शारदातिलक पटल १०
शारदातिलक पटल १० त्वरिता पटल है।
इसमें त्वरिता देवी के विभिन्न मन्त्र, उनके
प्रयोग, श्रीमन्त्र, नित्या ध्यान,
त्रैपुट मन्त्र, अन्नपूर्णा मन्त्र, पद्मावती मन्त्र तथा उनका पुरश्चरण वर्णित है।
शारदातिलक पटल १०
Sharada tilak patal 10
शारदातिलकम् दशमः पटल:
शारदातिलकतन्त्रम् (प्रथमो भागः )
शारदा तिलक तन्त्र दसवाँ पटल
शारदातिलकम्
दशम पटल
अथ दशमः पटल:
अथ त्वरिताप्रकरणम्
ततोऽभिधास्ये त्वरितां त्वरितं
फलदायिनीम् ।
तारो
मायावर्मबीजमृद्धिरीशस्वरान्विता ॥ १ ॥
द्वादशाक्षरमन्त्रः ।
ऋष्यादिकथनम्
कूर्मस्तदन्त्यो भगवान् क्षः स्त्री
दीर्घतनुच्छदम् ।
संवर्ती भगवान्माया फडन्तो
द्वादशाक्षरः ॥ २ ॥
अब मैं त्वरित (शीघ्र फल देने वाली
त्वरिता के विषय में कहूँगा-तार (ॐ), मायाबीज
(ह्रीँ), वर्मबीज (हुँ) शेखर (एकार) से युक्त ऋद्धि खकार,
कूर्म (चकार) उसके बाद भग (एकार) युक्त छकार (क्ष) फिर स्त्री पद
तदनन्तर दीर्घतनुच्छद (हूँ) उसके बाद एकार युक्त क्ष तदनन्तर माया (ह्रीं) अन्त
में फट् इस प्रकार त्वरिता का द्वादशाक्षर मन्त्र उद्धृत किया गया।
विमर्श -
इसका स्वरूप इस प्रकार होना चाहिए- 'ॐ
ह्रीँ हुँ खे च छे क्षः स्त्री हूँ क्षे ह्रीँ फट्' ।। १-२
।।
मुनिरर्जुन आख्यातो विराट्छन्दः
समीरितम् ।
त्वरिता देवता प्रोक्ता
पुरुषार्थफलप्रदा ॥ ३ ॥
इस मन्त्र के मुनि अर्जुन हैं। इसका
विराट् छन्द है तथा देवता त्वरिता हैं जो चारों पुरुषार्थों के फलों को प्रदान
करने वाली हैं ।। ३ ।।
मायाविवर्जितान् वर्णान्मूर्ध्नि
भाले गले हृदि ।
नाभिगुह्योरुयुग्मेषु
जानुजङ्घापदेषु च ॥ ४ ॥
विन्यस्य व्यापकं कुर्यात्समस्तेनैव
साधकः ।
इस मन्त्र में दो स्थान पर ह्रीं
आया है,
उन दोनों को निकाल देने पर दश अक्षर शेष रहते हैं उन दश अक्षरों से
शिर, भाल, गला, हृदय,
नाभि, गुह्य दोनों ऊरु, दोनों
जानु दोनों जङ्घा, तथा दोनों पैर में क्रमश: एक एक त्वरिता
के बीजाक्षरों से न्यास कर समस्त मन्त्र पढ़कर साधक व्यापक न्यास करे ।। ४-५ ।।
कूर्माद्यैः सप्तभिर्वर्णैः
पूर्वपूर्वविवर्जितैः ॥ ५ ॥
द्वाभ्यां द्वाभ्यां षडङ्गानि
कल्पयेत्साधकोत्तमः ॥ ६ ॥
कूर्म (चकार) के आदि में रहने वाले,
वर्ण (खे) उसके सहित दो दो वर्णों से उत्तम साधक क्रमशः न्यास करे।
किन्तु आगे आगे न्यास स्थानों में पूर्व पूर्व वर्ण छोड़ता जावे। जैसे—खे च इति हृदये, इसी प्रकार इति शिरा से पुनः क्षः'
शिखायाम् । क्षः स्त्री इति कवचाय हुँ, स्त्री
हूं इति नेत्रयोः । 'हूं क्षे' इति
सर्वांगे ।। ५-६ ।।
ध्यानम्
श्यामां
बर्हिकलापशेखरयुतामाबद्धपर्णांशुकां
गुञ्जाहारलसत्पयोधर भरामष्टाहिपान्
बिभ्रतीम् ।
ताटङ्काङ्गदमेखलागुणरणन्मञ्जीरतां प्रापितान्
कैरातीं वरदाभयोद्यतकरां देवीं
त्रिनेत्रां भजे ॥ ७ ॥
अब त्वरिता का ध्यान कहते
हैं—जिनके शरीर का वर्ण श्याम है, तथा शिरोभाग में मोर
मुकुट विराज रहा है। जो पत्तों के वस्त्र से सुशोभित हैं, जिनके
स्तन प्रदेश पर गुञ्जा का हार लटक रहा है। जो 'अनन्त कुलिश'
नामक फणीशों का कर्णफूल, वासुकि शङ्खपाल नामक
नागराजों का केयूर, तक्षक महापद्म की मेखला तथा कर्कोटक,
पद्मनाभ का नूपुर ( इस प्रकार आठ नागराजों को) धारण की हैं, जिनके हाथ में वर तथा अभय मुद्रा है—ऐसी किरात
वेषधारिणी, त्रिनेत्र त्वरिता का मैं भजन करता हूँ ॥ ७ ॥
पुरश्चरणादिकथनम्
लक्षं संजप्य मन्त्रज्ञो मनुमेनं
जितेन्द्रियः ।
दशांशं जुहुयाद्बिल्वैर्मधुराक्तैः
समिद्वरैः ॥ ८ ॥
साधक अपने इन्द्रियों को वश में कर
इस मन्त्र का एक लाख जप करे तथा त्रिमधुर (दूध, घी,
मधु ) मिश्रित विल्वफलों से एवं उत्तम समिधाओं से उसका दशांश होम
करे ॥ ८ ॥
हृल्लेखाकल्पिते पीठे
नवशक्तिसमन्विते ।
पूजयेत् त्वरितां देवीं
वक्ष्यमाणविधानतः ॥ ९ ॥
तदनन्तर भुवनेश्वरी के लिये कहे गये
नवशक्तियों से युक्त पीठ की पूजा कर, आगे
कही जाने वाली विधि से त्वरिता देवी की पूजा करे (यहाँ पर पूर्ववत् अष्टदल पीठ का
निर्माण करे, किन्तु उस पर रहने वाली नव शक्तियाँ तथा पीठ पूजा
के मन्त्र भिन्न हैं) ।। ९ ॥
संवर्तको बिन्दुयुतः कवचं सकलं
वियत् ।
वज्रदेह पुरुद्वन्द्वमाभाष्य
हिङ्गुलुद्वयम् ॥ १० ॥
गर्जयुग्मं वियत्सेन्दु वर्मान्त्यो
दीर्घबिन्दुमान् ।
पञ्चाननाय हृदयं पीठमन्त्रः
प्रकीर्त्तितः ॥ ११ ॥
अब पीठ पूजा का मन्त्र कहते हैं-
बिन्दु युक्त संवर्तक (क्ष) कवच (हुँ) कला सहित वियत् (हय) तदनन्तर 'वज्रदेह पुरु पुरु' यह शब्द पुनः हिङ्गुलु शब्द को
दो बार (क्षि क्षि) तदनन्तर गर्जशब्द दो बार (क्षौं क्षौं) सन्द्र वियत् (हँ)
वर्म्म (हुँ) अन्त्याक्षर (क्ष) उसे आकार और बिन्दु से युक्त कर ( क्षाम् पश्चात् 'पञ्चाननाय' यह शब्द उसके बाद हृदय (नमः) शब्द वही
पीठ पूजन का मन्त्र है । क्षं हं वज्रदेह पुरु पुरु क्षिं क्षि क्ष क्ष हं क्षां
पञ्चाननाय नमः - यह मन्त्र का स्वरूप हुआ ।। १०-११ ॥
दद्यादासनमेतेन मूर्त्तिं मूलेन
कल्पयेत् ।
अङ्गैः प्रणीतां गायत्री
केसरेष्वर्चयेत् क्रमात् ॥ १२ ॥
इस मन्त्र के द्वारा भगवती को आसन
देवे । मूल मन्त्र पढ़कर उस पर भगवती का आवाहन करे । तदनन्तर केशरों पर षडङ्ग की
पूजा कर उत्तर में प्रणीता तथा ईशान में गायत्री का पूजन करे ।। १२ ।
दलेषु पूजयेदेताः श्रीबीजाद्याः
सुभूषिताः ।
हुङ्कारी खेचरी चण्डां छेदनीं
क्षेपणीं स्त्रियम् ॥ १३ ॥
हूङ्कारी क्षेमकारी च
लोकेशायुधभूषणाः ।
फट्कारीमग्रतो बाह्ये
कोदण्डशरधारिणीम् ॥ १४ ॥
द्वारस्य पार्श्वयोः पूज्ये
हैमवेत्रकराम्बुजे ।
पुनः अष्ट दलों पर श्री बीज से
युक्त १. हुंकारी, २. खेचरी, ३. चण्डा, ४. छेदनी, ५.
क्षेपणी, ६. स्त्री, ७. हँकारी एवं ८.
