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श्रीकृष्णयामलमहातन्त्र अध्याय १

श्रीकृष्णयामलमहातन्त्र अध्याय १

श्रीकृष्णयामलमहातन्त्र राधेश्याम चतुर्वेदी द्वारा रचित एक महत्वपूर्ण तांत्रिक ग्रंथ है, जिसमें श्रीकृष्ण और राधा के तांत्रिक अनुष्ठानों और विधियों का वर्णन किया गया है। इस तन्त्र के अध्याय १ में वृन्दावन से भ्रष्ट विद्याधर-विद्याधरी का प्रश्न का वर्णन है।

श्रीकृष्णयामलमहातन्त्र अध्याय १

श्रीकृष्णयामलमहातन्त्र अध्याय एक

SriKrishnayamal tantra chapter 1

श्रीकृष्णयामलमहातन्त्रम् प्रथमोऽध्यायः

श्रीकृष्णयामलमहातन्त्र प्रथम अध्याय

श्रीकृष्णयामलमहातन्त्र अध्याय १

श्रीकृष्णयामलमहातन्त्रम्

प्रथमोऽध्यायः

श्री रमणविहारिणे नमः

श्री गुरुकार्ष्णिभगवते नमः

श्रीकृष्णाय नमः

वृन्दावनभ्रष्टविद्याधरविद्याधरीप्रश्नः

सदाशिवमहेशानब्रह्मविष्णुमहेश्वराः।

यस्यांशांशा नमस्तस्मै कस्मैचित् परमात्मने ॥१॥

सदाशिव, ईशान, ब्रह्मा, विष्णु और शिव जिसके अंश के अंश हैं, उस किसी (अद्भुत अलौकिक) परमात्मा को नमस्कार है ।। १॥

नारद उवाच -

शाण्डिल्यकुलसम्भूतं भारद्वाजात्मजा सती ।

रूपयौवनसम्पन्ना दिव्यालङ्करणोज्ज्वला ॥२॥

नारद ने कहारूप और यौवन (जवानी) से सम्पन्न, दिव्य आभूषणों से सुशोभित, भारद्वाज की पुत्री सती (नाम वाली विद्याधरी) ने शाण्डिल्य कुल में उत्पन्न - ॥२॥

कन्दर्पदर्पशमनं रूपिणं नवयौवनम्।

गोविन्दनामश्रवणजातहर्षाश्रुलोचनम् ॥३॥

कामदेव के दर्प का शमन करने वाले, रूपवान्, नवयौवनसम्पन्न, श्रीकृष्ण के नामश्रवण से उत्पन्न आनन्दाश्रुओं से युक्त नेत्रों वाले- ॥३॥

पुलकोद्भिन्नसर्वाङ्गकम्पमानं मुहुर्मुहुः ।

चित्तभित्तिविचित्र श्रीकृष्णरूपमनामयम् ॥४॥

रोमाञ्च के कारण बार-बार-काँपते हुए सभी अंगों वाले, निर्दुष्ट रूप वाले, हृदय की दीवारों पर विशेष रूप से अंकित श्रीकृष्ण रूप वाले-॥४॥

गोविन्दचरणद्वन्द्वसेवानिष्ठितविग्रहम् ।

श्रीकृष्णसत्कथालापप्रसन्नवदनाम्बुजम्॥५॥

श्रीकृष्ण के चरणयुगल की सेवा में तत्पर शरीर वाले, श्रीकृष्ण की पुण्यमयी कथा के कथन से प्रसन्न कमलवत् मुख वाले - ॥५॥

अनन्यभावं गोविन्दसख्यभावपरायणम् ।

कृष्णक्रमश्रयद्धस्तद्वन्द्वं निर्द्वन्द्वलक्षणम् ॥६॥

श्रीकृष्ण के प्रति अनन्य भाव वाले, गोविन्द के प्रति सखाभाव रखने वाले, कृष्ण के पैरों की सेवा में लगे हस्तयुगल वाले (सुख-दु:खादि) द्वन्द से रहित लक्षण वाले - ॥६॥

