माहेश्वरतन्त्र पटल ३४
माहेश्वरतन्त्र के पटल ३४ में देहाध्यास
वर्णन,
कृष्ण प्राप्ति के उपाय, वासना, चिन्ता, उद्वेग आदि भाव का वर्णन है।
माहेश्वरतन्त्र पटल ३४
Maheshvar tantra Patal 34
माहेश्वरतन्त्र ज्ञानखण्ड पटल ३४
नारदपञ्चरात्रान्तर्गतम्
माहेश्वरतन्त्र चौतिसवाँ पटल
माहेश्वरतन्त्र चतुस्त्रिंश पटल
अथ चतुस्त्रिंशं पटलम्
शिव उवाच -
अभिलाषे समुत्पन्ने ततश्चिन्ता
प्रवर्त्तते ।
प्रियो में परमानन्दः परात्मा
पुरुषोत्तमः ॥ १ ॥
प्रिय स्वामी श्रीकृष्ण के प्रति
अभिलाष की उत्पत्ति जब मन में होती है तो वह मन उनकी प्राप्ति के लिए उत्सुक हो
उठता है। मन में प्रिय की प्राप्ति के प्रति चिन्ता उत्पन्न हो जाती है । यही
चिन्ता रहती है कि परमानन्द स्वरूप परमात्मा पुरुषोत्तम ही मेरे प्रिय हैं ॥ १ ॥
अहं तु तत्प्रिया साक्षाद्वासना
मोहवेष्टिता ।
बाललीलावलोकार्थ सम्प्रायं
पुरुषोत्तमम् ॥ २ ॥
मैं उस परमात्मा की प्रिया साक्षात्
'वासना' हूँ जो मोहग्रस्त हूँ । श्रीकृष्ण की बाल
लीला के अवलोकन के लिए पुरुषोत्तम से प्रार्थना करनी चाहिए ॥ २ ॥
विमग्ना मोहजलधो दुस्तरे तमसावृते ।
निरस्त सकल ज्ञानं जाता मे
स्वात्मविस्मृतिः ॥ ३ ॥
हे पुरुषोत्तम ! अहङ्कार रूप तमस से
आवृत दुस्तर मोह समुद्र में मैं डूबा हुआ हूँ । इस अज्ञानान्धकार के कारण हमारे
सम्पूर्ण ज्ञान निरस्त हो चुके हैं और हमारी आत्मा अपने स्वरूप की स्मृति खो बैठी
है ॥ ३ ॥
विभ्रमामि समाविष्टा
देहाध्यासादितस्ततः ।
इय मे जननी चाय पिता भ्राता सहोदरः
॥ ४ ॥
जगत् के भ्रम में पड़कर देह के
अध्यास के कारण में इतस्ततः एक योनि से अन्य योनि में घूम रहा हूँ। यह मेरी माँ है
। यह ( देह ) मेरे पिता हैं । ये मेरे भाई हैं और ये मेरे सहादर हैं- इस प्रकार
भ्रम में पड़ा हूँ ॥ ४ ॥
पुत्राः पौत्राश्च सुहृदो ज्ञातयो
गोत्रिणस्तथा ।
ममत्वान्मे वृथा मोढयात् परिगृह्य'
विमोहितम् ॥ ५ ॥
आत्मा अपने पुत्रों,
पौत्रों, सुहृद् जन, सगे-सम्बन्धी,
सगोत्रों और बन्धु बान्धव के ममत्व के कारण ( देहाध्यास की ) मूढ़ता
के कारण उनके मोह में वृथा ही पड़ी हुई है ।। ५ ।।
स्वप्नदृष्टेषु लोकेषु न च द्वेष्यः
प्रियोऽपि वा ।
परकीयः स्वकीया वा मोह एव हि कारणम्
।। ६ ।।
स्वप्न के समान दिखाई देने वाले इन
लोकों में न तो कोई द्वेष के योग्य है और न कोई प्रिय ही है । अपना और पराया समझने
