानन देखाई चतुरता सब
आपनी ॥
पुनि देस देस सँदेस पठयउ भूप सुनि
सुख पावहीं ।
सब साजि साजि समाज राजा जनक नगरहि
आवहीं ॥ १ ॥
राजा ने शिव-धनुष चढ़ाने की शर्त
रखकर स्वयंवर रचा, जिसकी सजावट
अत्यन्त सुन्दर थी, मानो ब्रह्मा ने अपना सम्पूर्ण कौशल
प्रत्यक्ष करके दिखा दिया । फिर देश-देश में समाचार भेजा गया, जिसे सुनकर राजालोग प्रसन्न हुए और वे सब-के-सब अपना साज सजा-सजाकर जनकपुर
में आये ॥ १ ॥
रूप सील बय बंस बिरुद बल दल भले ।
मनहूँ पुरंदर निकर उतरि अवनिहिं चले
॥ ९ ॥
वे सुन्दरता,
शील, आयु, कुल की बड़ाई,
बल और सेना से सुसज्जित होकर चले, मानो
इन्द्रों का यूथ ही पृथ्वी पर उतरकर जा रहा हो ॥ ९ ॥
दानव देव निसाचर किंनर अहिगन ।
सुनि धरि-धरि नृप बेष चले प्रमुदित
मन ॥ १० ॥
दैत्य,
देवता, राक्षस, किन्नर
और नागगण भी स्वयंवर का समाचार सुन, राजवेष धारण कर-करके
प्रसन्नचित्त से चले ॥ १० ॥
एक चलहिं एक बीच एक पुर पैठहिं ।
एक धरहिं धनु धाय नाइ सिरु बैठहिं ॥
११ ॥
कोई चल रहे हैं,
कोई मार्ग के बीच में हैं, कोई नगर में घुस
रहे हैं और कोई दौड़कर धनुष को पकड़ते हैं और फिर सिर नीचा करके-लज्जित हो बैठ
जाते हैं (क्योंकि उनसे धनुष टस-से-मस नहीं होता) ॥ ११ ॥
रंग भूमि पुरं’
कौतुक एक निहारहिं ।
ललकि सुभाहिं नयन मन फेरि न पावहिं
॥ १२ ॥
कोई रङ्गभूमि और नगर की सजावट बड़े
चाव से देखते हैं और बड़े भले जान पड़ते हैं, वे
अपने मन और नयनों को वहाँ से फेर नहीं पाते ॥ १२ ॥
जनकहि एक सिहाहि देखि सनमानत ।
बाहर भीतर भीर न बनै बखानत ॥ १३ ॥
कोई राजा जनक को अतिथियों का सम्मान
करते देखकर उनसे ईर्ष्या करते हैं । इस समय बाहर-भीतर सर्वत्र इतनी भीड़ हो रही है
कि उसका वर्णन करते नहीं बनता ॥ १३ ॥
गान निसान कोलाहल कौतुक जहँ तहँ ।
सीय-बिबाह उछाह जाइ कहि का पहँ ॥ १४
॥
जहाँ-तहाँ गान और नगारों का कोलाहल
एवं चहल-पहल हो रही है । भला जानकीजी के विवाह का आनन्द किससे कहा जा सकता है ॥ १४
॥
विश्वामित्रजी की
राम-भिक्षा
गाधि सुवन तेहि अवसर अवध सिधायउ ।
नृपति कीन्ह सनमान भवन लै आयउ ॥ १५
॥
उसी समय विश्वामित्रजी अयोध्यापुरी
गये । महाराज ने उनका बड़ा आदर किया और उन्हें घर ले आये ॥ १५ ॥
पूजि पहुनई कीन्ह पाइ प्रिय पाहुन ।
कहेउ भूप मोहि सरिस सुकृत किए काहु
न ॥ १६ ॥
अपने प्रिय पाहुने को पाकर राजा
दशरथ ने उनकी पूजा करके खूब पहुनाई की और कहा कि हमारे समान किसी ने पुण्य नहीं
किया’
(जिसके प्रभाव से हमें आपका दर्शन हुआ) ॥ १६ ॥
काहूँ न कीन्हेउ सुकृत सुनि मुनि
मुदित नृपहि बखानहीं ।
महिपाल मुनि को मिलन सुख महिपाल
मुनि मन जानहीं ।
अनुराग भाग सोहाग सील सरूप बहु भूषन
भरी ।
हिय हरषि सुतन्ह समेत रानी आइ रिषि
पायन्ह परीं ॥ २ ॥
महाराज ने कहा कि ‘हमारे समान किसी ने पुण्य नहीं किया ।’ यह बात सुनकर
मुनि ने प्रसन्न हो महाराज की बड़ाई की । उस समय महाराज और मुनि के मिलन-सुख को
महाराज और मुनि का मन ही जानता था । प्रेम, भाग्य, सौभाग्य, शील, सुन्दरता और
बहुत-से आभूषणों से भरी हुई रानियाँ हृदय से आनन्दित हो अपने पुत्रों सहित ऋषि के
पैरों पर पड़ीं ॥ २ ॥
कौसिक दीन्हि असीस सकल प्रमुदित भईं
।
सींची मनहूँ सुधा रस कलप लता नईं ॥
१७ ॥
विश्वामित्रजी ने उन्हें आशीर्वाद
दिया । इससे वे सब अत्यन्त प्रसन्न हुई, मानो
उन्होंने नवीन कल्पलताओं को अमृतरस से सींच दिया हो ॥ १७ ॥
रामहि भाइन्ह सहित जबहिं मुनि जोहेछ
।
नैन नीर तन पुलक रूप मन मोहेछ ॥ १८
॥
जिस समय मुनि ने भाइयों के सहित श्रीरामचन्द्रजी
को देखा,
तब उनके नेत्रों में जल भर आया, शरीर पुलकित
हो गया और मन मोहित हो गया ॥ १८ ॥
परसि कमल कर सीस हरषि हियँ लावहिं ।
प्रेम पयोधि मगन मुनि पार न पावहि ॥
१९ ॥
वे अपने करकमल से श्रीरामचन्द्रजी
के मस्तक का स्पर्श करते हैं और हर्षित होकर उन्हें हृदय से लगाते हैं । इस समय
मुनिवर प्रेम-सागर में डूब जाते हैं । उसकी थाह नहीं पाते ॥ १९ ॥
मधुर मनोहर मूरति सादर चाहहिं ।
बार बार दसरथके सुकृत सराहहिं ॥ २०
॥
वे आदरपूर्वक उनकी मधुर-मनोहर
मूर्ति को देख रहे हैं और बार-बार महाराज दशरथ के पुण्य की सराहना करते हैं ॥ २० ॥
राउ कहेउ कर जोर सुबचन सुहावन ।
भयउ कृतारथ आजु देखि पद पावन ॥ २१ ॥
तब महाराज ने हाथ जोड़कर सुन्दर
सुहावने शब्दों में कहा — ‘आज आपके पवित्र
चरणों को देखकर मैं कृतार्थ हो गया’ ॥ २१ ॥
तुम्ह प्रभु पूरन काम चारि फलदायक ।
तेहि ते बूझत काजु डरौं मुनिनायक ॥
२२ ॥
हे प्रभु ! आप पूर्णकाम हैं और
चारों फल (अर्थ, धर्म, काम,
मोक्ष) के देनेवाले हैं, इसी से हे मुनिनायक !
मैं आपसे कोई सेवा पूछते हुए डरता हूँ ॥ २२ ॥
कौसिक सुनि नृप बचन सराहेउ राजहि ॥
धर्म कथा कहि कहेउ गयउ जेहि काजहि ॥
२३ ॥
कौशिक मुनि ने राजा का वचन सुन उनकी
प्रशंसा की और धर्मकथा कहकर जिस काम के लिये गये थे, वह कहा ॥ २३ ॥
जबहिं मुनीस महीसहि काजु सुनायउ ।
भयउ सनेह सत्य बस उतरु न आयउ ॥ २४ ॥
जब मुनीश्वर ने महाराज को अपना
कार्य सुनाया, तब महाराज स्नेह और सत्य के
बन्धन से जडीभूत हो गये, उनसे कुछ भी उत्तर देते न बना ॥ २४
॥
आयउ न उतरु बसिष्ठ लखि बहु भाँति
नृप समझायऊ ।
कहि गाधिसुत तप तेज कछु रघुपति
प्रभाउ जनायऊ ।
धीरज धरेउ सुर बचन सुनि कर जोरि कह
कोसल धनी ।
करुना निधान सुजान प्रभु सो उचित
नहिं बिनती घनी ॥ ३ ॥
महाराज से उत्तर देते नहीं बनता —
यह देखकर वसिष्ठजी ने अनेक प्रकार से राजा को समझाया । उन्होंने इधर
तो विश्वामित्रजी के तप और तेज का वर्णन किया और उधर कुछ श्रीरामचन्द्रजी का
प्रभाव समझाया । गुरुजी के वचन सुनकर महाराज ने धैर्य धारण किया और फिर कोसलेश्वर
महाराज दशरथ ने हाथ जोड़कर कहा — ‘प्रभो ! आप दयासागर और
सारी परिस्थिति से अभिज्ञ हैं; अतः आपके सामने बहुत विनय
करना उचित नहीं है ॥३॥
नाथ मोहि बालकन्ह सहित पुर परिजन ।
राखनिहार तुम्हार अनुग्रह घर बन ॥
२५ ॥
‘हे नाथ ! घर और वन में नगर और नगरवासियों के सहित मेरी और इन बालकों की
रक्षा करनेवाली तो आपकी कृपा ही है’ ॥ २५ ॥
दीन बचन बहु भाँति भूप मुनि सन कहे
।
सौपि राम अरु लखन पाय पंकज गहे ॥ २६
॥
इस प्रकार महाराज ने मुनि से अनेक
प्रकार के दीन वचन कहे और श्रीरामचन्द्र एवं लक्ष्मणजी को उन्हें सौंपकर उनके
चरण-कमल पकड़ लिये ॥ २६ ॥
पाइ मातु पितु आयसु गुरु पायन्ह परे
।
कटि निषंग पट पीत करनि सर धनु धरे ॥
२७ ॥
माता-पिता की आज्ञा पाकर श्रीराम और
लक्ष्मणजी कमर में तरकस और पीताम्बर तथा हाथों में धनुष और बाण लिये गुरु के चरणों
पर गिरे ॥ २७ ॥
पुरबासी नृप रानिह संग दिये मन ।
बेगि फिरेउ करि काज कसल रखनंदन ॥ २८
॥
पुरवासी,
राजा और रानियों ने अपने मन को श्रीरामचन्द्रजी के साथ कर दिया और
कहने लगे — ‘हे रघुनन्दन ! मुनिवर का कार्य करके कुशलपूर्वक
शीघ्र ही लौट आना’ ॥ २८ ॥
ईस मनाई असीसहिं जय जसु पावहु ।
न्हात खसै जनि बार गहरु जनि लावह ॥
२९ ॥
वे सब शिवजी को मनाकर राम-लक्ष्मण
को आशीर्वाद देते हैं कि ‘तुम विजय और यश
प्राप्त करो, नहाने में भी तुम्हारा केश न गिरे (अर्थात्
तुम्हें किसी भी अवस्था में किसी प्रकार का कष्ट न हो) और देखो, आने में देरी न करना’ ॥ २९ ॥
चलत सकल पुर लोग बियोग बिकल भए ।
सानुज भरत सप्रेम राम पायन्ह नए ॥
३० ॥
उनके चलते समय सकल पुरवासी वियोग से
विह्वल हो गये और छोटे भाई शत्रुघ्न के सहित भरतजी ने श्रीरामचन्द्र के चरणों में
प्रणाम किया ॥ ३० ॥
होहिं सगुन सुभ मंगल जनु कहि
दीन्हेछ ।
राम लखन मुनि साथ गवन तब कीन्हेछ ॥
३१ ॥
तरह-तरह के शुभ शकुन होने लगे,
मानो उन्होंने भावी मङ्गल की सूचना दे दी । तब श्रीरामचन्द्रजी और
लक्ष्मणजी ने विश्वामित्र मुनि के साथ प्रस्थान किया ॥ ३१ ॥
स्यामले गौर किसोर मनोहरता निधि ।
सुषमा सकल सकेलि मनहूँ बिरचे बिधि ॥
३२ ॥
वे क्रमशः श्याम और गौर तथा किशोर
अवस्थावाले हैं और दोनों ही मानो मनोहरता के भंडार हैं । ऐसा जान पड़ता है,
मानो ब्रह्माजी ने सारी शोभा को बटोरकर ही इन्हें रचा है ॥ ३२ ॥