गोविन्दहृदयानन्दसत्कथाश्रवणोत्सुकम् ।

सर्वभूतसमप्रेमाचरणं प्रेरणाप्रदम् ॥७॥

हृदय को आनन्दित करने वाली गोविन्द की पुण्यमयी कथा को सुनने के लिए उत्सुक, समस्त प्राणियों के साथ समभाव से प्रेमाचरण करने वाले, (सबको) प्रेरणा प्रदान करने वाले - ॥७॥

ज्ञानविज्ञानसम्पन्नं स्वं धवं पर्यपृच्छत ।

हे नाथ! कृष्णभक्तस्त्वं सदा तद्भावभावितः ॥८ ॥

ज्ञान-विज्ञान से सम्पन्न, अपने पति (विद्याधर) से (विद्याधरी सती) ने पूछा- हे स्वामी! तुम कृष्ण के भक्त हो और सदा उनकी भावना से भावित रहते हो।।८।।

किन्तु त्वन्नेत्रयोः देव स्यन्दतेऽश्रुकला कथम्।

ज्ञातुमिच्छामि ते दुःखं कृष्णं प्राप्तुं त्वमर्हसि ॥९॥

किन्तु हे स्वामी! तुम्हारी आँखों से अश्रुधारा क्यों बह रही है। तुम्हारा दुःख जानना चाहती हूँ। तुम कृष्ण को पाने के योग्य हो ।।९।।

विद्याधर उवाच -

शृणु चित्तव्यथां देवि! कृष्णप्रेमसमुद्भवाम् ।

दिव्यवृन्दावनाद्धीनमात्मानं शोचयाम्यहम् ॥१०॥

विद्याधर ने कहाहे देवि ! कृष्णप्रेम से उत्पन्न चित्त की व्यथा को सुनो। मैं अपने को अलौकिक वृन्दावन से च्युत (मानकर) शोक कर रहा हूँ ।।। १० ।।

भूर्लोके कर्मलोकेऽस्मिन् वसाने कृपया हरेः ।

इति नीचे मयि सदा हृदयाश्वासनक्रिया ॥११॥

क्रियते दानदयया श्रीकृष्णेन विलासिना ।

विहसामि तदैवाहं बालवन्मत्तचेष्टितः ॥१२॥

हरि की कृपा से इस कर्मलोक पृथ्वीलोक में निवास करते रहने पर, मुझ नीच के हृदय में सर्वदा आश्वासन की क्रिया विलासी श्रीकृष्ण के द्वारा दानदया (मात्र) से की जाती है; इसी कारण मैं बालक के समान मतवाली चेष्टा से हँसता हूँ।।११-१२।।

ब्रह्मविष्णुशिवादीनां दुर्लभादुदगात् परम् ।

श्रीमद्वृन्दावनपदाद् गोविन्दपदचिह्नितात्॥१३॥

ब्रह्मा, विष्णु और शिव आदि के लिए भी परम दुर्लभ, अत्यन्त उच्च और अगम्य, श्रीकृष्ण के पदचिह्नों से युक्त, श्रीमद्वृन्दावनपद (स्थान) से -।।१३।।

गोपगोपीगणप्रेमवसते: सुखसम्पदः ।

गोविन्दचरणद्वन्द्वमकरन्दरसोदयात् ॥१४॥

गोप-गोपियों की प्रेम-नगरी से, सुखराशि से तथा श्रीकृष्ण के चरणयुगल से स्रावित होने वाले मकरन्दरस (मधु) से-॥१४॥

वञ्चितोऽस्मीति मत्वाद्य रौम्युद्बाहुर्विमूढवत्।

गलवाष्पाकुलाक्षोऽस्मि तदीयमहिमास्मृतेः ॥१५॥

वञ्चित हो गया हूँ ऐसा मानकर आज पागलों की तरह, हाथ ऊपर किए हुए क्रन्दन कर रहा हूँ। उनकी महिमा के स्मरण के कारण बहती हुई अश्रुधारा से व्याकुल आँखों वाला हो गया हूँ।। १५ ।।

त्वदीयसङ्गमे यादृक् सुखं कमललोचने।

तत्कोटिकोटिगुणितं सुखं गोविन्दसङ्गमे ॥१६॥

हे कमल जैसी आँखों वाली! तुम्हारे मिलन में जैसा सुख (है), उसका करोड़ों-करोड़ों गुना सुख श्रीकृष्ण के मिलन में (है) ॥१६॥

