पूजन विधि, ज्योतिष, स्तोत्र संग्रह, व्रत कथाएँ, मुहूर्त, पुजन सामाग्री आदि

शारदातिलक पटल ९

शारदातिलक पटल ९      

शारदातिलक पटल ९ भुवनेश्वरीप्रकरण है। इस पटल में भुवनेशी पूजा यन्त्र, भुवनेश्वरी मन्त्रोद्धार एवं उनके ध्यानादि तथा पुरश्चरणादि का कथन है।

शारदातिलक पटल ९

शारदातिलक पटल ९      

Sharada tilak patal 9

शारदातिलकम् नवमः पटल:

शारदातिलकतन्त्रम् (प्रथमो भागः )

शारदा तिलक तन्त्र नौवाँ पटल

शारदातिलकम्

नवम पटल

अथ नवमः पटल:

अथ भुवनेश्वरीप्रकरणम्

अथ वक्ष्ये जगद्धात्रीमधुना भुवनेश्वरीम् ।

ब्रह्मादयोऽपि यां ज्ञात्वा लेभिरे श्रियमूर्जिताम् ॥ १ ॥

ग्रन्थकार सरस्वती तथा महाश्री के मन्त्रों को कह कर अब दश महाविद्यान्तर्गत होने से भुवनेश्वरी मन्त्र के कहने का उपक्रम करते हैं-

अब मैं समस्त जगद् की धात्री उन भुवनेश्वरी का वर्णन करता हूँ, ब्रह्मादि देवताओं ने जिन्हें जान कर अत्यन्त जाज्वल्यमान श्री की प्राप्ति की थी।

विमर्श - भुवनेश्वरी का मन्त्र त्र्यक्षर है किन्तु शास्त्रों में इसके अनेक भेद प्राप्त होते हैं, जैसे वाक्पुटित, वाक् श्रीपुटित, श्रीकामपुटित, कामश्रीपुटित आदि, इसे स्वयं ग्रन्थकार आगे कहेंगें । इसी प्रकार भुवनेश्वरी मन्त्र के कामपुटित, श्रीवाक्पुटित, वाक् कामपुटित तथा कामवाक्पुटित-ये ४ भेद और हैं, जिसे साधक स्वयं ज्ञात करें ।। १ ।।

भुवनेश्वरीमन्त्रोद्धारः

नकुलीशोऽग्निमारूढो वामनेत्रार्द्धचन्द्रवान् ।

बीजं तस्या यथाख्यातं सेवितं सिद्धिकाङ्क्षिभिः ॥ २ ॥

अब मन्त्र के उद्धार का प्रकार कहते हैं-नकुलीश (हकार) अग्नि पर आरूढ़ (रेफ से संयुक्त) बाईं ओर अर्धनेत्र (ईकार) तथा अर्धचन्द्र (बिन्दु) यह भुवनेश्वरी मन्त्र का बीज कहा गया । सिद्धि चाहने वाले लोगों से पूर्वकाल से ही यह सेवित रहा है । इस प्रकार इसका स्वरूप 'ह्रीं' हुआ ।। २ ।।

ऋष्यादिकथनम्

ऋषिः शक्तिर्भवेच्छन्दो गायत्री देवता मनोः ।

कथिता स्वरसङ्घन सेविता भुवनेश्वरी ॥ ३ ॥

इस मन्त्र के वशिष्ठ पुत्र शक्ति ऋषि हैं, गायत्री छन्द है, स्वर (ई) शक्ति हैं तथा 'हं' बीज है तथा भुवनेश्वरी देवता हैं ।। ३ ।।

षड्दीर्घयुक्तबीजेन कुर्यादङ्गानि षट् क्रमात् ।

संहारसृष्टिमार्गेण मातृकान्यस्तविग्रहः ॥ ४ ॥

षट्दीर्घ (आं ई ऊँ ऐं औँ अँ) से युक्त बीज हकार से षडङ्गन्यास करना चाहिए । तद् यथा ह्रां हृदयाय नमः इति हृदये, ह्रीं नमः शिरसे स्वाहा इति शिरसि' इत्यादि । इस न्यास के पहले साधक को मातृका वर्णों द्वारा संहार तथा सृष्टिमार्ग द्वारा न्यास कर लेना चाहिए ।। ४ ।।

मन्त्रन्यासः

मन्त्रन्यासं ततः कुर्याद् देवताभावसिद्धये ।

हृल्लेखां मूर्ध्नि वदने गगनां हृदयाम्बुजे ॥ ५ ॥

रक्तां करालिकां गुह्ये महोच्छुष्मां पदद्वये ।

ऊर्ध्वप्राग्दक्षिणोदीच्यपश्चिमेषु मुखेषु च ॥ ६ ॥

सद्यादिह्रस्वबीजान्या न्यस्तव्याः भूतसप्रभाः ।

अङ्गानि विन्यसेत् पश्चाज्जातियुक्तानि षट् क्रमात् ॥ ७ ॥

इसके अनन्तर साधक को अपने में देवता भाव की सिद्धि के लिये मन्त्र देवता से न्यास करना चाहिए उसका क्रम इस प्रकार है- हृल्लेखायै नमः मूर्ध्नि, गगनायै नमः वदने, रक्तायै नमः हृदये, करालिकायै नमः गुह्ये, महोच्छुष्मायै नमः, पदद्वये । इस प्रकार न्यास करने के पश्चात् अपने में पञ्चमुख की भावना करते हुये, ऊपर, पूर्व, दक्षिण, उत्तर तथा पश्चिम मुखों में भी ओंकारादि हस्व से युक्त बीज मन्त्र से न्यास करे । ओं, , , इ अं पाँच ह्रस्व हैं इनसे युक्त बीज 'ह्रां ह्रूं ह्रिं ह्रं हुआ । अत: इन्हीं से ऊर्ध्वमुखादि का ध्यान कर हृदय में न्यास करे । इसके बाद पञ्चभूत के समान कान्ति वाली (द्र. १. २१-२२) हृल्लेखा, गगना, रक्ता, करालिका तथा महोच्छुष्मा रूप शक्तियों से उन मुखों पर न्यास करे । इसके पश्चात् पूर्वोक्त स्वजाति युक्त अङ्ग मन्त्रों से अङ्गन्यास करना चाहिए ।। ५-७ ।

योनिन्यासः

ब्रह्माणं विन्यसेद् भाले गायत्र्या सह संयुतम् ।

सावित्र्या संयुतं विष्णुं कपोले दक्षिणे न्यसेत् ॥ ८ ॥

वागीश्वर्या समायुक्तं वामगण्डे महेश्वरम् ।

श्रिया धनपतिं न्यस्येद् वामकर्णाग्रके पुनः ॥ ९ ॥

रत्या स्मरं मुखे न्यस्य पुष्ट्या गणपतिं न्यसेत् ।

सव्यकर्णोपरि निधी कर्णगण्डान्तरालयोः ॥ १० ॥

न्यस्तव्यौ वदने मूलं भूयश्चैतांस्तनौ न्यसेत् ।

कण्ठमूले स्तनद्वन्द्वे वामांसे हृदयाम्बुजे ॥ ११ ॥

सव्यांसे पार्श्वयुगले नाभिदेशे च देशिकः ।

भालांसपार्श्वजठरे पावसापरके हृदि ॥ १२ ॥

ब्रह्माण्याद्यास्ततो न्यस्या विधिना प्रोक्तलक्षणाः ।

मूलेन व्यापकं देहे न्यस्य देवीं विचिन्तयेत् ॥ १३ ॥

गायत्री सहित ब्रह्मदेव को उनके बीज मन्त्रों से युक्त कर मस्तक में न्यास करना चाहिए ।

अब गायत्री आदि का बीज मन्त्र कहते हैं- हाँ गायत्री का, हीं सावित्री का, तथा हूँ वागीश्वरी का बीज मन्त्र है । इसी प्रकार हं हिं हुँ, ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश्वर का बीज मन्त्र है । उसका प्रयोग इस प्रकार करे- हाँ गायत्री सहिताय हं ब्रह्मणे नमः इति भाले, हीं सावित्री सहिताय हिं विष्णवे नमः इति कपोले, हूँ वागीश्वरी सहिताय हुँ महेश्वराय नमः वामगण्डे । इसी प्रकार बीजयुक्त श्री के सहित बीजयुक्त कुबेर का वामकर्ण में, रति युक्त काम से मुख में, पुष्टि के सहित गणपति से दाहिने कान पर बीज और शक्ति सहित शङ्ख निधि तथा बीज शक्ति सहित पद्मनिधि से दोनों कान तथा गण्ड के बीच भाग में न्यास कर मुख में मूल मन्त्र का न्यास करे । पुनः ऊपर कहे गये शक्ति सहित ब्रह्मा से लेकर मूल मन्त्र पर्यन्त अथवा केवल भुवनेश्वरी (ह्रीं) मन्त्र से शरीर के कण्ठमूल, दोनों स्तन, वामांस, हृत्कमल, दाहिना कन्धा, दोनों पार्श्व तथा नाभि इन स्थानों में न्यास करे। इसके बाद आचार्य भाल, अंस, पार्श्वभाग, जठर, अपर पार्श्व और ऊपर अंस तथा हृदय में पूर्व में कही गयी विधि के अनुसार ब्रह्मादि देवताओं का न्यास कर मूल मन्त्र से व्यापक करते हुये देवी का इस प्रकार से ध्यान करे ।

