पंच मकार स्तोत्र
रुद्रयामल में पंचमकार के सम्बन्ध
में बहुत ही मार्मिक ढंग से साधक को सावधान करते हुए ज्ञानमार्गोक्त पंच मकार स्तोत्र
कहा गया है। यहां स्तोत्र कहने का तात्पर्य अन्य स्तोत्रों से भिन्न होकर केवल
इनके महत्त्व का आख्यान है ।
पञ्च मकार स्तोत्रम्
वाममार्ग की दीक्षा से दीक्षित
साधकों के लिए 'पंचमकार' समर्पण और सेवन का विधान तन्त्रों में प्राप्त होता है, किन्तु यह सर्व- साधारण के लिए निर्देश न होकर विशिष्ट साधकों के लिए
विहित है और इनके समर्पण का अधिकार भी सभी को प्राप्त नहीं होता, अपितु जिसने साधना की पूर्व-निर्दिष्ट कतिपय कथाओं को क्रमशः उपासना
द्वारा पार कर लिया है, उन्हीं के लिए अधिकृत है ।
पञ्च मकार साधन रहस्य
मद्य,
मांस, मत्स्य, मुद्रा और
मैथुन ये पञ्च मकार हैं जिन्हें मुक्तिदायक बताया गया है।
कुलार्णव तन्त्र के अनुसार —
“मद्यपानेन मनुजो यदि
सिद्धिं लभेत वै ।
मद्यपानरता: सर्वे सिद्धिं गच्छन्तु
पामरा: ।।
मांसभक्षेणमात्रेण यदि पुण्या
गतिर्भवेत ।
लोके मांसाशिन: सर्वे पुन्यभाजौ
भवन्तु ह ।।
स्त्री संभोगेन देवेशि यदि मोक्षं
लभेत वै ।।
सर्वेsपि जन्तवो लोके मुक्ता:स्यु:स्त्रीनिषेवात ।।”
मद्यपान द्वारा यदि मनुष्य सिद्धि
प्राप्त कर ले तो फिर मद्यपायी पामर व्यक्ति भी सिद्धि प्राप्त कर ले । मांसभक्षण
से ही यदि पुण्यगति हो तो सभी मांसाहारी ही पुण्य प्राप्त कर लें । हे देवेशि!
स्त्री-सम्भोग द्वारा यदि मोक्ष प्राप्त होता है तो फिर सभी स्त्री-सेवा द्वारा
मुक्त हो जाएँ ।
पञ्चमकार स्तोत्रं
"पंचमकार" का शाब्दिक
अर्थ है –
पाँच ऐसे तत्व जो 'म' अक्षर से शुरू होते हैं। तंत्र में ये पाँच
प्रतीकात्मक वस्तुएँ हैं, जो साधक के भीतर काम, मोह, भय, द्वंद्व और अहंकार
जैसे अवरोधों को जलाने में सहायक माने जाते हैं। पंचमकार को कौल मार्ग भी कहते
हैं।
पंचमकार में पहला 'म' से शब्द है - मद्य यानि शराब, जिसका अर्थ है मोह और माया का अतिक्रमण।
दूसरा शब्द है - मांस यानि मांसाहार,
जिसका अर्थ है वासनाओं पर विजय।
तीसरा शब्द है - मत्स्य यानि मछली,
जिसका अर्थ है इन्द्रिय-तृप्ति का नियंत्रण।
चौथा शब्द है - मुद्रा,
जिसका अर्थ है कि शक्ति तत्त्व की स्वीकार्यता।
पांचवा शब्द है - मैथुन यानि यौन
संबंध, जिसका अर्थ है ऊर्जा का
रूपांतरण।
इन शब्दों का अर्थ आध्यात्मिक है।
जैसे कि, शराब का अर्थ शराब पीने से नहीं
है, बल्कि आनंद की स्थिति है, जहाँ
साधक “स्व” से बाहर निकलता है। मैथुन
का अर्थ पुरुष और प्रकृति/शक्ति का मिलन है यानि कुंडलिनी और शिव का मिलन।
पंचमकार का उद्देश्य क्या है?
