माहेश्वरतन्त्र पटल ३७
माहेश्वरतन्त्र के पटल ३७ में विरक्त योगी के मन की अवस्थाओं का वर्णन, स्मृति अवस्था, आनन्द - सुधा समुद्र, श्रीकृष्ण मन्दिर का वर्णन, नेत्र बन्धन लीला का वर्णन है।
माहेश्वरतन्त्र पटल ३७
Maheshvar tantra Patal 37
माहेश्वरतन्त्र ज्ञानखण्ड पटल ३७
नारदपञ्चरात्रान्तर्गतम्
माहेश्वरतन्त्र सैतिसवाँ पटल
माहेश्वरतन्त्र सप्तत्रिंश पटल
अथ सप्तत्रिंशं पटलम
शिव उवाच -
योगिनो हि विरक्तस्य मनो ध्यानरतं
भवेत् ।
सम्यक् प्रजातया स्मृत्या मनो
लीलारतं तथा ।। १ ।।
तदेवमानसी सेवा प्रसिध्यति न
चान्यथा ।
तस्मादन्तर्बहिः कार्या सेवा
यावत्स्मृतिर्भवेत् ॥ २ ॥
शिव ने कहा- विरक्त योगी का मन
ध्यान मग्न होता है। अतः साधक कृष्ण की सम्यक स्मृति से अपने मन को कृष्ण लीला में
लगा दे। इसी से साधक द्वारा की गई कृष्ण की मानसी सेवा सिद्ध होती है और कोई अन्य
उपाय सिद्ध नहीं है । अतः साधक को चाहिए कि जब तक कृष्ण की स्मृति बनी रहे,
तब तक अन्तःकरण में और बाह्य रूप जगत् में भी वह मानसी सेवा करता
रहे ।। १-२ ।।
स्मृतिं विना तु देवेशि बहिः सेवां
परित्यजेत् ।
प्रत्यवायमवाप्नोति मार्गभ्रष्टो
भवेदपि ॥ ३ ।।
हे देवेशि ! कृष्ण की स्मृति के
बिना साधक को बाह्य सेवा का त्याग कर देना चाहिए । यदि साधक कृष्ण स्मृति के बिना
बाह्य ( षोडशोपचार आदि) करता है तो उसके मार्ग में अनेक विघ्न आते हैं और वह
मार्गभ्रष्ट हो जाता है ॥ ३ ॥
स्मृत्यवस्थेव देवेशि
मानसीमूलमुच्यते ।
मानस्यां जायमानायां बाह्यसेवा
निवत्र्त्तते ॥ ४ ॥
हे देवेशि ! मानसी सेवा का मूल तो
(कृष्ण) स्मृति की अवस्था ही है । क्योंकि मन में उत्पन्न हुए भावों से ही बाह्य
सेवा होती है ॥ ४ ॥
प्रियसेवा प्रियाधर्मो
यावत्सर्वेन्द्रियक्रिया ।
सर्वेन्द्रियक्रियाभावान्मानसी सा
प्रवर्त्तते ॥ ५ ॥
वस्तुतः जब तक सभी इन्द्रियां समर्थ
है,
तब तक प्रिया का धर्म है कि वह प्रिय की सेवा करे । जब सभी
इन्द्रियाँ कार्य में असमर्थ हों तो भगवान् की मानसी सेवा करनी चाहिए ॥ ५ ॥
प्रेमपीयूषपाथोधो यदा लग्नं मनो
भवेत् ।
बाह्येन्द्रियाणां
वृत्यभावाद्वाह्यसेवा न जायते ।। ६ ।।
प्रवर्तते मानसी सा स्मृत्यवस्थोदये
सति ।
तस्मात्स्मृति प्रवक्ष्यामि
शृणुष्वेकाग्रमानसा ॥ ७ ॥
प्रेमामृत सरोवर में जब मन संलग्न
हो जाता है, तब बाह्य इन्द्रियों की वृत्ति
के अभाव में बाह्य सेवा नहीं होती है। वस्तुतः श्रीकृष्ण की स्मृति से 'स्मृति-अवस्था' के उदित होने पर मानसी सेवा होती है
। इसलिए, हे देवि ! मैं पहले 'स्मृति-अवस्था'
का वर्णन आपसे कहूँगा । उसे आप एकाग्र मन से सुने ।६-७ ।।
स्मृत्यां वै
जायमानायामनुसन्धानवजितम् ।
मनो लीलावगाहेत घमंतप्तो यथा गजः ॥
८ ॥
अनुसन्धानरहित होकर जब साधक का मन
(कृष्ण) स्मृति में आ जाता है तो वह उसी प्रकार श्रीकृष्ण की लीला में अवगाहन करता
है जिस प्रकार धूप से तप्त हुए हाथी सरोवर में अवगाहन करते हैं ॥ ८ ॥
अवगाहे च मनसि ब्रह्मलीलामहानदीम ।
लीयन्ते वृत्तयः सर्वा गेहात्मविषया
अपि ॥ ९ ॥
ब्रह्म की लीला रूप महा नदी में मन
के अवगाहन कर लेने पर घर-बार तथा आत्म विषयक वृत्तियों का भी विलय हो जाता है ॥ ९
॥
विगाढमाने मनसि प्रविष्टे
लीलामहानन्दसुधा समुद्रम ।
नेदं न चादो न सुखं न दुःखं
जानाति तत्रैव विलग्नचित्ता ।। १०
।।
श्रीकृष्ण की लीला के महान आनन्द के
उस अमृत सिन्धु में डुबकी लगाकर मन के प्रविष्ट होने पर न यह कर्म होता है,
न वह कर्म होता है । उस लीला में संलग्नचित्त न तो सुख जानता है और
न तो दुःख ही जानता है ॥१०॥
स्मरेत् तदानन्दसुधा समुद्रमनगला
प्रोच्छ्वलदूर्मिमालम् ।
समन्ततोन्तःस्फुरमाणरत्नप्रभाकुरोद्भासितवीचिरम्यम्
।। ११ ।।
इस समय साधक आनन्दरूपी अमृत के
समुद्र में बिना रुकावट के उद्दाम तरङ्गों की मालाओं का स्मरण करे । वहाँ चारों और
अन्तः ( समुद्र ) में स्फुरित होने वाले रत्नों की प्रभा के अङ्कुर से उद्भासित
रम्य लहरों का स्मरण करना चाहिए ।। ११ ।।
हिरण्मयोद्भिन्नपतत्पतत्रिनक्रादिचक्रोत्पतनाभिरामम
।
इतस्ततो धावदनेकपोतकुलाकुलं
योजनकोटिमानम् ।। १२ ।।