विमर्श - उपर्युक्त सभी शक्ति सहित देवताओं का आगे चल कर ९. २३-३३ में स्पष्टीकरण हो जायगा ।। ८-१३ ॥

भुवनेशीध्यानम् । पुरश्चरणादिकथनम्

उद्यद्दिनद्युतिमिन्दुकिरीटां तुङ्गकुचां नयनत्रययुक्ताम् ।

स्मेरमुखीं वरदाङ्कुशपाशाभीतिकरां प्रभजेत् भुवनेशीम् ॥१४॥

उदीयमान सूर्य के समान प्रकाश युक्त चन्द्रकिरीट वाली, उत्तुङ्गस्तनो एवं तीन नेत्रों वाली भुवनेश्वरी का भजन करना चाहिए, जिनके मुख प्रदेश पर मन्द मन्द स्मित शोभित है तथा जिन्होंने अपने हाथों में वर अंकुश पाश तथा अभय मुद्रा धारण किया है ।। १४ ।।

प्रजपेन्मन्त्रविन्मन्त्र द्वात्रिंशल्लक्षमानतः ।

त्रिस्वादुयुक्तैर्जुहुयादष्टद्रव्यैर्दशांशतः ॥ १५ ॥

इस प्रकार ध्यान करने के पश्चात् मन्त्रवेत्ता उपर्युक्त मन्त्र का ३२ लाख जप करे तथा त्रिमधुर (दूध, घी, मधु) युक्त अष्टद्रव्यों (द्र. ६. ७२) से उसका दशांश हवन करे ।

विमर्श - आद्यशक्ति का प्रतिपादक यह मन्त्र हरिहरात्मक तथा प्रकृति पुरुषात्मक है इसलिये इनका नाम भुवनेशी है, ऐसे भगवती के माहात्म्य का भी मन में ध्यान रखे ।। १५ ।।

भुवनेशीपूजायन्त्रम् । पूजाविधिः

दद्यादर्घ्यं दिनेशाय तत्र सञ्चिन्त्य पार्वतीम् ।

पद्ममष्टदलं बाह्ये वृत्तं षोडशभिर्दलैः ॥ १६ ॥

होम करने के पश्चात् सूर्यमण्डल में पार्वती का ध्यान करते हुये सूर्यार्ध्य प्रदान करे। पश्चात् अन्तर्याग कर पूजा के लिये यन्त्र निर्माण करे ।

विमर्श - भुवनेश्वरी सौरी शक्ति हैं अतः इनकी उपासना में अर्धदान का विधान प्रधानत्वेन निर्देश किया गया है। इससे यह बात सूचित होती है कि जिस देवता का मन्त्रजप तथा होम करे, उस देवता का सूर्य में ध्यान करते हुये अर्घ्य भी देवे।

अब यन्त्र के निर्माण का प्रकार कहते हैं-अष्टदल कमल बनाकर उसके बाहर षोडशदल युक्त वृत्त का निर्माण करे ।। १६ ।

विलिखेत् कर्णिकामध्ये षट्कोणमतिसुन्दरम् ।

ततः संपूजयेत् पीठं नवशक्तिसमन्वितम् ॥ १७ ॥

पुनः कर्णिका के मध्य में अत्यन्त मनोहर समकोण युक्त षट्कोण लिखे । उस पर नवों शक्तियों से युक्त पीठ (आसन) का पूजन करे ।। १७ ।।

जयाख्या विजया पश्चादजिता चाऽपराजिता ।

नित्या विलासिनी दोग्ध्री अघोरा मङ्गला नव ॥ १८ ॥

अब इन नव शक्तियों के नाम को कहते हैं- १. जया, २. विजया, ३. अजिता, ४. अपराजिता, ५. नित्या, ६. विलासिनी, ७. दोग्ध्री, ८. अघोरा और ९. मङ्गला - ये नव शक्तियाँ हैं ।। १८ ।।

बीजाद्यमासनं दत्वा मूर्त्तिं तेनैव कल्पयेत् ।

तस्यां संपूजयेदेवीमावाह्यावरणैः सह ॥ १९ ॥

अब पीठ मन्त्र का उद्धार कहते हैं-मूल बीज (ह्रीं) का उच्चारण कर पश्चात् 'कमलासनाय नमः' उच्चारण कर आसन देवे और उसी मन्त्र से मूर्ति की कल्पना भी करे । इस प्रकार से पूजित पीठ पर आवरणों के सहित देवी का पूजन करे ।। १९।।

पीठमन्त्रः

मध्यप्राग्याम्यसौम्येषु पश्चिमेषु यथाक्रमम् ।

हृल्लेखाद्याः समभ्यर्च्याः पञ्चभूतसमप्रभाः ॥ २० ॥

यन्त्र के मध्य, पूर्व, दक्षिण, उत्तर तथा पश्चिम में पञ्चमहाभूतों के जैसे वर्ण वाली हल्लेखा आदि (द्र. ९ ५-६) पञ्चशक्तियों का पूजन करे ।। २० ।।

अङ्गदेवताध्यानम्

वरपाशाङ्कुशाभीतिधारिण्योमितभूषणाः ।

स्थानेषु पूर्वमुक्तेषु पूजयेदङ्गदेवताः ॥ २१ ॥

ये सभी शक्तियाँ अपने हाथों में वर, पाश, अंकुश तथा अभय धारण की हैं । तदनन्तर पूर्व में कहे गये (द्र. ४. ११०) अग्नि, नैर्ऋत्य, वायव्य तथा ईशान कोण रूप स्थानों में अङ्ग देवता का पूजन करे ॥ २१ ॥

षट्कोणेषु यजेन्मन्त्री पश्चान्मिथुनदेवताः ।

इन्द्रकोणे लसद्दण्डकुण्डिकाक्षगुणाभयाम् ॥ २२ ॥

गायत्री पूजयेन्मन्त्री ब्रह्माणमपि तादृशम् ।

इसके अनन्तर मन्त्रज्ञ साधक षटकोण में ऊपर के कोण से प्रारम्भ कर नीचे के कोणों तक मिथुन देवता का इस प्रकार पूजन करे। ऊपर इन्द्रकोण में दण्ड, कुण्डिका, माला तथा अभय हाथों में धारण करने वाली गायत्री तथा इसी प्रकार अपने हाथों में उक्त पदार्थों को धारण करने वाले ब्रह्मदेव का पूजन करे ।। २२-२३ ।।

रक्षः कोणे शङ्खचक्रगदापङ्कजधारिणीम् ॥ २३ ॥

सावित्रीं पीतवसनां यजेद्विष्णुञ्च तादृशम् ।

नैर्ऋत्य कोण में अपने हाथों में शङ्ख, चक्र, गदा तथा पद्म धारण करने वाली पीतवसना सावित्री एवं उसी प्रकार के विष्णु का पूजन करे ।। २३-२४ ।।

वायुकोणे परश्वक्षमालाभयवरान्विताम् ॥ २४ ॥

यजेत् सरस्वतीमित्थं रुद्रं तादृशलक्षणम् ।

पुनः वायु कोण में परशु अक्षमाला, अभय तथा वर धारण करने वाली सरस्वती तथा उसी प्रकार के रुद्र का पूजन करे ।। २४-२५ ।।

वहिनकोणे यजेद्रत्नकुम्भं मणिकरण्डकम् ॥ २५ ॥

कराभ्यां बिभ्रतं पीतं तुन्दिलं धननायकम् ।

आलिङ्ग्य सव्यहस्तेन वामेनाम्बुजधारिणीम् ॥ २६ ॥

धनदाङ्कसमारूढां महालक्ष्मीं प्रपूजयेत् ।

आग्नेयकोण में रत्न कुम्भ तथा मणि का बना हुआ पिटारा अपने दोनों हाथों में लिये हुये, पीत शरीर एवं तुन्दिल कुबेर तथा दाहिने हाथ से उनका आलिङ्गन किये बायें हाथ में कमल धारण करने वाली, कुबेर की गोद में बैठी हुई महालक्ष्मी का पूजन करे ।। २५-२७ ।।