तत्तत्सुखविहीनस्य दुःखमन्यत् सुखं प्रिये ।

तेन क्लिष्टमतिश्चास्मि सत्यं सत्यं वदाम्यहम् ॥१७॥

तो हे प्रिये! उस सुख से वञ्चित व्यक्ति का उससे (कृष्णमिलन से) भिन्न सुख-दु:ख (ही है) और इस कारण मैं क्लेशयुक्त बुद्धि वाला हो गया हूँ। मैं सच-सच कह रहा हूँ ।। १७ ।।

ब्रह्मानन्दो भवेद् देवि परार्द्धद्विगुणीकृतः ।

गोविन्दसेवानन्दस्य कलां नार्हति षोडशीम् ॥१८॥

हे देवि! ब्रह्मानन्द परार्द्ध के दुगुने के बराबर हो जाय तो (भी) श्रीकृष्ण की सेवा के आनन्द की सोलहवीं कला (अंश) के बराबर नहीं है।।१८।।

तेनैव त्वन्मुखे नित्यं विमुखः सुमुखि प्रिये ।

यदि वाऽऽपतितं दुःखं दृष्ट्वा हृष्टो हसामि वै ॥१९॥

हे सुन्दर मुख वाली प्रियतमे! उसी कारण से (मैं) तुम्हारे मुख के प्रति विमुख रहता हूँ। यदि दुःख भी आया हो तो भी उसे देखकर मैं हर्षयुक्त होकर हँसता हूँ।।१९।।

तदत्र कारणं देवि शृणुष्वैकमतिः सती ।

कल्पवृक्षफलस्थस्य सामान्यं फलमिच्छतः ॥२०॥

हे देवि! अनन्यमना होकर उसका कारण सुनो। जिसके पास कल्पवृक्ष का फल हो और वह सामान्य फल की इच्छा से दौड़ रहा हो तो उसे जो दुःख होता है ।।२०।।

यद् दुखं धावतः स्यात् तत्र का परिदेवना ।

श्लाघ्यं भवतु मे दुःखं त्यक्तगोविन्दसम्पदः॥२१॥

दौड़ने वाले को जो दुःख होता है, वहाँ पश्चात्ताप का क्या कारण है (अर्थात् नहीं है)। श्रीकृष्णरूपी सम्पत्ति के छूटने से उत्पन्न हुआ मेरा जो दुःख है, वह प्रशंसनीय (है) ।। २१ ।।

सामान्यसुखलिप्साया यथोचितमिदं फलम् ।

इति स्मृत्वा हसन्नित्यं विलपामि पुनः पुनः ॥२२॥

सामान्य सुखलिप्सा का यह फल यथोचित है, ऐसा स्मरण करके मैं नित्य हँसता हुआ श्रीकृष्णरूपी सम्पत्ति के छूट जाने पर (सामान्य सुखलिप्सा से प्राप्त दु:ख पर) बार-बार रोता हूँ।। २२ ।।

आकाशस्थो यथा भानुर्जलस्थालीष्वनेकधा ।

प्रकाशते सर्वभूतेष्वेवं कृष्णस्तथा ध्रुवम् ॥२३॥

आकाश में स्थित सूर्य जैसे जल से भरी थालियों में अनेक प्रकार से प्रकाशित होता है, उसी प्रकार कृष्ण भी सभी प्राणियों में निश्चय ही (प्रकाशित होते हैं) ।। २३ ।।

सम्मुखस्थेषु तेष्वेव शुद्धज्ञानं विजायते ।

सर्वभूतान्तरस्थोऽसौ भगवान् भूतभावनः ॥२४॥

उनके सम्मुखस्थ होने पर ही शुद्ध ज्ञान उत्पन्न होता है; क्योंकि सर्वव्यापी भगवान् भूतभावन सभी प्राणियों में स्थित होते हैं ।।२४।।

सर्वगः सर्वपाताले नास्ति मे दुर्गमे भयम् ।

यदा कृपावलोकेन तेनैवाहं निरीक्षितः ॥२५॥

जब मैं उनकी ही कृपादृष्टि से देखा जाता हूँ तो मेरे लिए दुर्गम स्थान पर और सभी पातालों में भय नहीं है ।। २५ ।।

