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माहेश्वरतन्त्र पटल ३६

माहेश्वरतन्त्र पटल ३६                  

माहेश्वरतन्त्र के पटल ३६ में आत्मा का मोहग्रस्त धर्म, अहंकार विजृम्भण, अन्तरङ्ग और बहिरङ्ग वृत्तियाँ, अहङ्काराश्रित वासना, देहाभिमान का वर्णन है। 

माहेश्वरतन्त्र पटल ३६

माहेश्वरतन्त्र पटल ३६                    

Maheshvar tantra Patal 36  

माहेश्वरतन्त्र ज्ञानखण्ड पटल ३६                     

नारदपञ्चरात्रान्तर्गतम्

माहेश्वरतन्त्र छत्तिसवाँ पटल  

माहेश्वरतन्त्र षट्त्रिंश पटल

अथ षट्त्रिंशं पटलम

शिव उवाच –

स्वस्वमोहेन सख्यस्ता नीताः स्वप्नं परात्मनः ।

तस्मात् स्थूलशरीराणि भौतिकानि महेश्वरि ॥ १ ॥

शिव जी ने कहा- हे महेश्वरि ! अपने अपने मोह के द्वारा उन सखियों ने परमात्मा के स्वप्न को प्राप्त किया । इसलिए उनके स्थूल शरीर तो भौतिक थे ॥ १ ॥

सामान्यतो विदुस्तासां सूक्ष्मदेहस्तथाविधाः ।

कारणात्मा भवेन्मोहो वासनास पृथक् पृथक् ॥ २ ॥

सामान्य रूप से उनके वे सूक्ष्म शरीर ही थे । इस प्रकार पृथक् पृथक् वासनाओं का कारणरूप आत्मा मोह ग्रस्त होता है ।। २ ॥

वासना तदवच्छन्ना जीवभावमिवागता ।

इच्छाशक्तिप्रयुक्तत्वात्स मोहोऽपि रसात्मकः ॥ ३ ॥

वासना से आच्छादित [आत्मा] जीवभाव के रूप में आ जाता है । अतः इच्छाशक्ति के प्रयुक्त होने से वह मोह भी रसात्मक होता है ॥ ३ ॥

न वासनायाः ससारो न मोहस्य तथात्मनः ।

अहं लिङ्गस्य देवेशि संसारं उपयुज्यते ॥ ४ ॥

न तो वासना का संसार होता है और न मोह तथा आत्मा का । हे देवेशि ! लिङ्गशरीर का 'अहम्' ही संसार के लिए प्रयुक्त होता है ॥ ४ ॥

यतो नारायणोद्भुतो मायिकः परिकीर्तितः ।

इच्छानन्दांशसम्भूतः सखीमोहस्तु केवलम् ।। ५ ।।

क्योंकि यह जीव नारायण से उद्भूत होता है अतः संसार मायिक कहलाता है । इच्छा के आनन्दांश से उद्भुत होने से वही मात्र सखीरूप जीव का मोह होता है ॥ ५ ॥

तस्मादहङ्कृते रेषा संसारोऽन्यस्य न क्वचित् ।

कर्तृत्वं चैव भोक्तृत्वमहङ्कारस्य विद्यते ॥ ६ ॥

इसलिए जीव का अहङ्कार ही यह संसार है । दूसरे किसी तत्व का संसार नहीं है। वस्तुतः कर्तृत्व एवं भोक्तृत्व दोनों ही अहङ्कार का होता है ॥ ६ ॥

प्रतीयते वासनायां मोहस्तत्र प्रयोजकः ।

स्थूल देहाभिमानेन अहङ्कारो विजृम्भते ॥ ७ ॥

वासना में मोह की प्रतीति वहाँ प्रयोजक है । स्थूल शरीर के अभिमान के कारण ही अहङ्कार का विजृम्भण [अस्तित्व] है ॥ ७ ॥

सर्वेन्द्रियचरो भूत्वा सर्वकर्मप्रसाधकः ।

बध्यते तत्फलैश्चैवं प्रति जन्म विचित्रधा ॥ ८ ॥

वह अहङ्कार सभी इन्द्रियों में विचरण करता हुआ सभी कर्मों का प्रसाधन करता रहता है। इस प्रकार उसी के कर्म के फल से प्रत्येक जन्मों में विचित्र रूप से आत्मा बंधता है ॥ ८ ॥

अस्तो वासनासु वासना तद्गता भवेत् ।

तादात्म्यभावमापन्ने वासनाहङ्कृतिस्तथा ॥ ९ ॥

जब वासना और अहङ कृति दोनों में तादात्म्य भाव आ जाता है, तब वह ( अहङ्कार ) वासनाओं में अध्यस्त हो जाता है ॥ ९ ॥

शृङ्गाररसरूपाणां सखीनां वासनास्तु याः ।

तासामानन्दरूपं च अहङ्कारेण मिश्रितम् ॥ १० ॥

शृङ्गार रस रूप सखियों की जो वासना है उनका आनन्द रूप अंश उस अहङ्कार से मिल जाता है ॥ १० ॥