वारुणे मदनं वाणपाशाङ्कुशशरासनम् ॥ २७ ॥

धारयन्तं जवारक्तं पूजयेद्रत्नभूषणाम् ।

सव्येन पतिमाश्लिष्य वामेनोत्पलधारिणीम् ॥ २८ ॥

पाणिना रमणाङ्कस्थां रतिं सम्यक् समर्चयेत् ।

पुनः पश्चिम में बाण पाश, अंकुश तथा शरासन हाथों में धारण किये, जवा के समान रक्तवर्ण वाले रत्नाभूषणों से भूषित कामदेव तथा दाहिने हाथ से पति का आलिङ्गन किये बायें हाथ में कमल धारण करने वाली अपने पति के गोद में विराजमान रति का भी सम्यक् पूजन करे ।। २७-२९ ।।

ऐशाने पूजयेत् सम्यग्विघ्नराजं प्रियान्वितम् ॥ २९ ॥

सृणिपाशधरं कान्तावराङ्गस्पृक्कराङ्गुलिम् ।

माध्वीपूर्णकपालाढ्य विघ्नराज दिगम्बरम् ॥ ३० ॥

पुष्करे विगलद्रलस्फुरच्चषकधारिणम् ।

सिन्दूरसदृशाकारामुद्दाममदविभ्रमाम् ॥ ३१ ॥

धृतरक्तोत्पलामन्यपाणिना तु ध्वजस्पृशम् ।

आश्लिष्टकान्तामरुणां पुष्टिमर्चेदिगम्बराम् ॥ ३२ ॥

पुनः ईशानकोण में अपनी प्रिया पुष्टि के साथ स्थित विघ्नराज गणेश का पूजन करे। अंकुश और पाश धारण किये अपनी अङ्गुलियों से स्त्री के वराङ्ग का स्पर्श किये हुये माध्वीक पूर्ण कपाल हाथों में लिये दिगम्बर विघ्नराज गणेश जो पुष्कर (कुम्भ) से निकले हुये रत्नों को चषक (पान पात्र) में धारण कर रहे हैं इस प्रकार के गणपति तथा सिन्दूर के सदृश आकार वाली, मद के कारण उत्कट विलासों से युक्त, हाथ में कमल धारण किये, ध्वज (लिङ्ग) का स्पर्श किये पति का आलिङ्गन करने वाली दिगम्बरा पुष्टि का अर्चन करे ॥ २९-३२ ॥

कर्णिकायां निधी पूज्यौ षट्कोणस्याऽथ पार्श्वयोः ।

अङ्गानि केसरेष्वेताः पश्चात् पत्रेषु पूजयेत् ॥ ३३ ॥

अनङ्गकुसुमा पश्चादनङ्गकुसुमातुरा ।

अनङ्गमदना तद्वदनङ्गमदनातुरा ॥ ३४ ॥

भुवनपाला गगनवेगा चैव ततः परम् ।

शशिरेखाऽथ गगनरेखा चेत्यष्ट शक्तयः ॥ ३५ ॥

तदनन्तर कर्णिका में शङ्ख निधि तथा पद्मनिधि का शक्ति समेत (द्र. ८. १३-१७) पूजन करे । षट्कोण के पार्श्वभाग में अनङ्ग कुसुमादि आठ अङ्गदेवता की तदनन्तर केशर और पत्रों में देवी गणों की पूजा करे। उनके नाम इस प्रकार हैं- १. अनङ्गकुसुमा, २. अनङ्गमातुरा, ३. अनङ्गमदना, ४. अनङ्गमदनातुरा, ५. भुवनपाला, ६. गगनवेगा, ७. शशिरेखा तथा ८. गगनरेखा- ये क्रमशः ८ शक्तियाँ हैं ।। ३३-३५ ॥

पाशाङ्कुशवराभीतिधारिण्योऽरुणविग्रहाः ।

ततः षोडशपत्रेषु कराली विकराल्युमा ॥ ३६ ॥

सरस्वती श्रीदुर्गाषा लक्ष्मीश्रुत्यौ स्मृतिर्धृतिः ।

श्रद्धा मेधा मतिः कान्तिरार्या षोडश शक्तयः ॥ ३७ ॥

ये सभी अपने हाथों में पाश, अंकुश, वर तथा अभय धारण की हैं सभी का शरीर रक्तवर्ण है । इस प्रकार अष्टशक्तियों का पूजन कर इसके पश्चात् षोडश पत्रों पर कराली, विकराली, उमा, सरस्वती, श्री, दुर्गा, उषा, लक्ष्मी, श्रुति, स्मृति, धृति, श्रद्धा, मेधा, मति, कान्ति और आर्या-इन १६ शक्तियों का पूजन करे ।। ३६-३७ ।।

खड्गखेटकधारिण्यः श्यामाः पूज्याश्च मातरः ।

पद्माद् बहिः समभ्यर्च्याः शक्तय: परिचारिकाः ॥ ३८ ॥

ये सभी अपने हाथों में खड्ग एवं खेटक धारण की हैं, सभी का शरीर श्याम वर्ण है इसके पश्चात् पद्म से बाहर वक्ष्यमाण मातृगणों की पूजा करे और उसके भी बाहर परिचारिकाओं की भी आठों दिशाओं में पूजा करनी चाहिए ।।३८।।

प्रथमाऽनङ्गरूपा स्यादनङ्गमदना ततः ।

मदनातुरा भुवनवेगा भुवनपालिका ॥ ३९ ॥

स्यात् सर्वशिशिरानङ्गवेदनाऽनङ्गमेखला ।

चषकं तालवृन्तञ्च ताम्बूलं छत्रमुज्ज्वलम् ॥ ४० ॥

चामरे चांशुकं पुष्पं बिभ्राणा करपङ्कजैः ।

सर्वाभरणसन्दीप्तान् लोकपालान् बहिर्यजेत् ॥ ४१ ॥

वज्रादीन्यपि तद्बाह्य देवीमित्थं प्रपूजयेत् ।

पूज्यते सकलैर्देवैः किं पुनर्मनुजोत्तमैः ॥ ४२ ॥

अब मातृकाओं का नाम कहते हैं- १. अनङ्गरूपा, २. अनङ्गमदना, ३. मदनातुरा, ४. भुवनवेगा, ५. भुवनपालिका, ६. सर्वशिशिरा, ७. अनङ्गवेदना एवं ८. अनङ्गमेखला -ये ८ मातृकायें हैं और अपने हाथों में क्रमशः चषक, ताड़ का पंखा, ताम्बूल, श्वेतच्छत्र, दो चामर, वस्त्र तथा पुष्प अपने कमलवत् हाथों में धारण की हैं। इसके बाद उसके भी बाहर लोकपालों की पूजा करे। उसके भी बाहर लोकपालों के वज्रादि आयुधों की पूजा करे । जो साधक इस प्रकार से भुवनेश्वरी का पूजन करते हैं वे देवताओं से भी पूजित होते हैं। फिर मनुष्यों की तो बात ही क्या ? ।। ३९-४२ ।।

मन्त्री त्रिमधुरोपेतैर्हुत्वाऽश्वत्थसमिद्वरैः ।

ब्राह्मणान् वशयेच्छीघ्रं पार्थिवान् पद्महोमतः ॥ ४३ ॥

मन्त्रज्ञ साधक त्रिमधुर (पय, मधु, आज्य) मिश्रित अश्वत्थ (पीपल) की समिधा से भुवनेश्वरी के मन्त्रों द्वारा दस हजार संख्या में होम करे तो वह ब्राह्मणों को शीघ्र वश में कर लेता है, यदि कमल पुष्प से उतनी ही संख्या में होम करे तो राजा को भी वश में कर लेता है ।। ४३ ॥

पलाशपुष्पैस्तत्पत्नीर्मन्त्रिणं कुमुदैरपि ।

पञ्चविंशतिसञ्जप्तैर्जलैः स्नानं दिने दिने ॥ ४४ ॥

आत्मानमभिषिञ्चेद् यः सर्वसौभाग्यवान् भवेत् ।

पलाश पुष्प से दस हजार होम करने पर राजपत्नी को और कुमुद द्वारा उतनी ही संख्या में होम करने से राजमन्त्री को भी वश में कर सकता है। भुवनेश्वरी के मन्त्रों से २५ बार अभिमन्त्रित जल से जो प्रतिदिन स्नान के पश्चात् अपना अभिषेक करता है वह सर्वापेक्षया अधिक सौभाग्यवान् होता है ।।४४-४५।।