बिरचे बिरंचि बनाइ बाँची रुचिरता
रंचौ नहीं ।
दस चारि भुवन निहारि देखि बिचारि
नहिं उपमा कहीं ॥
रिषि संग सोहत जात मग छबि बसत सो
तुलसी हिएँ ।
कियो गवन जनु दिननाथ ऊतर संग मधु
माधव लिएँ ॥ ४ ॥
ब्रह्माजी ने इन्हें ऐसा सँवारकर
रचा है कि मानो इन्हें छोड़कर अब थोड़ी-सी भी सुन्दरता शेष नहीं रही । चौदहों भुवन
में बहुत विचारपूर्वक देखा, परंतु कहीं भी इनकी
उपमा नहीं है । वे ऋषि के साथ मार्ग पर चलते हुए अत्यन्त शोभायमान हो रहे हैं,
उनकी वह छबि तुलसीदास के हृदय में बस गयी है । वे ऐसे जान पड़ते हैं
मानो मधु (चैत्र) और माधव (वैशाख) के साथ सूर्यदेव उत्तर दिशा को जा रहे हैं ॥ ४ ॥
गिर तरु बेलि सरित सर बिपुल
बिलोकहिं ।
धावहिं बाल सुभाय बिहग मृग रोकहिं ॥
३३ ॥
मार्ग में अनेकों पर्वत,
वृक्ष, लता, नदी और
तालाब देखते हैं । बालक-स्वभाव से दौड़ते हैं तथा पक्षी और मृगों को रोकते हैं ॥
३३ ॥
सकुचहिं मुनिहि सभीत बहुरि फिरि
आवहिं ।
तोरि फूल फल किसलय माल बनावहिं ॥ ३४
॥
और फिर मुनि से डरकर संकुचित हो लौट
जाते हैं तथा फल-फूल और नये पत्तों को तोड़कर माला बनाते हैं ॥ ३४ ॥
देखि बिनोद प्रमोद प्रेम कौसिक उर ।
करत जाहिं घन छाँह सुमन बरषहिं सुर
॥ ३५ ॥
श्रीरामचन्द्रजी के आमोद-प्रमोद को
देखकर कौशिक मुनि के हृदय में प्रेम उमड़ आता है । मार्ग में मेघ छाँह किये जाते
हैं और देवतालोग फूल बरसाते जाते हैं ॥ ३५ ॥
बधी ताड़का राम जानि सब लायक ।
बिद्या मंत्र रहस्य दिए मुनिनायक ॥
३६ ॥
(इसी समय) श्रीरामचन्द्रजी ने ताड़का का वध किया
। तब मुनिराज ने उन्हें सब प्रकार योग्य जानकर मन्त्र और रहस्यसहित शस्त्र-विद्या
दी ॥ ३६ ॥
मन लोगन्हके करत सुफल मन लोचन ।
गए कौसिक आश्रमहिं बिप्र भय मोचन ॥
३७ ॥
इस प्रकार विप्र-भय-मोचन
श्रीरामचन्द्रजी मार्ग के लोगों के मन और नेत्रों को सफल करते कौशिक मुनि के आश्रम
में गये ॥ ३७ ॥
मारि निसाचर निकर जग्य करवायउ ।
अभय किए मुनिबूंद जगत जसु गायउ ॥ ३८
॥
वहाँ राक्षसों के समूह का नाश करके
विश्वामित्रजी का यज्ञ पूर्ण करवाया और मुनि-समूह को निर्भय किया । भगवान् के इस
सुयश को सारे संसार ने गाया ॥ ३८ ॥
विश्वामित्रजी का स्वयंवर
के लिये प्रस्थान
बिप्र साधु सुर काजु महामुनि मन धरि
।
रामहि चले लिवाइ धनुष मख मिस करि ॥
३९ ॥
फिर ब्राह्मण,
साधुओं और देवताओं का कार्य मन में रख महामुनि विश्वामित्रजी
धनुषयज्ञ के बहाने श्रीरामचन्द्रजी को लेकर चले ॥ ३९ ॥
गौतम नारि उधारि पठे पति धामहि ।
जनक नगर ले गयउ महामुनि रामहि ॥ ४०
॥
[ मार्ग में श्रीरामचन्द्रजी के चरण-स्पर्श से]
गौतम की पत्नी अहल्या का उद्धार करा उसे पतिलोक को भेज दिया और [ तत्पश्चात् ] वे
महामुनि श्रीरामचन्द्रजी को जनकपुर ले गये ॥ ४० ॥
लै गयउ रामहि गाधि सुवन बिलोकि पुर
हरषे हिएँ ।
सुनि राउ आगे लेन आयउ सचिव गुर
भूसुर लिएँ ।
नृप गहे पाय असीस पाई मान आदर अति
किएँ ।
अवलोकि रामहि अनुभवत मनु ब्रह्मसुख
सौगुन किएँ ॥ ५ ॥
गाधिसुत श्रीविश्वामित्रजी
रामचन्द्रजी को लेकर गये । वे (जनक) पुर को देखकर हृदय में अत्यन्त प्रसन्न हुए ।
विश्वामित्रजी का आगमन सुन महाराज जनक मन्त्री, गुरु
और ब्राह्मणों को लेकर आगे लेने आये । महाराज ने मुनिवर के चरण पकड़े और उनसे
आशीर्वाद पाया, फिर उनका अत्यन्त आदर-सत्कार किया ।
श्रीरामचन्द्रजी को देखकर तो वे अपने मन में मानो सौगुना ब्रह्मसुख अनुभव कर रहे
थे ॥ ५ ॥
देखि मनोहर मूरति मन अनुरागेउ ।
बँधेउ सनेह बिदेह बिराग बिरागेउ ॥
४१ ॥
उस मनोहर मूर्ति को देखकर महाराज
जनक के मन में प्रेम उत्पन्न हो गया । वे प्रेम में बँध गये और उनका सारा वैराग्य
विरक्त हो गया (अर्थात् जाता रहा) ॥ ४१ ॥
प्रमुदित हृदयँ सराहत भल भवसागर ।
जहँ उपजहिं अस मानिक विधि बड़ नागर
॥ ४२ ॥
वे सानन्द हृदय से सराहना करने लगे
कि यह भवसागर बड़ा अच्छा है, जिसमें ऐसे
उत्तम माणिक्य पैदा होते हैं । वास्तव में ब्रह्मा बड़ा ही चतुर हैं ॥ ४२ ॥
पुन्य पयोधि मातु पितु ए सिसु
सुरतरु ।
रूप सुधा सुख देत नयन अमरनि बरु ॥
४३ ॥
इनके माता-पिता पुण्य के समुद्र हैं,
जिनके नेत्ररूप देवताओं को ये बालकरूप कल्पवृक्ष अपने सौन्दर्य-सुधा
का सुख प्रदान करते हैं ॥ ४३ ॥
केहि सुकृती के कुँअर कहिय मुनिनायक
।
गौर स्याम छबि धाम धरें धनु सायक ॥
४४ ॥
हे मुनिनायक ! कहिये,
ये धनुर्बाणधारी गौर-श्याम शोभामय बालक किस पुण्यात्मा के पुत्र हैं
? ॥ ४४ ॥
बिषय बिमुख मन मोर सेइ परमारथ ।
इन्हहिं देखि भयो मगन जानि बड़
स्वारथ ॥ ४५ ॥
[ निरन्तर ] परमार्थ-चिन्तन करने से
मेरा मन विषयों से विमुख हो गया है, किंतु
इन्हें देखकर वह अपना बड़ा भारी स्वार्थ जान आनन्द में मग्न हो गया है, ॥ ४५ ॥
कहे सप्रेम पुलकि मुनि सुनि महिपालक
।
ए परमारथ रूप ब्रह्ममय बालक ॥ ४६ ॥
तब मुनीश्वर ने पुलकित होकर
प्रेमपूर्वक कहा — ‘हे पृथ्वीपते ! ये
बालक ब्रह्ममय, अतएव परमार्थस्वरूप ही हैं ॥ ४६ ॥
पूषन बंस बिभूषन दसरथ नंदन ।
नाम राम अरु लखन सुरारि निकंदन ॥ ४७
॥
‘ये सूर्यकुल के भूषण [ महाराज ]
दशरथ के पुत्र हैं, इनका नाम राम और लक्ष्मण है और ये
दैत्यों का नाश करनेवाले हैं ॥ ४७ ॥
रूप सील बय बंस राम परिपूरन ।
समुझि कठिन पन आपन लाग बिसूरन ॥ ४८
॥
श्रीरामचन्द्रजी सुन्दरता,
शील, आयु और वंश में परिपूर्ण हैं (अर्थात् इन
दृष्टियों से इनमें कोई कमी नहीं है, किंतु अपनी कठिन शर्त
जानकर राजा जनक सोच में पड़ गये ॥ ४८ ॥
लागे बिसूरन समुझि पन मन बहरि धीरज
आनि कै ।
लै चले देखावन रंगभूमि अनेक बिधि
सनमानि कै ॥
कौसिक सराही रुचिर रचना जनक सुनि
हरषित भए ।
तब राम लखन समेत मुनि कहँ सुभग
सिंहासन दए ॥ ६ ॥
अपनी शर्त का विचार करके महाराज जनक
सोच में पड़ गये । फिर मन में धैर्य धारणकर वे अनेक प्रकार से सम्मान करके उन्हें
रङ्गभूमि दिखलाने को ले चले । विश्वामित्र ने उसकी सुन्दर रचना की बड़ाई की,
उसे सुनकर राजा जनक बड़े प्रसन्न हुए । तदनन्तर श्रीरामचन्द्रजी और
लक्ष्मणजी के सहित उन्होंने मुनिवर को सुन्दर सिंहासन दिये ॥ ६ ॥
रङ्गभूमि में राम
राजत राज समाज जुगल रघुकुल मनि ।
मनहूँ सरद बिधु उभय नखत धरनी धनि ॥
४९ ॥
उस राजाओं की सभा में वे दोनों
रघुकुलमणि इस प्रकार सुशोभित हो रहे हैं, मानो
शरत्-काल के दो चन्द्रमा नक्षत्ररूपी राजाओं के मध्य शोभायमान हों ॥ ४९ ॥
काकपच्छ सिर सुभग सरोरुह लोचन ।
गौर स्याम सत कोटि काम मद मोचन ॥ ५०
॥
उनके मस्तक पर सुन्दर काकपक्ष
(जुल्फें) हैं और नेत्र कमल के समान हैं तथा उनकी श्याम-गौर मूर्ति सैकड़ों,
करोड़ों कामदेवों के मद का नाश करनेवाली है ॥ ५० ॥
तिलकु ललित सर झुकुटी काम कमाने ।
श्रवन बिभूषन रुचिर देखि मन मानै ॥
५१ ॥
उनकी भुकुटिरूप कामदेव की कमान पर
सुन्दर तिलक बाण के समान सुशोभित है । उनके सुन्दर कर्णभूषण देखकर मन प्रसन्न हो
जाता है ॥ ५१ ।।
नासा चिबुक कपोल अधर रद सुंदर ।
बदन सरद बिधु निंदक सहज मनोहर ॥ ५२
॥
उनकी नाक,
ठोड़ी, कपोल, होठ और
दाँत सुन्दर हैं तथा शरत्-काल के चन्द्रमा की निन्दा करनेवाला उनका मुख स्वभाव से
ही मन को हरनेवाला है ॥ ५२ ॥
उर बिसाल बृष कंध सुभग भुज अतिबल ।
पीत बसन उपबीत कंठ मुकुता फल ॥ ५३ ॥
उनका वक्षःस्थल विशाल है,
कंधे वृषभ के टिले के समान सुन्दर हैं और भुजाएँ अति बलवान् हैं ।
वे पीताम्बर और जनेऊ धारण किये हुए हैं तथा उनके गले में मोतियों का हार सुशोभित
है ॥ ५३ ॥
कटि निषंग कर कमलन्हि धरें धनु-सायक
।
सकल अंग मन मोहन जोहन लायक ॥ ५४ ॥
वे कमर में तरकस और करकमलों में
धनुष-बाण धारण किये हैं । इस प्रकार उनके सभी अङ्ग मन को मोहनेवाले और दर्शनीय हैं
॥ ५४ ॥
राम-लखन-छबि देखि मगन भए पुरजन ।
उर अनंद जल लोचन प्रेम पुलक तन ॥ ५५
॥
श्रीरामचन्द्रजी और लक्ष्मणजी की
शोभा को देख पुरजन आनन्दित हो गये । उनके हृदय में आनन्द,
नेत्रों में जल और शरीर में प्रेमजनित रोमाञ्च हो आया ॥ ५५ ॥
नारि परस्पर कहहिं देखि दोउ भाइन्ह
।
लहेछ जनम फल आजु जनमि जग आइन्ह ॥ ५६