क्षेमकारी-इन आठ महाशक्तियों की पूजा करे। ये सभी शक्तियाँ मनोहर आभूषणों से भूषित
हैं तथा लोकेश इन्द्रादिकों के जैसे आयुध, वर्ण, वाहन तथा भूषण धारण करने वाली हैं । इसके बाद अष्टदल कमल से बाहर द्वार के
बाहर अग्रभाग के दोनों ओर फट्कारी तथा कोदण्डधारिणी की पूजा करे, जिन्होंने अपने हाथों में सुवर्णमय वेत्र धारण किया है ।। १३-१५ ।।
किङ्करमन्त्रः
जयाख्या विजयाख्या च किङ्कराय पदं
ततः ॥ १५ ॥
रक्षरक्षपदस्याऽन्ते त्वरिताज्ञा
स्थिरो भव ।
वस्त्रान्तेन मनुना किङ्करं
तद्बहिर्यजेत् ॥ १६ ॥
अब किंकर मन्त्र का उद्धार
कहते हैं—
'जया', पश्चात् 'विजया',
तदनन्तर 'किंकराय', पुनः
रक्ष रक्ष त्वरिताज्ञा स्थिरो भव' इसके बाद वर्म (हुँ) एवं
अस्त्र (फ) का उच्चारण करे । इस प्रकार 'जया विजया किंकराय
रक्ष रक्ष त्वरिताज्ञा स्थिरो भव हुं फट्'– यह मन्त्र का
स्वरूप हुआ ।। १६ ।।
लगुडं बिभ्रतं कृष्णं
कृष्णबर्बरमूर्द्धजम् ।
आरण्यैररुणैः पुष्यैरतिमुक्तैः
सुगन्धिभिः ॥ १७ ॥
इसी मन्त्र से द्वार के बाहरी भाग
में देवी के प्रेष्य भूत किंकर की पूजा करनी चाहिए। देवी का यह किंकर हाथ में लगुड
लिये हुये है, इसके शरीर का वर्ण काला है,
केश काले तथा कुञ्चित (घुंघराले) हैं ॥ १७ ॥
पूजयेद्
धूपदीपाद्यैर्नृत्यगीतैर्मनोरमैः ।
एवं सिद्धमनुर्मन्त्री
नारीनरनरेश्वरैः ॥ १८ ॥
इस प्रकार के किंकर की जङ्गली लाल
लाल फूलों से तथा सुगन्धित अतिमुक्तक के पुष्पों से धूप,
दीप, मनोहर नृत्य एवं गीतों द्वारा पूजा कर
सिद्ध करे । तब मन्त्र की सिद्धि होती है। इस प्रकार से मन्त्र को सिद्ध करने वाला
सभी स्त्रियों पुरुषों एवं राजाओं से पूजित होता है ।। १८ ।।
मान्यते वत्सरादर्वाक् लक्ष्म्या
जितधनेश्वरः ।
योनिकुण्डं प्रकल्प्यात्र
कुर्याद्धोमं निजेच्छया ॥ १९॥
वह साधक एक संवत्सर के पहले ही अपनी
संपत्ति से कुबेर को जीत लेने में समर्थ हो जाता है। अब योनिकुण्ड बनाकर उसमें
तत्तत्पदार्थों के होम से जिन जिन कामनाओं की पूर्ति होती है,
उसे कहते हैं ।। १९ ।।
मल्लिकाकुसुमैर्हुत्वा वशयेदखिलं
जगत् ।
कृत्याद्रोहादिशमनं
पलाशकुसुमैहुतिम् ॥ २० ॥
मल्लिका पुष्पों के होम से साधक
समस्त जगत् को वश करने में समर्थ हो जाता है। पलाश कुसुमों से होम करने से कृत्या
तथा समस्त द्रोह अपने आप शान्त हो जाते हैं ।। २० ।।
इक्षुखण्डैः शुभैर्हुत्वा
महतीमृद्धिमाप्नुयात् ।
दीर्घमायुरवाप्नोति दूर्वा होमेन साधकः
॥ २१ ॥
उत्तम उख के टुकड़ों के होम से बहुत
बड़ी समृद्धि प्राप्त होती है। साधक दूर्वा द्वारा होम करने से दीर्घ आयु प्राप्त
करता है ।। २१ ।।
धान्यैः प्रक्षालितैर्हुत्वा
श्रियमिष्टां समाप्नुयात् ।
वैर्धान्यसमृद्धिः
स्याद्गोधूमैरिष्टसिद्धयः ॥ २२ ॥
धोये गये धान्य की आहुति से अभिलषित
श्री की प्राप्ति होती है। यव के होम से धान्य की समृद्धि तथा गोधूम के होम से
इष्ट सिद्धि होती है ।। २२ ।।
तण्डुलैरक्षया सिद्धिः स्याद्
वृद्धिर्महती तिलैः।
मन्त्री नीलोत्पलैर्हुत्वा
नृपपत्नीं वशं नयेत् ॥ २३ ॥
प्रबुद्धैः पङ्कजैर्हुत्वा वशं नयति
मेदिनीम् ।
अशोकैः पुत्रमाप्नोति
मधूकैरिष्टमाप्नुयात् ॥ २४ ॥
तण्डुल की आहुति से अक्षय सिद्धि,
तिलों के होम से महती वृद्धि होती है। मन्त्रज्ञ साधक नील कमल के
पुष्पों के होम से रानी को भी वश में कर लेता है। खिले हुये कमलों के होम से समस्त
पृथ्वी को वश में कर सकता है। अशोक के होम से पुत्रप्राप्ति तथा मधूक के होम से
इष्टसिद्धि होती है ।। २३-२४ ।।
फलैर्जम्बुभवैर्हुत्वा लभते
धनमीप्सितम् ।
पुष्पैः पाटलिसम्भूतैरिष्टामाप्नोति
सुन्दरीम् ॥ २५ ॥
जामुन के फल के होम से यथेष्ट धन
प्राप्त होता है, गुलाब के फूलों के होम
से अपने अनुकूल सुन्दरी स्त्री प्राप्त होती है ।। २५ ।।
पुष्पैर्बकुलसम्भूतैः कीर्त्तिः
स्यादनपायिनी ।
दीर्घमायुर्लभेदाश्चम्पकैः काञ्चनं
लभेत् ॥ २६ ॥
वकुल (मौलसिरी) पुष्पों के होम से
अक्षय कीर्त्ति प्राप्त होती है। आम के पुष्पों के होम से दीर्घायु तथा चम्पक के
होम से सुवर्ण की प्राप्ति होती है ।। २६ ।
कुर्वीत सर्षपैर्होमं शत्रोर्नाशकरं
सुधीः ।
पत्रैर्बकुलजैर्हुत्वा
शीघ्रमुत्सादयेदरीन् ॥ २७ ॥
शाल्मलीपत्रहोमेन सपत्नान् नाशयेद्
ध्रुवम् ।
कोद्रवैः
कण्डनैस्तद्वन्निम्बैर्विद्वेषयेन्मिथः ॥ २८ ॥
बुद्धिमान् साधक शत्रु के विनाश के
लिये सर्षप से होम करे । वकुल के पत्र द्वारा होम करने से साधक शीघ्र ही अपने
शत्रुओं को नष्ट कर देता । सेमर पत्ते के होम से निश्चय ही शत्रु का विनाश होता
है। कोदों की भूसी के होम से तथा निम्ब के फल के होम से परस्पर मित्रों में
विद्वेष होता है ।। २७-२८ ।।
माषहोमेन मूकः
स्यादुन्मत्तोऽक्षैर्भवेदरिः ।
अयुतं होमसंख्या स्याज्जपस्तावान्
प्रकीर्त्तितः ॥ २९ ॥
माष के होम से शत्रु मूक होता है। विभीतक
फल से होम करने पर शत्रु उन्मत्त हो जाता है । इन सब कार्यों के लिये दस हजार होम
तथा उतनी ही संख्या में जप भी अपेक्षित है ।। २९ ।।
स्नानं तन्मन्त्रितैस्तोयैः
सर्वव्याधिहरं स्मृतम् ।
तज्जप्तं चुलुकं तोयं मुखे क्षिप्तं
विषापहम् ॥ ३० ॥
त्वरिता के मन्त्र से अभिमन्त्रित
जल द्वारा स्नान करने से सब प्रकार की व्याधि नष्ट हो जाती है। इतना ही नहीं इस
मन्त्र से अभिमन्त्रित एक चुल्लू जल पीने से समस्त विष नष्ट हो जाते हैं ।। ३० ।।
आर्त्ताय भेषजं
दद्यान्मन्त्रेणाऽनेन मन्त्रवित् ।
स भवेद् व्याधिनिर्मुक्तो मन्त्रस्याऽस्य
प्रभावतः ॥ ३१ ॥
मन्त्रवेत्ता साधक इस मन्त्र से
अभिमन्त्रित औषधि रोगी को दे तो वह रोग रहित हो जाता है । इस मन्त्र का इतना बड़ा
प्रभाव है ।। ३१ ।।
त्रिलोहीमुद्रिकाऽनेन मनुना साधु
साधिता ।
कृत्याद्रोहादिशमनी
सर्वव्याधिविनाशिनी ॥ ३२ ॥
समभाग युक्त सुवर्ण,
रजत एवं चाँदी मिश्रित अङ्गूठी बनवा कर उसे इस मन्त्र से सिद्ध कर
धारण करे तो उससे कृत्यादि अभिचार, समस्त द्रोह एवं सब प्रकार
की व्याधियाँ नष्ट हो जाती हैं ।। ३२ ।।
सर्वसम्पत्प्रदा नित्यं सर्ववश्यकरी
मता ।
यद्यद्वाञ्छति मन्त्रज्ञस्तत्तदेतेन
साध्यते ॥ ३३ ॥
उपर्युक्त प्रकार से धारण की गई
अङ्गठी सब प्रकार की संपत्ति प्रदान करती हैं सभी लोगों को वश में करने वाली हैं।
किं बहुना मन्त्रज्ञ जो जो चाहता है, वह
सभी इससे सिद्ध हो जाता है ।। ३३ ।।
विजयप्रदयन्त्रम्
मध्ये सरोजे दशपत्रयुक्ते मायां लिखेद्वाञ्छितसाध्यगर्भाम्
।