पञ्चविंशतिसञ्जप्तं जलं प्रातः पिबेन्नरः ॥ ४५ ॥

अवाप्य महतीं प्रज्ञां कवीनामग्रणीर्भवेत् ।

कर्पूरागुरुसंयुक्तं कुङ्कुमं साधु साधितम् ॥ ४६ ॥

गृहीत्वा तिलकं कुर्याद्राजवश्यमनुत्तमम् ।

यदि मनुष्य भुवनेश्वरी मन्त्र से २५ बार अभिमन्त्रित जल को प्रातः काल में प्रतिदिन पान करता रहे तो वह बहुत बड़ा प्रतिभाशाली होकर कवियों में अग्रगण्य होता है। कपूर, अगुरु तथा केशर को अच्छी तरह घिस कर इस मन्त्र से १०८ बार अभिमन्त्रित कर यदि मस्तक में तिलक करे तो राजा क्या सम्राट् को भी अपने वश में कर सकता है।।४५-४७।।

शालिपिष्टमयीं कृत्वा पुत्तलीं मधुरान्विताम् ॥ ४७ ॥

जप्तां प्रतिष्ठितप्राणां भक्षयेद्रविवासरे ।

वशं नयति राजानं नारीं वा नरमेव वा ॥ ४८ ॥

साधक रविवार के दिन मधु, आज्य, दूध से मिश्रित चावल के पिष्ट की १२ अङ्गुल लम्बी देवी की पुतली निर्माण करे उसमें भुवनेश्वरी के मन्त्रों द्वारा प्राण प्रतिष्ठा करे और उसे हाथ में ले कर १०८ बार जप कर, दाहिने पैर के अँगूठे से प्रारम्भ कर बायें हाथ के अंगूठे पर्यन्त भोजन करे तो वह पुरुष राजा अथवा नारी अथवा मनुष्य सबको वश में कर सकता है ।। ४७-४८ ।।

कण्ठमात्रोदके स्थित्वा वीक्ष्य तोयगतं रविम् ।

त्रिसहस्रं जपेन्मन्त्रमिष्टां कन्यां लभेन्नरः ।

अन्नं तन्मन्त्रितं मन्त्री भुञ्जीत श्रीप्रसिद्धये ॥ ४९ ॥

मनुष्य यदि कण्ठमात्र जल में स्थित हो जल में सूर्य का प्रतिबिम्ब देखते हुए प्रतिदिन तीन सहस्र भुवनेश्वरी मन्त्र का जप करे तो वह अपने अनुकूल जैसी कन्या चाहे वैसी प्राप्त कर सकता है ।। ४९ ।।

लिखित्वा भस्मना मायां ससाध्यां फलकादिषु ।

तत्काले दर्शयेद्यन्त्रं सुखं सूयेत गर्भिणी ॥ ५० ॥

काष्ठ के फलक अथवा भूर्ज पत्रादि पर गोबर के भस्म से अथवा पुत्र चाहता हो तो पलाश भस्म से माया युक्त साध्य (ह्रीँ अमुक नाम्न्याः गर्भिण्याः प्रसवं कुरु कुरु) अक्षरों को लिखकर वह यन्त्र गर्भिणी को दिखावे तो गर्भिणी सुखपूर्वक प्रसव करती है ।। ५० ।।

त्रिगुणितयन्त्रम्

शक्त्यन्तः स्थितसाध्यकर्म भवने वहनेर्वृतं शक्तिभि-

र्बाह्ये कोणगते युतं हरिहरैर्वर्णैः कपोलार्पितैः ।

पश्चात्तैः पुनरींयुतैर्लिपिभिरप्यावीतमिष्टार्थदं

यन्त्रं भूपुरमध्यगं त्रिगुणितं सौभाग्यसम्पत्प्रदम् ॥ ५१ ॥

षड्गुणितयन्त्रम्

बीजान्तः स्थितसाध्यनाम शरशो मायारमामन्मथै-

र्वीतं वह्निपुरद्वये रसपुटेष्वाख्याढ्यबीजत्रयम् ।

सात्मानात्मकमीशिखं हरिहरैराबद्धगण्डं बहिः

षड्बीजैरनुबद्धसन्धिलिपिभिर्वीतं गृहाभ्यां भुवः ॥ ५२ ॥

चिन्तामणिनृसिंहाभ्यां लसत्कोणमिदं लिखेत् ।

यन्त्रं षड्गुणितं दिव्यं वहतां सर्वसिद्धिदम् ॥ ५३ ॥

अब भुवनेश्वरी के त्रिगुणित नामक यन्त्र बनाने का प्रकार कहते हैं- त्रिकोण यन्त्र के ऊपर के आगे भाग में शक्ति के बीज अक्षर हर और ईं के मध्य में साध्य तथा साधक दोनों का नाम लिखें 'जैसे देवदत्तस्य' यज्ञदत्तं वशं कुरु कुरु' इसमें साध्य में द्वितीयान्त तथा साधक को षष्ठयन्त कर इस प्रकार लिखना चाहिए । जिसमें ह के भाग में साध्य नाम तदनन्तर (साधक नाम के बाद '' मन्त्र हो) बीजाक्षर के मध्य में साध्य साधक नाम इसी प्रकार घटित करे । पुनः त्रिकोण के अग्रभाग वाले कोण में तीन शक्ति (ह्रीँ ह्रीँ ह्रीँ) लिखे और उसके दोनों पाश्र्व में एक ओर हरिवर्ण लिखे और दूसरी ओर हर वर्ण लिखे । तदनन्तर त्रिकोण के मध्यभाग को ई ई इस वर्ण से आवृत करे। इस प्रकार भूपुर के मध्य में रहने वाला यह त्रिगुणित नामक यन्त्र अभिलषित वस्तुओं को तो प्रदान करता ही है सौभाग्य तथा संपत्ति भी देता है ।। ५१ ।।

अब षड्गुणित यन्त्र कहते हैं-दो संपुटित त्रिकोण परस्पर भिन्न षट्कोण बनाकर पूर्ववत् (द्र. ९. ५१) बीज अक्षरों के बीच साध्य तथा साधक का नाम लिखे । तदनन्तर षट्कोण के मध्य में पाँच माया बीज, एक बार पुनः उसके ही भीतर पाँच श्री बीज, द्वितीय बार पुनः उसी के बीच पाँच कामबीज, तीसरी बार बीज लिख कर वेष्टित करे। इस प्रकार १५ बीजाक्षरों का एक वेष्ठन निष्पन्न करे । तदनन्तर दोनों अग्निकोण के दोनों षट्कोणों के मध्य में साध्य के साधक तथा उनके कर्मों को लिख कर शक्ति (ह्रीं) श्री तथा काम बीजों से आवेष्टित करे अर्थात् एक एक षट्कोणों को साध्य साधक तथा कर्म को शक्ति, श्री एवं कामबीज से आवेष्टित करे। इसी प्रकार दूसरे भी षट्कोण को आवृत करे। यहाँ पर विशेषता यह है कि प्रत्येक साध्य साधक तथा कर्माक्षरों को एक बार सबिन्दुक लिखें, तथा दूसरी बार उन्हीं अक्षरों को सविसर्ग लिखे । तदनन्तर उनमें प्रत्येक के दोनों भागों को हरि एवं हर वर्ण से बाँध देवें । कोणों के छः सन्धि स्थलों को ६ बीजाक्षरों से बाँध देवे । भूपुर से उसे वेष्टित कर देवें ।

तदनन्तर दिशाओं के कोणो में नृसिंह मन्त्र तथा विदिक् कोणो में चिन्तामणी मन्त्र लिखे । जो इस प्रकार षड्गुणित इस यन्त्र को धारण करता है, उसे सिद्धि प्राप्त होती है ।। ५३ ।।

द्वादशगुणितयन्त्रम्

बीजं व्याहृतिभिर्वृतं गृहयुगद्वन्द्वे वसोः कोणगं

दौर्गं बीजमनन्तरं लिपियुगैराबद्धगण्डं लिखेत् ।

गायत्र्या रविशक्तिबद्धविवरं त्रिष्टुब्वृतं तत्ततो

वीतं मातृकया धरापुरयुगे सत्सिंहचिन्तामणिम् ॥ ५४ ॥

अब द्वादशगुणित भुवनेश्वरी यन्त्र के निर्माण की विधि कहते हैं-

सर्वप्रथम शास्त्रीय रीति से द्वादशकोण बनाकर शक्ति बीज के मध्य में साध्य साधक तथा उसके कर्मों को ऊर्ध्वाय कोण में लिखे (द्र. ९. ५१) और उसे विलोम व्याहृतियों द्वारा संपुटित करे । पुनः द्वादश १२ कोणों में दुर्गा के बीज (द्र) को लिखकर प्रत्येक कोण के अग्र भाग में '' लिखे । पुनः उनके दोनों पार्श्वभाग में अलग-अलग गायत्री के दो-दो अक्षरों को विलोम क्रम से लिखे (ण्यम् को णि यम करने से २४ अक्षरों की पूर्ति होती है) । तदनन्तर कोणाग्र के बाहर स्थापित बारह शक्ति बीजों को लिखकर कोष्ठों को बन्द कर देवे ।। ५४ ।।