॥
दोनों भाइयों को देखकर स्त्रियाँ
आपस में कहती हैं कि हम जो जगत् में जन्म लेकर आयी थीं सो आज हमें जन्म का फल
प्राप्त हुआ’ ॥ ५६ ॥
जग जेनमि लोयन लाहु पाए सकल सिवहि
मनावहीं ।
बरु मिलौ सीतहि साँवरो हम हरषि मंगल
गावहीं ॥
एक कहहिं कुँवरु किसोर कुलिस कठोर
सिव धनु है महा ।
किमि लेहिं बाल मराल मंदर नृपहि अस
काहूँ न कहा ॥ ७ ॥
‘हमने जगत् में जन्म लेकर नेत्रों
का लाभ पाया ।’ यों कहकर सब शिवजी से मनाती हैं कि सीता को
साँवला वर मिले और हमलोग हर्षित होकर मङ्गल गावें । कोई कहती हैं कि कुँअर बालक
हैं और शिवजी का धनुष वज्र के समान अत्यन्त कठोर है । राजा से यह बात किसी ने नहीं
कही कि हंस के बच्चे पर्वत किस प्रकार उठायेंगे’ ॥ ७ ॥
भे निरास सब भूप बिलोकत रामहि ।
पन परिहरि सिय देब जनक बरु स्यामहि
॥ ५७ ॥
श्रीरामचन्द्रजी को देखकर सब राजा
निराश हो गये कि अब तो राजा जनक शर्त त्यागकर जानकी को साँवले वर के साथ ही ब्याह
देंगे ॥ ५७ ॥
कहहि एक अलि बात ब्याह भल होइहि ।
बर दुलहिनि लगि जनक अपनपन खोइहि ॥
५८ ॥
कोई कहते हैं-‘अच्छी बात है, विवाह अच्छा होगा, यदि वर और दुलहिन के लिये जनक अपनी शर्त छोड़ देंगे’ ॥ ५८ ॥
सुचि सुजान नृप कहहिं हमहि अस सूझई
।
तेज प्रताप रूप जहँ तहँ बल बुझई ॥
५९ ॥
शुद्ध हृदय के ज्ञानवान् राजालोग
कहने लगे — हमको तो ऐसा जान पड़ता है कि
जहाँ तेज, प्रताप और सुन्दरता होती है, वहीं बल भी जान पड़ता है ॥ ५९ ॥
चितइ न सकहु राम तन गाल बजावहु ।
बिधि बस बलउ लजान सुमति न लजावह् ॥
६० ॥
देखो, तुम श्रीरामचन्द्रजी की ओर आँख उठाकर देख भी नहीं सकते, बेमतलब गाल बजाते हो । प्रारब्धवश तुमलोगों का बल तो लजा ही गया, अब व्यर्थ अपनी सुबुद्धि को मत लजाओ ।। ६० ॥
अवसि राम के उठत सरासन टूटिहि ।
गवनहि राजसमाज नाक अस फूटिहि ॥ ६१ ॥
श्रीरामचन्द्रजी के उठते ही धनुष
अवश्य टूट जायगा और नाक फूटने पर जैसे समाज से उठ जाना पड़ता है,
वैसे ही सारे राजसमाज को चला जाना पड़ेगा ॥ ६१ ॥
कस न पिअहु भरि लोचन रूप सुधा रसु ।
करहू कृतारथ जन्म होहु कत नर पसु ॥
६२ ॥
‘तुमलोग श्रीरामचन्द्रजी के
अमृतमय रूपरस को नेत्र भरकर क्यों नहीं पीते ? अपने जन्म को
कृतार्थ कर लो । नर-पशु क्यों बनते हो ?’ ॥ ६२ ॥
दुह दिसि राजकुमार बिराजत मुनिबर ।
नील पीत पाथोज बीच जनु दिनकर ॥ ६३ ॥
मुनिवर विश्वामित्र के दोनों ओर
दोनों राजकुमार वैसे ही सुशोभित हो रहे हैं जैसे नीले और पीले कमल के बीच में
सूर्य हों ॥ ६३ ॥
काकपच्छ रिषि परसत पानि सरोजनि ।
लाल कमल जनु लालत बाल मनोजनि ॥ ६४ ॥
मुनिवर अपने करकमलों से उनकी अलकों
का स्पर्श करते हैं, जिससे ऐसा जान
पड़ता है, मानो अरुण कमल बालक कामदेवोंका लालन करते हों ॥ ६४
॥
मनसिज मनोहर मधुर मूरति कस न सादर
जोवहू ।
बिनु काज राज समाज महुँ तजि लाज आपु
बिगोवहू ।
सिष देइ भूपति साधु भूप अनूप छबि
देखन लगे ।
रघुबंस कैरव चंद चितइ चकोर जिमि
लोचन लगे ॥ ८ ॥
‘अरे, कामदेव
के भी मन को चुरानेवाली इन मधुर मूर्तियों को तुम सादर क्यों नहीं निहारते ?
तुम बिना ही प्रयोजन इस राजसमाज में लज्जा त्यागकर अपने को नष्ट
करते हो !’ राजाओं को ऐसी शिक्षा देकर वे साधुस्वभाव नृपतिगण
उनकी अनुपम छबि निरखने लगे । उस समय रघुकुल-कुमुदचन्द्र श्रीरामजी को देखकर चकोर
के समान उनके नेत्र चन्द्रमा को देखनेवाले चकोर पक्षी के समान ठग गये अर्थात्
उन्हीं की ओर लगे रह गये ॥ ८ ॥
पुर नर नारि निहारहिं रघुकुल दीपहि
।
दोषु नेहबस देहि बिदेह महीपहि ॥ ६५
॥
नगर के स्त्री-पुरुष रघुकुल के दीपक
श्रीरामचन्द्रजी को देखते हैं और प्रेमवश महाराज जनक को दोष देते हैं ॥ ६५ ॥
एक कहहिं भल भूप देहु जनि दूषन ।
नृप न सोह बिनु बचन नाक बिनु भूषन ॥
६६ ॥
कोई कहते हैं —
‘महाराज तो बड़े अच्छे हैं, उन्हें दोष मत दो,
देखो, वचन के बिना राजा और भूषण के बिना नाक
भले नहीं होते ॥ ६६ ॥
हमरें जान जनेस बहुत भल कीन्हेछ ।
पन मिस लोचन लाह सबन्हि कहें
दीन्हेछ ॥ ६७ ॥
‘हमारी समझ में तो राजा ने बहुत अच्छा किया जो अपनी शर्त के बहाने हम सबको
नेत्रों का फल दिया ॥६७॥
अस सुकृती नरनाह जो मन अभिलाषिहि ।
सो पुरइहिं जगदीस परज पन राखिहि ॥
६८ ॥
ऐसे पुण्यात्मा राजा मन में जो
अभिलाषा करेंगे, उसीको जगदीश्वर पूरा कर देंगे
और उनकी प्रतिज्ञा एवं शर्त की रक्षा करेंगे ॥ ६८ ॥
प्रथम सुनत जो राउ राम गुन-रूपहि ।
बोलि ब्याहि सिय देत दोष नहिं भूपहि
॥ ६९ ॥
यदि महाराज [ शर्त करने से ] पहले
श्रीरामचन्द्रजी का रूप और गुण सुन लेते तो इन्हें बुलाकर जानकीजी को ब्याह देते ।
उस समय ऐसा करने में महाराज को कोई दोष स्पर्श नहीं करता ॥ ६९ ॥
अब करि पइज पंच पहूँ जो पन त्यागे ।
बिधि गति जानि न जाइ अजसु जग जागै ॥
७० ॥
किंतु अब प्रण करके यदि वे पंचों
में (जनसमुदायमें) अपना प्रण त्यागते हैं तो विधाता की गति तो जानी नहीं जाती,
किंतु संसार में तो उनका अपयश फैल ही जायगा ॥ ७० ॥
अजहँ अवसि रघुनंदन चाप चढाउछ ।
ब्याह उछाह सुमंगल त्रिभुवन गाउब ॥
७१ ॥
‘अब भी श्रीरामचन्द्रजी अवश्य
धनुष चढ़ायेंगे और उनके विवाहोत्सव में त्रिलोकी मङ्गलगान करेगी’ ॥ ७१ ॥
लागि झरोखन्ह झाँकहिं भूपति भामिनि
।
कहत बचन रद लसहिं दमक जनु दामिनि ॥
७२ ॥
इस समय राजमहिलाएँ झरोखों से लगकर
झाँक रही हैं और बात करते समय उनके दाँत इस प्रकार चमक रहे हैं,
जैसे बिजली ॥ ७२ ।
जनु दमक दामिनि रूप रति मद निदरि
सुंदरि सोहहीं ।
मुनि ढिग देखाए सखिन्ह कुँवर बिलोकि
छबि मन मोहहीं ॥
सिय मातु हरषी निरखि सुषमा अति
अलौकिक रामकी ।
हिय कहति कहँ धनु कुँअर कहँ बिपरीत
गति बिधि बाम की ॥ ९ ॥
[ उनके दाँत ऐसे जान पड़ते हैं ]
मानो बिजली चमक रही हो । वे कामिनियाँ अपने रूप से रति के मद का निरादर करती हुई
शोभा पा रही हैं । [ सखियोंने सुनयनाजी को ] मुनि के समीप दोनों कुमारों को
दिखलाया । उनकी छबि देख उनका मन मोहित हो गया । श्रीरामचन्द्रजी की अत्यन्त अलौकिक
शोभा को देख जानकीजी की माता प्रसन्न हुई और मन-ही-मन कहने लगीं कि ‘कहाँ धनुष और कहाँ ये कुमार ? वाम विधाता की गति
बड़ी विपरीत है ॥ ९ ॥
कहि प्रिय बचन सखिन्ह सन रानि
बिसूरति ।
कहाँ कठिन सिव धनुष कहाँ मृदु मूरति
॥ ७३ ॥
सखियों से प्रिय वचन कहकर रानी
सोचने लगीं कि कहाँ शिवजी का (कठोर) धनुष और कहाँ यह सुकुमार मूर्ति ॥ ७३ ॥
जौं बिधि लोचने अतिथि करत नहिं
रामहि ।
तौ कोउ नृपहि न देत दोषु परिनामहि ॥
७४ ॥
यदि विधाता श्रीरामचन्द्रजी को
हमारे नेत्रों का अतिथि न बनाता तो अन्त में राजा का कोई दोष न देता ॥७४॥
अब असमंजस भयउ न कछु कहि आवै ।
रानिहि जानि ससोच सखी समझावै ॥ ७५ ॥
देबि सोच परिहरिय हरष हियँ आनिय ।
चाप चढ़ाउब राम बचन फुर मानिय ॥ ७६
॥
‘अब तो असमंजस की बात हो गयी, कुछ कहते नही बनता ।’
इस प्रकार रानी को सोचवश जानकर सखियाँ समझाने लगीं — ‘हे देवि ! सोच को त्याग दीजिये । हृदयमें आनन्द मनाइये । यह वचन सत्य
मानिये कि धनुष को श्रीरामचन्द्रजी ही चढ़ायेंगे ॥ ७५-७६ ॥
तीनि काल को म्यान कौसिकहि करतल ।
सो कि स्वयंबर आनिहिं बालक बिनु बल
॥ ७७ ॥
‘कौसिक मुनि को तीनों काल का
ज्ञान करतलगत है, क्या वे बिना किसी बल के इन बालकों को
स्वयंवर में लाते ?’ ॥ ७७ ॥
मुनि महिमा सुनि रानिहि धीरजु आयउ ।
तब सुबाहु सूदन जसु सखिन्ह सुनायउ ॥
७८ ॥
मुनि की महिमा सुनकर रानी को धैर्य
हुआ । तब सखियों ने रानी को सुबाहु का वध करनेवाले श्रीरामचन्द्रजी का यश सुनाया ॥
७८ ॥
सुनि जिय भयउ भरोस रानि हिय हरषई ।
बहुरि निरखि रघुबरहि प्रेम मन करषद्
॥ ७९ ॥
यह सुनकर रानी के जी में भरोसा आया
और वे हर्षित हो गयीं । फिर उन्होंने रघुनाथजी की ओर देखा,
इससे उनका मन प्रेम से आकर्षित हो गया ॥ ७९ ॥
नृप रानी पुर लोग राम तन चितवहिं ।
मंजु मनोरथ कलस भरहि अरु रितवहिं ॥
८० ॥
राजा, रानी और पुरवासीलोग श्रीरामचन्द्रजी की ओर देख रहे हैं । वे बार-बार मनोहर
मनोरथरूपी कलश भरते हैं और उसे खाली कर देते हैं (अर्थात् आशा और निराशाके झूले