प्राप्य नारायण द्वारमक्षरे प्रतिबिम्बिते ।

अन्तरङ्गा बहिरङ्गा स्वप्ने वृत्तिद्वयं भवेत् ॥ ११ ॥

यह अहङ्कार से मिश्रित आनन्द रूप वासना नारायण के द्वार पर आकर अक्षर में जब प्रतिबिम्बित होती है तब दो प्रकार की स्वप्न की वृत्तियाँ होती है- प्रथम अन्तरङ्गा और दूसरी बहिरङ्गा ।। ११ ।।

प्रत्यवृत्तिरन्तरङ्गा बहिरङ्गा बहिगंता ।

प्रत्यग्वृत्या तु देवेशि अहङ्काराश्रितं सुखम् ।। १२ ।।

भीतर की वृत्ति अन्तरङ्गा है और बहिरङ्गा वृत्ति तो बहिर्गता ही है। हे देवेशि ! प्रत्येक वृत्ति का अहङ्कार से आश्रित सुख होता है ।। १२ ।।

नारायणमुखेनैव कूटस्थे व्यक्तिमागतम् ।

यथा सहस्रकुल्याभिः पूर्यमाणं महासरः ॥ १३ ॥

कूटस्थ आत्मा में नारायण के मुख से ही व्यक्ति उत्पन्न होता है । जैसे सहस्रों छोटी-छोटी धाराओं से एक महासर बन जाता है ।। १३ ।।

प्रोत्फुल्ल कमलामोदं रोचते रुचिराकृति ।

वासनानां सहस्रैश्च ह्यहङ्कारविमिश्रितं ।

पूर्णानन्दो भवेद्देवि गणितानन्द इत्यपि । १४ ।।

हे देवि ! रुचिर एवं मनोहर फूले हुए कमल की सुगन्धि जैसे रुचिकर होती है । वैसे ही सहस्रों वासनाओं एवं अहङ्कार से मिश्रित अगणितानन्द भी पूर्णानन्द होता है ।। १४ ।।

बहिरङ्गा तु या वृत्तिरहङ्कारस्य सुन्दरि ।

बहिर्वत्पश्यति विश्वं तयेदन्तात्मकं शिवे । १५ ।।

हे सुन्दरि ! अहङ्कार की जो बहिरङ्ग वृत्ति है, हे शिवे ! इस इदन्तात्मक विश्व को बहि: के समान देखती है ।। १५ ।।

अहङ्कारो विश्वबीजं वासनासु च बिम्बितः ।

दर्शयत्यखिलं विश्वं सखीभ्यो मुकुरो यथा ।। १६

एवं रहस्य कूटस्यो बाललीलाः सखीगणः ।

अनुभूतवन्तावन्योऽन्यं सुदुर्घटमिद प्रिये ।। १७ ।।

विश्वबीज अहङ्कार जीव की वासनाओं में प्रतिबिम्बित होकर समस्त विश्व को वैसे ही दिखलाती है जैसे सखियों के लिए मुकुर (दर्पण) हो । हे प्रिये ! इस प्रकार कूटस्थ ब्रह्म की रहस्यात्मक बाललीला का अनुभव सखियाँ करती है । इस प्रकार सुदुर्घट लीला का अनुभव दोनों ही करते हैं ।। १६-१७ ।।

यथा कल्लोलजालेषु चन्द्रज्योत्स्ना प्रसर्पति ।

अहङ्कारविभेदेषु प्रियाणां वासना तथा ॥ १८ ॥

जैसे कल्लोल करते हुए जल में चन्द्र की ज्योत्स्ना फैली रहती है । अहङ्कार के भेदों मे वैसे ही प्रियाओं को वासना फैली रहती है ॥ १८ ॥

यथा कल्लोलजालेषु प्रशान्तेषु महेश्वरि ।

लक्ष्यते कौमुदी तस्मिन प्रशान्ते वासना तथा ।। १९

जैसे प्रशान्त कल्लोल जालों में चांदनी दिखाई देती है, हे महेश्वरि ! वैसे ही प्रशान्त (अहङ्कार) में वासना रहती  है ।। १९ ।।

सद्गुरोः शरणं यायात्तदर्थमिह सुन्दरि ।

त्वं प्रियासीति कृष्णस्य पूर्णस्य परमात्मनः ॥ २० ॥

बाललीलाविलोकार्थमिह प्राप्ता न संशयः ।

प्रपञ्चसागरे मग्ना कथं तिष्ठसि निर्भया ।। २१ ।।

पुत्राः पोत्रा धनं धान्यं देहगेहाम्बरादिकम् ।

स्वप्नलब्धमिदं सर्वं हित्वा बिम्बं निजं श्रय ॥ २२ ॥

हे सुन्दरि ! इस ब्रह्मानन्द के लिए साधक को सद्गुरु की शरण में जाना चाहिए। हे आत्मा ! तुम परमात्मा पूर्ण श्रीकृष्ण की प्रिया हो। निःसन्देह यहाँ तुम कृष्ण की बाल लीला का दर्शन करने के लिए ही उत्पन्न हुए हो। तुम कैसे इस माया प्रपश्व से भरे सागर रूप संसार में मग्न होकर भी निर्भय हो ? अतः पुत्र पौत्र, धन, धान्य, देह, गेह तथा वस्त्रादिक स्वप्न के समान सभी को छोड़कर अपने बिम्ब का आश्रम ग्रहण करो । २०-२२ ।