तदा मम भवेन्नृत्यं गीतं चैव विशेषतः ।

प्रिये! किं कथयिष्यामि यावद् वै दुर्भगस्य मे॥२६॥

तब मेरा (मेरे द्वारा) नृत्य और गीत विशेष रूप से होता ही है। प्रिये! भाग्यहीन अपने विषय में मैं क्या कहूँ।। २६ ।।

ब्राह्मण्युवाच-

दुःखमारूढवृक्षस्य पतितस्य फलोदये।

कोऽसि त्वं कस्य वा हेतोश्च्युतः कस्मात् सुखाच्चिरम्॥२७॥

ब्राह्मणी ने कहा-- फलप्राप्ति के समय ही पेड़ से गिरे हुए भाग्यहीन तुम कौन हो? किस कारण से और किस सुख से तुम चिरकाल से च्युत हो? ।।२७।।

वञ्चितोऽसि महाभाग कस्मात्स्थानादनुत्तमात्।

कुत्र तिष्ठति तत् स्थानं प्रभो मे छिन्धि संशयान् ॥२८॥

हे महाभाग ! किस सर्वोत्तम स्थान से आप वञ्चित हो गये ? वह स्थान कहाँ है? हे स्वामी! मेरे संशयों का नाश करें ।। २८ ।।

ब्राह्मण उवाच-

शापभ्रष्टासि नात्मानं मां च जानासि भामिनि ।

प्रायः स्त्रियो विपत्काले न स्मरन्ति निजक्रियाम् ॥२९॥

ब्राह्मण ने कहा- हे भामिनि! तुम शाप के कारण भ्रष्ट हो गयी हो। (इसलिए) अपने को और मुझको नहीं जानती। (क्योंकि) स्त्रियाँ विपत्तिकाल में अपने किये गए कर्मों का प्रायः स्मरण नहीं करतीं।।२९।।

ब्राह्मण्युवाच-

वञ्चितोऽसि महाभाग कस्मात् स्थानादनुत्तमात् ।

कियद्दूरे च तत् स्थानं तन्मे कथय निश्चितम्॥३०॥

ब्राह्मणी ने कहा- -हे महाभाग! किस सर्वोत्तम स्थान से आप वञ्चित हो गए हैं? वह स्थान कितनी दूरी पर है? इसे आप मुझे निश्चित रूप से बतलाइए ? ।।३०।।

ब्राह्मण उवाच -

श्रीमद्वृन्दावनस्थानादहं भ्रष्टोऽस्मि दुर्भगः ।

श्रीवृन्दावनचन्द्रस्य शापेन पृथिवीं गतः ॥३१॥

ब्राह्मण ने कहा- मैं श्रीमद्वृन्दावन नामक स्थान से भ्रष्ट हो गया हूँ। श्रीवृन्दावन के चन्द्रमा अर्थात् कृष्ण के शाप से पृथिवी पर चला गया॥ ३१॥

तत्तु वृन्दावनस्थानं सर्वलोकमनोहरम्।

व्यापकं च यथा ब्रह्म नाना सर्वत्र भासते ॥ ३२ ॥

इस कारण से वृन्दावन स्थान सभी लोकों में मनोहर है, ब्रह्म की तरह व्यापक है और सर्वत्र नाना प्रकार से भासित होता है ।। ३२।।

सर्वलोकोपरिचरं शिरोमणिरिवोज्ज्वलम् ।

दिव्यवृन्दावनं नाम महावनमनुत्तमम्॥३३॥

शिरोमणि की तरह उज्ज्वल, समस्त लोकों के ऊपर चलने वाला (अर्थात् विद्यमान) दिव्य वृन्दावन नामक सर्वोत्तम महावन है ।। ३३ ।।

भौमं वृन्दावनत्वं यद् गतं श्रीकृष्णलीलया ।

वृन्दावनं तु त्रिविधं दिव्यं भौमं तु सुन्दरि ॥३४॥

श्रीकृष्ण की लीला से जो वृन्दावनत्व पृथिवी पर चला गया, इसलिए वृन्दावन दिव्य भौम (= भूमिस्थ) और तीन प्रकार का है ।। ३४।।