में झूल रहे हैं) ॥ ८० ॥
रितवहिं भरहिं धनु निरखि छिनु-छिनु
निरखि रामहि सोचहीं ।
नर नारि हरष बिषाद बस हिय सकल
सिवहिं सकोचहीं ॥
तब जनक आयसु पाइ कुलगुर जानकिहि लै
आयऊ ।
सिय रूप रासि निहारि लोचन लाहु
लोगन्हि पायऊ ॥ १० ॥
धनुष को देखकर वे क्षण-क्षण में
मनोरथरूपी कलश को भरते और खाली करते हैं और श्रीरामचन्द्रजी को देखकर सोच करते हैं;
समस्त स्त्री-पुरुष हर्ष और विषादवश हृदय में शिवजी को संकुचित करते
हैं । (अर्थात् प्रार्थना करके उनसे यह मनाते हैं कि श्रीरामचन्द्रजी उन्हीं का
धनुष तोड़ने में समर्थ हों) तब महाराज जनक की आज्ञा पाकर कुलगुरु शतानन्दजी
जानकीजी को ले आये । उस समय रूपराशि श्रीजानकीजी को देखकर सब लोगों ने नेत्रों का
फल पाया ॥ १० ॥
मंगल भूषन बसन मंजु तन सोहहिं ।
देखि मूढ महिपाल मोह बस मोहहिं ॥ ८१
॥
श्रीजानकीजी के सुन्दर शरीर में
मङ्गलमय (विवाहोचित) वस्त्र और आभूषण सुशोभित हैं । उन्हें देखकर मूर्ख राजालोग
मोहवश मोहित हो जाते हैं ॥ ८१ ॥
रूप रासि जेहि ओर सुभायें निहारइ ।
नील कमल सर श्रेनि मयन जनु डारइ ॥
८२ ॥
रूप की राशि श्रीजानकीजी जिस ओर
स्वभाव से ही निहारती हैं, उसी ओर मानो कामदेव
नील कमल के बाणों की झड़ी लगा देता है ॥ ८२ ॥
छिनु सीतहि छिनु रामहि पुरजन देखहिं
।
रूप सील बय बंस बिसेष बिसेषहिं ॥ ८३
॥
पुरवासीलोग एक क्षण जानकीजी को और
दूसरे क्षण श्रीरामचन्द्रजी को निहारते हैं । वे उनके रूप,
शील, अवस्था और वंशकी विशेषता का विशेषरूप से
वर्णन करते हैं ।। ८३ ॥
राम दीख जब सीय सीय रघुनायक ।
दोउ तन तकि तकि मयन सुधारत सायक। ८४
॥
जब श्रीरामचन्द्रजी को जानकीजी ने
और जानकीजी को श्रीरामचन्द्रजी ने देखा, तब
दोनों की ओर देख-देखकर कामदेव अपने बाण सुधारने लगा ॥ ८४ ॥
प्रेम प्रमोद परस्पर प्रगटत गोपहि ।
जनु हिरदय गुन ग्राम थूनि थिर
रोपहिं ॥ ८५ ॥
श्रीरामचन्द्रजी और जानकीजी परस्पर
प्रकट होते हुए प्रेमानन्द को छिपाते हैं, मानो
वे अपने हृदय में एक दूसरे के गुण-गणरूपी स्तम्भ को स्थिरतापूर्वक गाड़ते हैं ।।
८५ ॥
राम सीय बय समौ सुभाय सुहावन ।
नृप जोबन छबि पुरइ चहत जनु आवन ॥ ८६
॥
श्रीरामचन्द्रजी और जानकीजी की
अवस्था का समय भी स्वभाव से ही शोभायमान है, मानो
इस समय यौवनरूपी राजा छबिरूपी नगरी में प्रवेश करना चाहता है ॥ ८६ ॥
सो छबि जाइ न बरनि देखि मनु मानै ।
सुधा पान करि मूक कि स्वाद बखानै ॥
८७ ॥
उस शोभा का वर्णन नहीं किया जा सकता;
उसे तो देखने से ही मन प्रसन्न होता है। क्या गुँगा अमृत-पान करके
उसके स्वाद को कह सकता है ? ॥ ८७ ॥
तब विदेह पन बंदिन्ह प्रगट सुनायउ ।
उठे भूप आमरषि सगुन नहिं पायउ ॥ ८८
॥
तब बंदीजनों ने महाराज जनक की शर्त
को स्पष्ट करके सुनाया । उसे सुनकर राजालोग जोश में आकर उठे,
परंतु कोई शकुन नहीं बना ॥ ८८ ॥
नहि सगुन पायउ रहे मिस करि एक धनु
देखन गए ।
टकटोरि कपि ज्यों नारियरु,
सिरु नाइ सबै बैठत भए ।
एक करहिं दाप,
न चाप सज्जन बचन जिमि टारें टरै ।
नृप नहुष ज्यों सब के बिलोकत बुद्धि
बल बरबस हरै ॥ ११ ॥
जब राजाओं को शुभ शकुन नहीं मिला,
तब वे बहाना बनाकर बैठ गये । उनमें से कोई धनुष देख नेके लिये गये
और जैसे बंदर नारियल को टटोलकर छोड़ देता है, वैसे ही वे सब
धनुष को टटोलकर सिर नीचा करके बैठ गये । कोई-कोई बड़े जोश में आते हैं, परंतु सत्पुरुषों के वचनों के समान धनुष टाले नहीं टलता । इस प्रकार राजा
नहुष के समान* उनके बुद्धि और बल सबके
देखते-देखते बरबस क्षीण हो गये ॥ ११ ॥
* जब अपने पुण्य के प्रताप से राजा नहुष को इन्द्रपद प्राप्त हुआ, तब उसके मदमें उनकी बुद्धि भ्रष्ट हो गयी। उन्होंने
इन्द्राणीको भोगनेकी इच्छा प्रकट की और उसका संदेश पाकर ऋषियोंको शिविकामें जोड़कर
चले। उनमें इस प्रकारके अनौचित्यका विचार करनेकी भी बुद्धि न रही । अन्तमें
अगस्त्य ऋषिके शापसे वे तत्काल अजगर हो गये।
धनुर्भङ्ग देखि सपुर परिवार जनक हिय
हारेउ ।
नृप समाज जनु तुहिन बनज बन मारेउ ॥
८९ ॥
पुरवासी एवं परिवारके सहित महाराज
जनक यह देखकर हृदय में हार गये अर्थात् निराश हो गये और राजाओं के समाजरूपी कमलवन
को तो मानो पाला मार गया ।। ८९ ॥
कौसिक जनकहि कहेउ देहु अनुसासन ।
देखि भानु कुल भानु इसानु सरासन ॥
९० ॥
(तब) कौशिक मुनि ने महाराज जनक से कहा —
‘आप आज्ञा दीजिये । सूर्यकुल के सूर्य श्रीरामचन्द्रजी शङ्करजी के
धनुष को देखें’ ॥ ९० ॥
मुनिबर तुम्हरें बचन मेरु महि
डोलहिं ।
तदपि उचित आचरत पाँच भल बोलहिं ॥ ९१
॥
बानु बानु जिमि गयउ गवहिं दसकंधरु ।
को अवनी तल इन सम बीर धुरंधरु॥ ९२ ॥
(महाराज जनक ने कहा-) हे मुनिवर ! आपके वचन से
पर्वत और पृथ्वी भी डोल सकते हैं, तो भी उचित
आचरण करने से सब लोग प्रशंसा करते हैं । (तात्पर्य यह कि यद्यपि आपके आशीर्वाद से
श्रीराम के लिये यह धनुष तोड़ना कोई बड़ी बात नहीं है, फिर
भी जैसी वस्तुस्थिति है, उसे देखते हुए तो ऐसा होना असम्भव
ही जान पड़ता है; क्योंकि देखिये, इस
धनुष को देखकर) बाणासुर बाण के समान भाग गया और रावण भी चुपके से (अपने घर) चला
गया । भला इनके समान धुरंधर वीर पृथ्वीतल में कौन है ॥ ९१-९२ ॥
पारबती मन सरिस अचल धनु चालक ।
हहिं पुरारि तेउ एक नारि ब्रत पालक
॥ ९३ ॥
‘यह धनुष तो पार्वतीजी के मन के
समान अचल है, इसे विचलित करनेवाले तो बस एक महादेवजी ही हैं,
किंतु वे भी एकनारी व्रत का पालन करनेवाले हैं ॥ ९३ ।।
सो धनु कहिय बिलोकन भूप किसोरहि ।
भेद कि सिरिस सुमन कन कुलिस कठोरहि
॥ ९४ ॥
ऐसे धनुष को आप इन राजकुमार को
देखने के लिये कहते हैं । भला, कहीं सिरस का
अत्यन्त कोमल फूल कठोर वज्र के कण को भी भेद सकता है ॥ ९४ ॥
रोम रोम छबि निंदति सोभ मनोजनि ।
देखिय मूरति मलिन करिय मुनि सो जनि
॥ ९५ ॥
श्रीरामचन्द्रजी की रोम-रोम की शोभा
अनेक कामदेवों की छबि का भी तिरस्कार करनेवाली है । हे मुने ! ऐसा न कीजिये कि यह
मूर्ति मलिन देखी जाय [ क्योंकि यदि इनसे धनुष न टूटा तो इनकी यह प्रसन्नता नष्ट
हो जायगी ]’ ॥ ९५ ॥
मुनि हँसि कहेउ जनक यह मूरति सोहइ ।
सुमिरत सकृत मोह मल सकल बिछोहई ॥ ९६
॥
मुनि ने हँसकर कहा,
‘हे जनक ! यह मूर्ति जो शोभायमान हो रही है, वह
एक बार स्मरण करने से भी सम्पूर्ण अज्ञानान्धकार को दूर कर देनेवाली है’ ॥ ९६ ॥
सब मल बिछोहनि जानि मूरति जनक कौतुक
देखहू ।
धनु सिंधु नृप बल जल बढ्यो रघुबरहि
कुंभज लेखहू ॥
सुनि सकुचि सोचहिं जनक गुर पद बंदि
रघुनंदन चले ।
नहिं हरष हृदय बिषाद कछु भए सगुन
सुभ मंगल भले॥ १२ ॥
‘हे जनक ! इस मूर्ति को सब प्रकार
के मलों को छुड़ानेवाली जानकर यह कौतुक देखो । धनुषरूपी समुद्र में राजाओं का
बलरूपी जल बढ़ा हुआ है, [ उसे सुखाने के लिये ] रघुनाथजी को
अगस्त्य के समान जानो ।’ यह सुनकर राजा जनक सकुचाकर सोचने
लगे और [ उधर ] श्रीरामचन्द्रजी गुरु के चरणों को प्रणाम करके चले । इस समय उनके
हृदय में हर्ष या विषाद कुछ भी नहीं था । [ उनके चलते समय ] बहुत-से शुभ और
कल्याणसूचक अच्छे शकुन हुए ॥ १२ ॥
बरिसने लगे सुमन सुर दुंदुभि बाजहिं
।
मुदित जनक,
पुर परिजन नृपगन लाजहिं ॥ ९७ ॥
देवतालोग फूल बरसाने और नगारे बजाने
लगे;
राजा जनक, उनके परिवार के लोग तथा पुरवासी
आनन्दित हो गये और राजालोग लजा गये ॥ ९७ ॥
महि महिधरनि लखन कह बलहि बढ़ावनु ।
राम चहत सिव चापहि चपरि चढावनु ॥ ९८
॥
लक्ष्मणजी पृथ्वी और शेषादि से बल
बढ़ाने के लिये कहते हैं; क्योंकि अब शीघ्र
ही श्रीरामचन्द्रजी शिवजी के धनुष को चढ़ाना चाहते हैं ॥ ९८ ॥
गए सुभायँ राम जब चाप समीपहि ।
सोच सहित परिवार बिदेह महीपहि ॥ ९९
॥
जब श्रीरामचन्द्रजी सहज भाव से धनुष
के समीप गये, तब परिवारसहित राजा जनक सोच में
पड़ गये ॥ ९९ ॥
कहि न सकति कछु सकुचति सिय हियँ
सोचइ ।
गौरि गनेस गिरीसहि सुमिरि सकोचइ ॥
१०० ॥
संकोचवश जानकीजी कुछ कह नहीं पातीं,
मन-ही-मन सोच करती हैं और पार्वती, गणेश तथा
महादेवजीका स्मरण करके उन्हें संकोच में डाल रही हैं ॥ १०० ॥
होत बिरह सर मगन देखि रघुनाथहि ।