कथं खेदयसे बिम्बं मोहमग्ना निरन्तरम् ।

प्रियाणां वासनासि त्वं न प्रियाभ्यः पृथङ्मता ॥ २३ ॥

मोह जाल में निमग्न होकर निरन्तर क्यों इस ब्रह्मानन्द की अवहेलना कर रहे हो ? हे आत्मा ! तुम श्रीकृष्ण की प्रियाओं को वासना हो । उन प्रियाओं से तुम अपने को अलग करके न समझो ।। २३ ।।

अहङ्काराश्रितायास्ते खेदो बिम्बाश्रितो भवेत् ।

तस्मात्प्रबुध्य झटिति निज बिम्बं प्रबोधय ॥ २४ ॥

यह जो दुःख हैं, वह तो अहङ्काराश्रित ( वासना से ) बिम्बाश्रित है । इसलिए जल्दी से तुम जग जाओ और अपने बिम्ब को भी जगा दो ॥ २४ ॥

अहमध्यस्त एवायं देहस्ते पाञ्चभौतिकः ।

अहं स्त्री पुरुषः कृष्णो गौरस्तेनाभिमन्यसे ।। २५ ।।

यह तुम्हारा पाचभौतिक देह है जिसमें 'मैं' ही अध्यस्त हो गया हूँ। वस्तुतः 'मैं' स्त्री हूँ और पुरुष श्रीकृष्ण हैं। इसलिए उस अपने को तुम उस (वर्ण का) जान रहे हो ।। २५ ।।

इदन्ताविरादाय अहन्ता सृष्टिकल्पिता ।

स्वस्वरूपमये वह्नौ हुत्वानन्दमवाप्नुहि ॥ २६ ॥

अहन्ता ( मैं पना) सृष्टि से कल्पित है । अतः इदन्ता (सांसारिकता) रूप हवि को लेकर साधक स्वस्वरूपमय अग्नि में हवन करके आनन्द को प्राप्त करे। भाव यह है कि क्योंकि अहङ्कार से सृष्टिकल्पित है अतः यह परमार्थ नहीं है। परमात्मा कृष्ण ही परमार्थ हैं। अत: अपने असली रूप परब्रह्म रूप अग्नि में अपने इस अहङ्काराश्रित देह का हवन कर आनन्द प्राप्त करो ।। २६ ।।

इदन्तावरिमत्युग्रं मूलाहन्तारणाङ्गणे ।

स्मृतिखड्गेन तीव्रेण घातयित्वा सुखी भव ।। २७ ।।

यह सांसारिकता आदि भाव अत्यन्त उग्र है। इस 'इदन्ता' के भाव को में (कृष्ण) स्मृति रूप तलवार से रणाङ्गण में मारकर हे आत्मा ! तुम सुखी हो जाओं ।। २७ ।।

एवं प्रबोधिता सम्यक् वासना गुरुणा यदा ।

क्रमेणोद्वेगमासाद्य वैराग्यमिव योगतः ।। २८ ।।

इस प्रकार से जब सम्यक् वासना अत्यन्त प्रबुद्ध हो जाती है तब कृष्ण मिलन के उद्वेग में क्रमशः वह वासना वैराग्य से मानों युक्त हो जाती है ॥ २८ ॥

त्यजत्यहङ्कृति सद्यो गेहे देहेन्द्रियेष्वपि ।

देहाभिमाने गलिते विज्ञाते स्वात्मनि ध्रुवम् ।। २९ ।।

शीघ्र ही अहङ्कार को छोड़कर वह देह-गेह एवं इन्द्रियों की आसक्ति को त्याग देता है । इस प्रकार देहाभिमान (देह में आसक्ति) के गलित हो जाने पर अपनी आत्मा में ही उसे अटल विज्ञान पैदा हो जाता ।। २९ ।।

आसाद्य विरहावस्थामुद्वेगाख्यां रसात्मिकाम् ।

विप्रलम्भरसानन्दानुभवो जायते ततः ॥ ३० ॥

इस प्रकार कृष्ण के विरह में रस की 'उद्वेग' रूप अवस्था के आ जाने पर विप्रलम्भ शृङ्गार रस का साधक को अनुभव होता है ।। ३० ।।

॥ इति माहेश्वतन्त्र शिवोमासम्वादे षट्त्रिंशं पटलम् ।। ३६ ।।

।। इस प्रकार श्रीनारदपाञ्चरात्र आगमगत 'माहेश्वरतन्त्र' के उत्तरखण्ड (ज्ञानखण्ड) में माँ जगदम्बा पार्वती और भगवान् शङ्कर संवाद के छत्तीसवें पटल की डॉ० सुधाकर मालवीय कृत 'सरला' हिन्दी व्याख्या पूर्ण हुई ॥३६॥

आगे जारी........ माहेश्वरतन्त्र पटल 37

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