तारादिवर्णान् दश मन्त्रसंस्थान्
षट्कोणबीजं वसुधापुरस्थम् ॥३४॥
कृत्याद्रोहादिशमनं व्यालचौर
भयापहम् ।
विधृतं त्वरितायन्त्रं
विशेषाद्विजयप्रदम् ॥ ३५ ॥
दश पत्र युक्त कमल के मध्य में माया
(ह्रीं) के मध्य में साध्य, कार्य तथा साधक को
लिखे (द्र. ९. ५१) । दश पत्रों पर माया रहित त्वरिता के ॐ कारादि दश अक्षरों को
लिखे तथा भूपुर में षट्कोण के बीजाक्षर लिखे ।
इस प्रकार का यन्त्र धारण करने से
कृत्यादि अभिचार एवं समस्त द्रोह नष्ट हो जाते हैं, साँप व चोर की बाधा नहीं होती। बहुत क्या ? इस मन्त्र
के धारण से विशेष रूप से विजय प्राप्त होता है ।। ३४-३५ ।।
लक्ष्मीकीर्त्तिप्रदयन्त्रम्
तारे हुं विलिखेत्सरोजकुहरे साध्याभिधानान्वितं
मन्त्रार्णान् वसुसंख्यकान्
वसुदलेष्वालिख्य तद्बाह्यतः ।
शक्त्या त्रिः परिवेष्टितं घटगतं
पद्मस्थमब्जाननं
यन्त्रं वश्यकरं ग्रहादिभयहल्लक्ष्मीप्रदं
कीर्त्तिदम् ॥ ३६ ॥
अब अन्य प्रकार का त्वरिता यन्त्र
कहते हैं—अष्टदल कमल की कर्णिकाओं में तार (प्रणव) के मध्य में हुंपूर्वक साध्यनाम,
कर्म तथा साधक का नाम लिखे और अष्टदल कमल पर ॐकार, दो माया के वर्ण ह्रीं एवं कवचाक्षरों (हुँ) को छोड़कर त्वरिता मन्त्र के
शेष आठ अक्षरों को लिखे ( द्र० १०.२) । तदनन्तर उसके बाहर तीन शक्ति मन्त्र लिख कर
उसे परिवेष्टित करे । पुनः अष्टदल कमल की आकृति बनाकर उस पर घट स्थापित करे । उसके
मुख पर कमल स्थापित करे । तदनन्तर उस यन्त्र को उसी कलश पर स्थापित कर पूजा करे ।
इस प्रकार धारण किया गया यन्त्र वश्यकारक होता है, ग्रहादिकों
के भय को दूर करता है लक्ष्मी तथा कीर्त्ति प्रदान करता हैं॥३६॥
वश्यावहश्रीप्रदयन्त्रम्
कोष्ठानां शतमेकविंशतियुतं कृत्वा
ध्रुवं मध्यतः
साध्याढ्यं त्वरितां शिवादि
विलिखेन्मायां विना मन्त्रवित् ।
रेखाग्रेषु लसत्रिशूलमसकृत् संजप्य
सम्पातितं
यन्त्रं क्ष्वेडमहाभिचारशमनं
वश्यावहं श्रीप्रदम् ॥ ३७ ॥
द्वादश रेखा पूर्व से पश्चिम की ओर
तथा द्वादश रेखा उत्तर से दक्षिण की ओर खींचे। इस प्रकार परस्पर रेखाओं के संयोग
द्वारा १२१ कोष्ठक का निर्माण करे । उसके मध्य में ईशान कोण से आरम्भ कर ॐ कार
संपुटित साध्याक्षर, साध्य, कर्म तथा साधक का नाम लिखे । पश्चात् मायाक्षररहित त्वरिता के दशाक्षरों
को बारह आवृत्ति में लिखे और पूर्व से पश्चिम की ओर खींची गई एकादश रेखाओं को तथा
उत्तर से दक्षिण खींची गई रेखाओं को बढ़ाकर उन्हें त्रिशूल की आकृति बनावे। इस
प्रकार से लिखा हुआ यह यन्त्र पागलपन, अभिचार का शमन करता है,
वशीकरण है और लक्ष्मी प्रदान करने वाला है।
विमर्श-
यहाँ यह उल्लेखनीय है कि यदि उन्मत्तता (पागलपन) की शान्ति करनी हो तो गरुड़
मन्त्र के भीतर साध्यनाम, महाभिचार की शान्ति
करनी हो तो नृसिंह मन्त्र के भीतर साध्य नाम, वश्य में काम
बीज के भीतर तथा लक्ष्मी प्राप्ति लक्ष्मी बीज के भीतर साध्य नाम लिखना चाहिए ॥ ३७
॥
अनुग्रहाख्ययन्त्रम्
एकाशीतिपदेषु टान्तविवरे साध्यं
लिखेन्मध्यतः
पश्चात् पङ्गिषु दिग्गतासु लिपिशो
जूंसः शिखान्तं लिखेत् ।
शिष्टेष्वीशनिशाचरादि
विलिखेल्लक्ष्मीमनुं पङ्क्तिशः
शस्त्राविर्वषडन्तया त्वरितया वीतं
चतुर्दिक्ष्वपि ॥ ३८ ॥
दश रेखा पूर्व से पश्चिम एवं दश
रेखा उत्तर से दक्षिण की ओर खींच कर ८१ कोष्ठक निर्माण करे । पुनः उसके मध्य में
दो 'ठं' अक्षरों के बीच साध्यनाम, कर्म
तथा साधक के नाम लिखे ॥ ३८ ॥
अनुग्रहाख्यचक्रः
लान्तैः प्रवीतं कमलासनेन घटेन वीतं
कमलासनेन ।
संसाधितं चक्रमनुग्रहाख्यं दध्याद्
यथावत्कनकादिबद्धम् ॥ ३९॥
पुनः उस मध्य से चारों दिशाओं के
चार चार कोष्ठात्मक ४ पंक्तियों में 'जूं
सः वषट्' इन चार अक्षरों के एक एक वर्ण को अलग अलग लिखे ।
तदनन्तर नैर्ऋत्य कोण से आरम्भ कर ईशानकोण पर्यन्त आगे कहा जाने वाला (द्र. १०.
४१) लक्ष्मी मन्त्र एक एक अक्षर के क्रम से एक पंक्ति में लिखे । फिर चारों दिशाओं
में त्वरिता मन्त्र के अनन्तर फट् एवं वषट् अक्षरों को एक एक आवृत्ति के क्रम से
चार बार लिख कर उसे घेर देवे। उसे भी लान्त (वकार) से माला की तरह घेर देवे ।
तदनन्तर कमलासन पर स्थापित घट पर रख कर पद्मासन से बैठ कर साधक उस मन्त्र को सिद्ध
करे। यह अनुग्रह नामक चक्र यन्त्र है ।। ३९ ।।
कृत्यापमृत्युरोगादीन् क्ष्वेड
भूतमहाग्रहान् ।
जीवेद्वर्षशतं पुत्रैः
पौत्रैर्लक्ष्म्या च नन्दति ॥ ४० ॥
इसे कनक,
रजत अथवा ताम्र के पात्र में बन्द कर धारण करे, तो कृत्या, अपमृत्यु, रोगादि,
पागलपन, भूतबाधा, ग्रहबाधा
से रक्षा होती है । वह पुरुष पुत्र-पौत्र एवं लक्ष्मी से संयुक्त रह कर सैकड़ों
वर्ष तक जीता है ।। ४० ।।
श्रीमन्त्रः
श्री सा माया यामा सा श्री सानो
याज्ञे ज्ञेया नोसा ।
माया लीला लाली यामा याज्ञे लाली
लीला ज्ञेया ॥ ४१ ॥
चतुःषष्टिपदयन्त्रम्
लिखेच्चतुः षष्टिपदेषु विद्वानीशादि
कन्यादि रमामनुं तम् ।
बाह्ये यथावत् त्वरिताभिवीतं लान्तैश्च
वीतं वरकाञ्चनस्थम् ॥ ४२ ॥
देशे पुरे वा नगरे गृहे वा
विनिःक्षिपेच्चक्रमिदं यथावत् ।
तत्र ध्रुवं गोमहिषाभिवृद्धिः
सम्यक् प्रजाशस्यसमृद्धयः स्युः ॥ ४३ ॥
'श्री सा माया, वामा सा श्री सानो याज्ञे ज्ञेया, नोसा, माया, लीला, लालीयामा याज्ञे
लाली लीला ज्ञेया' यह ६४ अक्षरों का महालक्ष्मी का मन्त्र
है। इसे नव रेखा पूर्व पश्चिम की ओर तथा नव रेखा उत्तर दक्षिण की ओर खींचकर बनाये
गये ६४ कोष्ठकों में ईशान कोण से आरम्भ कर एक एक अक्षर के क्रम से एक बार लिखे ।
पुनः नैऋत्य कोण से आरम्भ कर दूसरी बार उसी प्रकार लिखे । बाहर चारों ओर त्वरिता
मन्त्र तथा उसके अन्त में वषट् शब्द लिखकर घेर देवे । उसे भी वँ इस अक्षर से माला
की तरह लिखकर घेर देवें । तदनन्तर उस यन्त्र चक्र को श्रेष्ठ सुवर्ण निर्मित पात्र
में रख कर जिस देश, पुर, अथवा गाँव में
गाड़े वहाँ निश्चय ही गो महिष्यादि की समृद्धि होती है और प्रजा धन धान्य से युक्त
हो जाती है ।। ४१-४३ ।।
त्रिकण्टकीमन्त्रः
कवचं भगवांश्चण्डो मेरुः
सर्गसमन्वितः ।
त्रिकण्टकी समाख्याता विद्या
वर्णत्रयात्मिका ।
द्विरुक्तैर्मन्त्रवर्णैः
स्यादङ्गक्लृप्तिरितीरिता ॥ ४४ ॥
अब त्रिकण्टकी विद्या का उद्धार
कहते हैं-कवच (हुं) भगवान् (एकार) युक्त चण्ड (ख) सर्गसमन्वित (विसर्गयुक्त) मेरु
(क्षकार) इस प्रकार 'हुं' खे क्षः' वर्णत्रयात्मिका इस विद्या को त्रिकण्टकी
