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माहेश्वरतन्त्र पटल ३५

माहेश्वरतन्त्र पटल ३५                 

माहेश्वरतन्त्र के पटल ३५ में वासना का देह के साथ तारतम्य कथन, देहात्मक बुद्धि (अहन्ता) का कारण का वर्णन है। 

माहेश्वरतन्त्र पटल ३५

माहेश्वरतन्त्र पटल ३५                    

Maheshvar tantra Patal 35

माहेश्वरतन्त्र ज्ञानखण्ड पटल ३५                     

नारदपञ्चरात्रान्तर्गतम्

माहेश्वरतन्त्र पैंतिसवाँ पटल  

माहेश्वरतन्त्र पञ्चत्रिंश पटल

अथ पञ्चत्रिंशं पटलम्

देव्युवाच-

वैराग्यस्योदये देव ज्ञाने स्यात्साधनावधिः ।

साधनावधिस्तत्रापि य उद्वेगस्त्वयोदितः ॥ १ ॥

देवी ने कहा- वैराग्य के उदय होने पर, हे देव ! साधन की अवधि ( परिणति ) ज्ञान में होनी चाहिए। साधन की अवधि होती है । किन्तु उसमें भी 'उद्योग' अभी कहा गया है वह होता है ॥ १ ॥ ।

यथा विरक्तो देवेश न कर्मस्वधिकारवान् ।

उद्विग्नोऽपि तथा देव न कर्माधिकृतो भवेत् ॥ २ ॥

हे देवेश ! जिस प्रकार विरक्त का ( सांसारिक ) कर्मों में अधिकार नहीं होता, वैस ही उद्विग्न का भी, हे देव! कर्मों में कोई भी अधिकार नहीं होता है ।। २ ।।

मतिर्न देहविषया तत्र हेतुस्त्वयोदितः ।

अत्र मे खिद्यते चेतो न सम्यगवधारणम् ॥ ३ ॥

भौतिको विषमो देहो वासना ब्रह्मकेवलम् ।

कस्य युज्येत संसारः कोऽत्र कर्माधिकारवान् ॥ ४ ॥

साधक की मति देविषयक नहीं है । उस ( देह विषयक विरति ) का कारण आपके द्वारा पहले कहा गया है। इस विषय में मेरा चित्त सम्यक् रूप से निश्चय करने में असमर्थ है कि भौतिक देह विषम है और वासना मात्र 'ब्रह्म' की है । तब संसार किससे युक्त है ? फिर इस संसार के कर्मों में अधिकार रखने वाला भला कौन है ? ॥ ३-४ ॥

कर्मणि क्रियमाणे हि कोऽत्र भोक्ता फलस्य तु ।

अनित्यस्य जडस्यापि कथं देहस्य तद्भवेत् ॥ ५ ॥

कर्मणामिह भोक्त्री चेद्वासना यदि वाङ्कर ।

कृतनाशः प्रसज्येत हाकृताभ्यागमस्तथा ॥ ६ ॥

अन्येन क्रियमाणे हि कथमन्येन भुज्यते ।

वासनायाश्च देहादेस्तारतम्य वद प्रभो ॥ ७ ॥

फिर क्रियमाण कर्मों में फल का भोक्ता कौन हैं ? अनित्य इस जड़ रूप देह का भी वह ( फल ) कैसे होता है ? हे शङ्कर! यदि कर्मों की भोक्त्री वासना होती है तो कृत कर्म का नाश कैसे होता है ? तथा अकृत कर्म का अभ्यागम कैसे होता है ? यदि दूसरे से क्रियमाण होने वाला है तो कैसे अन्य के द्वारा भोगा जाता है ? अतः हे प्रभो ! मुझ वासना का देह के साथ तारतम्य बताइए ।। ५-७ ।।

शिव उवाच-

शृणु वक्ष्यामि देवेशि तव प्रश्नमनुत्तमम् ।

देहात्मधीविनश्यते यस्य श्रवणमात्रतः ॥ ८ ॥

शिव ने कहा- हे देवेशि ! आपके उत्तम प्रश्न का उत्तर मैं कहता हूँ । आप सुनिए, जिसके श्रवणमात्र से ही देहात्मक बुद्धि का विनाश हो जाता है ॥ ८ ॥