में मोह ही कारण है ।। ६ ।।
अतः परं न मे कार्यं प्रियं
चात्रियैरपि ।
एक एव प्रियः स्वामी स तु
विस्मारितो मया ॥ ७ ॥
अतः आज के बाद से प्रिय या अप्रिय
का भाव हमें नहीं रखना चाहिए। क्योंकि ( परमार्थतः ) एक ही मेरे प्रिय स्वामी हैं,
जिन्हें हमने विस्मृत करा दिया है ॥ ७ ॥
तदा किमपरः कार्यं स्वाप्ति के
दुःखहेतुभिः ।
तस्मात्कि साधनं कुर्या येनाहं
प्रीतिमाप्नुयाम् ॥ ८ ॥
तब स्वप्नवत् दृश्यमान और दुख के
हेतुभूत जगत् के मोह रूप भ्रम को मिटाने के लिए मुझे क्या अन्य कार्य करना चाहिए।
इसलिए मुझे क्या साधन करना चाहिए ? जिससे
श्रीकृष्ण में प्रीति प्राप्त हो ॥ ८ ॥
तन्न पश्यामि लाकेस्मिन्
वेदवेदान्तयोरपि ।
यत्कृत्वा सुलभो भूयालतिः प्रियतमो
मम ।। ९ ।।
इसलिए इस लोक में वेद अथवा वेदान्त
में वह कुछ भी मै नहीं देख पा रहा हूँ, जिसे
करके प्रियतम स्वामी श्रीकृष्ण मुझे सुलभ हो जायँ ॥ ९ ॥
न वेर्दरुपदिष्टेन कर्मणा प्राप्यते
पतिः ।
कर्मणां फलमुद्दिष्ट स्वगमात्र
विनश्वरम् ।। १० ।।
वेद के उपदिष्ट कर्मों द्वारा
स्वामी की प्राप्ति नहीं हो सकती। क्योंकि कर्मों से मात्र विनष्ट होने वाले
स्वर्गं रूप फल की ही प्राप्ति कही गई है ।। १० ।।
न दानैर्वा तपस्तीर्थं कायक्लेशः
महत्तरः ।
उपवासैर्व्रतैर्जाप्यंश्चित्तशुद्धिविधायिभिः
। ११ ।।
दान, तप या तीर्थों के सेवन से अथवा शरीर को महान क्लेश देने वाले तप, उपवासों, व्रतों एवं चित्त शुद्धि के विधायक जपों से
भी स्वामी श्रीकृष्ण की प्राप्ति सम्भव नहीं है ॥ ११ ॥
कथं तैः केवलानन्दः पतिमं
वशतामियात् ।
न ज्ञानेन भवेद्वश्यः केवलं
मुक्तिकृद्धि तत् ।। १२ ।।
निर्भर आनन्द की मूर्ति श्रीकृष्ण
रूप स्वामी को वश में भला उन उपायों से कैसे किया जा सकता है। वह (तत्व) ज्ञान से
वश में आने वाले नहीं है क्योंकि ज्ञान से तो मात्र मुक्ति प्राप्त होती है ।। १२
।।
वर्म तु पूरुषस्येह वैराग्यं
ज्ञानगुप्तये ।
यदि ज्ञानोदयो न स्याद्वैराग्य यदि
केवलम् ।। १३ ।।
तथापि प्रकृती साक्षाल्लीयते च
तथापि किम ।
योगस्यापि पराकाष्ठा स्वात्मनो
दर्शनावधि ।। १४ ।।
ज्ञान को छिपाने के लिए उस पुरुष के
पास मात्र वैराग्य ही एक कवच है । यदि मात्र वैराग्य ही रहे और ज्ञानोदय न हो तो
भी प्रकृति में वह साक्षात् लय को प्राप्त होता है और उसमें भी क्या योग की
पराकाष्ठा भी मात्र स्वात्म के साक्षात्कार तक ही सीमित है ?