कहते हैं—इस मन्त्र को दो दो बार उच्चारण कर अङ्गन्यास करना
चाहिए ।। ४४ ।।
त्रिकण्टकीविद्याध्यानम्
नीला नाभेरधस्तादरुणरुचिरधः
कण्ठदेशात्सिताऽऽ स्याद्
वक्त्रैर्दंष्ट्राकरालैरुदरपरिगतैर्भीषणाङ्गीं
चतुर्भिः ।
दीपौ कम्बुरथाङ्गं
करसरसिरुहैर्धारयन्ती जटान्तः
स्फूर्जच्छीतांशुखण्डा भवतु भयहरा
देवता वस्त्रिनेत्रा ॥४५॥
अब इस मन्त्र के देवता का ध्यान
कहते हैं-जो नाभि से अधोभाग में नील वर्ण की हैं, कण्ठ के नीचे नाभि पर्यन्त भाग में अरुण वर्णा हैं तथा मुख से लेकर
कण्ठभाग पर्यन्त श्वेतवर्णा हैं। जो अपने मुखों में रहने वाले भीषण उदर पर्यन्त
बड़े-बड़े दाढ़ों से अत्यन्त भयानक प्रतीत हो रही हैं तथा अपने पेट के चारों ओर चार
कमलवत् हाथों में दो में दीपक और शेष दो में शङ्ख तथा चक्र धारण की हैं, जिनकी जटाओं में चन्द्रशकल देदीप्यमान है, ऐसी तीन
नेत्र वाली देवता हमारे भय को दूर करने वाली होवें ।। ४५ ।।
पुरश्चरणादिकथनम्
त्रिलक्षं प्रजपेदेनमाज्येनाऽन्ते
दशांशतः ।
हुत्वा प्राक् प्रोक्तमार्गेण
पूजयेत्तां त्रिकण्टकीम् ॥ ४६ ॥
उपर्युक्त त्रिकण्टकी मन्त्र का तीन
लाख जप करे । उसका दशांश होम करे। तदनन्तर पूर्व में कही गई विधि के अनुसार उनकी
पूजा करे ।। ४६ ।।
त्रिशूलमुद्रां पाणिम्यां
बद्धात्मानं त्रिकण्टकीम् ।
ध्यायन् स्पृष्ट्वा जपेद् ग्रस्तं
सद्यस्तं मुञ्चति ग्रहः ॥ ४७ ॥
तदनन्तर त्रिकण्टकी का ध्यान करते
हुये अपने दोनों हाथों से त्रिशूल मुद्रा (दोनों हाथ के अंगूठों को परस्पर दोनों
कनिष्ठिका अङगुलियों से संयुक्त करे, शेष
तीनों अङ्गुलियों को ऊपर उठाये,) बाँध कर उपर्युक्त मन्त्र
का जप ग्रहग्रस्त पुरुष का स्पर्श करते हुये करे तो ग्रह उसे तत्काल छोड़ देते हैं
।। ४७ ।।
वश्यत्रिकण्टकीमन्त्रः
क्षेरुद्धा स्त्री त्रिवर्णेयं
विद्या वश्या त्रिकण्टकी ।
मन्त्रार्णैर्वीप्सितैः
कुर्यादङ्गषट्कं यथा पुरा ॥ ४८ ॥
'क्षे' वर्ण
से संपुटित 'स्त्री' शब्द इस प्रकार
त्रिवर्णा यह विद्या वश्या त्रिकण्टकी नाम से प्रसिद्ध हैं । इस मन्त्र को दो दो
बार आवृत कर पूर्ववत् षडङ्गन्यास करना चाहिए ।। ४८ ।।
पूर्वोक्तां देवता ध्यायन् मन्त्रं
त्रिनियुतं जपेत् ।
दशांशं सर्पिषा हुत्वा वशयेद्वनितां
नरान् ॥ ४९ ॥
पूर्वोक्त देवता का (द्र १०. ४५)
ध्यान करते हुये इस मन्त्र का तीन लाख जप करे । उसका दशांश घी से हवन करे तो वह
साधक स्त्री और पुरुष सब को वश करने में सक्षम हो जाता है ।। ४९ ।।
पञ्चदशाक्षरनित्यामन्त्रः
तारो माया वाग्भवान्ते
नित्यक्लिन्ने मदद्रवे ।
वाङ्माया वहिनजायान्तो मन्त्रः
पञ्चदशाक्षरः ॥ ५० ॥
तार (ॐ),
माया (ह्रीँ), वाग्भव (ऐं), इसके बाद 'नित्यक्लिन्ने', मदद्रवे
वाड्, (ऐं) माया (ह्रीँ) स्वाहा' यह
त्वरिता के पञ्चदशाक्षर मन्त्र का उद्धार कहा गया ।। ५० ।।
द्वाभ्यां द्वाभ्यां पुनर्द्वाभ्यां
द्वाभ्यां पञ्चभिरक्षरैः ।
वाचं विना
समस्तेनाप्यङ्गषट्कमथाचरेत् ॥ ५१ ॥
इसमें दो अक्षर से हृदय,
दो अक्षर से शिर, दो अक्षर से शिखा, दो अक्षर से कवच और पाँच अक्षर से नेत्रद्वय इस प्रकार कुल १३ बीजाक्षरों
से पञ्चाङ्गन्यास कर पुनः समस्त मन्त्र से अस्त्र न्यास करे । इस षडङ्गन्यास में
दो बीजाक्षरों को छोड़ देवे ॥ ५१ ॥
द्वीपं त्रिकोणं विपुलं
सुरद्रुममनोहरम् ।
कूजत्कोकिलनादाढ्यं मन्दं
मारुतसेवितम् ॥ ५२ ॥
भृङ्गपुष्पलताकीर्णमुद्यच्चन्द्रदिवाकरम्
।
स्मृत्वा सुराब्धिमध्यस्थं
तस्मिन्माणिक्यमण्डपे ॥ ५३ ॥
क्षीराब्धि के मध्य में
त्रिकोणात्मक द्वीप है, उसमें कल्पवृक्षों
का उद्यान है, जहाँ निरन्तर कोकिलों का शब्द होता रहता है
मन्द मन्द हवा चलती रहती है, भौरे निरन्तर गुञ्जार करते हैं।
वह उद्यान पुष्पित लताओं से परिपूर्ण है। वहाँ सूर्य और चन्द्रमा निरन्तर उदित
रहते हैं ।। ५२-५३ ।।
रत्नसिंहासने न्यस्ते त्रिकोणोज्ज्वलार्णिके
।
पद्मे सञ्चिन्तयेद्देवीं
साक्षात्त्रैलोक्यमोहिनीम् ॥ ५४ ॥
ऐसे क्षीर समुद्र के मध्य में
कलवृक्षों से पूर्ण उद्यान में माणिक्यमण्डप के नीचे रत्नसिंहासन पर स्थित
त्रिकोणात्मक पद्म के त्रिकोण युक्त उज्ज्वल कर्णिका में आसीन साक्षात् त्रैलोक्यमोहिनी
देवी का ध्यान करे।।५४।।
नित्याध्यानम् ।
पुरश्चरणादिकथनम्
नित्यां भजेद् बालशशाङ्कचूडां
पाशाङ्कुशौ कल्पलतां कपालम् ।
हस्तैर्वहन्तीमरुणां
त्रिनेत्रामास्फालयन्तीं कलवल्लकीं ताम् ॥ ५५ ॥
जो त्रैलोक्य मोहिनी देवी अपने भाल
प्रदेश में नवोदित द्वितीया का चन्द्रमा धारण किये हुये हैं,
अपने चार हाथों में पाश, अंकुश, कल्पलता एवं कपाल धारण की है जिनके शरीर का वर्ण रक्त है, तथा जो तीन नेत्रों से युक्त है और अपने शेष दो हाथों से वीणा बजा रही हैं
(यहाँ पर देवी के छ हाथों का वर्णन किया गया है) ।। ५५ ॥
त्रिलक्षं प्रजपेन्मन्त्रमाज्येन
जुहुयात्ततः ।
दशांशं पूजयेत्पीठं चतुः
शक्तिसमन्वितम् ॥ ५६ ॥
उपर्युक्त मन्त्र का तीन लाख जप करे
। तदनन्तर दशांश घृत से होम करे पुनः आगे कहीं जाने वाली चार शक्तियों से पीठ का
पूजन करे। तीन शक्तियों का ईशानादि कोण में तथा एक का मध्य में पूजन करे ।। ५६ ।।
पूर्वी द्रावण वामां शम्भुकोणे
समर्चयेत् ।
आह्लादकारिणीं
ज्येष्ठामीङ्काराद्यां हुताशने ॥ ५७ ॥
पूजयेत् क्षोभिणीं
रौद्रीमूङ्काराद्यां निशाचरे ।
मध्ये (वायौ) यजेद् गुह्यशक्तिं
वाग्भवाद्यां विचक्षणः ॥ ५८ ॥
त्रिकोण पीठ के ईशान कोण में आं
पूर्वक द्राविणी शब्द से युक्त वामा का पूजन करे (आं द्राविण्यै वामायै नमः)
अग्निकोण में 'ई' आह्लादकारिण्यै
ज्येष्ठायै नमः' से ज्येष्ठा का पूजन करे, ॐ क्षोभिण्यै रौद्र्यै नमः से नैर्ऋत्य कोण में रौद्री का पूजन करे तथा
मध्य में 'ऐं गुह्य शक्त्यै नमः' से
गुह्य शक्ति का पूजन करे ।। ५७-५८ ॥
मायाद्यमासनं दत्त्वा मृर्त्तिं
मूलेन कल्पयेत् ।
अत्र सम्पूजयेद्देवीं
वक्ष्यमाणक्रमेण तु ॥ ५९ ॥
तदनन्तर माया मन्त्र से युक्त 'सर्वशक्त्यात्मने नम:' इस मन्त्र से आसन देकर मूल
मन्त्र द्वारा देवी का आवाहन करे । पुनः आगे कही जाने वाली विधि से त्वरिता देवी
का पूजन करे ।। ५९ ।।
अङ्गार्चनं केसरेषु दलेष्वेताः
समर्चयेत् ।
आद्या नित्या सुभद्राऽन्या मङ्गला
नरवीरिणी ॥ ६० ॥
सुभगा दुर्भगा भूयः सप्तमी
स्यान्मनोन्मनी ।
अष्टमी रुद्ररूपा च वीणावादनतत्पराः
॥ ६१ ॥
केशरों पर अङ्गों की पूजा करे। दल
पर वक्ष्यमाण आठ देवियों की पूजा करे । प्रथमा १. नित्या,
२. सुभद्रा, ३. मङ्गला, ४.