उस आनन्द सुधा समुद्र में सुनहले
पक्षि उत्प्लवन कर रहे हैं। वह समुद्र तरह- तरह के मगर आदि जल जन्तुओं के ऊपर आने
और चक्र के समान घूमने पर - बहुत सुन्दर लगता है। वह समुद्र कोटि योजन तक इधर-उधर
दौड़ने वाले अनेक जहाजों के समूह से व्याप्त है । १२ ॥
जले शयाने
कसुवर्णरत्नगिरिप्रभालङ्कृत कुक्षिभागम् ।
ताली वनशोभिकू कूजद्विहङ्गस्वनितं
रसालम् ।। १३ ।।
जल में पड़े हुए सुवर्ण एवं रत्न के
पर्वत की प्रभा से अलङ्कृत कुक्षि भाग वाले समुद्र के तट वैदूर्यमणि एवं ताली
(ताड़) के ऊंचे-ऊंचे पेड़ों से सुशोभित है । वहाँ पर आम्र के वृक्ष पर विहगों का
झुण्ड चहचहा रहा है ।। १३ ।।
उद्भिन्नतालीयन
जान्धकारमुन्मूलयन्तं मणिमिस्तटस्थैः ।
स्फुरद्भिरुद्योतितदिग्विभागं
दिवाकरेन्दुद्युतितस्करैरिव ॥ १४ ॥
चमकती हुई तथा प्रकाशमान
दिग्विभागों वाली और सूर्य तथा चन्द्र की कान्ति को मानों चुराने वाली तथा ताली वन
के घोर अन्धकार को दूर करने वाली समुद्र तट की मणियों से युक्त आनन्द समुद्र का
उसे ध्यान करना चाहिए ॥ १४ ॥
मलङ्कलङ्कज्जितपूर्ण
चन्द्र-विडम्बिनीभिस्तटगाभिरुच्चैः ।
अनेकचन्द्राकुलितस्य शोभां विलज्जयन्तं
नभसोऽपि शुक्तिभिः ।। १५ ।।
सम्पूर्ण कलङ्क से रहित पूर्णचन्द्र
का अनुकरण करने वाली तथा तट पर स्थित ऊँची ऊँची सीपियों के द्वारा अनेक चन्द्रों
से भरे हुए आकाश की शोभा को भी लज्जित करने वाले आनन्द समुद्र का ध्यान करना चाहिए
।। १५ ।।
विमर्श -
आकाश में एक चन्द्र होता है तथा अनेक सीपियां हैं जो अनेक चन्द्रों की शोभा को
धारण कर रही हैं ।। १५ ।।
द्वीपं मणीनां च तदन्तरुद्यन्मयूख-
किंञ्जल्कितमादधानम् ।
अनेक कोटीन्दु दिवाकरप्रधं
स्मरेच्चिदानन्दघनं महेश्वरि ।। १६ ।।
हे महेश्वरि ! मणियों के द्वीप और
उनमें से निकलने वाली किरणों के कण-कण को भी धारण करने वाले (अर्थात् अत्यन्त
प्रकाशमान) तथा करोड़ों चन्द्रमा एवं सूर्य को प्रकृष्ट रूप से धारण करने वाले
आनन्द (समुद्र) रूप चिदानन्द घन (कृष्ण) का उसे ध्यान करना चाहिए ।। १६ ।।
उपेतं नवखण्डैश्च नवरत्नमयैः शुभैः
।
नवभूम्यात्मकश्चित्रं
रुद्यानपरमण्डितम् ।। १७ ।।
भगवान् कृष्ण शुभ नौ खण्डों से
युक्त,
नौ रत्नों वाले, और नौ भूमियों वाले विचित्र
उद्यान से युक्त मन्दिर से परिमण्डित हैं ॥ १७ ॥
कोट्टयर्ध योजनायामविस्तार सुमनोहरम्
।
तिर्यगूर्वायिता रेखाश्चतस्रो
नवकोष्ठवत् ॥ १८ ॥
उस उद्यान का विस्तार कोटि योजन और
चौड़ाई आधा योजन है । यह सुन्दर एवं मनोहर है। इसमें तिरछी और ऊर्ध्व की ओर नौ
कोष्ठों से युक्त चार रेखाएँ विद्यमान है ॥ १८ ॥
मध्यः खण्डः पद्मरागमयश्चानन्दभूमिकः
।
पुष्परागमयस्तस्य पूर्वभागे
प्रतिष्ठितः ॥ १९ ॥
इस उद्यान का भव्य खण्ड पद्मरागमय
है और यह आनन्दभूमि वाला है । इसका पूर्वभाग पुष्परागमय है ।।१९।।
चिदानन्दमयीं भूमिं तत्र
सञ्चिन्तयेद्विया ।
आग्नेयां वज्रघटितास्तत्र
वैराग्यभूमिका ॥ २० ॥
साधक को चाहिए कि वह अपनी बुद्धि
में चिदानन्दमयी भूमि वाले उद्यान का चिन्तन करे। इस उद्यान का आग्नेयकोण वज्रनिर्मित
है और वह वैराग्यभूमि वाला है ।। २० ॥
महामारकतं चिन्तयेत्खण्डमुत्तमम् ।
राजते यत्र देवेशि महासन्तोष भूमिका
॥ २१ ॥
साधक इस उद्यान के दक्षिण कोण में
महामरकत मणि के उत्तमखण्ड का ध्यान करे । हे देवेशि ! जहाँ पर महान् संतोष की भूमि
शोभा पा रही है (उस उद्यान का चिन्तन करे ) । २१ ।।
नैर्ऋते चिन्तयेत्खण्ड यत्रास्ते
प्रेमभूमिका ।
प्रवालमणिसन्नद्धं
प्रकाशपरमोज्ज्वलम् ।। २२ ।।
इस उद्यान के ऐसे नैऋतकोण का स्मरण
करे जहाँ पर प्रेमभूमिका रहती है । वहीं प्रवाल एवं मणि से सन्नद्ध उज्ज्वल एवं
श्रेष्ठ प्रकाश का ध्यान करे ॥ २२ ॥
प्रतीच्यां नीलमणिभिर्मण्डितं
भुक्तिभूमिकं ।
इन्द्रनीलमयं देवि
प्रभालिप्तनभोन्तरम् ।। २३ ।।
पूर्वदिशा में नीलमणि से मण्डित
भुक्तिभूमिका वाले उस उद्यान का स्मरण करे जिसके नभ के अन्तराल इन्द्रनीलमय तथा
उसकी (नीली) प्रभा से युक्त हैं ।। २३ ।।
वायव्ये संस्मरेत्खण्डं
ज्ञानभूमिसमाश्रयम् ।
उत्तरे चिन्तयेत्खण्डं
गोमेदरचितान्तरम् ।। २४ ।।