।। १३-१४ ।।
पुराणेष्वितिहासेषु भक्तिरुद्घोषिता
मृशम् ।
सापि ज्ञानाङ्गमुद्दिष्टा तया
प्राप्यः कथं पतिः ।। १५ ।।
पुराणों एवं ( रामायण महाभारत आदि )
इतिहास ग्रन्थों में बारम्बार भक्ति का उद्घोष किया गया है । वह भी ज्ञान के अङ्ग
के रूप कही गई है । अतः उसकी प्राप्ति से पति परमेश्वर श्रीकृष्ण की प्राप्ति कैसे
हो सकती है ? ।। १५ ।।
प्रियप्राप्तेरुपायस्य कोऽपि वक्ता
न विद्यते ।
किं करोमि क्व गच्छामि कस्याग्रे
प्रवदाम्यहम् ।। १६ ।।
इस प्रकार प्रिय की प्राप्ति के लिए
कोई भी शास्त्र कुछ भी नहीं कहते । (ज्ञान वैराग्य और भक्ति से पति (पालक) की
प्राप्ति नहीं हो सकता ) । तब फिर मैं क्या करू ? किस (शास्त्र) के पास जाऊं ? किसके समक्ष में ( अपनी
अभिलाषा ) कहूँ ।। १६ ।।
वनभ्रान्तो यथा कश्चित्
पिशाचपरिमोहिता ।
क्षत्तभ्यां मर्दितो नक्तं
दिवमस्तमिताशयः ।। १७ ।।
जिस प्रकार वन में भटक कर कोई
व्यक्ति पिशाच आदिकों के बीच भय का अनुभव करता है, उसी प्रकार मैं भूख प्यास से पीड़ित रात-दिन को भयग्रस्त हो बिता रहा हूँ
॥ १७ ॥
दन्दशू मृगव्याघ्र वराहैर्भीषितो भृशम्
।
तथा दशैश्च मशकः व्यथितः
श्वापदादिभिः ।। १८ ।।
खटमल, मृग, व्याघ्र (चीते) तथा जङ्गली सुकरों से अत्यन्त
भयान्वित मैं क्या करू ? डक मारने वाले जन्तु, मच्छरों तथा श्वापदों आदि से पीड़ित कहाँ जाऊं ॥ १८ ॥
काङ्क्षत्यप्याश्रमं गन्तु
मार्गभृष्टः करोमि किम् ।
को मे प्रापयति स्थानं
भ्रान्तस्यारण्यवीथिषु ।। १९ ।।
सन्यास आदि आश्रम में मैं जाना
चाहता हूँ । किन्तु मार्गभ्रष्ट होकर फिर क्या करुंगा। भ्रान्त वन की पगडण्डियों
पर भला मुझे कौन पथ दिखाएगा ? ॥ १९ ॥
किं करोमि क्व गच्छामि कस्याग्रे च
वदाम्यहम् ।
बहुद्रुमलताकीर्णं काननं जनवजितम् ॥
२० ॥
इत्यादिविविधां चेष्टां कुर्वाणो
व्याकुलान्तरः ।
अवतिष्ठते तथा चिन्ता जायते
वाक्षनास्वपि ।। २१ ।।
अत: मैं क्या करू ?
कहाँ जाऊ और किसके समक्ष अपनी व्यथा कहूँ ?- बहुत
से वृक्षों एवं लताओं से घिरे हुए व्यक्तिविहीन वन में व्याकुल होकर विविध चेष्टाओं
को करते हुए रह कर तथा वासनाओं में भी चिन्ता होती है ।। २०-२१ ॥
चिन्तामग्नो यथा सर्वं पश्यन्नपि न
पश्यति ।
प्रियचिन्तारसे मग्ना सखीनां वासना
तथा ।। २२ ।।
जिस प्रकार से किसी की चिन्ता में
मग्न कोई व्यक्ति जैसे सभी को देखकर भी नहीं देखता है उसी प्रकार सखियों की वासना
प्रिय की चिन्ता रूप रस में निमग्न रहती है ।। २२ ।।
चिन्तवोद्वेगभावेन ततः परिणता भवेत्
।
उद्विग्नमनसः किञ्चित् नंव हर्षाय
जायते ॥ २३ ॥
चिन्ता तथा उद्वेग के भाव के द्वारा
वह उसी में ऐसे परिणत हो जाती हैं जैसे उद्विग्नमन वाले को कोई भी वस्तु हर्षित
नहीं कर पाती है ।। २३ ।।
प्राणादप्यधिवल्लभस्य विरहे किनाम
रम्यं भवेत्,
येनात्मा क्षणमप्युपैति विरति
स्वास्थ्यं समालम्बते ।
स्फुरन्मीतान्वारिन्जिव करणवृत्तीः
समुदिताः
समादाय क्षिप्य प्रियविरहचिन्ता
विजयते ।। २४ ।।
प्राण से भी अधिक प्यारे प्रियतम के