फरकि बाम भुज नयन देत जनु हाथहि ॥
१०१ ॥
श्रीरामचन्द्रजी को देखकर वे विरह
के सरोवर में डूब रही हैं । उस समय उनके बाम भुजा और नेत्र फड़ककर मानो डूबने से
बचाने के लिये हाथ बढ़ाते हैं ॥ १०१ ॥
धीरज धरति सगुन बल रहति सो नाहिन ।
बरु किसोर धनु घोर दइउ नहिं दाहिन ॥
१०२ ॥
इस प्रकार शकुन के बल से कुछ धीरज
धरती हैं;
परंतु वह स्थिर नहीं रहता । [ वे सोचने लगती हैं कि ] ‘वर तो किशोरावस्था के हैं और धनुष विकराल है । इस समय विधाता भी अनुकूल
नहीं है’ ॥ १०२ ॥
अंतरजामी राम मरम सब जानेउ ।
धनु चढ़ाई कौतुकहिं कान लगि तानेउ ॥
१०३ ॥
अन्तर्यामी श्रीरामचन्द्रजी ने
जानकीजी का सारा मर्म जान लिया ( अर्थात् वे श्रीजानकीजी के मन का दुःख समझ गये )
। बस उन्होंने कौतुक से ही धनुष को चढ़ाकर कान तक तान लिया ॥ १०३ ॥
प्रेम परखि रघुबीर सरासन भंजेउ ।
जनु मृगराज किसोर महागज भंजेउ ॥ १०४
॥
श्रीजानकीजी के प्रेम को परखकर
श्रीरामचन्द्रजी ने धनुष को उसी प्रकार तोड़ दिया, जैसे कोई सिंह का बच्चा बड़े भारी हाथी को मार डाले ।। १०४ ॥
गंजेउ सो गर्जेठ घोर धुनि सुनि भूमि
भूधर लरखरे ।
रघुबीर जस मुकता बिपुल सब भुवन पटु
पेटक भरे ॥
हित मुदित अनहित रुदित मुख छबि कहत
कबि धनु जाग की ।
जनु भोर चक्क चकोर कैरव सघन कमल
तड़ाग की ॥ १३ ॥
धनुष को जब तोड़ा गया,
तब उसका ऐसा घोर गर्जन हुआ कि उसे सुनकर पृथ्वी और पर्वत डगमगा गये
। श्रीरामचन्द्रजी के सुयशरूपी बहुत-से मोतियों से समस्त भुवन-मण्डलरूप सुन्दर
पिटारे भर गये । ( अर्थात् चौदहों भुवन में उनका सुयश व्याप्त हो गया ) इससे मित्र
लोग आनन्दित हुए और शत्रुओं का मुख रुआँसा हो गया । उस समय की धनुष-यज्ञ की छबि को
कवि इस प्रकार वर्णन करता है कि प्रातःकाल चकवा-चकवी, कुमुदिनी
और सघन कमलवन से युक्त तालाब की जैसी शोभा होती है, वैसी ही
उस यज्ञ की हुई (भाव यह कि शत्रु लोग तो चकोर और कुमुदिनियों के समान निस्तेज हो
गये और सत्पुरुष चकवा-चकवी एवं कमलवन के समान प्रफुल्लित हो गये) ॥ १३ ॥
नभ पुर मंगल गान निसान गहागहे ।
देखि मनोरथ सुरतरु ललित लहालहे ॥
१०५ ॥
मनोरथरूपी सुन्दर कल्पवृक्ष को
लहलहाते देखकर नगर और आकाश में आनन्दपूर्वक मङ्गल-गान और नगारों का शब्द होने लगा
॥ १०५ ॥
तब उपरोहित कहेछ सखीं सब गावन ।
चलीं लेवाड जानकिहि भा मन भावन ॥
१०६ ॥
तब पुरोहित (शतानन्दजी) ने समस्त
सखियों को गाने की आज्ञा दी और वे [ गाती हुई 1
श्रीजानकीजी को लिवाकर चलीं । इस प्रकार जानकीजी का मनमाना हो गया ॥ १०६ ॥
कर कमलनि जयमाल जानकी सोहइ ।
बरनि सकै छबि अतुलित अस कबि कोहइ ॥
१०७ ॥
जानकीजी के करकमलों में जयमाला शोभा
दे रही है; भला ऐसा कौन कवि है, जो उस अतुलित छबि का वर्णन कर सके ॥ १०७ ।।
सीय सनेह सकुच बस पिय तन हेरई ।
सुरतरु रुख सुरबेलि पवन जनु फेरइ ॥
१०८ ॥
जानकीजी प्रेम और संकोचवश प्रियतम
की ओर देखती हैं, मानो वायु कल्पलता
को कल्पवृक्ष की ओर घुमा रहा है ॥ १०८ ॥
लसत ललित कर कमल माल पहिरावत ।
काम फंद जनु चंदहि बनज फँसावत ॥ १०९
॥
जयमाल पहनाते समय उनके सुन्दर करकमल
ऐसे सुशोभित जान पड़ते हैं मानो कमल कामदेव के फंदे में चन्द्रमा को फँसाते हों ॥
१०९ ॥
राम सीय छबि निरुपम निरुपम सो दिनु
।
सुख समाज लखि रानिन्ह आनँद
छिनु-छिनु ॥ ११० ॥
श्रीराम ओर जानकीजी की अनुपम शोभा
और वह दिन भी अनुपम था । उस सुख-समाज को देखकर रानियों को क्षण-क्षण में आनन्द हो
रहा था ॥ ११० ॥
प्रभुहि माल पहिराइ जानकिहि लै चलीं
।
सखी मनहुँ बिधु उदय मुदित कैरव कलीं
॥ १११ ॥
श्रीरामचन्द्रजी को माला पहिनाकर
सखियाँ जानकीजी को लिवा चलीं; वे ऐसी
प्रफुल्लित हो रही हैं जैसे चन्द्रमा का उदय होने से कुमुदिनी की कलियाँ खिल उठती
हैं ॥ १११ ॥
बरषहिं बिबुध प्रसून हरषि कहि जय जए
।
सुख सनेह भरे भुवन राम गुर पर्दै गए
॥ ११२ ॥
देवता लोग आनन्दित होकर जयजयकार
करते हुए फूल बरसाते हैं । उस समय सारे भुवन सुख और स्नेह से भर गये और श्रीरामचन्द्रजी
गुरु के पास गये ॥ ११२ ॥
गए राम गुरु पहिं राड रानी नारि-नर
आनँद भरे ।
जनु तृषित करि करिनी निकर सीतल
सुधासागर परे ।
कौसिकहि पूजि प्रसंसि आयसु पाइ नृप
सुख पायऊ ।
लिखि लगन तिलक समाज सजि कुल गुरहि
अवध पठायऊ ॥ १४ ॥
श्रीरामचन्द्रजी गुरु के यहाँ गये ।
राजा-रानी, स्त्री-पुरुष सब उसी प्रकार
आनन्द से भर गये, मानो प्यासे हाथी-हथिनियों का झुंड शीतल
अमृत-सागर में जा गिरा हो । कौशिक मुनि की पूजा और प्रशंसा करके उनकी आज्ञा पा
राजा सुखी हुए तथा लग्न लिखकर तिलक की सामग्री सजा अपने कुलगुरु (शतानन्दजी) को अयोध्या
भेजा ॥ १४ ॥
गुनि गन बोलि कहेउ नृप माँडव छावन ।
गावहिं गीत सुआसिनि बाज बधावन ॥ ११३
॥
राजा ने गुणी लोगों को बुलाकर मण्डप
छाने की आज्ञा दी । सुवासिनियाँ (सुहागिनी लड़कियाँ) गीत गाने लगीं और बधावा बजने
लगा ॥ ११३ ॥
सीय राम हित पूजहि गौरि गनेसहि ।
परिजन पुरजन सहित प्रमोद नरेसहि ॥
११४ ॥
श्रीरामचन्द्रजी और जानकीजी के लिये
वे गौरी और गणेश की पूजा करती हैं । [ इस प्रकार ] सभी परिवार के लोगों एवं
पुरजनों के सहित राजा को परम आनन्द हो रहा है ॥ ११४ ॥
प्रथम हरदि बंदन करि मंगल गावहिं ।
करि कुल रीति कलस थपि तेलु चढ़ावहिं
॥ ११५ ॥
पहले हरिद्रा-वन्दन करके अर्थात्
हल्दी चढ़ाकर मङ्गल-गान करती हैं और कुल की रीति करके कलश-स्थापन कर तेल चढ़ाती
हैं ॥ ११५ ॥
विवाह की तैयारी
गे मुनि अवध बिलोकि सुसरित नहायउ ।
सतानंद सत कोटि नाम फल पायउ ॥ ११६ ॥
[ इधर ] मुनि (शतानन्द) ने अयोध्या
पहुँचकर सरयू में स्नान किया और सौ करोड़ नाम जपने का फल पाया ॥ ११६ ॥
नृप सुनि आगे आइ पूजि सनमानेछ ।
दीन्हि लगन कहि कुसल राउ हरषानेउ ॥
११७ ॥
शतानन्द मुनि का आगमन सुनकर महाराज
(दशरथ) आगे आये और पूजा करके उनका सम्मान किया । फिर मुनि ने कुशल सुनाकर उन्हें
लग्नपत्रिका दी । [ इससे ] राजा दशरथ बहुत हर्षित हुए ॥ ११७ ।।
सुनि पुर भयउ अनंद बधाव बजावहिं ।
सजहिं सुमंगल कलस बितान बनावहिं ॥
११८ ॥
इस समाचार को सुनकर नगर में बड़ा
आनन्द हुआ और बधावे बजने लगे । सब ओर [ विवाहार्थ ] मङ्गल-कलश सजाये जाने लगे और
जहाँ-तहाँ वितान (चाँदनियाँ) ताने गये ॥ ११८ ॥
राउ छाँड़ि सब काज साज सब साजहिं ।
चलेउ बरात बनाई पूजि गनराजहि ॥ ११९
॥
महाराज (दशरथ) [ अन्य ] सब कामों को
छोड़कर बरात का सामान सजाने लगे और बरात बनाकर गणेशजी का पूजन करके चल पड़े ॥ ११९
॥
बाजहि ढोल निसान सगुन सुभ पाइन्हि ।
सिय नैहर जनकौर नगर नियराइन्हि ॥
१२० ॥
ढोल और नगारे बज रहे हैं और शुभ
शकुन हो रहे हैं । इस प्रकार जानकीजी का नैहर जनकौर (जनकपुर) समीप आ गया ॥ १२० ॥
नियरानि नगर बरात हरषी लेन अगवानी
गए ।
देखत परस्पर मिलत मानत प्रेम
परिपूरन भए ।
आनंदपुर कौतुक कोलाहल बनत सो बरनत
कहाँ ।
लै दियो तहँ जनवास सकल सुपास नित
नूतन जहाँ ॥ १५ ॥
बरात नगर के समीप पहुँच गयी । तब सब
लोग प्रसन्न होकर अगवानी लेने (स्वागत करने) गये । सब एक-दूसरे को देखते और मिलते
हैं तथा आप्तकाम होकर बड़ा प्रेम मानते हैं । नगर में बड़ा आनन्द,
कौतुक (खेल) और कोलाहल (हल्ला) हो रहा है, उसका
वर्णन कहाँ हो सकता है । फिर बरात को ले जाकर जहाँ सब प्रकार का नित्य-नूतन सुभीता
था, वहाँ जनवासा दिया (बरात को ठहराया गया) ॥ १५ ॥
गे जनवासहिं कौसिक राम लखन लिए ।
हरचे निरखि बरात प्रेम प्रमुदित हिए
॥ १२१ ॥
कौशिक मुनि श्रीरामचन्द्रजी और
लक्ष्मणजी को साथ लिये जनवासे में गये और बरात को देखकर अति आनन्दित हुए,
उनका हृदय प्रेम से प्रफुल्लित था ॥ १२१ ॥
हृदयँ लाइ लिए गोद मोद अति भूपहि ।
कहि न सकहिं सत सेष अनंद अनूपहि ॥
१२२ ॥
महाराज ने श्रीराम और लक्ष्मण को
हृदय से लगाकर गोद में बिठा लिया । उस समय उन्हें अत्यन्त आनन्द हुआ । उस अनुपम
आनन्द को सैकड़ों शेष भी वर्णन नहीं कर सकते ॥ १२२ ॥
रायँ कौसिकहि पूजि दान बिप्रन्ह दिए
।
राम सुमंगल हेतु सकल मंगल किए ॥ १२३
॥
ब्याह बिभूषन भूषित भूषन भूषन ।
बिस्व बिलोचन बनज बिकासक पूषन ॥ १२४
॥