यन्त्रं दिनेशगुणितं प्रोक्तं रक्षाप्रसिद्धिदम् ।

सर्वसौभाग्यजननं सर्वशत्रुनिवारणम् ॥ ५५ ॥

यह द्वादश गुणित यन्त्र धारण करने वालों की रक्षा तो करता ही है, प्रसिद्धि भी प्रदान करता है । यह यन्त्र समस्त सौभाग्यों का जनक तथा समस्त शत्रुओं से बचाने वाला है ।। ५५ ।।

पुत्रप्रदयन्त्रम्

लिखेत् सरोजं रसपत्रयुक्तं

मध्ये दलेष्वप्यभिलिख्य मायाम् ।

स्वरावृतं यन्त्रमिदं वधूनां

पुत्रप्रदं भूमिगृहान्तरस्थम् ॥ ५६ ॥

अब अन्य यन्त्र का उद्धार कहते हैं- षड्दल युक्त एक कमल लिखे ।

तदनन्तर मध्य में तथा षट्कमलों पर इस प्रकार सात स्थानों में साध्य (साध्य का नाम तथा कार्य) के सहित माया (ई) लिखे, पुनः उसे अकार से आरम्भ कर विसर्ग पर्यन्त स्वराक्षरों को चारों ओर भूपुर में लिख कर घेर देवे। इस प्रकार का यन्त्र यदि गर्भिणी धारण करे तो वह पुत्र प्राप्त करती है ।। ५६ ।।

वश्यकरयन्त्रम्

षट्कोणमध्ये प्रविलिख्य शक्तिं

कोणेषु तामेव विलिख्य भूयः ।

ससाध्यगर्भं वसुधापुरस्थं

यन्त्रं भवेद्वश्यकरं नराणाम् ॥ ५७ ॥

अब अन्य यन्त्र कहते हैंषट्कोण के मध्य में शक्ति (ह्रीँ) लिखे, इसी प्रकार अन्य कोणों में भी शक्तिमन्त्र लिखे । भूपुर के सात स्थानों में साध्यनाम तथा कार्य लिखे । इस प्रकार का यह यन्त्र मनुष्यों का वशीकरण करने वाला होता है ।। ५७ ।।

त्रिबीजात्मकमन्त्रः

वाग्भवं शम्भुवनिता रमाबीजत्रयात्मकम् ।

मन्त्रं समुद्धरेन्मन्त्री त्रिवर्गफलसाधनम् ॥ ५८ ॥

अब अन्य मन्त्र कहते हैं-वाग्भव (ऐं) शम्भुबनिता (ह्रीँ) तथा रमा बीज (श्री) इस प्रकार से यह तीन बीज मन्त्र का उद्धार कहा गया। मन्त्रज्ञ यदि इस मन्त्र का जप करे तो उसे त्रिवर्ग धर्म, अर्थ और काम की प्राप्ति होती है ॥५८॥

षड्दीर्घभाजा मध्येन वाग्भवाद्येन कल्पयेत् ।

षडङ्गानि मनोरस्य जातियुक्तानि मन्त्रवित् ।

कुर्यात् पूर्वोदितान्नयासान् तथैवात्रापि साधकः ॥ ५९ ॥

वाग्भव (ऐं) संपुटित क्रमशः छः दीर्घ युक्त ह वर्ण जो मध्य (हृत्) से युक्त हो बीज मन्त्र से क्रमश: हृदयादि न्यास करे । तदनन्तर उसी प्रकार पूर्व में कहे गये अन्य न्यासों को करे ।

इसका स्वरूप - 'ऐं ह्रां हृत् ऐं ह्रीं शिरः' इति हृदये, इसी प्रकार 'ऐं ह्रीँ हृत् ऐं ह्रीँ शिर:' इति शिरसि इत्यादि ।। ५९ ।

परामम्बिकाध्यानम् । पुरश्चरणादिकथनम्

सिन्दूरारुणविग्रहां त्रिनयनां माणिक्यमौलिस्फुर-

तारानायकशेखरां स्मितमुखीमापीनवक्षोरुहाम् ।

पाणिभ्यां मणिरत्नपूर्णचषकं रक्तोत्पलं बिभ्रतीं

सौम्यां रत्नघटस्थसव्यचरणां ध्यायेत् परामम्बिकाम् ॥ ६० ॥

अब ध्यान के लिये देवी का स्वरूप कहते हैं-

जिनके शरीर की कान्ति सिन्दूर की अरुणाई से युक्त है, जो तीन नेत्रों वाली हैं। जिनके शरीर में माणिक्य रचित आभूषण तथा मस्तकस्थ मुकुट में चन्द्रमा शोभित हो रहा है। जिनका मुख कमल मन्द मन्द हास्य से युक्त है तथा वक्षस्थल पीन हैं जो अपने दोनों हाथों में मणिरत्नपूर्ण चषक (प्याला) तथा रक्त वर्ण का कमल धारण की हुई है, ऐसी सौम्य स्वरूपा, रत्नघट पर दाहिना पैर रखे हुये परा अम्बिका का ध्यान करना चाहिए ॥ ६० ॥

रविलक्षं जपेन्मन्त्रं पायसैर्मधुरप्लुतैः ।

दशांशं जुहुयान्मन्त्री पीठे प्रागीरिते यजेत् ॥ ६१ ॥

देवीं प्रागुक्तमार्गेण गन्धाद्यैरतिशोभनैः ।

हुत्वा पलाशकुसुमैर्वाश्रियं महतीं लभेत् ॥ ६२ ॥

इस मन्त्र का बारह लाख जप करे तथा मधुरत्रय (घी, पय और मधु) मिश्रित पायस से दशांश हवन करे । पश्चात् प्रागुक्त पीठ पर देवी का मनोहर गन्धादि उपचारों से पूजन करे । तदनन्तर पुनः पलाश पुष्प से होम करे तो साधक अनन्त वाणी का ऐश्वर्य प्राप्त करता ।। ६१-६२ ।।

मन्त्रजप्तब्राह्मीघृतपानफलम्

ब्राह्मीघृतं पिबेज्जप्तं कवित्वं वत्सराद्भवेत् ।

सिद्धार्थान् लवणोपेतान् हुत्वा मन्त्री वशं नयेत् ॥ ६३ ॥

नरनारीनरपतीन्नात्र कार्या विचारणा ।

चतुरङ्गुलजैः पुष्पैश्चन्दनाम्भः समुक्षितैः ॥ ६४ ॥

हुत्वा वशीकरोत्याशु त्रैलोक्यमपि साधकः ।

जुहुयादरुणाम्भोजैरयुतं मधुराप्लुतैः ॥ ६५ ॥

राज्यश्रियमवाप्नोति सतिलैस्तण्डुलैस्तथा ।

प्रागुक्तान्यपि कर्माणि मन्त्रेणानेन साधयेत् ॥ ६६ ॥

घृत से चतुर्गुण ब्राह्मीरस में घी पका कर ब्राह्मी घृत बनावे । तदनन्तर इस मन्त्र से अभिमन्त्रित कर उस ब्राह्मी घृत का पान करे तो एक संवत्सर के मध्य में कवित्व शक्ति प्राप्त हो जाती है। सिद्धार्थ (श्वेत सर्षप) को लवण से युक्त कर साधक इस मन्त्र से हवन करे तो वह समस्त नर नारी और राजाओं को भी वश करने में सक्षम हो जाता है इसमें संदेह नहीं है।

राजवृक्ष के पुष्पों को घृष्टचन्दन के जल से मिश्रित कर होम करने से साधक त्रैलोक्य को भी वश करने में सक्षम हो जाता है। इसी प्रकार यदि साधक त्रिमधुर युक्त रक्त कमल से हवन करे अथवा तिलयुक्त तण्डुल से होम करे तो वह राज्य श्री को प्राप्त करता है, इस प्रकार से किये जाने वाले होम में इसी मन्त्र द्वारा उन सभी कार्यों को भी करे जिसे हम पहले कह आये हैं ।। ६३-६६ ।।

मन्त्रान्तरकथनम्

वाग्बीजपुटिता माया विद्येयं त्र्यक्षरी मता ।

मध्येन दीर्घयुक्तेन वाक्पुटेन प्रकल्पयेत् ॥ ६७ ॥

अङ्गानि जातियुक्तानि क्रमेण मनुवित्तमः ।

यथा पुरा समुद्दिष्टान्नयासान् कुर्वीत मन्त्रवित् ॥ ६८ ॥

अब अन्य प्रकार के भुवनेश्वरी मन्त्र को कहते हैं-

वाग्बीज से संपुटित माया त्र्यक्षरी विद्या कही जाती है। इसका स्वरूप 'ऐं ह्रीं ऐं' है । इसे वाक् संपुटित दीर्घ वर्ण युक्त ह् र् के आगे हृत् लगा कर षडङ्गन्यास करना चाहिए ।