इस उद्यान की वायवीय दिशा के भाग को
ज्ञानभूमि से युक्त चिन्तन करे । उत्तर दिशा में गोमेद से रचित खण्ड का स्मरण करे
।। २४ ।।
प्रकाशभूमिका यत्र राजते सुमनोहरा ।
महामौक्तिकखण्डश्च य ईशान्येगतः
प्रिये ।
तं स्मरेत्सततं यत्र राजते
रतिभूमिका ।। २५ ।।
हे प्रिये ! जहाँ सुन्दर एवं मनोहर
प्रकाशभूमिका शोभित है और जिसके ईशानकोण महामौक्तिकखण्ड से युक्त हैं,
इस प्रकार के उस उद्यान का साधक सतत स्मरण करे, जहाँ रतिभूमिका सदैव दीप्तिमान रहती है ।। २५ ।।
भूमयः सप्तदेवेशि योजनानां चतुर्दश
।
लक्षाणि ते मया प्रोक्ता निबोध
गिरिनन्दिनि ।। २६ ।।
हे देवेशि ! चौदह योजन तक इन
भूमियों का विस्तार है, जिन्हें हमने आपसे
कहा है । हे गिरिनन्दिनि ! आप उनके लक्षणों को समझिए।।२६।।
चिदानन्दमयी भूमिस्तावत्येव
प्रकीर्तिता ।
द्वाविंशतियजनानां लक्ष्याण्यानन्दभूमिका
॥ २७ ॥
चिदानन्दमयी भूमि का विस्तार भी
उतना ( चौदह योजन ) ही कहा गया है और आनन्दभूमि का विस्तार बाइस योजन तक है ॥। २७
॥
नित्यं वृन्दावनं यत्र राजते
कणिकाकृति ।
स्मरेद् ब्रह्मपुरं तत्र
प्रकाशपरमोज्ज्वलम् ॥ २४ ॥
कमल की कर्णिका के समान उस
आनन्दभूमि पर नित्य वृन्दावन शोभा सम्पन्न रहता है । उसी वृन्दावन में साधक को
प्रकाश से अत्यन्त उज्ज्वल ब्रह्मपुर का स्मरण करना चाहिए ॥ २८ ॥
तन्मध्ये देव देवेशि मणिनेकेन
निर्मितम् ।
समकालोदितानेककोटिचन्द्रार्कभास्वता
।। २९ ।।
क्वचिनीलं क्वचिदुक्तं
क्वचित्कृष्णं क्वचित्सितम् ।
दशभूम्यात्मकं
श्रीमत्संस्मरेन्निजमन्दिरम् ॥ ३० ॥
हे देवदेवेशि ! उसके मध्य में एक ही
मणि से निर्मित, एक ही समय में उदित होने वाले
अनेक कोटि चन्द्र एवं सूर्य से चमकते हुए; कहीं नीले,
कहीं लाल, कहीं काले, कही
सफेद दस भूमि वाले शोभा युक्त निज मन्दिर का स्मरण करना चाहिए ।। २९-३० ॥
विमर्श -
श्रीकृष्ण के मन्दिर का वर्णन इस प्रकार है-
|
९
खण्ड |
९
रत्न |
९
भूमियाँ |
|
१.
मध्य खण्ड |
पद्मराग |
आनन्दभूमि |
|
२.
आग्नेय खण्ड |
पुष्पराग |
चिदानन्दमय
भूमि |
|
३.
दक्षिण खण्ड |
वज्रघटित |
वैराग्यभूमि |
|
४.
नैर्ऋत्य खण्ड |
मरकत |
महासन्तोषभूमि |
|
५.
प्रतीच्य खण्ड |
प्रवाल |
प्रेमभूमि |
|
६.
वायव्य खण्ड |
नीलमणि |
भक्तिभूमि |
|
७.
उत्तर खण्ड |
इन्द्रनील |
ज्ञानभूमि |
|
८.
ईशान खण्ड |
गोमेद |
प्रकाशभूमि |
|
९.
पूर्व खण्ड |
महामौक्तिक |
रतिभूमि |
९ भूमियों के रास्तों आदि का वर्णन
४२वें पटल में है ।
मन्दिरं परितः पङिङ्क्तः सौधानां
कृष्णयोषिताम् !
एकैकं मन्दिरं देवि !
योजनार्द्धप्रमाणतः ।। ३१ ।।
मन्दिर के चारों ओर कृष्ण की
प्रियाओं की प्रासाद पङिक्त का स्मरण करना चाहिए। हे देवि ! इस प्रकार का एक-एक मन्दिर
आधे योजन विस्तार का है ॥ ३१ ॥
सार्द्धद्वियोजनोत्सेधं निजमन्दिरमद्भुतम्
।
प्राकारैर्दशभिगुप्तं महोद्यानविराजितैः
।। ३२ ।।
ढाई योजन श्रीकृष्ण का अद्भुत
मन्दिर महान् उद्यान से शोभा सम्पन्न है और गुप्त दश भवनों से शोभित है ।। ३२ ।।
परिवृत्तीः स्मरेत्तस्य षट्सहस्राणि
योजनाः ।
द्विसहस्रमिदं सूत्रं दक्षिणोत्तरगं
भवेत् ।। ३३ ।।
इस प्रकार छः हजार योजन को
परिवृत्तियों (चहारदीवारी) से सम्पन्न उस मन्दिर का ध्यान साधक को करना चाहिए।
दक्षिण और उत्तर में यह दो हजार योजन तक विस्तीर्ण है ॥ ३३ ॥
पूर्वपश्चिम गं सूत्रं तथैव
परिमाणतः ।
महापद्मवनं ध्यायेत् परितो
निजमन्दिरम् ।। ३४ ।।
इसी प्रकार इस मन्दिर का पूर्व और
पश्चिम का भाग भी उतने ही (दो हजार योजन) विस्तार वाला है । इस निजमन्दिर के चारों
ओर महान् पद्म (कमल) के वनों का ध्यान करना चाहिए ॥ ३४ ॥
प्रकाशानन्दभूम्योस्तु सन्धो
नीलाद्रिरुत्तमः ।
योजनायुतमानेन तस्योच्छ्रायं
स्मरेत्प्रिये ।। ३५ ।।
प्रकाश एवं आनन्दभूमि के सन्धि में
श्रेष्ठ नीलाद्रि विराजित है । हे प्रिये ! उसकी एक हजार योजन ऊंची चोटी का ध्यान
करना चाहिए ।। ३५ ।।
शृङ्गाणि तस्य देवेशि त्रीणि सन्त्यद्भुतानि
च ।
चन्द्रगौरं चन्द्रचूडं महाचन्द्रं
ततः परम् ॥ ३६ ॥
हे देवेशि ! उस पर्वत की तीन अद्भुत
चोटियाँ है । जिसके नाम हैं १. चन्द्रगौर, २.