महाराज दशरथ ने कौशिक मुनि की पूजा
करके ब्राह्मणों को दान दिये और श्रीरामचन्द्रजी के कल्याण के लिये सब प्रकार के
माङ्गलिक कृत्य कि ये। जो संसार के नेत्ररूपी कमलों को विकसित करनेवाले सूर्य के
समान हैं । वे भूषणों के भूषण श्रीरामचन्द्रजी विवाह के आभूषणों से भूषित हैं ॥
१२३-१२४ ॥
मध्य बरात बिराजत अति अनुकूलेउ ।
मनहूँ काम आराम कलपतरु फूलेउ ॥ १२५
॥
वे बरात के मध्य में अत्यन्त
प्रसन्न चित्त से सुशोभित हैं, ऐसा जान पड़ता
है, मानो कामदेव के बाग में कल्पवृक्ष फूला हुआ हो ॥ १२५ ॥
पठई भेट बिदेह बहुत बहु भाँतिन्ह ।
देखत देव सिहाहिं अनंद बरातिन्ह ॥
१२६ ॥
महाराज जनक ने अनेक प्रकार के
बहुत-से उपहार भेजे, जिन्हें देखकर
देवता (भी) ईर्ष्या करते हैं और बरातियों को भी बड़ा आनन्द होता है ॥ १२६ ॥
राम-विवाह
बेद बिहित कुलरीति कीन्हि दुहँ
कुलगुर ।
पठई बोलि बरात जनक प्रमुदित मन ॥
१२७ ॥
वसिष्ठजी और शतानन्दजी दोनों
कुलगुरुओं ने वेदविहित कुलरीति सम्पन्न की तथा महाराज जनक ने प्रमुदित मन से बरात
को बुला भेजा ॥ १२७ ॥
जाइ कहेउ पगु धारिअ मुनि अवधेसहि ।
चले सुमिरि गुरु गौरि गिरीस गनेसहि
॥ १२८ ॥
[ तब ] शतानन्द मुनि ने [ जनवासे में ] जाकर
अयोध्यापति (महाराज दशरथ) से कहा — ‘पधारिये’
और वे गुरु (वसिष्ठ), गौरी, शिवजी और गणेशजी को स्मरणकर चले ॥ १२८ ॥
चले सुमिरि गुर सुर सुमन बरषहिं परे
बहुबिधि पावड़े ।
सनमानि सब बिधि जनक दसरथ किये प्रेम
कनावड़े ॥
गुन सकल सम समधी परस्पर मिलन अति
आनँद लहे ।
जय धन्य जय जय धन्य धन्य बिलोकि सुर
नर मुनि कहे ॥ १६ ॥
महाराज दशरथ गुरु आदि को स्मरणकर
चले;
देवतालोग फूल बरसाने लगे और अनेक प्रकार के पाँवड़े पड़ने लगे ।
महाराज जनक ने सब प्रकार से सम्मानित कर श्रीदशरथजी को अपने प्रेम से कृतज्ञ बना
लिया । सब गुणों में तुल्य दोनों समधियों ने परस्पर मिलते समय अत्यन्त आनन्द
प्राप्त किया । उन्हें देखकर देवता, मनुष्य और मुनिजन
धन्य-धन्य कहते और जय-जयकार कर रहे हैं ॥ १६ ॥
तीनि लोक अवलोकहिं नहिं उपमा कोउ ।
दसरथ जनक समान जनक दसरथ दोउ ॥ १२९ ॥
तीनों लोकों को देखते हैं;
[ परंतु ] कहीं कोई उपमा नहीं मिलती । बस, महाराज
दशरथ और जनक के समान तो जनक और दशरथ दो ही हैं ॥ १२९ ॥
सजहिं सुमंगल साज रहस रनिवासहि ।
गान करहिं पिकबैनि सहित परिहासहि ॥
१३० ॥
रनिवास में बड़ा आनन्द है । सब लोग
श्रेष्ठ मङ्गलसाज सजा रहे हैं और कोकिलबयनी कामिनियाँ परिहास करती हुई गान कर रही
हैं ॥ १३० ॥
उमा रमादिक सुरतिय सुनि प्रमुदित
भईं ।
कपट नारि बर बेष बिरचि मंड़प गईं ॥
१३१ ॥
उसे सुनकर पार्वतीजी,
लक्ष्मीजी एवं अन्य देवताओं की स्त्रियाँ आनन्दित हुई और स्त्रियों
का सुन्दर छद्म-वेष बनाकर मंडप में गयीं ॥ १३१ ॥
मंगल आरति साज बरहि परिछन चलीं ।
जनु बिगस रबि उदय कनक पंकज कलीं ॥
१३२ ॥
वे मङ्गल आरती सजाकर दुलहे का परिछन
करने चलीं, वे ऐसी प्रसन्न हो रही हैं मानो
सोने के कमल की कलियाँ सूर्योदय होने पर फूल उठीं हों ॥ १३२ ॥
नख सिख सुंदर राम रूप जब देखहिं ।
सब इंद्रिन्ह महँ इंद्र बिलोचन
लेखहि ॥ १३३ ॥
जब वे नख से चोटी तक
श्रीरामचन्द्रजी के सुन्दर रूप को देखती हैं, तब
सभी इन्द्रियों में इन्द्र के-से नेत्रों को ही श्रेष्ठ समझती हैं । (वे सोचती हैं
जिस प्रकार इन्द्र के शरीर में हजार नेत्र हैं, वैसे ही
हमारे भी रोम-रोम में नेत्र होते तो श्रीरामचन्द्रजी की अनुपम रूपसुधा का कुछ
आस्वादन कर पातीं) ॥ १३३ ॥
परम प्रीति कुलरीति करहिं गज गामिनि
।
नहि अघाहिं अनुराग भाग भरि भामिनि ॥
१३४ ॥
अनुराग एवं सौभाग्य से भरी हुई वे
गजगामिनी स्त्रियाँ परम प्रीतिपूर्वक कुलाचार करती हैं किंतु अघाती नहीं ॥ १३४ ॥
नेगचारु कहँ नागरि गहरु न लावहिं ।
निरखि निरखि आनंदु सुलोचनि पावहिं ॥
१३५ ॥
वे चतुरा स्त्रियाँ रीति-रस्म में
देरी नहीं लगातीं, बार-बार
श्रीरघुनाथजी को देख करके सुलोचना स्त्रियाँ [महान्] आनन्द का अनुभव करती हैं ॥
१३५ ॥
करि आरती निछावरि बरहि निहारहिं ।
प्रेम मगन प्रमदागन तन न सँभारहिं ॥
१३६ ॥
आरती और निछावर करके वे दुलहा को
निरखती हैं । और प्रेम में मग्न हो जाने से वे प्रेम-मद से छकी युवती स्त्रियाँ
अपने शरीर को भी नहीं सँभाल पातीं ॥ १३६ ॥
नहिं तन सम्हारहिं छबि निहारहिं
निमिष रिपु जनु रनु जए।
चक्रवै लोचन राम रूप सुराज सुख भोगी
भए ।
तब जनक सहित समाज राजहि उचित
रुचिरासन दए ।
कौसिक बसिष्ठहि पूजि पूजे राउदै
अंबर नए ॥ १७ ॥
अपने शरीर को नहीं सँभाल पातीं ।
भगवान् की शोभा [ एकटक होकर ] निहारती हैं । ऐसा जान पड़ता है,
मानो उन्होंने पलकरूपी शत्रुओं को रण में जीत लिया है । इससे उनके
नेत्ररूपी चक्रवर्ती राम-छबिरूप सुराज्य के सुख के भोगी हुए हैं । तब जनकजी ने
समाजसहित महाराज दशरथ को सुन्दर आसन दिये और कौसिक मुनि तथा वसिष्ठजी की पूजा करके
नवीन वस्त्र अर्पण कर महाराज दशरथ की पूजा की ॥ १७ ॥
देत अरघ रघुबीरहि मंडप लै चलीं ।
करहिं सुमंगल गान उमगि आनँद अली ॥
१३७ ॥
[ फिर जानकीजी की कुछ ] सखियाँ
श्रीरामचन्द्रजी को अर्घ्य देती हुई मण्डप में लिवा चलीं । वे आनन्द में उसँगकर
मनोहर मङ्गलगान करती हैं ॥ १३७ ॥
बर बिराज मंडप महँ बिस्व बिमोहई ।
ऋतु बसंत बन मध्य मदनु जनु सोहइ ॥
१३८ ॥
दूल्हा राम मण्डप में विराजमान हो
संसार को विशेषरूप से मोहित कर रहे हैं, वे
ऐसे भले लगते हैं, मानो वसन्तऋतु में कामदेव वन के मध्य में
शोभायमान हैं ॥ १३८ ।।
कुल बिबहार बेद बिधि चाहिय जहँ जस ।
उपरोहित दोउ करहिं मुदित मन तहँ तस ॥
१३९ ॥
जहाँ जिस प्रकार की वैदिक विधि और
कुल-व्यवहार की आवश्यकता होती है, वहाँ दोनों
पुरोहित प्रसन्न-मन से वैसा ही करते हैं ॥ १३९ ।।
बरहि पूजि नृप दीन्ह सुभग सिंहासन ।
चली दुलहिनिहि ल्याइ पाइ अनुसासन ॥
१४० ॥
राजा जनक ने वर का पूजन करके सुन्दर
सिंहासन दिया और सखियाँ आज्ञा पा दुलहिन को लेकर चलीं ॥१४०॥
जुबति जुत्थ महँ सीय सुभाइ बिराजइ ।
उपमा कहत लजाइ भारती भाजइ ॥ १४१ ॥
स्त्रियों के झुंड में जानकीजी
स्वभाव से ही शोभा पा रही हैं । सरस्वती उपमा कहने में लजाकर भाग जाती हैं ॥ १४१
।।
दुलह दुलहिनिन्ह देखि नारि नर
हरषहिं ।
छिनु छिनु गान निसान सुमन सुर बरषहि
॥ १४२ ॥
दुलहा और दुलहिन को देखकर
स्त्री-पुरुष हर्षित होते हैं और क्षण-क्षण में गीत गाते और नगारे बजाते हुए
देवतालोग फूल बरसाते हैं ।। १४२ ॥
लै लै नाउँ सुआसिनि मंगल गावहिं ।
कुँवर कुँवरि हित गनपति गौरि पुजावहिं
॥ १४३ ॥
सुवासिनियाँ दूल्हा और दुलहिन का
नाम ले-लेकर मङ्गल गाती हैं और कुमार-कुमारी के कल्याण के लिये [ उनसे ] गणेशजी
तथा पार्वतीजी की पूजा कराती हैं ॥ १४३ ॥
अगिनि थापि मिथिलेस कुसोदक लीन्हेछ
।
कन्या दान बिधान संकलप कीन्हेउ ॥
१४४ ॥
मिथिलापति (महाराज जनक) ने
अग्नि-स्थापन करके कुश और जल लिया तथा कन्या-दान की विधि के लिये संकल्प किया ॥
१४४ ॥
संकल्पि सिय रामहि समरपी सील सुख
सोभामई ।
जिमि संकरहि गिरिराज गिरिजा हरिहि
श्री सागर दई ।
सिंदूर बंदन होम लावा होन लागी
भाँवरी ।
सिल पोहनी करि मोहनी मनहरयो मूरति
साँवरीं ॥ १८ ॥
महाराज जनक ने संकल्प करके शील,
सुख और शोभामयी श्रीजानकीजी भगवान् राम को समर्पण कर दीं-[ ठीक उसी
तरह ] जैसे गिरिराज हिमवान् ने शंकरजी को पार्वतीजी और सागर ने भगवान् श्रीहरि को
लक्ष्मीजी समर्पण की थीं । सिंदूर-वन्दन तथा लाजाहोम की विधि सम्पन्न करके भाँवर
होने लगी । फिर सिलपोहनी (अश्मारोहण) विधि की गयी। [ उस समय ] भगवान् की मन-मोहिनी
साँवली मूर्तिने सबके मन हर लिये ॥१८॥
एहि बिधि भयो बिबाह उछाह तिहूँ पुर
।
देहिं असीस मुनीस सुमन बरषहि सुर ॥
१४५ ॥
इस प्रकार विवाह-संस्कार सम्पन्न
हुआ और तीनों लोक में आनन्द छा गया । मुनीश्वर आशीर्वाद देते हैं और देवता फूल
बरसाते हैं ॥ १४५ ॥
मन भावत बिधि कीन्ह मुदित भामिनि
भईं ।
बर दुलहिनिहि लवाइ सख कोहबर गईं ॥
१४६ ॥
विधाता ने जो कुछ हमारे मन को प्रिय
लगता था,
वही कर दिया — यह सोचकर [ सभी ] स्त्रियाँ