यथा - ऐं ह्रां ऐं हृत् ऐं ह्रीं ऐं शिरः इति हृदये, इसी प्रकार ऐं ह्रीं ऐं हृत् ऐं ह्रीं ऐं शिरः इति शिरसि' इत्यादि। जैसा कि हम पूर्व में कह आये हैं (द्र. ९. ५९) उसी प्रकार से समस्त न्यासों को करना चाहिए।।६७-६८॥

भुवनेश्वरीध्यानम् । पुरश्चरणादिकथनम्

श्यामाङ्गी शशिशेखरां निजकरैर्दानं च रक्तोत्पलं

रत्नाढ्यं चषकं परं भयहरं संबिभ्रतीं शाश्वतीम् ।

मुक्ताहारलसत् पयोधरनतां नेत्रत्रयोल्लासिनीं

वन्देऽहं सुरपूजितां हरवधूं रक्तारविन्दस्थिताम् ॥ ६९ ॥

अब भुवनेश्वरी ध्यान का स्वरूप कहते हैं-

जिनका शरीर श्याम वर्ण का है, जो मस्तक में चन्द्रमा तथा अपने हाथों में वर, रक्तकमल, रत्नपूर्ण प्याला, तथा अभय धारण की हैं जो मोतियों की माला से शोभायमान स्तन प्रदेश से कुछ झुकी हुई हैं, जिनके नेत्रत्रय उल्लसित हैं ऐसी देवताओं से पूजित रक्त कमल पर आसीन शिव बधू भुवनेश्वरी की मैं वन्दना करता हूँ ।। ६९ ।।

तत्त्वलक्षं जपेन्मन्त्रं जुहुयात्तद्दशांशतः ।

पलाशपुष्पैः स्वाद्वक्तैः पुष्पैर्वा राजवृक्षजैः ॥ ७० ॥

इस मन्त्र का २५ लाख जप करे और त्रिमधुर मिश्रित पलाश पुष्प से अथवा राजवृक्ष के पुष्पों से दशांश दो लाख पचास हजार हवन करे ।। ७० ।।

हृल्लेखाविहिते पीठे पूजयेत् परमेश्वरीम् ।

मध्यादि पूजयेत् मन्त्री हृल्लेखाद्याः पुरोदिताः ॥ ७१ ॥

पुनः भुवनेश्वरी मन्त्र में कहे गये पीठ पर परमेश्वरी का पूजन करे। मन्त्रज्ञ साधक मध्य से पूजा आरम्भ कर स्व स्व बीज से संयुक्त हल्लेखा आदि पर्यन्त (द्र. ९. ५) समस्त देवियों का पूजन करे ।। ७१ ।।

मिथुनानि यजेन्मन्त्री षट्कोणेषु यथा पुरा ।

अङ्गपूजा केसरेषु पूज्याः पत्रेषु मातरः ॥ ७२ ॥

मन्त्रज्ञ, षट्कोणो में शक्तियों सहित उन उन देवताओं का ध्यान करते हुये इस प्रकार पूजा करे। केशरों में अङ्गपूजा करे तथा पत्रों पर मातृकाओं की पूजा करे ।। ७२ ।।

अङ्गावरणदेवताः । पूजाफलम्

भैरवाङ्कसमारूढाः स्मेरवक्त्रा मदालसाः ।

असिताङ्गी रुरुश्चण्डः क्रोध उन्मत्तसंज्ञकः ॥ ७३ ॥

कपाली भीषणः पश्चात् संहारी चाऽष्टभैरवाः ।

शूलं कपालं प्रेतञ्च बिभ्राणाः क्षुद्रदुन्दुभिम् ॥ ७४ ॥

ये सभी मातृकायें भैरवों के गोद में बैठी हुई मन्द मन्द हास कर रही हैं मद से अलसाई हुई हैं। असिताङ्ग, रुरु, चण्ड, क्रोध, उन्मत्त, कपाली, भीषण और संहारये ८ भैरव हैं। ये अपने हाथों में शूल, कपाल, प्रेत तथा क्षुद्र दुन्दुभी धारण किये हुये हैं ।। ७३-७४ ॥

गजत्वगम्बरा भीमाः कुटिलालकशोभिताः ।

दीर्घाद्या मातरः प्रोक्ता हस्वाद्या भैरवाः स्मृताः ॥ ७५ ॥

सभी हाथी के त्वक् गजाजिन का वस्त्र धारण किये हुये हैं महाभयानक हैं और कुञ्चित केशों से युक्त हैं। आठ दीर्घ आ ई उ ऋ लृ ऐ औ एवं अं-ये मातृकायें हैं तथा अ इ उ ऋ लृ ए ओ अं-ये ८ ह्रस्व भैरव स्वरूप हैं ।। ७५ ।।

पूज्याः षोडशपत्रेषु कराल्याद्याः पुरोदिताः ।

तद्बाह्येऽनङ्गरूपाद्याः लोकेशास्त्राणि तद्द्बहिः ॥ ७६ ॥

पुनः पत्रों पर पूर्व में कहे गये (द्र. ९. ३५-३७) कराली आदि का पूजन करे । उसके बाहर अनङ्गरूपादि (द्र. ९. ३९-४०) का, उसके बाहर इन्द्रादि लोकपालों का (द्र. ४. ११४-११५), उसके भी बाहर उनके वज्रादि (द्र. ४. ११६) का पूजन करे ।। ७६ ।।

एवमाराधयेद् देवीं शास्त्रोक्तेनैव वर्त्मना ।

वशं नयति राजानं वनिताश्च मदालसाः ॥ ७७ ॥

साधक इस प्रकार शास्त्रीय रीति से देवी की आराधना करे तो वह राजा को भी वश में कर लेता है और मद से अलसाई युवती स्त्रियों को भी वश में कर लेता है ।। ७७ ।।

मनुनाज्येन जुहुयाल्लभते वसु वाञ्छितम् ।

सुगन्धैः कुसुमैर्हृत्वा श्रियमाप्नोति वाञ्छिताम् ॥ ७८ ॥

मन्त्रेणाऽनेन संजप्तमश्नीयादन्नमन्वहम् ।

भवेदरोगी नियतं दीर्घमायुरवाप्नुयात् ॥ ७९ ॥

यदि इस मन्त्र के द्वारा घी से होम करे तो उसे वाञ्छित धन की प्राप्ति होती है । इसी प्रकार सुगन्धित फूलों से होम करे तो मनमानी लक्ष्मी प्राप्त होती हैं। इस मन्त्र से अभिमन्त्रित अन्न का प्रतिदिन भोजन करना चाहिए। ऐसा करने से पुरुष निश्चित रूप से नीरोग तथा दीर्घायु प्राप्त करता है ।। ७८-७९ ।।

पाशादित्र्यक्षरम्

अनन्तो बिन्दुसंयुक्तो माया ब्रह्माऽग्नितारवान् ।

पाशादित्र्यक्षरो मन्त्रः सर्ववश्यफलप्रदः ।

ऋष्याद्याः पूर्वमुक्ताः स्युर्बीजेनाङ्गक्रिया मता ॥ ८० ॥

अब भुवनेश्वरी का अन्य मन्त्र कहते हैं-

अनन्त (आकार), उसे बिन्दु से संयुक्त कर माया (ह्रीँ), पुनः ब्रह्मा (ककार) को अग्नी (रेफ) तार (ॐ) से युक्त कर (इस प्रकार क्रो) लिखे, इसके आदि में पाश (आँ) से आरम्भ कर अंकुश क्रों पर्यन्त कुल तीन अक्षर को लिखने से भुवनेश्वरी का मन्त्र निष्पन्न होता है।

मन्त्र का स्वरूप इस प्रकार हुआ— 'आँ ह्रीँ क्रों"। यह मन्त्र सबको वश में करने वाला है इसके ऋषि आदि पहले कहे जा चुके हैं, बीज से अङ्गन्यास करना चाहिए ॥ ८० ॥

भुवनेश्वरीध्यानम्

पुरश्चरणादिकथनम्

वराङ्कुशौ पाशमभीतिविद्यां

करैर्वहन्तीं कमलासनस्थाम् ।

बालार्ककोटिप्रतिमां त्रिनेत्रां

भजेऽहमाद्यां भुवनेश्वरीं ताम् ॥ ८१ ॥

अब भुवनेश्वरी का ध्यान कहते हैं-

जो भगवती अपने हाथों में वर, अंकुश, पाश, अभय और विद्या धारण की हुई हैं, कमलासन पर विराजमान हैं, जिनके शरीर की कान्ति करोड़ों उदीयमान सूर्य के समान है तथा जिनके तीन नेत्र हैं ऐसी आद्या भुवनेश्वरी का मैं भजन करता हूँ ।। ८१ ।।