ज्ञानमार्गे तु देवेशि वैराग्यं साधनावधिः ।

नानाजन्मान्तराभ्यासरागरञ्जितचेतसाम् ।। ९ ।।

जीवानां विषयेष्वैव बहिर्धाविति वै मनः ।

सुखं स्यादिष्टविषये घनिष्टे दुःखवद्भवेत् ॥ १० ॥

हे देवेशि ! ज्ञानमार्ग में तो साधन की चिर परिणति (अवधि) तो वैराग्य ही है क्योंकि इस जीव की बुद्धि नाना जन्मों एवं जन्मान्तरों के अभ्यास से राग (आसक्ति) में रंगी होती है। जीवों का मन बाह्य विषयों के प्रति हो दौड़ता है । जीव का मन इष्ट सिद्धि होने पर सुखी तथा अनिष्ट होने पर दु:खी ही होता रहता है ।। ९-१० ।

सुखदुःखादिकं सर्वमहङ्कारोभिमन्यते ।

अहङ्कारगतं सर्वं चिदाभ्यासे प्रतीयते ।। ११ ।।

वस्तुतः सुख और दुःख आदि सभी (अनित्य विषय) अहङ्कार द्वारा माने जाते हैं। अहङ्कारगत सभी जीव चिदाभ्यास में प्रतीत होते हैं ।। ११ ।।

जलचन्द्रे यथा तस्य कम्पादिर्दृश्यते गुणः ।

प्रतीतिमात्रमेतत् तथापि न निवर्त्तते ।। १२ ।।

जिस प्रकार जल के चन्द्र में उसका कम्प आदि गुण दृष्टिगोचर होता है और यह इसकी प्रतीति मात्र ही है । फिर भी वह हटती नही है ( जल में चन्द्र का विम्ब तो रहता ही है । किन्तु चन्द्र है नहीं । मात्र उस चन्द्र की वहाँ प्रतीति ही हमें होती है) ।। १२ ।।

तत्प्रतीति निराकर्त्ती प्रकार वच्मि ते शिवे ।

अनेकजन्मसंसिद्ध साधनानां बलेन च ।। १३ ।।

शुद्धचित्तस्य देवेशि वैराग्यमुपसर्पति ।

रामाद्यभावाद्विषयेष्वहङ्कारो निवर्त्तते । १४ ॥

हे शिवे ! उस प्रतीति के निराकरण के उपाय का प्रकार मैं आपसे कहता हूँ- अनेक जन्मों में किए गए योग-साधनों से और उसी के बल से, हे देवेशि ! शुद्ध चित्त में वैराग्य का संचार होता है और अन्ततः विषयों में राग आदि आसक्ति के अभाव के कारण ही अहङ्कार का निराकरण हो जाता है ।। १३-१४ ।।

न मनो धावनं कुर्याद्विषयेषु इतस्ततः ।

न गृह्णाति सुख दुःख रागद्वेषाद्यभावतः ।। १५ ।।

इधर-उधर मन का विषयों के प्रति दौड़ना नहीं होना चाहिए। वस्तुतः राग अथवा द्वेष के अभाव के कारण साधक को सुख या दुःख की प्रतीति ही नहीं होती ।। १५ ।।

कत्तत्वं चैव भोक्तृत्व महङ्कारे हि दृश्यते ।

स्थलं वपुरधिष्ठानमहं लिङ्गस्य सुन्दरि ॥ १६ ॥

वस्तुत: ( 'मैं यह करता हूँ' 'मैं भोग करता हूँ' आदि रूप से ) कत्तृत्व और भोक्तृत्व तो अहङ्कार के रहने से ही दृष्टिगोचर होते हैं। हे सुन्दरि ! 'अहम्' की भावना तो स्थूल शरीर में रहती है (सूक्ष्म शरीर का 'अहम्' से कोई मतलब नहीं है ) ।। १६ ।।

अहङ्कारगृहीतेन स्थूल देहेन पार्वति ।

योsन्यकर्माणि कुरुते निवध्येतापि तेरयम् ॥ १७ ॥

हे पार्वति ! अहङ्कारगृहीत स्थूल शरीर के द्वारा जिन कार्यों को पुरुष करता है उन्हीं कार्यों के द्वारा वह (स्थूल देह) आबद्ध भी होता है ।। १७ ।।

भोगायतनमात्र हि स्थलो देहः प्रकीर्तितः।

अहङ्कारे सचाध्यस्ले यहङ्कारश्चिदात्मनि ॥ १८ ॥

वस्तुतः स्थूल देह तो भोग करने का मात्र साधन कहा गया है । अहङ्कार में अध्यस्त स्थूल देह चिदात्मा में भी भासित होता है ( किन्तु अहङ्कार आत्मा में होता ही नहीं है ) ।। १८ ।।