पंचमकार का उद्देश्य चेतना की
ऊर्जाओं को नियंत्रित कर आध्यात्मिक उन्नति प्राप्त करना,
वासनाओं पर नियंत्रण पा कर कुंडलिनी शक्ति को जागृत करना और द्वैत
को मिटाकर अद्वैत में प्रवेश करना है। तंत्र साधना में पंचमकार का उद्देश्य भोग
नहीं, बल्कि भोग के माध्यम से योग की ओर बढ़ना है। जो साधक
इन पांच तत्वों को सही दृष्टि से समझता है, वही तंत्र के
असली रहस्य तक पहुंचता है।
ज्ञानमार्गोक्त पञ्चमकार स्तोत्रम्
Pancha makar stotra
ज्ञानमार्गोक्त पंचमकारस्तोत्रम्
पार्वत्युवाच -
देवदेव जगन्नाथ ! कृपाकर ! मयि
प्रभो !
आगमोक्त मकारांश्च ज्ञानमार्गेण
ब्रूहि मे ॥१॥
भगवती पार्वती शिवजी से प्रार्थना
करती हैं कि हे जगन्नाथ, देव देव, प्रभु ! कृपा करके मुझे आगमोक्त मकारों को ज्ञानमार्ग से परिभाषित करके
समझाइये।
ईश्वर उवाच-
कलाः सप्तदश प्रोक्ता अमृतं
स्त्राव्यते शशी ।
प्रथमा सा विजानीयादितरे मद्यपायिनः
॥२॥
तब शिव कहते हैं कि हे देवि !
सप्तदश कलाएं कही गई हैं और चन्द्रमा अमृत का स्रावण करता है,
वही प्रथम मकार-मद्य है। शेष अन्य तो मदिरामात्र हैं।
कर्माकर्मपशून् हत्वा ज्ञानखड्गेन
चैव हि ।
द्वितीयं विन्दते येन इतरे
मांसभक्षकाः ॥३॥
ज्ञान खड्ग के द्वारा कर्म और अकर्म
रूप पशुओं का जो हनन करता है, वह द्वितीय
मकार-मांस है । अन्य तो केवल मांसाहारी ही हैं।
मनोमीनं तृतीयं च हत्वा
संकल्प-कल्पनाः ।
स्वरूपाकार वृत्तिश्च शुद्धं मीनं
तदुच्यते ॥४॥
मनरूपी मत्स्य का दमन करके व्यर्थ
के संकल्पों को नष्टकर स्वरूपाकार वृत्ति का संकल्प करना तृतीय मकार-मत्स्य है ।
यही शुद्ध मीन कहलाता है, अन्य नहीं ।
चतुर्थं भक्ष्यभोज्यं न भक्ष्यमिन्द्रिय-निग्रहम्
।
सा चतुर्थी विजानीयादितरे
भ्रष्टकारकाः ॥५॥
चतुर्थ मकार- मुद्रा वस्तुतः भक्ष्य,
भोज्य, अन्न और इन्द्रियों का निग्रह है । जो
लोग अन्य मुद्राओं का आशय लेते हैं अथवा उनका उपभोग करते हैं वे भ्रष्टकर्मा हैं ।
हंसः सोऽहं शिवः शक्तिद्रव
आनन्दनिर्मलाः ।
विज्ञेया पञ्चमीतीदमितरे
तिर्यगामिनेः ॥ ६ ॥
और 'हंसः सोऽहं' स्वरूप शिव-शक्ति का परम कृपापूर्ण
सामरस्य ही पंचम मकार — मैथुन है ।
स द्रावश्चक्षुः-पात्रेण पूज्यते
यत्र उन्मनी ।
दिद्युल्लेखाशिवैकेमां साध्यन्ते
दैवसाधकाः ॥७॥
इस अवस्था में नेत्ररूपी पात्र से
उन्मनी की पुजा की जाती है। यही पूर्ण कला है। देवसाधक इसी की साधना करते हैं।
पूजकस्तन्मयानन्दः पूज्य - पूजकवर्जितः
।
स्वसंवेद्य - महानन्दस्तन्मयं
पूज्यते सदा ॥८॥
इसमें पूजा और पूजक भाव से मुक्त
होकर साधक तन्मयानन्द प्राप्त करता है तथा अन्त में स्वयंवेद्य महानन्द का लाभ
करता है ।
अतः जहां पंचमकार समर्पण तथा सेवन
का संकेत है वहां इस स्तोत्र का भावात्मक स्मरण करें।
॥ इति श्रीरुद्रयामले उमामहेश्वरसंवादे पंचमकारस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥

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