चन्द्रचूड और ३. महाचन्द्र ॥ ३६ ॥
चद्रगोरे महाशृङ्गे चन्द्रनाम्ना
महासरः ।
शतयोजनविस्तारं चन्द्रसोपानमण्डितम्
।। ३७ ।।
चन्द्रगौर नामक महान् चोटी पर
चन्द्रनामक महान् सरोवर है। इस सरोवर का विस्तार सौ योजन है । इस सरोवर की सीढियाँ
चन्द्रकान्तमणि से बनाई गई हैं ॥ ३७ ॥
गुञ्जद् भ्रमरझङ्कारमुखरीकृत
दिङ्मुखम् ।
प्रफुल्लपङ्कजवनामोदमोहितषट्पदम् ॥
३८ ॥
यहाँ पर प्रफुल्लित कमलों के वन की
सुगन्ध से आकृष्ट हुए भौरों की गुञ्जन एवं झङ्कार से दिशाओं के मुख मुखरीकृत हैं ॥
३८ ॥
मरालीयूथमध्यस्थमरालगणमण्डितम् ।
कूजितं चित्रपक्षाणां पक्षिणां
सुमनोहरम् ।। ३९ ।।
हंसिनियों के झुण्ड में मरालों
(हंसों) के समूह से शोभायमान सरोवर विभिन्न प्रकार के चित्र विचित्र पक्षियों के
पङ्खों और उनके चहचहाने से अत्यन्त मनोहर प्रतीत होता है ।। ३९ ॥
तटस्योद्यानशोभाभिर्नयनानन्दमन्दिरम्
।
आनन्द सुधया पूर्णं
संस्मरेत्स्मृतिधारया ॥ ४० ॥
उस सरोवर के तट पर बने उद्यान की
शोभा का और नेत्रों को आनन्द प्रदान करने वाले मन्दिर का ध्यान स्मृति पटल पर ऐसे
करना चाहिए जैसे आनन्द के अमृत से वह सरोवर भरा हुआ है ॥ ४० ॥
कदाचित् क्रीडनं तत्र भगवान्
पुरुषोत्तमः ।
सखीसहस्रसेव्याभिः स्वामिन्या सह
केवलम् ।। ४१ ।।
वहाँ पर भगवान् पुरुषोत्तम
श्रीकृष्ण को कहीं पर क्रीडा करने का ध्यान करना चाहिए जो केवल अपनी स्वामिनी श्री
राधा के साथ और हजारों सखियों की सेवाओं से युक्त हैं । ४१ ।।
चन्द्रचूड पञ्चहृदाः परमानन्द
सुधामृताः ।
रत्नसोपान साहसः काञ्चनः कृतकौतुकाः
॥ ४२ ॥
चन्द्रचूड नामक दूसरे शिखर पर पांच
हृद हैं जो परमानन्द के अमृत से पूर्ण हैं । यहाँ की सढ़ियां स्वर्ण एवं सहस्रो
रत्नों से निर्मित अत्यन्त कौतुक पूर्ण हैं ।। ४२ ।।
सुवर्णपङ्कजवनैर्वायुनान्दोलितैर्मुहुः
सुवासयद्भिः सतनं
दिगन्तात्परिशोभिताः ॥ ४३ ॥
सोने के (रंग के) कमलों के वनों को
वायु से बार-बार हिलने-डुलने से सदैव जहाँ के दिगन्त सुवासित एवं चारो ओर से
शोभायमान हैं ॥ ४३॥
क्रीडते तत्र भगवान् कदाचिद्योषितां
गणः ।
उद्यानराजं देवेशि महाचन्द्रेऽपि
संस्मरेत् ।। ४४ ।
कभी वहाँ पर भगवान् कृष्ण युवतियों
के समूहों के साथ बिहार करते हैं। हे देवेशि ! इस महान् चन्द्रचूड सरोवर के
उत्कृष्ट उद्यान का भी स्मरण करना चाहिए ।। ४४ ।।
पादपाः पत्रविस्तीर्णाः स्वर्णशाखा
सुपेशलाः ।
नीलवैदुर्यपत्राढ्या
मुक्तास्तबकमालिनः ।। ४५ ।।
उस उद्यान के वृक्ष पत्रों से
आकीर्ण हैं और उनकी शाखाएं स्वर्ण के समान अत्यन्त चिकनी और सुघड़ हैं। नीले तथा
लाल रंग के पत्तों से परिपूर्ण तथा मुक्ता के गुच्छों के समूहों से वहाँ के पेड़
सुशोभित है॥ ४५॥
कदम्बाशोकपुन्नागमालती बकुलाज्जुनैः।
बिल्वपालैस्तमालैश्च हितालः
पारिजाजकः ॥ ४६ ॥
केतकरचम्पकैश्चतैः कल्पवृक्षैः
सुशोभितम् ।
तन्मध्ये संस्मरेद्दवि
मणिमण्डपमायतम् ।
शतस्तम्भः स्वर्णमयेः
मुक्तारत्नचितान्तरैः ॥ ४७ ॥
कदम्ब,
अशोक, पुन्नाग, मालती,
बकुल, अर्जुन, बिल्ब,
ताड़, तमाल, हिताल
पारिजात, केतकी, चम्पा, आम्रमञ्जरियों से वहीं के कल्पवृक्ष सुशोभित हैं । हे देवि ! इन वृक्षों
के मध्य मणिनिर्मित उस चौकोर मण्डप का ध्यान करना चाहिए जो मण्डप सौ स्वर्णिम तथा
मुक्ता आदि रत्न से जटित खम्भों से युक्त है ।। ४६-४७ ॥
शोभमानं चतुर्द्वारं साप्तभौमं
निरामयम् ।
प्रतिद्वारं कुट्टिमाभ्यां
प्रतिकुट्टिमदीधिकम् ॥ ४८ ॥
यह मण्डप चार द्वारों वाला,
सातमंजिल का तथा निर्मल है। इसके प्रत्येक द्वार रत्नजटित दरवाजों
से तथा प्रत्येक द्वार फर्श से युक्त दीर्घिका ( वापी ) वाले हैं ॥ ४८ ॥
दीर्घिकासु लसत्स्वर्णपद्मव्यग्र
डाङ्घ्रिकम् ।
कुट्टिमोपरि
विस्फूर्जद्रत्नस्तम्भमनोहरम् ।। ४९ ।।