स्फाटिके हि यथाssयस्तो जपारागः प्रकाशते ।

चिदाभासे तथा शुद्धेध्यस्ताहन्ता तथा प्रिये ॥ १९ ॥

जपा (ओड़हुल) पुष्प का लाल रंग जिस प्रकार स्फटिक में प्रतिबिम्बित होता है किन्तु उस स्फटिक में रहता नहीं है उसी प्रकार शुद्ध चिदाभास में, हे प्रिये ! वह अहन्ता (अहङ्कारता) प्रकाशित सी जान पड़ती है ।। १९ ।।

स चावृत्य चिदाभासं स्वयमेव प्रकाशते ।

घटाकाशमिवावृत्य जलाकाशः प्रकाशते ॥ २० ॥

वह (अहङ्कार) चिदाभास को आवृत करके स्वयं प्रकाशित होने लग जाता है । जिस प्रकार घटाकाश को आवृत करके जलाकाश (मेघ) प्रकाशित होता है ।। २० ।।

सुखं दःखं भयं क्रोधो मोहो मात्सर्यमेव च ।

धर्माधम पुण्यपापे ज्ञानमज्ञानमेव च ।। २१ ।।

अहङ्कारगतं सर्वं चिदाभासस्य न क्वचित् !

तथाप्यक्पाध्यासवशादात्मन्येव प्रतीयते ।। २२ ।।

सुख, दुःख, भय, क्रोध, मोह, मात्सर्य, ( ईर्ष्या-द्वेष), धर्म-अधर्म, पुण्य-पाप, ज्ञान एवं अज्ञान सभी अहङ्कारगत हैं। ये कभी भी चिदाभास के (धर्म) नहीं हैं । तथापि दोनों के ऐक्य अध्यास के कारण ही ये आत्मा में प्रतीत होते हैं।।१-२२।।

विशुद्धे निर्मले देवि शोणिमेव मणौ यथा ।

तस्मादनात्मधर्माश्च जडा नित्यमशेषतः ॥ २३ ॥

विज्ञायाप्नोति वैराग्यमाविरञ्चिपदादपि ।

रागाद्यभावान्न मनो विषयानुपधावति ।। २४ ।।

हे देवि ! विशुद्ध एवं निर्मल (स्फटिक) मणि में पुष्प लालिमा की जैसे प्रतीति होती है वैसे ही अहङ्कार का आत्मा से ऐक्य प्रतीत होता है । इसलिए अनात्मधर्म जड़ एवं अशेष: अनित्य है । ऐसा जानकर वह वैराग्य को प्राप्त करता है और ब्रह्म पद की इच्छा से भी विरक्त हो जाता है। अतः राग (आसक्ति) आदि के अभाव से मन विषयों के पीछे नहीं दौड़ता है ।। २३-२४ ।।

विषयानुरागरहिते निर्मले मनसि प्रिये ।

स्वात्मा प्रकाशते ध्यानाद्दर्पणे स्वमुखं यथा ।। २५ ।।

अतः हे प्रिये ! विषयों के प्रति अनुराग रहित निर्मल मन में ध्यान से अपनी आत्मा उसी प्रकार प्रकाशित होती है जैसे दर्पण में अपना मुख दिखाई पड़ता है ।। २५ ।।

मनस्यपि लयं याते विकारशतवेश्मनि ।

समाधिस्थो भवेद्योगी यत्र शोको न विद्यते ॥ २६ ॥

सैकड़ों विकारों के अधिष्ठान मन के भी अन्ततः [ कृष्ण में] विलीन हो जाने पर समाधिस्थ योगी को किसी प्रकार की कोई चिन्ता नहीं होती है ।। २६ ।।

॥ इति श्री माहेश्वरतन्त्रे उत्तरखण्डे शिवोमासंवादे पञ्चत्रिंशपटलम् ।। ३५ ।।

॥ इस प्रकार श्री नारदपञ्चरात्र आगमगत 'माहेश्वरतन्त्र' के उत्तरखण्ड ( ज्ञानखण्ड ) में माँ जगदम्बा पार्वती और भगवान् शङ्कर के संवाद के पैंतीस पटल की डॉ० सुधाकर मालवीय कृत 'सरला' हिन्दी व्याख्या पूर्ण हुई।।३५।।

आगे जारी........ माहेश्वरतन्त्र पटल 36

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