भौतञ्च ब्रह्मणा ज्योतिः स्वरूपेण विनिर्मितम् ।

यत्तु दिव्यं तथा भौमं ब्रह्माण्डान्तर्गतं तु यत् ॥३५॥

पञ्चभूतात्मक (वृन्दावन) ब्रह्मा के द्वारा ज्योतिःस्वरूप से निर्मित है और जो दिव्य और पार्थिव (वृन्दावन) है, वह ब्रह्माण्ड के अन्तर्गत है।।३५।।

दिव्यवृन्दावनस्पर्शात् दिव्यं रूपं महत्पदम्।

अद्भुतं दृश्यते भूमौ सर्वेषां पापमोचनम्॥३६॥

दिव्य वृन्दावन के स्पर्श से दिव्य रूप और महत्पद वाला, सबके पापों को दूर करने वाला (पार्थिव वृन्दावन) भूमि पर अद्भुत दिखलाई पड़ता है ।। ३६।।

तदेव द्विविधं साध्वि मथुरा: पुरुषोत्तम ।

ययोः कृतायां यात्रायां पापं याति न संशयः ॥ ३७॥

हे साध्वि! वह दो प्रकार का है- १. मथुरा से सम्बद्ध और २. पुरुषोत्तमरूप। इन दोनों की यात्रा करने पर पाप चला जाता है, इसमें कोई सन्देह नहीं है ।। ३७।।

मथुरायां स्वयं साक्षादागतं विपिनं महत्।

यत्र क्रीडति विश्वात्मा श्रीगोविन्दो निजैर्गुणैः ॥ ३८ ॥

मथुरा में महान् वन (वृन्दावन) स्वयम् ही साक्षात् चला आया है, जहाँ विश्वात्मा श्रीकृष्ण अपने गुणों के साथ क्रीड़ा करते हैं ।।३८।।

अन्यं मन्यामहे श्रीमत् पुरुषोत्तमसंज्ञया ।

तस्य विश्वेश्वरस्यैव प्रतिमूर्तिर्विरिञ्चिना॥३९॥

दूसरा वृन्दावन श्रीमत् पुरुषोत्तम नाम से जाना जाता है। ब्रह्मा ने इसे उसी विश्वेश्वर की प्रतिमूर्ति माना है ।। ३९ ।।

प्रार्थिता निजभक्तस्य इन्द्रद्युम्नस्य धीमतः ।

श्रीकृष्णासक्तचित्तस्य कल्याणार्थं शुचिस्मिते ॥ ४० ॥

हे पवित्र मुस्कान वाली! श्रीकृष्ण में आसक्त चित्त वाले, निज भक्त, बुद्धिमान् इन्द्रद्युम्न के कल्याणार्थ (विश्वेश्वर की वह प्रतिमूर्ति) प्रार्थित हुई ।।४०।।

श्रुत्वेदं हर्षदं वृत्तं ब्राह्मणी स्वपतिं तदा।

शान्तं दान्तं क्षमायुक्तं वह्निहोमपरायणम् ॥४१॥

तब इस हर्ष देने वाले वृतान्त को सुनकर ब्राह्मणी ने अपने अग्निहोत्री, क्षमावान्, शान्त और दमयुक्त पति से (पूछा) ।।४१।।

कृष्णभक्तजनप्राणप्रतिमं प्रशमायनम् ।

सङ्गतकुशलाऽभिज्ञा सर्वशास्त्रार्थकोविदा॥४२॥

व्यवहारकुशला, निपुणा और सभी शास्त्रों में पारंगता (ब्राह्मणी ने) अपने प्राणों से भी प्रिय कृष्ण के भक्त, शान्ति की मूर्ति (पति से पूछा ) ।।४२।।

ज्ञानविज्ञानगोविन्दसेवानिर्जितकल्मषा ।

अपारभवपाथोधिं तर्त्तुकामा शुचिस्मिता ॥४३॥

पप्रच्छ ब्राह्मणी कान्तं कान्तं क्लान्तमनाः शुचिम् ।

पवित्र मुस्कान वाली, ज्ञान-विज्ञान तथा गोविन्द की सेवा से दूर किये गये कल्मषों (पापों) वाली, अपार भवसागर को पार करने की इच्छा वाली दुःखीचित्त ब्राह्मणी ने अपने अभीष्ट प्रिय पवित्र पति से पूछा ।।४३।।