विरह में भला कौन सी वस्तु रम्य हो सकती है ? जिससे
आत्मा क्षण भर के लिए भी बिरति और स्वास्थ्य लाभ कर सके ? अन्तःकरण
की वृत्तियां उसी प्रकार उठती और विलीन होती रहती हैं जिस प्रकार पानी में मछली
फुदकती रहती है । इस प्रकार की प्रिय की विरह जन्य चिन्ता की जय हो जिसे भक्त जन
प्राप्त कर विक्षिप्त से हो जाते है ॥ २४ ॥
उद्विग्नभावाकुलितान्तराया न रोचते
भूषणमम्बरं वा ।
शय्यासन वाप्यशन श्रुतं वा स्नानादिकं
वा भुवन वनं वा ॥ २५ ॥
उद्विग्नता के कारण व्याकुल अन्तःकरण को न तो आभूषण अच्छे लगते हैं और न तो वस्त्र ही । शय्या आसन, भूख, या कुछ भी सुनना या स्नान आदि नित्य क्रिया अथवा लोकाचार, किवा वन इत्यादि भक्त को कुछ भी नहीं रुचता है।।२५।।
इतः क्षणं वा च ततः क्षणं वा गृहे
क्षणं वा शयने क्षणं वा ।
बहिस्तथान्तः क्षणमात्रमेत्य हयद्विग्नभावा
न लभेत शर्म ।। २६ ।।
कुछ क्षण यहाँ पर कुछ क्षण वहाँ पर,
गृह में कुछ क्षण अथवा कुछ ही क्षण शयन पर रहकर उठकर उद्विग्नमना
भक्त बाहर जाकर फिर शीघ्र ही अन्दर आकर रहता हुआ कहीं भी (प्रिय मिलन की व्याकुलता
के कारण ) शान्ति को नहीं प्राप्त करता है ।। २६ ।।
यथा विरक्तो न विधिष्वधिकृतः
कृताकृते कर्मणि नैव दोषभाक् ।
उद्विग्नताया अपि विप्रलम्भे न
नित्यनैमित्तिक कर्मयोगः ।। २७ ।।
जिस प्रकार किसी बिरक्त पुरुष को
कोई सामाजिक नियम कानून से कोई मतलब नहीं रहता चाहें वह सांसारिक कर्म करे अथवा न
करे उसे कोई दोष भी नहीं होता, उसी प्रकार
विप्रलम्भ (प्रियजन्य विरह) की उद्विग्नता के कारण भी नित्य या नैमित्तिक कर्मों
को करने का कोई बन्धन नहीं रह जाता है ।। २७ ।।
यदुद्वेगो देवि प्रियविरजन्मा
समुदितस् तदाकृष्णस्त्रीणां किमपि नहि कार्य नियमतः ।
तपस्तीर्थं योगो व्रतनियमकर्माणि
सकलं, समाप्तं यत्तासां न हि
पतिरभूद्देहविषया ॥ २८ ॥
हे देवि ! इस प्रकार गोपीजन वल्लभ
श्रीकृष्ण की स्त्रियों में जो प्रिय के विरह से उठा हुआ उद्वेग है वह निश्चय ही
किसी भी कार्य को करने में मन नहीं लगने देता । वस्तुतः तप,
तीर्थ, योग, व्रत एवं
नियम आदि कर्म सभी जिनमें समाप्त ( सम्यक् रूप से आप्त हो जाते ) हैं उनमें फिर
देह विषयिका बुद्धि नहीं रहती है ॥ २८ ॥
श्रीकृष्ण विरहे देवि य उद्वेगः
प्रियासु च ।
अस्माकमीश्वराणाञ्च दुर्लभः किं बुनर्नृणाम्
।। २९ ।।
हे देवि ! श्रीकृष्ण के विरह में जो
उद्वेग उनको प्रियाओं में हैं, वह हम ईश्वर (
प्रभुत्व ) वाले लोगों में भी दुर्लभ है । फिर सामान्य जनों की तो बात ही क्या है ।।
२९ ।।
॥ इति श्री माहेश्वतन्त्रे
शिवोमासम्वादे चतुस्त्रिंशं पटलम् ।। ३४ ।।
।। इस प्रकार श्रीनारदपाश्चरात्र
आगमगत 'माहेश्वरतन्त्र' के उत्तरखण्ड (ज्ञान खण्ड) में माँ जगदम्बा
पार्वती और भगवान् शङ्कर संवाद के चौंतीसवें पटल की डॉ० सुधाकर मालवीय कृत 'सरला' हिन्दी व्याख्या समाप्त हुई ।। ३४ ।।
आगे जारी........ माहेश्वरतन्त्र पटल 35

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