नरवीरिणी, ५. सुभगा, ६. दुर्भगा,
७. मनोन्मनी और ८. रुद्रा- ये उन आठ शक्तियों के नाम हैं। ये सभी
शक्तियाँ वीणा बजाने में तत्पर हैं ।। ६०-६१ ॥
रक्ता मनोरमा दूत्यः सुवेषा
मदमन्थराः ।
आद्यन्तयुग्मरहिताः स्वराः
क्लीबविवर्जिताः ॥ ६२ ॥
सभी भगवती त्वरिता की दूती स्वरूपा
हैं,
सभी शरीर से रक्तवर्ण और मनोहर हैं, सुन्दर
सुवेष युक्त तथा काम के मद से अलसाई हैं । स्वरों के दो आदि (अ आ ) दो अन्त (अं
अ:) तथा नपुंसक वर्ण (ऋ ऋ लृ लु) इस प्रकार कुल आठ स्वरों को छोड़कर शेष आठ स्वरों
पर बिन्दु लगाने से इनका मंन्त्र हो जाता है। यथा - 'इं
आद्यायै नित्यायै नमः' इत्यादि ।। ६२ ॥
बिन्दून्ता
मनवस्तासामनङ्गस्मरमन्मथाः ।
कामो मारश्च
पञ्चेषुपाशाङ्कुशधनुर्भृतः ॥ ६३ ॥
तदनन्तर अष्टदल के चारों ओर अनङ्ग,
स्मर, मन्मथ, काम तथा
मार इन पाँचों की पूजा करे । ये सभी पञ्चबाण, पाश, अंकुश, तथा धनुष अपने हाथों में धारण की हैं ।। ६३ ॥
अपराङ्गनिषङ्गाढ्या रक्ताः पूज्याः
सुभूषणाः ।
मान्मथं व्योमसर्गाढ्यं तेषां
बीजमुदाहृतम् ॥ ६४॥
सभी की पीठ पर तरकस हैं,
सभी के शरीर का वर्ण रक्त है सभी सुन्दर वेष से युक्त हैं । मन्मथ
(काम बीज 'क्लीं) तथा विसर्गान्त हकार (हः) इनका बीज कहा गया
है-इनकी भी पूजा करनी चाहिए ।। ६४ ।।
रतिः स्याद्विरतिः
प्रीतिर्विप्रीतिर्मतिदुर्मती ।
धृतिश्च
विधृतिस्तुष्टिर्वितुष्टिश्च दश स्मृताः ॥ ६५ ॥
रक्ता वीणाकरा द्वे द्वे कामानां
पार्श्वयोः स्थिताः ।
सर्वाभरणसम्पन्नाः पूज्याः
स्मेरमुखाम्बुजाः ॥ ६६ ॥
रति, विरति, प्रीति, विप्रीति,
मति, दुर्मति, धृति,
विधृति, तुष्टि तथा वितुष्टि ये दश काम की
पत्नियाँ हैं। ये दो-दो के क्रम से पाँचों कामों (द्र. १०.६३) के पार्श्व में
स्थित रहने वाली हैं। सभी अपने अपने पतियों में अनुरक्त हैं और हाथों में वीणा
धारण की हुई हैं। सब प्रकार के आभूषणों से भूषित और मन्द मन्द हास्य से युक्त हैं
। काम के पार्श्व में इन कामपत्नियों की पूजा करे ।। ६५-६६ ।।
क्लीबौष्ठद्वयनिर्मुक्तखराढ्यश्चतुराननः
।
बिन्दुमान् बीजमेतासां
क्रमाल्लोकेश्वरान् बहिः ॥ ६७ ॥
चार क्लीव स्वर (ऋ ॠ ऌ ॡ) तथा दो
ओष्ठस्वर (ए ऐ) इनको छोड़कर शेष दश स्वर उनसे युक्त चतुरानन जकार (जं जां जिं जीं
जुं जूं जों जौं जं जः ) यही कामदेव पत्नियों के पूजन के बीज मन्त्र हैं। इनकी
पूजा के अनन्तर बाहरी भाग में लोकपालों की पूजा करे ।। ६७ ।।
एवं संपूजयेद्देवीं देवानामपि
दुर्लभाम् ।
परमैश्वर्यमाप्नोति प्रार्थ्यते
वनिताजनैः ॥ ६८ ॥
इस प्रकार जो त्वरिता देवी का पूजन
करता है वह देव दुर्लभ ऐश्वर्य तो प्राप्त करता ही है,
वनिता जनों से भी पूजित होता है ॥ ६८ ॥
त्वरितामन्त्रान्तरम् ।
ऋष्यादिकथनम्
वाग्भवं मान्मथं बीजं नित्यक्लिन्ने
मदौ पुनः ।
द्रवे वहिनवधूमन्त्रो
द्वादशार्णोऽयमीरितः ॥ ६९ ॥
त्वरिता का अन्य मन्त्र - वाग्भव
(ऐं),
मान्मथ बीज (क्लीं), नित्यक्लिन्ने, मदद्रवे पद वनिवधू (स्वाहा) इस प्रकार द्वादश अक्षरों का त्वरिता मन्त्र
का उद्धार कहा गया । इसका स्वरूप- 'ऐं क्लीं नित्यक्लिन्ने
मदद्रवे स्वाहा' होगा ।। ६९ ।।
ऋषिः सम्मोहनश्छन्दो निवृन्नित्या च
देवता ।
वाचा कृत्वा षडङ्गानि नित्यां
ध्यायेन्निजेष्टदाम् ॥ ७० ॥
इस मन्त्र के सम्मोहन ऋषि हैं निवृत
छन्द है और नित्या देवता है । केवल बीज मन्त्र से षडङ्गन्यास कर तदनन्तर इष्ट
प्रदान करने वाली नित्या का इस प्रकार ध्यान करे ।। ७० ।।
त्वरिताध्यानम् ।
पुरश्चरणादिकथनम्
अर्द्धेन्दुमौलिमरुणाममराभिवन्द्या
मम्भोजपाशसृणिपूर्णकपालहस्ताम् ।
रक्ताङ्गरागवसनाभरणां त्रिनेत्रां
ध्यायेच्छिवस्य वनितां
मदविहवलाङ्गीम् ॥ ७१ ॥
जिनके भाल प्रदेश में द्वितीया का
चन्द्र शोभित हो रहा है, जिनके शरीर का वर्ण
रक्त हैं जो देवताओं के द्वारा अभिवन्दनीय हैं, जिन्होंने
अपने हाथों में कमल पाश, अंकुश और सुरापूर्ण कपाल धारण किया
है, जो रक्तवर्ण के दिव्य अङ्ग रागों एवं दिव्य वस्त्र और
आभूषणों से सुशोभित हैं ऐसी त्रिनेत्र, युवावस्था के मद से
विहवल शरीर वाली शिव पत्नी त्वरिता का मैं ध्यान करता हूँ ।। ७१ ।।
चतुर्लक्षं जपित्वाऽन्ते
मधुराक्तैर्मधूकजैः ।
कुसुमैरयुतं हुत्वा तोषयेद्
गुरुमात्मनः ॥ ७२ ॥
इस मन्त्र का चार लाख जप कर
त्रिमधुर (दूध, घी एवं मधु) मिश्रित मधूक
पुष्पों से दश हजार होम करे, पश्चात् अपने गुरु को संतुष्ट
करे ।। ७२ ।।
शक्तिपीठे यजेद्देवीं वक्ष्यमाणेन
वर्त्मना ।
अङ्गान्यर्चेद्यथापूर्वं ततः शक्तीरिमा
यजेत् ॥ ७३ ॥
नित्या निरञ्जना क्लिन्ना क्लेदिनी
मदनातुरा ।
मदद्रवा द्राविणी च
द्रविणेत्यष्टशक्तयः ॥ ७४ ॥
तदनन्तर आगे कही जाने वाली विधि के
अनुसार शक्ति पीठ पर देवी का पूजन करे । तदनन्तर पूर्ववत् अङ्गों का पूजन कर आगे
कही जाने वाली आठ शक्तियों का पूजन करे । नित्या, निरञ्जना, क्लिन्ना, क्लेदिनी,
मदनातुरा, मदद्रवा, द्राविणी
एवं द्रविणा-ये आठ शक्तियाँ हैं ।। ७३-७४ ।।
नीलोत्पलकपालाढ्यकरा
रक्ताम्बुजेक्षणाः ।
लोकपालान् यजेदन्त्ये
वाहनायुधसंयुतान् ॥ ७५ ॥
सभी के हाथों में नीलकमल एवं कपाल
है,
सभी के नेत्र लाल कमल जैसे रक्त हैं, इस
प्रकार इन आठ शक्तियों की पूजा कर अन्त में नाना प्रकार के वाहन और आयुध से
संयुक्त लोकपालों की पूजा करें ।। ७५ ।।
सिद्धमन्त्रं जपेन्मन्त्री सहस्रं
शयनस्थितः ।
यां विचिन्त्य स्त्रियं रात्रौ सा
समायाति तत्क्षणात् ॥ ७६ ॥
मन्त्रज्ञ साधक इस मन्त्र को सिद्ध
कर रात्रिकाल में जिस स्त्री का ध्यान कर शयन पर बैठे बैठे एक सहस्र इस मन्त्र का
जप करे तो वह स्त्री तत्क्षण उसके पास चली आती है ॥ ७६ ॥
वज्रप्रस्तारिणीमन्त्रः ।
ऋष्यादिकथनम्
वाङ्मायाऽनन्तरं नित्ये भूयो
क्लिन्ने मदद्रवे ।
द्विठान्तो रविसंख्यार्णो
मनुर्वश्यप्रदायकः ॥ ७७ ॥
अब त्वरिता का अन्य मन्त्र कहते
हैं- वाङ्, (ऐं) माया (ह्रीँ) तदनन्तर नित्ये