आनन्दित हुई और फिर [ जानकीजी की ] सखियाँ दूल्हा और दुलहिन को लेकर कोहबर
(कुलदेवता के स्थान) में गयीं ॥१४६॥
निरखि निछावर करहि बसन मनि छिनु
छिनु ।
जाइ न बरनि बिनोद मोदमय सो दिनु ॥
१४७ ॥
उन्हें निरख-निरखकर वे क्षण-क्षण
में वस्त्र और मणियाँ निछावर करती हैं । विनोद और आनन्द से पूर्ण उस दिन का वर्णन
नहीं किया जा सकता ॥ १४७ ॥
सिय भ्राताके समय भोम तहँ आयउ ।
दुरीदुरा करि नेगु सुनात जनायउ ॥
१४८ ॥
जिस समय जानकीजी के भाई की आवश्यकता
हुई,
उस समय वहाँ [ पृथ्वी का पुत्र ] मंगलग्रह [ स्वयं ] आया और अपने को
छिपाकर सब रीति-रस्म करके अपना सुन्दर सम्बन्ध जनाया ॥ १४८ ॥
चतुर नारि बर कुँवरिहि रीति
सिखावहिं ।
देहि गारि लहकौरि समौ सुख पावहिं ॥
१४९ ॥
चतुर स्त्रियाँ वर और दुलहिन को
कुलरीति सिखाती हैं और लहकौरी की विधि के समय गाली गाकर सुख मानती हैं ।। १४९ ॥
जुआ खेलावन कौतुक कीन्ह सयानिन्ह ।
जीति हारि मिस देहि गारि दुहु
रानिन्ह ॥ १५० ॥
जुआ खेलाने में चतुर स्त्रियों ने
बड़ा कौतुक किया । वे हार-जीत का बहाना करके [ कौसल्या और सुनयना ] दोनों रानियों
को गाली देती थीं ॥ १५० ॥
सीय मातु मन मुदित उतारति आरति ।
को कहि सकइ अनंद मगन भइ भारति ॥ १५१
॥
जानकीजी की माता मन में आनन्दित हो
आरती उतारती हैं । उस आनन्द को कौन कह सकता है । उस समय सरस्वती भी आनन्दमग्न हो
रही हैं ॥ १५१ ॥
जुबति जूथ रनिवास रहस बस एहि बिधि ।
देखि देखि सिय राम सकल मंगल निधि ॥
१५२ ॥
इस प्रकार युवतियों का झुंड और [
सम्पूर्ण ] रनिवास समस्त मङ्गलों की खानि श्रीराम-जानकी को देख-देखकर आनन्द के
वशीभूत हो रहा है ॥ १५२ ॥
मंगल निधान बिलोकि लोयन लाह लूटति
नागरीं ।
दइ जनक तीनिहुँ कुँवर कुँवर बिबाहि
सुनि आनँद भरीं ।
कल्यान मो कल्यान पाई बितान छबि मन
मोहई ।
सुरधेनु ससि सुरमनि सहित मानहुँ कलप
तरु सोहई ॥ १९ ॥
मङ्गलनिधि श्रीराम-जानकीजी को देखकर
चतुर स्त्रियाँ नेत्रों का लाभ लूट रही हैं । महाराज जनक ने [ सीताजी के सिवा अपनी
और भी ] तीनों कुमारियों को (अन्य तीनों) कुमारों के साथ ब्याह दिया । यह सुनकर
सारी प्रजा आनन्द से भर गयी । इस प्रकार मङ्गल में मङ्गल पाकर मण्डप की शोभा मन को
मोहने लगी । तीनों जोड़ियों के साथ वह ऐसा लगता था मानो कामधेनु,
चन्द्रमा और चिन्तामणि के सहित कल्पवृक्ष सुशोभित हो ॥ १९ ॥
जनक अनुज तनया दोउ परम मनोरम ।
जेठि भरत कहँ ब्याहि रूप रति सय सम्
॥ १५३ ॥
महाराज जनक के छोटे भाई (कुशध्वज)
की जो परम सुन्दरी कन्याएँ थीं, उनमें बड़ी
(माण्डवी) का विवाह भरतजी के साथ हुआ, जो सुन्दरता में
सैकड़ों रतियों के समान थी ॥ १५३ ।।
सिय लघु भगिनि लखन कहुँ रूप उजागरि
।
लखन अनुज श्रुतकीरति सब गुन आगरि ॥
१५४ ॥
जानकी की छोटी बहिन (उर्मिला),
लक्ष्मणजी को ब्याही गयी जो रूप के कारण अत्यन्त प्रसिद्ध थी;
और लक्ष्मणजी के छोटे भाई शत्रुघ्नजी का विवाह श्रुतिकीर्ति से हुआ,
जो सब गुणों की खानि थी ॥ १५४ ॥
राम बिबाह समान बिबाह तीनिउ भए ।
जीवन फल लोचन फल बिधि सब कहँ दए ॥
१५५ ॥
श्रीरामचन्द्रजी के विवाह के समान
ही [ अन्य ] तीनों विवाह [ भी । हुए। इस प्रकार विधाता ने सभी को जीवन का फल और
नेत्रों का फल दिया ॥ १५५ ॥
दाइज भयउ बिबिध बिधि जाइ न सो गनि ।
दासी दास बाजि गज हेम बसन मनि ॥ १५६
॥
दासी-दास,
घोड़े-हाथी, सोना-वस्त्र और मणि इत्यादि अनेक
प्रकार का दहेज दिया गया, जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता ॥
१५६ ॥
दान मान परमान प्रेम पूरन किए ।
समधी सहित बरात बिनय बस करि लिए ॥
१५७ ॥
दान, आदर-सत्कार और परले-सिरे के प्रेम द्वारा महाराज जनक ने सबको परितृप्त कर
दिया और सारी बरात के सहित समधी (दशरथजी) को विनयपूर्वक अपने वशीभूत कर लिया ॥ १५७
॥
गे जनवासे राउ संगु सुत सुतबह ।
जनु पाए फल चारि सहित साधन च ॥ १५८
॥
फिर महाराज संग में पुत्र और
पुत्रवधुओं को लेकर जनवासे में गये; [ऐसा
लगता था] मानो उन्होंने चारों साधनों के सहित चारों फल (अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष) प्राप्त कर
लिये ॥ १५८ ॥
चहु प्रकार जेवनार भई बहु भाँतिन्ह
।
भोजन करत अवधपति सहित बरातिन्ह ॥
१५९ ॥
तरह-तरह से (भक्ष्य,
भोज्य, चोष्य, लेह्य-)
चारों प्रकार का भोजन बनाया गया; बरातियों के सहित महाराज
दशरथ भोजन करने लगे ॥ १५९ ।।
देहि गारि बर नारि नाम है दुह दिसि
।
जेंवत बढ्यो अनंद सावनि सो निसि ॥
१६० ॥
सुन्दरी स्त्रियाँ दोनों ओर के नाम
ले-लेकर गालियाँ गाने लगीं, भोजन करते समय उनके
हृदय में आनन्द की बाढ़ आ गयी; इससे वह रात्रि बड़ी ही
सुहावनी जान पड़ती थी ॥ १६० ॥
सो निसि सोहावनि मधुर गावति बाजने
बाजहिं भले ।
नृप कियो भोजन पान पाइ प्रमोद
जनवासेहि चले ॥
नट भाट मागध सूत जाचक जस प्रतापहि
बरनहीं ।
सानंद भूसुर बूंद मनि गज देत मन
करघे नहीं ॥ २० ॥
वह रात्रि बड़ी सुहावनी हो गयी ।
स्त्रियाँ मधुर गान करती थीं । अच्छे-अच्छे बाजे बज रहे थे । इस प्रकार भोजन-पान
से निवृत्त हो महाराज आनन्द प्राप्तकर जनवासे को चले । नट,
भाट, मागध, सूत और
याचकगण महाराज के सुयश और प्रताप का वर्णन कर रहे थे और ब्राह्मणवृन्द को
आनन्दपूर्वक मणि और हाथी आदि देते-देते उनका मन हटता न था, अर्थात्
बराबर देते ही रहने की इच्छा होती थी ॥ २० ॥
बरात की विदाई
करि करि बिनय कछुक दिन राखि
बरातिन्ह ।
जनक कीन्ह पहुनाई अगनित भाँतिन्ह ॥
१६१ ॥
महाराज जनक ने विनती कर-करके कुछ
दिन बरातियों को रोककर रखा और उनकी असंख्य प्रकार से पहुनाई की ॥ १६१ ॥
प्रात बरात चलिहि सुनि भूपति भामिनि
।
परि न बिरह बस नींद बीति गइ जामिनि
॥ १६२ ॥
महाराज की रानियों ने जब सुना कि
प्रातःकाल बरात चली जायगी, तब भावी वियोग की
चिन्ता से उन्हें नींद न पड़ी और सारी रात बीत गयी ॥ १६२ ॥
खरभर नगर नारि नर बिधिहि मनावहिं ।
बार बार ससुरारि राम जेहि आवहिं ॥
१६३ ॥
नगर में खलबली मच गयी,
समस्त स्त्री-पुरुष विधाता से यही मनाते थे कि श्रीरामचन्द्रजी
बार-बार ससुराल आया करें ॥ १६३ ॥
सकल चलन के साज जनक साजते भए ।
भाइन्ह सहित राम तब भूप-भवन गए ॥
१६४ ॥
महाराज जनक ने बरात के चलने का सारा
साज सजाया और फिर भाइयों के सहित श्रीरामचन्द्रजी राजमहल में गये ॥ १६४ ॥
सासु उतारि आरती करहिं निछावरि ।
निरखि निरखि हियँ हरषहिं सूरति
साँवरि ॥ १६५ ॥
सासुएँ आरती उतारकर निछावर करती हैं
और उनकी साँवली मूर्ति को देख-देखकर हृदय में आनन्दित होती हैं ।। १६५ ॥
मागेउ बिदा राम तब सुनि करुना भरीं
।
परिहरि सकुच सप्रेम पुलकि पायन्ह
परीं ॥ १६६ ॥
तब श्रीरामचन्द्रजी ने [ उन सबसे ]
विदा माँगी । यह सुनकर वे सब करुणा (शोक) से भर गयीं और संकोच छोड़कर प्रेमपूर्वक
उनके चरणों पर गिर गयीं ॥ १६६ ॥
सीय सहित सब सुता सौंप कर जोरहिं ।
बार बार रघुनाथहि निरखि निहोरहिं ॥
१६७ ॥
वे जानकीजी के सहित सब पुत्रियों को
(अपने-अपने पति को) सौंपकर हाथ जोड़ती हैं और बार-बार श्रीरामचन्द्रजी को निहारकर
उनसे विनय करती हैं- ॥ १६७ ॥
तात तजिय जनि छोह मया राखबि मन ।
अनुचर जानब राउ सहित पुर परिजन ॥
१६८ ॥
हे तात ! आप हमारे प्रति स्नेह न
छोड़ियेगा । हृदय में दया बनाये रखियेगा और पुर तथा पुरजनसहित महाराज को अपना
अनुचर समझियेगा ॥ १६८ ॥
जन जानि करब सनेह बलि,
कहि दीन बचन सुनावहीं ।
अति प्रेम बारहिं बार रानी
बालिकन्हि उर लावहीं ॥
सिय चलत पुरजन नारि हय गय बिहँग मृग
ब्याकुल भए ।
सुनि बिनय सासु प्रबोधि तब रघुबंस
मनि पितु पहिं गए ॥ २१ ॥
‘हम आपकी बलिहारी जाती हैं,
आप अपना सेवक जानकर इन पर स्नेह रखियेगा’ यों
कहकर रानियाँ दीन वचन सुनाती हैं और अत्यन्त प्रेम से [ चारों ] बालिकाओं को
बार-बार हृदय से लगाती हैं । जानकीजी के चलने पर नगर के पुरुष, स्त्रियाँ, घोड़े, हाथी,
पक्षी और मृग-सभी व्याकुल हो गये । [ इस प्रकार ] सासुओं की विनय
सुनकर और उनको समझाकर श्रीरामचन्द्रजी पिताजी के पास गये ॥ २१ ॥
परे निसानहि घाउ राउ अवधहिं चले ।