हविष्यभुग्जपेन्मन्त्रं तत्त्वलक्षं जितेन्द्रियः ।

तत्सहस्रं प्रजुहुयाज्जपान्ते मन्त्रवित्तमः ॥ ८२ ॥

दधिक्षौद्रघृताक्ताभिः समिद्भिः क्षीरभूरुहाम् ।

तत्संख्यया तिलैः शुद्धैः जलाक्तैर्जुहुयात्ततः ॥ ८३ ॥

साधक जितेन्द्रिय होकर इस मन्त्र का २४ लाख जप करे । पुनः जप के अन्त में उतने ही सहस्र होम करे ।

होम की विधि इस प्रकार है-दही, मधु तथा घृत इन तीनों में डुबोई गई क्षीरी वृक्षों (पीपल, उदुम्बर, पाकर, बटादि) की समिधा से अथवा जल में धोकर भली प्रकार शुद्ध किये गये तिलों से होम करना चाहिए ।।८२-८३।।

हृल्लेखाविहिते पीठे नवशक्तिसमन्विते ।

अर्चयेत् परमेशानीं वक्ष्यमाणक्रमेण ताम् ॥ ८४ ॥

हृल्लेखाद्या यजेदादौ कर्णिकायां यथाविधि ।

अङ्गानि केसरेषु स्युः पत्रस्था मातरः क्रमात् ॥ ८५ ॥

इन्द्रादयः पुनः पूज्यास्तेषामस्त्राणि तद्बहिः ।

एवं संपूजयेद् देवीं साक्षाद्वैश्रवणो भवेत् ॥ ८६ ॥

पुनः भुवनेश्वरी पीठ पर नवशक्तियों के समेत आगे कही जाने वाली विधि के अनुसार उस परमेश्वरी भगवती का पूजन करे ।

यहाँ यह ध्यान देना चाहिए कि इस पूजा में पीठ का स्वरूप षट्कोण कर्णिका से युक्त अष्टदल कमल होना चाहिए, षोडश दल युक्त कमल नहीं । कर्णिका में हल्लेखादि (द्र. ९. ५-६ ) का यथाविधि पूजन करे । अङ्गों की पूजा केशरों पर करे । पत्रों में क्रमशः मातृकाओं की पूजा करे (द्र. ९. ७२-७५) इसके बाद इन्द्रादि देवताओं की पूजा करे, उसके बाहर इन्द्रादि के वज्रादि अस्त्रों की पूजा करे । जो इस प्रकार देवी का पूजन करता है वह साक्षात् कुबेर के समान धनी हो जाता है।।८४-८६।।

पूज्यते सकलैर्लोकैस्तेजसा भास्करोपमः ।

अनेनाऽधिष्ठितं गेहं निशि दीपशिखाकुलम् ॥ ८७ ॥

दृश्यते प्राणिभिः सर्वैर्मन्त्रस्याऽस्य प्रभावतः ।

सर्षपैर्लोणसंमिश्रैराज्याक्तैर्जुहुयान्निशि ॥ ८८ ॥

राजानं वशयेत् सद्यस्तत्पत्नीमपि साधकः ।

अन्नवानन्नहोमेन श्रीमान् पद्महुताद्भवेत् ॥ ८९ ॥

वह समस्त संसार से पूजित होता है और सूर्य के समान तेजस्वी हो जाता है । इस मन्त्र को यदि घर में लिख कर रखे तो वह घर दीप शिखा के समान चमकता रहता है। सभी प्राणियों से इस मन्त्र का ऐसा प्रभाव दिखाई पड़ता है । यदि इस मन्त्र के द्वारा घृत में डुबोये गये लवण युक्त संर्षपों का रात्रिकाल में हवन करे तो वह राजा को तथा रानी को सद्यः वश में कर लेता है। इस मन्त्र द्वारा होम करने से साधक अन्नवान् होता है और कमलों के होम से श्रीमान् होता है ।। ८७-८९ ।।

राजवृक्षसमुद्भूतैः पुष्पैर्हुत्वा कविर्भवेत् ।

अरोगी तिलहोमेन घृतेनायुरवाप्नुयात् ।

प्राक्प्रोक्तान्यपि कर्माणि साधयेत् साधकोत्तमः ॥ ९० ॥

तिल द्वारा होम करने से आरोग्य प्राप्त करता है, घृत द्वारा होम करने से आयु की वृद्धि होती है। इस क्रिया में उत्तम साधक को पूर्व में कहे गये सभी उपासनात्मक कर्म करने चाहिए ।। ९० ।।

घटार्गलयन्त्रम्

आलिख्याऽष्ट दिगर्गलान्युदरगं पाशादिकं त्र्यक्षरं

कोष्ठेष्वङ्गमनून् परेषु विलिखेदष्टार्ण मन्त्रद्वयम् ।

अच्पूर्वापरषट्कयुग्लयवरान् व्योमासनानर्गले-

ष्वालिख्येन्द्र जलाधिपादिगुणशः पङ्किद्वयं तत्परम् ॥ ९१ ॥

आठ आठ कोणों का दो चतुरस्र निर्माण करे। उसके आठों दिशाओं में ८ अर्गला बनाकर एक वृत्त बनावें । उसमें पाश (आं) के सहित त्र्यक्षर (ह्रीँ) लिखे । पुनः दोनों चतुरस्रों के बीच के सन्धि में वृत्त बनावे । उसके आठों कोष्ठकों के आग्नेयादि कोणों में क्रमशः हृदय, शिर, शिखा तथा कवच का मन्त्र लिखे अग्रभाग में नेत्र लिखे, दिशाओं के कोणों में अस्त्र लिखे। उसके ऊपर के आठ कोष्ठकों में पाश (आं) से युक्त श्री (श्रीँ), शक्ति (ह्रीँ), कन्दर्प (क्लीँ), काम (क्ली), शक्ति (ह्रीँ), इन्दिरा (श्रीँ) तथा अंकुश इन आठ औँ अक्षरात्मक प्रथम अष्टक को लिखे (द्र. ९. ९३) । पुनः उसके बाहर की सन्धियों में वृत्त बना कर उससे उत्पन्न ८ कोणों में 'कामिनि रञ्जिनि स्वाहा' इस दूसरे अष्टक को लिखे । इस प्रकार दोनों अष्टकमन्त्रों को लिख लेने के पश्चात् आङ्गलाओं में पूर्व पश्चिम दिशाओं के क्रम से अच् पूर्वक छः हस्व दीर्घ वर्णों से युक्त ल् यू व् र् अक्षरों से युक्त व्योमासन (हकार) वर्णा को तीन पंक्ति में लिखें ।। ९१ ।।

कोष्ठेष्वष्टयुगार्णमात्मसहितां युग्मस्वरान्तर्गतां

मायां केसरगां दलेषु विलिखेन्मूलं त्रिपङ्किक्रमात् ।

त्रिः पाशाङ्कुशवेष्टितञ्च लिपिभिर्वीतं क्रमादुत्क्रमात्

पद्मस्थेन घटेन पङ्कजमुखेनावेष्टितं तद्बहिः ॥ ९२ ॥

घटार्गलमिदं यन्त्रं मन्त्रिणां प्राभृतं मतम् ।

चतुरस्र सम्बन्ध से बने हुये आठ कोष्ठकों में अङ्ग उसके बाद वाले कोष्ठक में पाशनादि अष्टाक्षर मन्त्रों को लिखे (द्र. ९. ९३) पुनः उसके बाद वाले आठ कोष्ठकों में 'कामिनि रञ्जिनि स्वाहा' इस दूसरे अष्टक मन्त्र को लिखे (द्र. ९.९४) । तदनन्तर केसरों पर दो दो स्वरों के मध्य में आत्मा मन्त्र (हंस) से संपुटित माया 'ईं' मन्त्र लिखे (अं हंसः ईं हंसः आँ) इस प्रकार सात अक्षर प्रथम केशर पर दूसरे तीसरे आदि केशरों पर अं के स्थान पर इं तथा 'आँ' के स्थान पर ई इस प्रकार स्वरों को क्रमशः बदलते हुये लिखे । पुनः दलों पर तीन पंक्तियों में मूल मन्त्र इस प्रकार लिखे । प्रथम पक्ति पाश (आँ) अंकुश (क्रों) इससे संपुटित मूल मन्त्र लिखे । द्वितीय पङ्क्ति में अकार से लेकर क्षकारान्त वर्णों से संपुटित मूल मन्त्र लिखे । पुनः तृतीय पंक्ति में क्षकार से ले कर अकारान्त वर्णों को विलोम रूप से संपुटित कर मूल मन्त्र लिखे ।। ९२-९३ ।।