इन दीर्घिकाओं में स्वर्ण कमल खिले
हैं,
जिस पर व्यग्रता से मंडराते हुए भौंरे सुशोभित है । उनकी फर्श पर
प्रभा फैलाने वाले रत्न से जटित खम्भे अत्यन्त मनोहर प्रतीत हो रहे हैं ।। ४९ ।।
प्रवालनीलमाणिक्यमुक्तावदूर्य
गारुडः ।
कृतस्वस्तिक विस्फूर्यन्मध्यदेश
श्रियोज्ज्वलम् ॥ ५० ॥
प्रवाल (मूंगा),
वैदूर्य, नील, माणिक्य,
मुक्ता, तथा गारुड आदि रत्नों से बने मण्डप के
मध्य भाग में चमकते हुए 'स्वस्तिक' उज्ज्वल
श्री को धारण कर रहे हैं ॥ ५० ॥
शुकैः पारावत्तैर्हसै: क्रूजद्भिः
परिशोभितम् ।
स्वर्णवैदूर्यमुक्ताभिविलसत्तोरणोज्ज्वलम्
। ५१ ।।
(वे द्वार) शुकों (तोता),
पारावतों ( कबूतर ) तथा हंसों से कूजित होने के कारण सुशोभित और
स्वर्ण, वैदूर्य एवं मोतियों से जड़े हुए उज्ज्वल तोरणों से
कान्तिमान हैं । ५१ ।।
चतुर्दिक्षु
महासोधराजिराजितमद्भुतम् ।
कदाचिदत्र भगवान् रथमास्थाय
सुप्रभम् ।। ५२ ।।
सखी सहस्रं रायाति क्रीडनाथं
महेश्वरि ।
कृत्वा नादाविधां क्रीडामुद्याने
सुमनोहरे ।। ५३ ॥
मण्डपं प्रविशेत्सद्यः सखीभिः सह
संवतः ।
आराधन्ते ततः सर्वास्तासां याः
परिचारिकाः ॥ ५४ ॥
चारो दिशाओं में ऊँचे-ऊचे भवनों की
पङित से युक्त अद्भुत शोभा को प्राप्त मन्दिर है । किसी समय यहाँ पर सुन्दर प्रभा
वाले रथ पर चढ़कर भगवान् श्रीकृष्ण हजारों सखियों के साथ क्रीडा करने के लिए आते
हैं। हे महेश्वरि ! इस सुन्दर एवं मनोहर उद्यान में वे नाना प्रकार की क्रीडा करके
सखियों के साथ घिरे हुए शीघ्र ही मण्डप में प्रवेश करते हैं। इसके बाद उनकी जो
परिचारिकाए हैं वे सभी उनकी आराधना करती हैं ।। ५२-५४ ।।
दिव्यसौधानि मणिभिर्दीप्यमानानि
सर्वतः ।
वीणामृदङ्गन्त्रीभिर्गायन्ति यश
उत्सुकाः ।। ५५ ।।
वहाँ के दिव्य भवनों में सभी स्थान
मणियों के प्रकाश से प्रकाशित हैं । उत्सुक भक्त जन वीणा,
मृदङ्ग एवं सितारों के साथ यश का गायन करते हैं ।। ५५ ।।
तद्गीतानन्दसन्दोहनिमग्नेन्द्रिय
वृत्तयः ।
उद्यान राजहरिणाः हरिण्यः शुकसारसाः
।। ५६ ।।
पिकाः पारावताश्चैव मयूरा मधुभाषिणः
।
स्ववाचं मुद्रयन्त्येव यथा
चित्रगताः शिवे ॥ ५७ ॥
उनके गीत के आनन्द समुद्र में उनकी
इन्द्रियों की वृत्तियाँ निमग्न हो गई हैं । उद्यान में विचरण करने वाले हरिणों और
हिरणियों,
शुकों एवं सरसों, पिक ( कोयल ) पारावतों
(कबूतरों) और मधुरभाषित करने वाले मयूरों आदि के झुण्ड, हे
शिवे! अपनी वाणी को चित्रगत के जैसा मुद्रा में बोलते हैं ।। ५६-५७ ।।
सुधारसादप्यधिकैर्वाक्यंहस्यिरसान्वितः।
हासयन्ति हसन्त्यश्च प्रिय च
स्वामिनीमपि । ५८ ॥
सखियाँ सुधा रस से भी अधिक हास्य रस
से युक्त वाक्यों द्वारा प्रिय एवं स्वामिनी को भी हँसाती है और स्वयं हँसती भी
हैं ।। ५८ ।।
कदाचित्प्रार्थयामासुः स्वामिनीपक्षमत्रताः
।
नेत्रबन्धमयीं लीला रन्तु कृष्णं
सहस्रवः ।। ५९ ।।
उन सहस्रों सखियों ने किसी समय
स्वामिनी का पक्ष लेकर कृष्ण के साथ खेलने के लिए नेत्रबन्धमयी ( आँख बांधकर खोजने
की ) लीला करने की प्रार्थना की ।। ५९ ।।
पणबन्ध ततश्चक्रनेत्रबन्धे कृते सति
।
यदि नाम न जानासि तदा प्रिय पराजितः
॥ ६० ॥
नेत्र बन्धन करने के बाद उन्होंने
फिर शपथ ग्रहण की। यदि बोलने वाली प्रिया के नाम को प्रिय कृष्ण न बता पाएंगे तो
प्रिय पराजित हो जायेंगे ॥ ६० ॥
स्ववस्त्राभरणान्यस्यै देहि
चित्तमखेदयन् ।
सा प्रिया प्रिय ते रूपं करिष्यति
मनोहरम् ।। ६१ ।।
चित्त में बिना खिन्न हुए अपने
वस्त्राभूषण उस सखि को आप दे देंगे। हे प्रिये ! वह आपकी प्रिया होगी जो आपके रूप
को मनोहर करेगी॥६१॥
त्वत्सहासनारूढा कृष्णोऽहमिति
वादिनी ।
भवन्तमाज्ञापयतु नृत्यतां सखि
मत्पूरः ॥ ६२ ॥
आपके सिहासन पर बैठकर मैं कृष्ण हूँ'
यह कहते हुए आपको आज्ञा देगी कि हे सखि ! मेरे सामने नृत्य कीजिए ।।