ब्राह्मण्युवाच-

स्वामिन् ध्यायसि किं नित्यं मुखेन परिशुष्यता॥४४॥

कृष्णः क्वचिद् भ्रान्तः प्रस्खलद्गतिकः क्वचित्।

क्वचिदुन्मत्तवद् भासि क्वचिद्धससि बालवत् ॥४५॥

ब्राह्मणी ने कहा- हे स्वामी! सूखे हुए मुख से नित्य किसका ध्यान करते हो? कभी कृष्णमय हो जाते हो, कभी भ्रान्त, कभी लड़खड़ाते हो, कभी पागल की तरह लगते हो और कभी बच्चे की तरह हँसते हो।।४४-४५।।

रोदिषि क्वचिदुद्बाहुर्गलद्वाष्पाकुलेक्षणः ।

सुखकाले क्लिष्टमना दुःखकाले हसन्मुखः॥४६॥

हाथ ऊपर किए हुए और आँसू गिर रही; अत एव व्याकुल आँखों वाले आप कभी रोते हैं। सुखकाल में दु:खी मन वाला रहते हैं और दुःखकाल में प्रसन्नमुख रहते हैं ।। ४६ ।।

निर्लज्जितः प्रकथने निर्भयो दुर्गमे वने।

क्वचिन्नृत्यसि निर्लज्जो गायस्युच्चस्वरः क्वचित्॥४७॥

किमिदं ते व्यवसितं न जाने तद् वद प्रभो।

वाक्यकथन में निर्लज्ज हो, दुर्गम वन में निर्भय रहते हो, कभी निर्लज्ज होकर नाचते हो, और कभी ऊँचे स्वर में गाते हो। यह आपका कौन सा व्यवहार है, समझ नहीं पा रही हूँ। हे प्रभो ! उसे बताइए ।। ४७ ।।

ब्राह्मण उवाच -

प्रिये! यद् दुर्लभं लोके तन्मया परिचिन्त्यते॥४८॥

तदप्राप्तिभयात् शुष्कवदनश्चकितेक्षणः ।

कदाचित् हृदये तस्याश्वासविश्वासतो मुहुः ॥४९ ॥

हे प्रिये! इस लोक में जो दुर्लभ है, मैं उसका ध्यान करता हूँ। उसकी अप्राप्ति के भय से शुष्क मुख वाला तथा चकित आँखों वाला हूँ। कभी अपने हृदय में आश्वासन और विश्वास के कारण पुनः ।।४८-४९।।

प्रहृष्टहृदयश्चास्मि शान्तात्मा विगतज्वरः ।

यथाऽधनो लब्धधने विनष्टे तान्तकृत् सदा ॥५०॥

शान्तात्मा, विगतज्वर तथा प्रहृष्ट हृदय वाला हो जाता हूँ। जैसे निर्धन व्यक्ति (कदाचित्) प्राप्त हुए धन के विनष्ट होने पर सदा कष्टग्रस्त (रहता) है॥५०॥

तच्चिन्तावशगो नान्यत् चिन्तयेदेकमानसः ।

एवं लब्धेश्वरस्यास्य दुर्भगस्य दुरात्मनः ॥५१॥

उस (धन) की चिन्ता से ग्रस्त, एकमानस, अन्य विषय के बारे में नहीं सोचता ऐसी ही (दशा) इस अभागे दुरात्मा तथा ईश्वर को प्राप्त किए हुए को भी है ।। ५१ ।।

तत्पादसेवासम्बन्धाद् दैवाद् भ्रष्टस्य सुव्रते ।

पुनस्तं प्राप्तुकामस्य दैवान्न घटते च यत् ॥५२॥

हे अच्छे व्रत वाली! दैववशात् उस (ईश्वर) की चरणसेवा के सम्बन्ध से च्युत, पुनः उसकी (सेवासम्बन्ध की) प्राप्ति की इच्छा रखने वाला, दैववशात् जिसे ईश्वर प्राप्ति न हो रही हो (उसकी भी ऐसी ही स्थिति होती है) ।। ५२ ।।