क्लिन्ने मदद्रवे' के पश्चात् स्वाहा उच्चारण करे इस प्रकार
१२ अक्षरों के मन्त्र का उद्धार कहा गया ।। ७७ ॥
अङ्गिराः स्यादृषिस्त्रिष्टुप्
छन्दो मुनिभिरीरितम् ।
वज्रप्रस्तारिणी प्रोक्ता
देवताऽभीष्टदायिनी ॥ ७८ ॥
इस मन्त्र के ऋषि अङ्गिरा हैं,
त्रिष्टुप् छन्द है और वज्रप्रस्तारिणी देवता हैं जो समस्त अभीष्ट
प्रदान करती हैं ।। ७८ ॥
वाग्भवेन षडङ्गानि विदध्यान्मन्त्रवित्तमः
।
वज्रप्रस्तारिणीं ध्यायेत्
समाहितमना ततः ॥ ७९ ॥
मन्त्रवेत्ता साधक केवल वाग्बीज
(ऐं) से षडङ्गन्यास करे। न्यास करने के पश्चात् समाहित चित्त हो वज्रप्रस्तारिणी
का इस प्रकार ध्यान करे ।। ७९ ।
वज्रप्रस्तारिणीध्यानम् ।
पुरश्चरणादिकथनम्
रक्ताब्धौ रक्तपोते
रविदलकमलाभ्यन्तरे सन्निषण्णां
रक्ताङ्गी रक्तमौलिस्फुरितशशिकलां
स्मेरवक्त्रां त्रिनेत्राम् ।
बीजापूरेषुपाशकुशमदनधनुः सत्कपालानि
हस्तै-
बिभ्राणामानताङ्गी
स्तनभरनमितामम्बिकामाश्रयामः ॥ ८० ॥
अम्बिका भगवती का ध्यान
-लाल वर्ण के जल समुद्र में रक्त वर्ण के पोत पर १२ पत्तों वाले कमल के भीतर बैठी
हुई रक्तवर्णा, मस्तक पर रक्तवर्ण की शशिकला
धारण किये हुये, मन्द स्मित करने वाली, त्रिनेत्र अम्बिका भगवती का मैं आश्रय लेता हूँ। जिन्होंने अपने छः हाथों
में बीजपूर, बाण, पाश, अंकुश, इक्षुदण्ड का धनुष तथा कपाल धारण किया है और
जो स्तन भार से क्षीण कटि होने के कारण शरीर से कुछ झुकी हुई हैं उनका मैं ध्यान
करता हूँ ॥ ८० ॥
मन्त्री मन्त्र जपेल्लक्षं जपान्ते
जुहुयात्ततः ।
अयुतं राजवृक्षोत्यैर्धृतसिक्तैः
समिद्वरैः ॥ ८१ ॥
मन्त्रवेत्ता साधक उक्त मन्त्र का
एक लाख जप करे। जप के पश्चात् घी में डुबोये गये राजवृक्ष की श्रेष्ठ समिधा से दस
हजार हवन करे ।। ८१ ।।
शक्तिपीठे यजेद्देवीमरुणैः
कुसुमादिभिः ।
अङ्गानि केसरेषु स्युरर्चनीया
दलेष्विमाः ॥ ८२ ॥
पुनः शक्तिपीठ पर लाल पुष्पों से
देवी की पूजा करे। केशरों में अङ्ग पूजा कर पत्रों में नीचे लिखी देवियों की पूजा
करे ।। ८२ ॥
हृल्लेखा क्लेदिनी क्लिन्ना
क्षोभिणी मदनातुरा।
निरञ्जना रागवती सप्तमी मदनावती ॥
८३ ॥
मेखला द्राविणी पश्चाद्वेगवत्यपरा
स्मृता ।
कपालोत्पलधारिण्यः शक्तयो
रक्तविग्रहाः ॥ ८४ ॥
हल्लेखा,
क्लेदिनी, क्लिन्ना, क्षोभिणी,
मदनातुरा, निरञ्जना, रागवती,
मदनावती, मेखला, द्राविणी
और वेगवती और स्मरा इन देवियों की द्वादश पत्र पर पूजा करे। ये सभी शक्तियाँ कपाल
एवं रक्तवर्ण का कमल धारण की हुई हैं एवं सभी के शरीर का वर्ण रक्त है ।। ८३-८४ ।।
मातरो दिग्विदिवर्च्याः पुनः पूज्या
दिगीश्वराः ।
भजेन्मन्त्री मनुं
नित्यमर्चनादिभिरादरात् ॥ ८५ ॥
इसके बाद द्वादश पत्र के बाहर चारों
दिशाओं और चारों कोनों में अष्ट मातृगणों की पूजा करे। उसके भी बाहर अस्त्र वाहन
सहित लोकपालों की पूजा करें । इस प्रकार मन्त्रवेत्ता साधक आदरपूर्वक आवरणों की
पूजा कर मन्त्र का मनन करता रहे ॥ ८५ ॥
दारिद्र्यरोगनिर्मुक्तः स
जीवेच्छरदां शतम् ।
अस्मिन्मन्त्रे रतो मन्त्री
वशयेदखिलं जगत् ॥ ८६ ॥
इस प्रकार का अनुष्ठान करने वाला
साधक दारिद्र्य एवं रोग से विमुक्त हो जाता है और सैकड़ों वर्ष पर्यन्त जीवन लाभ
करता है। इस मन्त्र का अनुष्ठान करने वाला साधक सारे जगत् को अपने वश में कर लेता
है ॥ ८६ ॥
नित्यं मन्त्रैर्बुधः कुर्यान्मुख
क्षालनमन्वहम् ।
अञ्जनं तिलकं पुण्यं
धारयेन्मन्त्रितं सुधीः ॥ ८७ ॥
ताम्बूलं मन्त्रितं
भक्ष्येन्मन्त्री स स्याज्जगत्प्रियः ।
बुद्धिमान् साधक इसी मन्त्र से
प्रतिदिन मुख प्रक्षालन करे । किं बहुना अञ्जन तिलक तथा सभी पुण्य कार्य इसी
मन्त्र से निरन्तर अभिमन्त्रित कर करे । यदि साधक मन्त्र से अभिमन्त्रित ताम्बूल
का भक्षण करे तो वह सारे जगत् का प्रिय बन जाता है ॥। ८७-८८ ।।
त्रैपुटमन्त्रः
श्रीमायामदनैः प्रोक्तो मन्त्री
बीजत्रयात्मकः ॥ ८८ ॥
अब त्रैपुट मन्त्र का उद्धार कहते
हैं श्री (श्रीँ) माया (ह्रीँ) मदन (क्लीं) यह तीन बीजात्मक मन्त्र त्रैपुट कहा
जाता है ॥ ८८ ॥
ऋषिः सम्मोहनश्छन्दो गायत्री देवता
मनोः ।
त्रिपुटाख्याद्विरुक्तैस्तैर्बीजैरङ्गानि
षट् क्रमात् ॥ ८९ ॥
इस मन्त्र के ऋषि सम्मोहन हैं,
गायत्री छन्द हैं तथा त्रिपुटा इसकी देवता हैं। इन मन्त्रों को दो
दो बार आवृत्ति कर षडङ्गन्यास करे।।८९।।
पारिजातवने रम्ये मण्डपे
मणिकुट्टिमे ।
रत्नसिंहासने सौम्ये पद्मे
षट्कोणशोभिते ।
अधस्तात् कल्पवृक्षस्य निषण्णां
देवतां स्मरेत् ॥ ९० ॥
अब त्रिपुटा के ध्यान का प्रकार
कहते हैं- पारिजात वन के मध्य में स्थित मण्डप में कल्पवृक्ष के नीचे मणिकुट्टिम
युक्त रत्नसिंहासन पर षट्कोण शोभित पद्म पर विराजमान भगवती त्रिपुटा का ध्यान करना
चाहिए ।। ९० ।।
ऋष्यादिकथनम् । ध्यानम्
चापं पाशाम्बुजसरसिजान्यङ्कुशं
पुष्पबाणान्
बिभ्राणां तां करसरसिजै रत्नमौलिं
त्रिनेत्राम् ।
हेमाब्जाभां कुचभरनतां
रत्नमञ्जीरकाञ्ची-
ग्रैवेयाद्यैर्विलसिततनुं
भावयेच्छक्तिमाद्याम् ॥ ९१ ॥
जिन त्रिपुटा देवी के कमल सदृश
हाथों में इक्षु का धनुष, पाश, जल में उत्पन्न कमल समूह, अंकुश तथा पुष्पबाण
सुशोभित हो रहे हैं। मस्तक पर रत्नजटित किरीट है, तीन
नेत्रों वाली हैं, जिनके शरीर की कान्ति सुवर्ण के समान
देदीप्यमान हो रही है, जो कुचों के भार से झुकी हुई हैं,
जिनकी मञ्जीर और काञ्ची रत्नजटित है, जिनका
शरीर ग्रैवेयक (गले का आभूषण) से उल्लसित है, ऐसी आद्या
शक्ति का ध्यान करना चाहिए ।। ९१ ।।
चामरादर्शताम्बूलकरण्डकसमुद्गकान् ।
वहन्तीभिः कुचार्ताभिर्दूतीभिः
परिवारिताम् ।
करुणामृतवर्षिण्या पश्यन्तीं साधकं
दृशा ॥ ९२ ॥
जो चामर,
आदर्श (दर्पण), ताम्बूल करण्डक (पानदान) तथा
इत्रादि की बन्द शीशी लिये हुये (कुचार्त) सेविकाओं से घिरी हुई हैं और जो अपने
करुणामृतवर्षिणी दृष्टि से अपने साधक की ओर निहार रही हैं ऐसी भगवती का ध्यान करना