६२ ।
त्वया नृत्यं तदा कार्यं मवश्यमिव
चाङ्गना ।
त्वयि नृत्यति निःशङ्के गास्यामो
वयमेव हि ।। ६३ ।।
तब आपको और आपकी अङ्गना को अवश्य ही
नाच करना होगा। क्योंकि आपके नृत्य करते समय हम लोग निःशङ्क होकर गीत गाएंगी ।। ६३
।।
यदि वा नाम जानासि प्रियापि कुरुतां
तथा ।
इति ताः पर्णमाश्राव्य परिवव्रुः
प्रियं प्रियाः ॥ ६४ ॥
यदि आप नेत्रबन्ध लीला में उस सखि
का नाम जान लेंगे तो वह प्रिया भी वैसा ही करेगी। इस प्रकार की उनकी शर्तों को
सुनकर प्रियाओं ने प्रिय से कहा ।। ६४ ।
तन्दिरा सखी काचित् पश्चादागत्य
सत्वरम् ।
बबन्ध नेत्रयुगलं करपद्मयुगेन च ।।
६५ ।।
तब शीघ्र ही इन्दिरा नाम की कोई सखि
पीछे आकर अपने हस्तपक्षों से उनके दोनों नेत्रों को बाँध दिया ।।६५।।
नेवे गृहीतः कृष्णः प्राह त्वमसि
सुन्दरी ।
तदोन्मुच्या क्षियुगलं स्मिता
प्राहेन्दिरा सखी ।। ६६ ।
नेत्र बन्द कर लेने पर कृष्ण ने
कहा- 'तुम सुन्दरी हो ।' तब इन्दिरा नामक सखी ने
मुस्कुराते हुए कहा- नेत्रों को खोल दो ।। ६६ ।।
कि जल्पति मुधा नाम प्राणनाथ
पराजितः ।
न चाह सुन्दरी नाम्ना प्रिया
तेऽस्मीन्दिराभिधा ॥ ६७ ॥
तस्माल्लज्जां परित्यज्य पणबन्धं
विचारय ।
आप क्या गलत नाम से कह रहे हैं ।
प्राणनाथ पराजित हो गए। मैं सुन्दरी हूँ। मैं तो आपकी इन्दिरा नाम की प्रिया हूँ ।
इसलिए आप अब लज्जा का त्याग कर शर्त का विचार करें ।। ६७-६८ ।।
श्रीकृष्ण उवाच-
नाहं पराजितः साक्षादज्ञातेति न
मुह्यताम् ।। ६८ ।।
त्वयन्दिरे सुन्दरीति भ्रमः
सार्वदिको मम ।
सुन्दर्यां मत्प्रियायां च
स्फुरत्येवेन्दिराभ्रमः ।। ६९ ।
श्री कृष्ण ने कहा- मैं साक्षात्
रूप से पराजित नहीं हुआ हूँ क्योंकि पहचान में तुम्हें भ्रम नहीं होना चाहिए। हे
इन्दिरे! तुम्हारे में सर्वत्र हमें सुन्दरी का ही भ्रम होता रहता है। वस्तुतः
सुन्दरी में और मेरी प्रिया में सदैव इन्दिरा का भ्रम हो ही जाता है ।। ६८-६९ ॥
नाण्यप्यन्तरं वापि नामतो रूपतोऽपि
च ।
ज्ञात्वापि त्वामिन्दिरेति क्षणादेव
भ्रमद्धिया ।
जल्पितं सुन्दरोत्ये
तन्मयोक्तमवधार्यतां ॥ ७० ॥
प्रियस्य वचनं श्रुत्वा पुनः
प्राहेन्दिरा वचः ।
क्योंकि नाम से या रूप से अणु मात्र
भी दोनों में अन्तर नहीं है । अतः यह जानकर भी तुम इन्दिरा में क्षण भर में ही बुद्धि
भ्रम हुआ । 'सुन्दरि' यह
जो हमने कह दिया है उसे आप इन्दिरा ही समझे। प्रिय के इस प्रकार के वचनों को सुनकर
पुनः इन्दिरा ने कहा ।। ७०-७१ ।।
इन्दिरोवाच-
अहो नाथ महत्येषा वञ्चना चातुरी तव
।। ७१ ।।
स्वापि मामिन्दिरेति सुन्दरीति
मुखोद्गतम् ।
कथ श्रद्दधां हे नाथ वेदार्थमिव
नास्तिकाः ।। ७२ ।।
इन्दिरा ने कहा- अहो नाथ ! यह तो
आपकी महान् छलना-चातुरी है । मुझे इन्दिरा जानकर भी आप के मुह से सुन्दरी शब्द जब
निकला तो हे नाथ हम नास्तिकों के वेदार्थ के समान इस वचन पर कैसे श्रद्धा करें
।।७१-७२।।
स्त्रीषु हास्येषु धूर्त्तेषु
प्राणबाधाभयेषु च ।
संवदत्ता वाणीत्येतज्जानाति भो
भवान् ।। ७३ ।।
हे कृष्ण ! स्त्रियों में,
हंसी में, घूर्त्तों में, प्राण के संकट में तथा भय में झूठ वाणी का प्रयोग होता है - यह आप जानते
हैं ॥ ७३ ॥
मुखोद्गते हि विश्वासो नास्माकं
हृदयस्थिते ।
नास्तिकस्येव प्रत्यक्षे प्रमाणे न
तु शाब्दिके ॥ ७४ ॥
हम लोगों का तो विश्वास मुख से
निकलने वाले शब्द पर है। आपके हृदय में क्या है ? यह हम क्या जाने। जैसे नास्तिक प्रत्यक्ष प्रमाण में विश्वास करता है शब्द
प्रमाण में नहीं ॥ ७४ ॥
तस्मात्त्वं स्वीयवचनं यदि सत्येन
युञ्जसि ।
देहि लज्जां विहायाशु वासांस्याभरणानि
च ।। ७५ ।।
इसलिए यदि आप अपने वचन को सत्य
समझते हैं तो लज्जा छोड़कर शीघ्र ही अपने वस्त्र और आभूषण हमें दे दीजिए ।। ७५ ।।