अष्टार्णमन्त्रः

पाशश्रीशक्तिकन्दर्पकामशक्तीन्दिराङ्कुशाः ॥ ९३ ॥

प्रथमोऽष्टाक्षरो मन्त्रस्ततः कामिनि रञ्जिनि ।

स्वाहान्तोऽष्टाक्षरः सद्भिरपरः कीर्त्तितो मनुः ॥ ९४ ॥

यह घटार्गल मन्त्र जिसका निर्देश हमने (९. ९२-९३) किया है। मन्त्रज्ञों का भगवती के लिये एक उपहार स्वरूप माना गया है। पाश (आँ), श्री (श्रीँ) शक्ति (ह्रीँ) कन्दर्प बीज क्लीं काम बीज (क्लीं), शक्ति (ह्रीँ) इन्दिरा (श्री) अंकुश (क्रों) यह आठ अक्षर का समुदाय प्रथमाष्टक मन्त्र कहा जाता है, इसके बाद 'कामिनि रञ्जिनि स्वाहा' यह दूसरा अष्टक मन्त्र सज्जनों ने कहा है ।।९३- ९४ ॥

षोडशाक्षरमन्त्रः

ह्रीँ गौरि रुद्रदयिते योगेश्वरि सवर्म फट् ।

द्विठान्तः षोडशार्णोऽयं मन्त्रः सद्भिरुदीरितः ॥ ९५ ॥

अब अन्य षोडशाक्षर मन्त्र का उद्धार कहते हैं— 'ह्रीं गौरि रुद्रदयिते योगेश्वरि हुं फट् स्वाहा' – सोलह अक्षरों से युक्त इस मन्त्र को सज्जनों ने कहा है ।। ९५ ।।

यन्त्रधारणनियमः

लिखित्वा भूर्जपत्रादौ यन्त्रमेतद् यथाविधि ।

धारयन् वामबाहौ वा कण्ठे वा निजमूर्द्धनि ॥ ९६ ॥

वशयेत् सकलान् मर्त्यान् विशेषेण महीपतीन् ।

नीलपट्टे विलिख्यैतद् गुटिकां कृत्य तत् पुनः ॥ ९७ ॥

साध्यप्रतिकृतेः सिक्थनिर्मिताया हृदि न्यसेत् ।

पात्रे त्रिमधुरापूर्णे निःक्षिप्यैनां विधानतः ॥ ९८ ॥

संपूज्य गन्धपुष्पाद्यैर्बलिं निःक्षिप्य रात्रिषु ।

मूलमन्त्रं जपेन्मन्त्री नित्यमष्टसहस्रकम् ॥ ९९ ॥

इस मन्त्र को भोजपत्रादि पर अथवा नीले वस्त्र पर उपवास युक्त हो रविवार के दिन जब पुष्य नक्षत्र हो तब शास्त्र के अनुसार अनामिका अगुली के रक्त से लिखे । तदनन्तर इसे बायें हाथ में, अथवा कण्ठ में अथवा मस्तक में धारण करे तो वह संपूर्ण मनुष्यों को अपने वश में कर लेता है, विशेष कर राजा महाराजाओं को वशीभूत कर लेता है । इसे नीले वस्त्र पर लिखे पुनः उसको मोड़कर गोला बना मधु निर्मित साध्य स्त्री की प्रतिकृति (पुतली) के हृदयस्थान में स्थापित करे और पुनः त्रिमधुर (आज्य, मधु, दूध) निर्मित पात्र में विधानपूर्वक स्थापित करे, गन्ध पुष्पादि से पूजा करे, प्रतिदिन रात्रि में पायसादि की बलि देवे तथा नित्य ८ हजार मूल मन्त्र का जप करे ।। ९६ ९९ ।।

सप्ताहाद्वाञ्छितां नारीमाकर्षेत् स्मरविह्वलाम् ।

भूर्जपत्रे विलिख्यैतद् गुटिकां कृत्य तत् पुनः ॥ १०० ॥

ऐसा करने से सप्ताह के भीतर ही साधक जिस नारी को चाहे उसे कामार्त्त कर अपनी ओर आकृष्ट कर लेता है ।। १०० ।।

लाक्षया ताम्ररजतकाञ्चनैर्वेष्टयेत् क्रमात् ।

तत्कुम्भे न्यस्य संपूज्य यथावद्भुवनेश्वरीम् ॥ १०१ ॥

अब इसका अन्य प्रयोग कहते हैंइस मन्त्र को भोजपत्र पर लिखे । पुनः उसे गोलाकार बनाकर लौह, ताम्रा, रजत अथवा सुवर्ण के बने हुये यन्त्र में रख कर वेष्टित करे और कुम्भ पर रख कर उसमें भुवनेश्वरी का आवाहन कर पूजन करे ।। १००-१०१ ॥

संस्पृश्य तं जपेन्मन्त्रं दिवाकरसहस्रकम् ।

अभिषिच्य प्रियं साध्यं बघ्नीयाद् यन्त्रमाशिखम् ॥ १०२ ॥

उस कलश का स्पर्श कर १२ हजार इस मन्त्र का जप करे । तदनन्तर उस कुम्भ के जल से अपने साध्य का अभिषेक करे और इस मन्त्र को शिखा में बाँध देवे ।। १०२ ।

कान्तिपुष्टिधनारोग्ययशांसि लभते नरः ।

भित्तौ विलिख्य तन्मन्त्रं पूजयेन्नित्यमादरात् ॥ १०३ ॥

ऐसा करने से उस साध्य को कान्ति पुष्टि, धन, आरोग्य तथा यश की प्राप्ति होती है । इस मन्त्र को गेरुक से आदरपूर्वक भीत पर लिखे ।। १०३ ॥

भूतप्रेतपिशाचास्तं न वीक्षितुमपि क्षमाः ।

तद्विलिख्य शिरस्त्राणे साधितं धारयन् भटः ।

युद्धे रिपून् बहून् हत्वा जयमाप्नोति पार्थवत् ॥ १०४ ॥

भित्ति पर लिखने से उस घर को भूत, प्रेत पिशाच देख भी नहीं सकते, घुसने की बात ही क्या ? । यदि योद्धा सिद्ध किये गये इस मन्त्र को अपने शीर्षण्य (शिरो वस्त्र) में लपेट कर रखे तो वह युद्ध में अनेक योद्धाओं को मार कर अर्जुन की तरह विजय प्राप्त करता है ।। १०४ ।।

यन्त्रान्तरद्वयम्

वज्राङ्किते वहिनपुरद्वये तां

पशाङ्कुशाढ्यामुदरस्थसाध्याम् ।

मध्येऽथ कोणेषु च बाह्यवृत्ते

पुनः पुनस्तत् विलिखेत् समन्तात् ॥ १०५ ॥

भूर्जे लिखितमेतत् स्यात् सर्ववश्यकरं नृणाम् ।

आरोग्यैश्वर्यजननं युद्धेषु विजयप्रदम् ॥ १०६ ॥

षट्कोण के मध्य में ह्रीं से संपुटित पाश (आँ) अंकुश (क्रों) युक्त अपने साध्य को लिखे । इसी प्रकार कोणों पर, बाहरी वृत्तों पर और उसके चारों ओर बारम्बार लिखे ।

भूर्ज पत्र पर इस प्रकार के मन्त्र लिखने से साध्य को आरोग्य, ऐश्वर्य की प्राप्ति तो होती ही है और युद्ध में विजय भी होता है ।। १०५-१०६ ।।

भूर्जे सरोजे स्वरकेसाराढ्ये

वर्गाष्टपत्रे वसुधापुरस्थे ।

पाशाङ्कुशाभ्यां गुणशः प्रबद्धां

मायां लिखेन्मध्यगतां ससाध्याम् ॥ १०७ ॥

सर्वोत्तममिदं यन्त्रं धारितं कुरुते नृणाम् ।

आरोग्यैश्वर्यसौभाग्यविजयादीननारतम् ॥ १०८ ॥

भूर्ज पत्र पर अष्टदल कमल निर्माण करे, उसके केशरों पर दो दो स्वरों को लिखे । अष्टदल पर आठ वर्गाक्षरों को लिखे तथा भूपुर में आँ क्रों, ह्रीं आँ, क्रों, इस प्रकार पाश, अंकुश से बँधी हुई माया को तीन बार लिखे। मध्य में अपना साध्य लिखे । यह मन्त्र सर्वोत्तम हैं। इसको धारण करने वाला मनुष्य निरन्तर आरोग्य, ऐश्वर्य, भाग्य एवं विजय प्राप्त करता है ।। १०७-१०८ ।।

॥ इति श्रीलक्ष्मणदेशिकेन्द्रविरचिते शारदातिलके नवमः पटलः समाप्तः ॥ ९ ॥

॥ इस प्रकार शारदातिलक के नवें पटल की डॉ० सुधाकर मालवीय कृत हिन्दी व्याख्या पूर्ण हुई ॥ ९ ॥

आगे जारी........ शारदातिलक पटल 10

Post a Comment

Previous Post Next Post