सुर गन बरषहिं सुमन सगुन पावहिं भले
॥ १६९ ॥
नगारों पर चोट पड़ने लगी और महाराज
दशरथ अयोध्या के लिये चल पड़े । देवगण फूल बरसाते हैं और अच्छे-अच्छे (शुभसूचक)
सगुन होते हैं ॥ १६९ ॥
जनक जानकिहि भेटि सिखाइ सिखावन ।
सहित सचिव गुर बंधु चले पहुँचावन ॥
१७० ॥
जनकजी ने जानकीजी से मिलकर उन्हें
शिक्षा दी और मन्त्री, गुरु तथा भाई के
सहित उन्हें पहुँचाने चले ॥१७०॥
प्रेम पुलकि कहि राय फिरिय अब राजन
।
करत परस्पर बिनय सकल गुन भाजन ॥ १७१
॥
महाराज दशरथ ने प्रेम से पुलकित
होकर कहा —‘राजन् ! अब आप लौट जाइये ।’
फिर समस्त गुणों के पात्र दोनों महाराज परस्पर विनय करने लगे ॥ १७१
॥
कहेछ जनक कर जोरि कीन्ह मोहि आपन ।
रघुकुल तिलक सदा तुम उथपन थापन ॥ १७२
॥
महाराज जनक ने हाथ जोड़कर कहा —
‘आपने मुझे अपना लिया, हे रघुकुलतिलक ! आप सदा
ही उजड़ों को बसानेवाले हैं ॥ १७२ ॥
बिलग न मानब मोर जो बोलि पठायउँ ।
प्रभु प्रसाद जसु जानि सकल सुख
पायउँ ॥ १७३ ॥
मैंने आपको बुला भेजा —
‘मेरे इस व्यवहार से बुरा न मानियेगा । प्रभु (आप) की [ ही ] कृपा
से आपका सुयश जानकर मैंने सब प्रकार का सुख पाया है’ ॥ १७३ ॥
पुनि बसिष्ठ आदिक मुनि बंदि महीपति
।
गहि कौसिक के पाइ कीन्ह बिनती अति ॥
१७४ ॥
फिर महाराज ने वसिष्ठ आदि मुनियों
की वन्दना करके श्रीविश्वामित्रजी के चरण पकड़कर अत्यन्त विनती की ॥ १७४ ।।
भाइन्ह सहित बहोरि बिनय रघुबीरहि ।
गदगद कंठ नयन जल उर धरि धीरहि ॥ १७५
॥
कृपा सिंधु सुख सिंधु सुजान सिरोमनि
।
तात समय सुधि करबि छोह छाड़ब जनि ॥
१७६ ॥
महाराज जनक फिर भाइयों के साथ
श्रीरामचन्द्रजी से विनय करने लगे । आनन्द से उनका कण्ठ भर आया,
नेत्रों में जल उमड़ आया और हृदय में धीरज धरकर कहने लगे, हे कृपासिन्धु, हे सुखसागर, हे
सुजानशिरोमणि, हे तात ! समय-समय पर आप हमारी याद करते
रहियेगा । [ हमारे प्रति ] स्नेह न त्यागियेगा’ ॥ १७५-१७६ ॥
जनि छोह छाड़ब बिनय सुनि रघुबीर बहु
बिनती करी ।
मिलि भेटि सहित सनेह फिरेउ बिदेह मन
धीरज धरी ॥
सो समौ कहत न बनत कछु सब भुवन भरि
करुना रहे ।
तब कीन्ह कोसलपति पयान निसान बाजे
गहगहे ॥ २२ ॥
‘स्नेह न छोड़ियेगा’ — इस विनय को सुनकर श्रीरामचन्द्रजी ने बहुत विनती की और महाराज जनक [ सबसे
] प्रेमसहित मिल-भेंटकर तथा मन में धीरज धारणकर लौट आये । उस अवसर के विषय में कुछ
कहते नहीं बनता; सम्पूर्ण लोक करुणा (शोक) से भर गये । तब
कोसलपति महाराज दशरथ ने प्रस्थान किया और आनन्दपूर्वक नगारे बजने लगे ॥ २२ ॥
पंथ मिले भृगुनाथ हाथ फरसा लिए ।
डाटहि आँखि देखाइ कोप दारुन किए ।।
१७७ ॥
मार्ग में भृगुनाथ (परशुरामजी) हाथ
में फरसा लिये मिले । वे आँख दिखाकर तीव्र क्रोध की मुद्रा धारण किये डाँटने लगे ॥
१७७ ।।
राम कीन्ह परितोष रोष रिस परिहरि ।
चले सौंप सारंग सुफल लोचन करि ॥ १७८
॥
किंतु श्रीरामचन्द्रजी ने परशुरामजी
को संतुष्ट किया और वे रोष एवं अमर्ष को त्यागकर भगवान् को धनुष सौंप अपने नेत्रों
को सुफल करके चले गये ।। १७८ ॥
रघुबर भुज बल देखि उछाह बरातिन्ह ।
मुदित राउ लखि सनमुख बिधि सब
भाँतिन्ह ॥ १७९ ॥
श्रीरामचन्द्रजी के बाहुबल को देखकर
बरातियों को बड़ा हर्ष हुआ और विधाता को सब प्रकार सम्मुख अर्थात् अनुकूल जानकर
महाराज दशरथ प्रसन्न हुए ॥ १७९ ॥
अयोध्या में आनन्द
एहि बिधि ब्याहि सकल सुत जग जसु
छायउ ।
मग लोगन्हि सुख देत अवधपति आयउ ॥
१८० ॥
इस प्रकार सब पुत्रों का ब्याह करके
उन्होंने समस्त संसार में अपने सुयश का विस्तार किया और [ फिर ] रास्ते में लोगों
को सुख देते हुए अवधपति दशरथजी [ अपनी राजधानी को ] लौट आये ॥ १८० ॥
होहिं सुमंगल सगुन सुमन सुर बरषहिं
।
नगर कोलाहल भयउ नारि नर हरषहिं ॥
१८१ ॥
सुन्दर मङ्गलमय शकुन हो रहे हैं,
देवता फूल बरसाते हैं । नगर में कोलाहल हो गया, समस्त स्त्री-पुरुष आनन्दित हो रहे हैं ॥ १८१ ॥
घाट बाट पुर द्वार बजार बनावहिं ।
बीथ सचि सुगंध सुमंगल गावहि ॥ १८२
॥
वे घाट,
बाट, पुर, द्वार और
बाजारों को सुसज्जित करते हैं और गलियों को सुगन्ध से सींचकर सुमङ्गल गाते हैं ॥
१८२ ॥
चौंकै पूरै चारु कलस ध्वज साजहिं ।
बिबिधि प्रकार गहागह बाजन बाजहि ॥
१८३ ॥
सुन्दर चौक पूरकर कलश और ध्वजाएँ
सजाते हैं । अनेक प्रकार के आनन्दमय बाजे बज रहे हैं ।। १८३ ॥
बंदनवार बिताने पताका घर घर ।
रोपे सफल सपल्लव मंगल तस्बर ॥ १८४ ॥
घर-घर में वन्दनवार,
पताका और चॅदोवे विराजमान हैं तथा फल और पल्लवों के सहित मङ्गलमय
वृक्ष लगाये गये हैं ॥ १८४ ॥
मंगल बिटप मंजुल बिपुल दधि दूब
अच्छत रोचना ।
भरि थार आरति सजहिं सब सारंग सावक
लोचना ॥
मन मुदित कौसल्या सुमित्रा सकल
भूपति-भामिनी ।
सजि साजु परिछन चलीं रामहि मत्त
कुंजर गामिनी ॥ २३ ॥
बहुत-से सुन्दर मङ्गलमय वृक्ष लगाये
गये हैं,
मूगशावक के-से नेत्रोंवाली समस्त स्त्रियाँ थालों में दही, दूब, अक्षत और गोरोचन भरकर आरती सजाती हैं तथा
कौसल्या, सुमित्रा आदि सम्पूर्ण राजमहिषियाँ मन में अत्यन्त
आनन्दित हैं । मतवाले हाथियोंकी-सी चाल से चलनेवाली वे महारानियाँ सब सामग्री
सजाकर श्रीरामचन्द्रजी का परिछन करने चलीं ॥ २३ ॥
बधुन सहित सुत चारिउ मातु निहारहिं
।
बारहिं बार आरती मुदित उतारहि ॥ १८५
॥
माताएँ वधुओं के सहित चारों पुत्रों
को निहारती हैं और प्रसन्न होकर बारंबार उनकी आरती उतारती हैं ॥१८५॥
करहिं निछावरि छिनु छिनु मंगल मुद
भरीं ।
दूलह दुलहिनिन्ह देखि प्रेम पयनिधि
परीं ॥ १८६ ॥
वे क्षण-क्षण में मङ्गल और आनन्द से
भरकर उनकी निछावर करती हैं और दूल्हा-दुलहिनों को देखकर प्रेम के समुद्र में डूब
गयी हैं ॥ १८६ ॥
देत पावड़े अरघ चलीं ले सादर ।
उमगि चलेउ आनंद भुवन भुईं बादर ॥
१८७ ॥
नारि उहारु उघारि दुलहिनिन्ह देखहिं
।
नैन लाहु लहि जनम सफल करि लेखहिं ॥
१८८ ॥
वे पावड़े बिछाती और अर्घ्य देती हुई उन्हें
आदरपूर्वक लिवा चलीं । उस समय समस्त लोकों में तथा पृथ्वी एवं आकाश में आनन्द उमड़
चला । स्त्रियाँ ओहार अर्थात् पर्दा उठाकर दुलहिनियों को देखती हैं और नेत्रों का
लाभ पाकर जन्म को सफल समझती हैं ॥ १८७-१८८ ॥
भवन आनि सनमानि सकल मंगल किए ।
बसन कनक मनि धेनु दान बिप्रन्ह दिए
॥ १८९ ॥
उन्हें सम्मानपूर्वक राजमहल में
लाकर सब प्रकार के मङ्गलकृत्य किये और ब्राह्मणों को वस्त्र,
सोना, मणि और गौएँ दान कीं ॥ १८९ ॥
जाचक कीन्ह निहाल असीसहि जहँ तहूँ ।
पूजे देव पितर सब राम उदय कहें ॥
१९० ॥
याचकों को (मनमाना दान देकर) निहाल
कर दिया । वे जहाँ-तहाँ आशीर्वाद देते हैं और श्रीरामचन्द्रजी की उन्नति के लिये
देवता और पितृगण सभी का पूजन किया गया ॥ १९० ॥
नेगचार करि दीन्ह सबहि पहिरावनि ।
समधी सकल सुआसिनि गुरतिय पावनि ॥
१९१ ॥
रीति के अनुसार नेग-चार करके अपने
सम्बन्धियों को, सब सुवासिनियों को, अपने से बड़ी स्त्रियों को और पौनियों (अपने आश्रित निम्न जाति की
स्त्रियों) को पहिरावनी दी ॥ १९१ ।।
जोरीं चारि निहारि असीसत निकसहिं ।
मनहूँ कृमद बिधु-उदय मुदित मन
बिकसहिं ॥ १९२ ॥
वे सब [ वर-दुलहिनोंकी ] चारों
जोड़ियों को आशीर्वाद देती हुई निकलती हैं और मन में ऐसी प्रसन्न होती हैं जैसे
चन्द्रमा के उदय होने पर कुमुदिनियाँ आनन्दसे खिल उठती हैं। १९२ ॥
बिकसहिं कुमुद जिमि देखि बिधु भइ
अवध सुख सोभामई।
एहि जुगुति राम बिबाह गावहिं सकल
कबि कीरति नई ॥
उपबीत ब्याह उछाह जे सिय राम मंगल
गावहीं ।
तुलसी सकल कल्यान ते नर नारि अनुदिन
पावहीं ॥ २४ ॥
जैसे चन्द्रमा को देखकर कुमुदिनियाँ
खिल उठती हैं वैसे ही सब स्त्रियाँ आनन्दित हैं । उस समय अयोध्या सुखी और शोभामयी
हो रही है। इस प्रकार श्रीरामचन्द्रजी के विवाह की सुन्दर नवीन कीर्ति को कवि लोग
गाते हैं । जो लोग भगवान् के यज्ञोपवीत और श्रीसीताराम के विवाहोत्सवसम्बन्धी
मङ्गल का गान करते हैं, गोस्वामी
तुलसीदासजी कहते हैं कि वे स्त्री-पुरुष दिनोंदिन सब प्रकार का कल्याण प्राप्त
करते हैं ॥ २४ ॥
इति:श्रीजानकी मङ्गलम् ॥
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