चाहिए ।। ९२ ।।
पुरश्चरणादिकथनम्
भानुलक्षं जपेदेनं मनुं तावत्सहस्रकम्
।
बिल्वारग्वधसम्भूतैर्मधुराक्तैः
समिद्वरैः ॥ ९३ ॥
जवापुष्पैश्च जुहुयात्तोषयेद्वसुना गुरुम्
।
हल्लेखाविहिते पीठे पूजयेत्तां
विधानतः ॥ ९४ ॥
इस मन्त्र का बारह लाख जप करना
चाहिए और त्रिमधुर (पय, घृत, मधु) में डुबोई गई विल्व तथा राजवृक्ष की लकड़ी से जवा पुष्प के द्वारा
उतने लाख होम करे, गुरु को दक्षिणा से संतुष्ट करे और
हल्लेखा (ह्रीँ) से विहित पीठ पर विधान पूर्वक त्रिपुरा का पूजन करे ।। ९३-९४ ।।
आग्नेयादिषट्कोणेषु लक्ष्म्याद्याः
परिपूजयेत् ।
लक्ष्मी हेमप्रभां तन्वीं
सवराब्जयुगाभयाम् ॥ ९५ ॥
चक्रशङ्खगदाम्भोजधरं हेमनिभं हरिम्
।
आसन के आग्नेयादि षट्कोणों में
लक्ष्मी आदि शक्तियों की पूजा करे । लक्ष्मी के शरीर की कान्ति सुवर्ण के समान हैं
जो सूक्ष्म कटि से युक्त है और हाथों में वर-कमल का जोड़ा तथा अभय धारण की हुई हैं
इसी प्रकार चक्र, शङ्ख, गदा एवं कमल धारण करने वाले श्री हरि की अग्निकोण में पूजा करे ।। ९५-९६
।।
पाशाङ्कुशाभयाभीष्टधरां गौरीं
जवारुणाम् ॥ ९६ ॥
मृगटङ्काभयाभीष्टधरं स्वर्णनिभं
हरम् ।
नीलोत्पलकरां सौम्यां रतिं
काञ्चनसन्निभाम् ॥ ९७ ॥
धृतपाशाङ्कुशेष्वासपुष्पेषुमरुणं
स्मरम् ।
तदनन्तर नैर्ऋत्य में पाश अंकुश अभय
तथा वर मुद्रा धारण करने वाली, जवा पुष्प के
समान वर्ण वाली गौरी और मृग, टंक (परशु) अभय, तथा वरमुद्रा धारण किये हुये स्वर्ण के समान आभा वाले हर का पूजन करे ।
तदनन्तर नील कमल धारण करने वाली, काञ्चन वर्णा, अत्यन्त सौम्य स्वभाव वाली, रति एवं पाश, अंकुश, धनुष तथा पुष्प बाण धारण करने वाले, अरुण वर्ण काम की पूजा करे ।। ९६-९८ ।
पूर्ववन्निधियुग्मं तद्यजेदुभयपार्श्वयोः
॥ ९८ ॥
उसके दोनों पार्श्व भाग में
पूर्ववत् शङ्खनिधि और पद्मनिधि की उनके शक्तियों सहित पूजा करे (द्र. ८. १३,
१४) ।। ९८ ।।
बहिरङ्गानि सम्पूज्य पूज्याः
पत्रेषु मातरः ।
लोकेशान् वनितारूपानर्चयेत्
सौम्यविग्रहान् ॥ ९९ ॥
इसके बाद बाहर अङ्गो की पूजा कर
पत्रों पर अष्टमातृकाओं का पूजन करे। पुनः उसके बाहर स्त्री रूप धारण किये हुये
सौम्यस्वरूप लोकपालों का पूजन करे ।। ९९ ।।
इत्थं यः पूजयेद्देवीं नित्यं
भक्तिसमन्वितः ।
सम्प्राप्य कवितां दिव्यां प्राप्य
लक्ष्मीमनन्तराम् ॥ १०० ॥
सौभाग्यमतुलं लब्ध्वा विहरेत्
सुचिरं भुवि ।
जो साधक इस प्रकार भक्तियुक्त हो
भगवती त्रिपुटा का पूजन करता है, वह दिव्य
कविता और महालक्ष्मी इन दोनों विभूतियों को प्राप्त कर अतुलनीय सौभाग्य से युक्त
हो पृथ्वी में चिरकाल पर्यन्त बिहार करता है ।। १००-१०१ ।।
अश्वारूढामन्त्रः
पाशाङ्कुशपुटा शक्तिझिण्टीशो गगनं
सदृक् ॥ १०१ ॥
विमर्श
- इस मन्त्र मे वाग्भव का फल कवित्व है, महा
श्री बीज का फल अनन्त लक्ष्मी की संप्राप्ति है तथा कामबीज का फल अनन्त सौभाग्य
सम्पन्न समझना चाहिए ।। १०१ ॥
परमेश्वरिशब्दान्ते द्विठान्तः
प्रणवादिकः ।
अश्वारूढामनुः
प्रोक्तस्त्रयोदशभिरक्षरैः ॥ १०२ ॥
अब अश्वारूढा मन्त्र का उद्धार
कहते हैं—पाश (आं), अंकुश (क्रों), इससे
संयुक्त शक्ति (ह्रीँ), झिण्टीश (ए), सदृक्
इकार सहित गगन (हि), तदनन्तर 'परमेश्वरि'
पद, उसके बाद द्विठान्त ( स्वाहा ) तथा इस
मन्त्र के आदि में प्रणव (ॐकार) लगावे । इस प्रकार १३ अक्षरों का अश्वारूढा मन्त्र
का उद्धार कहा गया । इसका स्वरूप इस प्रकार है- 'ॐ आँ क्रों
ह्रीँ एहि परमेश्वरि स्वाहा' (१३) ॥ १०२ ॥
द्वाभ्यामेकेन चैकेन द्वाभ्यां
पञ्चभिरक्षरैः ।
द्वाभ्यामङ्गानि षट् कुर्यात्ततो
देवीं विचिन्तयेत् ॥ १०३ ॥
दो अक्षर,
एक अक्षर, पुनः एक अक्षर, दो अक्षर इसके बाद पाँच अक्षर तदनन्तर दो अक्षरों से षडङ्गन्यास करे । फिर
साधक को देवी का इस प्रकार ध्यान करना चाहिए ।। १०३ ।।
अश्वारूढाध्यानम्
पुरश्चरणादिकथनम्
रक्तामश्वाधिरूढां शशधरशकलां
बद्धमौलिं त्रिनेत्रां
पाशेनाबध्य साध्यां स्मरशरविवशां
दक्षिणेनानयन्तीम् ।
हस्तेनाऽन्येन वेत्रं वरकनकमयं
धारयन्तीं मनोज्ञां
देवीं ध्यायेदजस्त्रं कुचभरनमितां
दिव्यहाराभिरामाम् ॥ १०४ ॥
देवी का ध्यान - जिनके शरीर की आभा
रक्तवर्ण है, जो घोड़े की पीठ पर आरूढ़ हैं,
जिनके भालस्थ मुकुट में चन्द्रकला आबद्ध है, जिनके
तीन नेत्र हैं, जो अपने दाहिने हाथ से अपने साधक के लिये
साध्यभूता स्त्री को काम से विवश कर एवं उसके कण्ठ को पाश से बाँधकर ले आ रही हैं
और बायें हाथ में सोने का वेत्र दण्ड धारण की हैं ऐसी कुचभार से विनम्र दिव्यहार
से सुशोभित, सर्वथा मनोज्ञ अश्वारूढ़ा देवी का निरन्तर ध्यान
करना चाहिए ।। १०४ ॥
बाणलक्षं जपेन्मन्त्रमाज्येनाऽन्ते
जितेन्द्रियः ।
दशांशं जुहुयादेवीं शक्तिपीठे
समर्चयेत् ॥ १०५ ॥
पाशादित्र्यक्षरोक्तेन विधानेन
समाहितः ।
आज्याढ्यान्नहुतान्मन्त्री लभते
वाञ्छितं फलम् ॥ १०६ ॥
लवणैर्मधुसंसिक्तैर्होमेन
वशयेन्नृपान् ।
तेनैव विधिना मन्त्री
वशयेद्वनितामपि ॥ १०७ ॥
जितेन्द्रिय हो इस अश्वारूढा मन्त्र
का पाँच लाख जप करे, तदनन्तर उसका दशांश
घी की आहुति देवे । पुनश्च शक्ति पीठ में उनका अर्चन करे । मन्त्रज्ञ साधक समाहित
चित्त से केवल पाशादि त्र्यक्षर (आं क्रों ह्रीँ) मन्त्र से आज्य मिश्रित अन्न की
आहुति दे तो वह अपना मनोरथ प्राप्त करता है । लवण अथवा मधु मिश्रित अन्न की आहुति
इस मन्त्र से देकर साधक उसी विधि से पूजा करे तो वह राजा को किं बहुना स्त्री को
भी वश में कर लेता है ।।१०५-१०७।।
यन्त्रम्
आलिख्य कोष्ठानि
विकारसंख्यान्यन्तश्चतुष्के प्रणवं ससाध्यम् ।
अन्येष्वपि द्वादश मन्त्रवर्णान्
लिखेदिदं यन्त्रमशेषवश्यम् ॥१०८॥
१६ कोष्ठक का चतुष्कोण निर्माण कर
अन्त के चार कोठों में प्रणव से युक्त साध्य नाम, कार्य तथा साधक के अक्षरों को लिखे शेष १२ कोष्ठकों में इस मन्त्र के
द्वादश अक्षरों को एक एक के क्रम से लिखे, तो यह यन्त्र सभी