नो चेत्स्वतन्त्रः किं कुर्मः
प्रभुस्त्वमस्वतन्त्रकाः ।
पण लोप भयाद् भूयः का
प्रतीतिस्तवेति हि ।। ७६ ।।
यदि आप नहीं देते हैं तो हम
स्वतन्त्र रूप से क्या करेंगे ? क्योंकि आप तो
प्रभु हैं और हम आपके वश में हैं। अतः शर्त के लोप के भय से पुनः आप पर क्या हमारी
प्रतीति होगी ? आप ही जानते हैं ॥ ७६ ॥
तस्मादर्थमनर्थं च स्वकीयहृदये पुनः
।
विनिश्चित्य यथान्यायं यदिच्छसि तथा
कुरु ।। ७७ ।।
इसलिए अर्थ एवं अनर्थ को पुनः अपने
हृदय में विचार कर जैसा न्यायसंगत हो वैसा ही कीजिए ॥ ७७ ॥
श्रुत्वेन्दिवाक्यमतिप्रगल्भं
चातुर्ययुक्त च सखीसमाजे ।
स्मित्वा स्वभूषावसनानि सद्यः स्वयं
समुत्तायं ददावथास्यै ॥ ७८ ॥
इस प्रकार के इन्दिरा के अत्यन्त
बुद्धिमत्ता पूर्णं तथा चतुराई भरे वाक्यों को सखी समुदाय के मध्य सुनकर उन भगवान्
कृष्ण ने हंसते हुए शीघ्र ही अपने आभूषण एवं वस्त्रों को स्वयं उतारकर इन सखियों
को दे दिया ॥७८॥
महानीलं ददौ वासः कटिवस्त्रं
सुवर्णभम् ।
उष्णीषं चैव कौसुम्भ
मुक्ताभूषितकुण्डले ।। ७९ ॥
अत्यन्त नीले वस्त्रों और सुवर्ण के
समान पीले कटि वस्त्र पीताम्बर को तथा कौसुम्भ के वर्णं वाली पगड़ी को और मुक्ता
जटित कुण्डलों को भी दे दिया ॥ ७९ ॥
स्फुरत्कोटीन्दु
विलसदुष्णीषमणिमुत्तमम् ।
दिव्यमुक्ताफलानद्धग्रीवाभरणमुज्ज्वलम्
॥ ८० ॥
नवरत्नमयीमालां विचित्रकिरणोज्ज्वलाम्
।
किर्मीरितमिवात्युच्चैः
प्रकुर्वन्तीं हृदाम्बुजम् ॥ ८१ ॥
वलयद्वयं । माणिक्यमुक्तामणिभिजंटित
नखसूक्तिं महारम्यां
स्वर्णपद्मविभूषिताम् ।। ८२ ।।
करोड़ों चन्दमा की प्रभा से सुशोभित
उत्तम उष्णीष की मणि को, दिव्य मुक्ताफल से
जटित उज्ज्वल ग्रीवा के आभूषण को नौ रत्नों के हार को जो विचित्र प्रकार की किरणों
से उज्ज्वल प्रभा वाली थी, किमरित के समान अत्यन्त ऊँचे हृदय कमलों को खिलाने वाली,
माणिक्य एवं मुक्तामणि से जटित दोनों कर्ण के आभूषण को तथा स्वर्ण
पद्म से विभूषित महान् नाखशुक्ति को भी दे दिया ।। ८०-८२ ॥
केयूरयुगलं चारु चिन्तारत्नचितान्तरम्
।
मध्योल्लसत्पद्मरागं चतुष्कं
चातिसुन्दरम् ।। ८३ ।।
दोनों हाथों के बाजूबन्दों को जो
चिन्ता (मणि) रत्न से भीतर में चित्रित थे और मध्य में पद्मराग के समान दीप्ति
वाले अत्यन्त सुन्दर चतुष्क (नामक) आभरण को भी दे दिया ।। ८३ ।।
उन्मत्तानङ्गमातङ्गगलघण्टाविडम्बिनीम
नीलहीरादिमणिभिः स्फुरद्भिः परितो
वृत्ताम् ।
क्षुद्रघण्टाक्वणत्कार:
स्वर्णकाञ्चीमनुपमाम् ।। ८४ ।।
उन्मत्त कामदेव एवं हाथी के बच्चे
के गले में झूलते हुए घण्टे के समान नीलम, हीरा
आदि चमकते हुए मणियों से चारों ओर से घिरे हुए, सोने की
अद्वितीय करधनी को जिसमें छोटे-छोटे घुंघरू झङ्कार कर रहे थे उस सखियों को दे दिया
।। ८४ ।।
ऊर्मिकाः प्रस्फुरद्रत्नप्रभापटलमध्यगाः
।
अङ्गुलीछद्म लावण्यधाराशङ्कां वितन्वतीः
॥ ८५ ॥
पादयोः कटके दिव्ये सुवृत्तेः
मणिभूषिते ।
ददो महामनाः कृष्णो यदन्यभूषणादिकम्
।। ८६ ।।
रत्नों की प्रभा पटल के मध्य
ऊर्मियों से प्रभावान् अङगुलियों के व्याज से लावण्य युक्त धाराओं की शङ्का को
उपस्थित कर देने वाले दोनों चरणों के दिव्य कड़े जो सुन्दर गोलाई वाले और मणि से
विभूषित थे, उन्हें और जो भी अन्य आभूषणादिक
थे सभी को महामना श्री कृष्ण ने उन प्रियाओं को दे दिया ।। ८५-८६ ।।
ततश्च रचयामास वेषं तस्या मनोहरम् ।
उष्णीवं मूनि रचितं कर्णयोः
कुण्डलद्वयम् ।। ८७ ।।
इसके बाद उस सुन्दरी का मनोहर वेष
बनाकर शिर पर पगड़ी धारण की और दोनों कानों में कुण्डल पहन लिए । ८७ ।।
कण्ठ माला दछौ रम्यां
नवरत्नविराजिताम् ।
चलये कल्पयायास मणिबन्धद्वये तथा ।।
८८ ।।
नौ रत्नों वाली रमणीय माला को गले
में धारण कर लिया और दोनों कलाइयों में दो वलय बांध लिए ॥ ८८ ॥