तेनैवाहं सदा भ्रान्तः संश्रान्तो वीक्षितस्त्वया ।

तच्चिन्ताविष्टचित्तस्य पथि यातुः स्खलद्गतेः ॥५३॥

इसी कारण से तुम्हारे द्वारा सदा भ्रान्त और एकदम थका हुआ देखा में जाता हूँ; (क्योंकि) उस (ईश्वर) की चिन्ता से आविष्ट चित्तवाले पथ में जाते हुए भ्रष्ट गति वाले-॥५३॥

देह उन्मत्तवद् भाति भावाभावविवर्जिता ।

अहं तव सखा बन्धो! मा खेदं कुरु भामिनि ॥५४॥

(मेरी) देह हाव-भाव से रहित पागल व्यक्ति की तरह दिखलाई पड़ती है। अरे भाई! मैं तुम्हारा मित्र हूँ। हे सुन्दरी! दुःख मत करो।।५४।।

हितार्थं तदधिष्ठानं वनं वृन्दावनं परम् ।

यत्तु भौमं वनं तत्तु जाते भौते व्यवस्थितम् ॥५५॥

पर अर्थात् उत्तम वन, वृन्दावन उस (ईश्वर) का अधिष्ठान है, जो भूमिस्थ वन है, वह उत्पन्न होने पर (प्राणियों के) हितार्थ, पञ्चभूतात्मक रूप में व्यवस्थित है ॥५५॥

आब्रह्मस्तम्बपर्यन्तं सर्वभूतशिरोपरि ।

सहस्रपत्रं कमलं भाव्यते सिद्धयोगिभिः ॥५६॥

ब्रह्मा से लेकर स्तम्बपर्यन्त समस्त प्राणियों के शिर के ऊपर सहस्रदल कमल की सिद्ध योगियों के द्वारा भावना की जाती है ॥५६॥

दिव्यं वृन्दावनं ध्यात्वा विष्णुर्भूलोकपालकः ।

भौमं वनं च सञ्चिन्त्य ब्रह्मा स्रष्टा श्रुतान्वितः ॥५७॥

विष्णु दिव्य वृन्दावन का ध्यान करके पृथ्वीलोक के पालक हो गये (और) ब्रह्मा भूमिस्थ वन की सम्यक् रूप से चिन्ता (ध्यान) करके स्रष्टा और श्रुति वाले अर्थात् वेदवित् (बन गए) ।।५७।।

भौतं वृन्दावनं ध्यात्वा शिवः संसिद्धिमागतः ।

एषामेकतमं ध्यात्वा तथैव पुरुषं परम् ॥५८॥

शिव पञ्चभूतात्मक वृन्दावन का ध्यान करके संसिद्धि को प्राप्त किए। उसी प्रकार इन (भौत, दिव्य और भौम) में से किसी एक का ध्यान करके परम पुरुष भी ऐसे ही (सिद्धि को प्राप्त हुए) ।। ५८ ।।

तरन्ति भवपाथोधिं सर्वे प्राप्तमनोरथाः ।

आबाल्यं तव सख्यं मे प्रिये भक्तासि मे सदा ।

आमूलात् कथयिष्यामि यतो भ्रष्टोऽस्मि तच्छृणु॥५९॥

प्राप्त मनोरथ वाले सभी लोग भवसागर को पार कर जाते हैं। बचपन से ही हमारी तुम्हारी मित्रता है। तुम सर्वदा से मेरी भक्ता रही हो। जिस कारण मैं भ्रष्ट हो गया हूँ, उसे प्रारम्भ से ही बतलाऊँगा, सुनो ॥५९॥

इति श्रीकृष्णयामलमहातन्त्रे वृन्दावनभ्रष्टविद्याधर- विद्याधरीप्रश्नोनामप्रथमोऽध्यायः ॥ १ ॥

इस प्रकार श्रीकृष्णयामलमहातन्त्र में वृन्दावन से भ्रष्ट विद्याधर-विद्याधरी का प्रश्न नामक प्रथम अध्याय की आचार्य राधेश्याम चतुर्वेदीकृत 'ज्ञानवती' नामक हिन्दी व्याख्या पूर्ण हुई।

आगे जारी.....श्रीकृष्णयामलमहातन्त्र अध्याय 2

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