को वश में करने वाला होता है ।। १०८ ।।
अन्नपूर्णामन्त्रः
मायाहृद्भगवत्यन्ते माहेश्वरिपदं
वदेत् ।
अन्नपूर्णे ठयुगलं मनुः
सप्तदशाक्षरः ।
अङ्गानि मायया कुर्यात्ततो देवीं
विचिन्तयेत् ॥ १०९ ॥
अब अन्नपूर्णा का मन्त्रोद्धार
कहते हैं- माया (ह्रीँ) हृत् (नमः) तदनन्तर 'भगवति
माहेश्वरि' अन्नपूर्णे' ये तीन पद
तदनन्तर दो ठकार (स्वाहा) लिखे। इस प्रकार १७ अक्षरों का अन्नपूर्णा मन्त्र का
उद्धार कहा गया । इसका स्वरूप इस प्रकार है- 'ह्रीं नमः
भगवति माहेश्वरि अन्नपूर्णे स्वाहा' (१७ अक्षर) ।। १०९ ।।
अन्नपूर्णाध्यानम्
रक्तां विचित्रवसनां नवचन्द्रचूडा
मन्त्रप्रदाननिरतां स्तनभारनम्राम्
।
नृत्यन्तमिन्दुशकलाभरणं विलोक्य
हृष्टां भजेद्भगवतीं भवदुः
खहन्त्रीम् ॥ ११० ॥
अब अन्नपूर्णा का ध्यान कहते
हैं- जिनका शरीर रक्तवर्ण हैं जो नाना प्रकार के चित्र विचित्र वस्त्रों को धारण
की हैं,
जिनके शिखा में नवीन चन्द्रमा विराजमान है, जो
निरन्तर त्रैलोक्यवासियों को अन्न प्रदान करने में निरत हैं, स्तनभार से विनम्र, भगवान् सदाशिव को अपने सामने
नाचते देख प्रसन्न रहने वाली, संसार के समस्त पाप तापों को
दूर करने वाली भगवती अन्नपूर्णा का इस प्रकार ध्यान करना चाहिए ।। ११० ।।
पुरश्चरणादिकथनम्
यथाविधि जपेन्मन्त्रं
वसुयुग्मसहस्रकम् ।
साज्येनाऽन्नेन जुहुयात्
तद्दशांशमनन्तरम् ॥ १११ ॥
पुरश्चरण की रीति के अनुसार
अन्नपूर्णा मन्त्र का सोलह हजार जप करे और इसके बाद उसका दशांश घी युक्त अन्न से
होम करे ।। १११ ।।
शक्तिपीठे
यजेद्देवीमङ्गलोकेश्वरायुधैः ।
प्रातरेनं जपेन्मन्त्रं
नित्यमष्टोत्तरं शतम् ॥ ११२ ॥
एतस्याऽन्नसमृद्धिः स्याच्छ्रिया सह
महीयसी ।
शक्ति पीठ पर अङ्ग,
वाहन एवं आयुध सहित लोकेश्वरों के साथ देवी का पूजन करे और प्रातः
काल प्रतिदिन १०८ बार इस अन्नपूर्णा मन्त्र का जप करे तो लक्ष्मी के साथ उसे महान्
अन्नराशि की उपलब्धि होती है।।११२।।
पद्मावतीमन्त्रः
माया पद्मावतिपदं ततः पावकवल्लभा ॥
११३ ॥
सप्तार्णो मनुराख्यातः
सर्ववश्यप्रदायकः ।
अङ्गानि मायया कुर्यात् ध्यायेत्
त्रैलोक्यमोहिनीम् ॥ ११४ ॥
अब पद्मावती मन्त्र का उद्धार कहते
हैं-माया (ह्रीँ), उसके बाद 'पद्मावति' यह पद, तदनन्तर 'स्वाहा' लगावे । इस प्रकार सात अक्षरों वाले
पद्मावती मन्त्र का उद्धार कहा गया । सात अक्षरों वाला यह पद्मावती मन्त्र
सर्ववश्यकारी है। माया मन्त्र से षडङ्गन्यास कर त्रैलोक्यमोहिनी पद्मावती का इस
प्रकार ध्यान करे ।। ११३- ११४ ।।
पद्मावतीध्यानम्
पद्मासनस्थां करपङ्कजाभ्यां
रक्तोत्पले संदधतीं त्रिनेत्राम् ।
आबिभ्रतीमाभरणानि रक्तां पद्मावतीं
पद्ममुखीं भजामि ॥ ११५ ॥
पद्मवती का ध्यान - जो पद्मासन पर
विराजमान हैं, अपने दोनों करकमलों में
रक्तवर्ण का एक एक कमल धारण की हैं, जिनके तीन नेत्र है,
जो सभी प्रकार के आभरणों से विभूषित हैं तथा रक्त वर्ण वाली हैं—ऐसी पद्ममुखी पद्मावती का मैं भजन करता हूँ ।। ११५ ।।
पुरश्चरणादिकथनम् ।
यन्त्रम्
पक्षलक्षं जपेन्मन्त्रं दशांशं
जुहुयाद् घृतैः ।
शक्तिपीठे यजेद्देवीमङ्गाद्यावरणैः
सह ॥ ११६ ॥
दो लाख पद्मावती मन्त्र का जप करे
और उसका दशांश घी से होम करे तदनन्तर शक्ति पीठ पर अङ्गादि आवरणों के साथ देवी का
पूजन करे ।। ११६ ।।
किञ्जल्केष्वङ्गपूजा स्यात् पूज्याः
पत्रेषु मातरः ।
लोकपाला बहिः पूज्यास्तदस्त्राणि
ततो बहिः ॥ ११७ ॥
केशरों पर अङ्गपूजा,
पत्रों पर मातृकाओं की पूजा करे । इसके पश्चात् बाहर लोकपालों की और
उसके भी बाहर उनके अस्त्रों की पूजा करे ।। ११७ ॥
इत्थं यो भजते मन्त्रं
जपहोमार्चनादिभिः ।
सुभगः सर्वनारीणां भवेत् काम इवापरः
॥ ११८ ॥
इस प्रकार जो साधक पद्मावती का जप
होम तथा अर्चन द्वारा सेवा करता है वह सभी स्त्रियों को दूसरे काम के समान सुन्दर
दिखाई पड़ता है ।। ११८ ।।
पद्मावतीमन्त्रमाह
षडस्त्रमध्ये प्रविलिख्य शक्तिं
कोणेषु शिष्टानि षडक्षराणि ।
तद्बाह्यतो मातृकयाऽभिवीतं
पद्मावतीयन्त्रमिदं प्रशस्तम् ॥११९॥
षट्कोण का निर्माण कर उसके मध्य में
शक्ति (ह्रीं) लिखे पश्चात् कोणों में पद्मावती मन्त्र के शेष अक्षरों को लिखें
उसके बाहर चारों ओर मातृका के ५१ अक्षरों को लिख कर घेर देवे तो यह पद्मावती
यन्त्र नितरां प्रशस्त कहा जाता है ।। ११९ ।।
अमठन्यासः
तारं शिरसि विन्यस्य देवीं
सञ्चिन्त्य भारतीम् ।
शक्तिबीजं न्यसेद्भाले संस्मृत्य
भुवनेश्वरीम् ॥ १२० ॥
अमसौ नेत्रयोर्न्यस्येत् ध्यात्वा
सूर्यं हुताशनम् ।
मुखवृत्तेन विन्यस्येट्टान्तं
चन्द्रमनुस्मरन् ॥ १२१ ॥
जिह्वायां विन्यसेद्बीजं रमायास्तां
विचिन्तयन् ।
स्वाहार्णौ गण्डयोर्न्यस्येत्
तद्गजेन्द्रधिया सुधीः ॥ १२२ ॥
भारती का ध्यान करते हुये प्रणव से
शिर पर न्यास करे । पुनः भुवनेश्वरी का ध्यान कर शक्तिबीज से ललाटपट्ट पर न्यास
करे सूर्य एवं अग्नि का ध्यान कर अँ अः से दोनों नेत्रों पर न्यास करे,
पुनः चन्द्रमा का स्मरण करते हुये 'ठ' से मुखवृत्त पर न्यास करे । पुनः महालक्ष्मी का ध्यान करते हुये लक्ष्मी
बीज (श्री) से जिह्वा पर न्यास करे। इसके पश्चात् लक्ष्मी के दो गजेन्द्र का ध्यान
करते हुये 'स्वाहा' मन्त्र से दोनों
गण्डस्थलों पर न्यास करना चाहिए ।। १२०-१२२ ।।
अमठं न्यासमाख्यातं कुर्वन्
प्रतिदिनं नरः ।
कीर्त्तिश्रीकान्तिमेधानां वल्लभो
भवति ध्रुवम् ॥ १२३ ॥
ऊपर कहे गये न्यास को अमठन्यास कहते
हैं जो मनुष्य प्रतिदिन इस न्यास का आचरण करता है वह कीर्त्ति श्री कान्ति तथा
मेधा का निश्चित रूप से प्रिय पात्र हो जाता है ।। १२३ ।।
॥ इति श्रीलक्ष्मणदेशिकेन्द्रविरचिते
शारदातिलके दशमः पटलः समाप्तः ॥ १० ॥
॥ इस प्रकार शारदातिलक के दसवें पटल
की डॉ० सुधाकर मालवीय कृत हिन्दी व्याख्या पूर्ण हुई ॥ १० ॥
आगे जारी........ शारदातिलक पटल 11

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