केयूरयुगल बाहो क हृदयाम्बुजे ।
कटयां प्रकल्पयामास स्वर्णकाची
मनोहराम् ॥। ८९ ।।
दोनों बाहुओं में बाजूबन्द और हृदय
कमल पर चतुष्क तथा कटि में मनोहारी सुवर्ण की करधनी पहन ली।।८९।।
अङ्गुलीयान्यङ्गुलिषु तदङ्गे कल्पयद्धरि:।
ददौ वेत्र महादिव्यं खचितं
मणिमौक्तिकैः ।। ९० ।।
श्रीहरि ने उन उन अङगुलियों में उन
अगूठियों को पहना तथा मणि एवं मुक्ता से खचित महादिव्य छड़ी को हाथ में धारण किया
।। ९० ।।
रत्नसिंहासने स्थाप्य तां
सखीमिन्दिराभिधाम् ।
ननतं कृष्णो रुचिरान् भावानाविश्कार
ह ।। ९१ ।।
उस इन्दिरा नामक सखी को रत्न के
सिहासन पर बैठाकर श्री कृष्ण भगवान् अनेक मनोहर भावों की अभिव्यक्ति करते हुए
नृत्य करने लगे ।। ९१ ।।
वनितारूपमास्थाय मोहयन्निव मायया ।
प्रिये नृत्यति सोत्साहं जगुः
काश्चन योषितः ॥ १२ ॥
वनिता के रूप में बनकर श्री कृष्ण
ने मानों अपनी माया से सभी को मोहित कर दिया। तभी किसी युवती ने कहा –
प्रिये ! यह बड़े उत्साह से नृत्य कर रही है ।। ९२ ।।
मृदङ्गमहनत् माध्वी यौवनोद्वेलगर्विता
।
वीणामासावती विद्यलता
तन्त्रीमवादयत् ।। ९३ ।।
यौवन के उद्वेग से गर्वीली माध्वी
नाम की सखी ने मृदङ्ग बजाया तथा वीणा को आसावती ने और विद्युल्लता ने तन्त्रों
(सितार) का वादन किया ।। ९३ ।।
लावण्यलहरी साक्षाद्वंशीवादनतत्परा
।
सुप्रभा निस्तुला चोभे अभृतां
तालधारिके ।। ९४ ।।
लावण्यलहरी नामक सखी साक्षात् रूप
से वंशी बजाने में तत्पर हो गई । सुप्रभा और निस्तुला नामक दोनों सखियाँ ताल देने
लगी ।। ९४ ।।
काश्चिन्मुखध्वनिं चक्रुस्तालीवादनतत्पराः
।
काश्चिज्जयजजयेत्युच्चै रूचर्हास्यरसाकुलाः
।। ९५ ।।
कुछ ने मुख से स्वर की धुन निकालना
आरम्भ किया तथा कुछ तो ताली ही पीटने में तत्पर हो गई। कुछ तो हँसते हुए आकुल भाव
से ऊँचे-ऊँचे स्वर में जय हो, जय हो कहना
प्रारम्भ किया ।। ९५ ।।
सुमुखीललिताद्यास्तु साधु साध्विति
चाब्रुवन् ।
अन्याः कुतूहलामग्नाः कृष्णस्य
मुखपङ्कजम् ।। ९६ ।।
उस समय सुमुखी और ललिता आदि सखियों
ने साधु-साधु कहना शुरू किया । अन्य सखियाँ कृष्ण के मुखकमल पर आसक्त हो कुतूहल
पूर्वक आनन्द रस में निमग्न हो गई ।। ९६ ॥
पपुलविण्यमधुरं भ्रमन्ननषटदम् ।
ततो लीलावसाने तू कृष्णरूपधरा सखी ।
सिंहासनात्समुत्थाय रचिताञ्जलिराययौ
।। ९७ ।।
पपात पादयोर्भतुः प्रिय उत्थाप्य
तां सखीम् ।
आलिलिङ्ग चिरं प्रेम्णा
चुचुम्बाननपङ्कजम् ।। ९८ ।।
नयन रूपी भौरों ने इस प्रकार की मधुर
छवि के लावण्य का पान किया । तब लीला के अन्त में उन कृष्ण रूप वाली सखी अपनी
अञ्जलि पसारे हुए सिहासन से उठकर आयी और स्वामी कृष्ण के पैरों पर गिर पड़ी तब उन
सखी को उठाकर अत्यन्त प्रेम से चिरकाल तक उसका आलिङ्गन किया और उसके मुखकमल का
चुम्बन करते रहे।।९७-९८॥
कृष्णं विभूषयामास
पुनस्तंभूषणाम्बरः ।
रथारूढा ययुः सर्वाः प्रियेण
निजमन्दिरम् ।। ९९ ।।
कृष्ण को पुनः उन आभूषणों और
वस्त्रों से अलङ्कृत किया और वे सभी रथ पर आरूढ होकर प्रिय कृष्ण के साथ निजमन्दिर
को लौट गई ।।९९।।
चतुःषष्टिमहास्तम्भराजराजितभूमिकाम्
।
प्राप्य सिंहासनगतं परिवव्रुः
प्रियं प्रियाः ।। १०० ।।
उन प्रियाओं ने चौसठ खम्भों की
पंडितयों से विभूषित भूमिका वाले सिहासन गत प्रिय को प्राप्त कर उन्हें घेर लिया
।। १०० ॥
॥ इति श्रीमाहेश्वतन्त्रे
शिवोमासम्वादे सप्तत्रिंशं पटलम् ।। ३७ ।।
इस प्रकार श्रीनारदपाश्चरात्र आगमगत
'माहेश्वरतन्त्र' के उत्तरखण्ड (ज्ञान खण्ड ) में माँ
जगदम्बा पार्वती और भगवान् शङ्कर के संवाद के संतीस पटल की डॉ० सुधाकर मालवीय कृत 'सरला' हिन्दी व्याख्या समाप्त हुई ।। ३७ ।।
आगे जारी........ माहेश्वरतन्त्र पटल 38

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