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माहेश्वरतन्त्र पटल ३३

माहेश्वरतन्त्र पटल ३३                 

माहेश्वरतन्त्र के पटल ३३ में ताप की दुर्लभ अवस्थाओं का वर्णन, विप्रलम्भ श्रृङ्गार की दस अवस्थाएँ; आत्मसाक्षात्कार के लिए आत्मस्वरूप का ज्ञान का वर्णन है। 

माहेश्वरतन्त्र पटल ३३

माहेश्वरतन्त्र पटल ३३                    

Maheshvar tantra Patal 33

माहेश्वरतन्त्र ज्ञानखण्ड पटल ३३                     

नारदपञ्चरात्रान्तर्गतम्

माहेश्वरतन्त्र तैंतीसवाँ पटल  

माहेश्वरतन्त्र त्रयस्त्रिंश पटल

अथ त्रयस्त्रिंशं पटलम्

देव्युवाच-

साधूक्तं मन्त्रराजस्य पुरश्चरणमद्भुतम् ।

अतः परं वदेशान तापावस्था सुदुर्लभा ॥ १॥

देवी ने कहा- हे ईशान ! आपने मन्त्रराज का अद्भुत पुरश्चरण साघु रूप से बताया है । अब आप इसके बाद ताप की सुदुर्लभ अवस्थाओं का वर्णन करिए ॥ १ ॥

ययानुभूतया सम्यक् रसः पूर्णानुभूयते ।

तस्मादहं श्रोतुकामा भवामि भक्तवत्सल ।। २ ।।

जिसको अनुभूति से सम्यक रूपेण पूर्ण रसानुभूति होती है । अत: हे भक्तवत्सल ! मैं उसे सुनने की इच्छुक हैं ॥२॥

शिव उवाच-

शृणु देवि पर गुहच त्वया पृष्टं वदामि ते ।

रसात्मक रसभोक्तृ ब्रह्मेति श्रुतयो जगुः ॥ ३ ॥

शिव ने कहा- हे देवि ! उस श्रेष्ठ एवं गोपनीय ज्ञान को सुनो, जिसे तुमने पूछा है, उसको मैं कहता हूँ । श्रुतियों ने उस ब्रह्म को रसात्मक एवं रस का भोक्ता कहा है ।। ३ ।।

रसः शृङ्गार एवादो प्रोक्तस्ते गिरिनन्दिनि ।

संयोगविप्रलम्भात्मा द्विविधः स च कीर्तितः ॥ ४ ॥

हे गिरिनन्दिनि ! पहला शृङ्गार रस कहा गया है। वह शृङ्गार दो प्रकार का है - (१) संयोग और (२) विप्रलम्भ ॥ ४ ॥

अधुनाविप्रलम्भात्मा वर्त्तते केवलं रसः ।

कर्त्तव्यनुभवस्तस्य स एव परमं फलम् ।। ५ ।।

अब इस समय साधक में केवल विप्रलम्भात्मक रस ही होता है। उसका अनुभव करना ही उसका श्रेष्ठ फल है॥५॥

यावत्तापोदयो न स्याद्विप्रलम्भो न सिध्यति ।

अनुभूति: कथं तस्य जायते वद सुने ।। ६ ।।

जब तक वियोग में ताप [ मिलन का व्यग्रता] का उदय नहीं हो जाता है, तब तक विप्रलम्भ शृङ्गार सिद्ध नहीं होता है। हे सुव्रते ! उसकी अनुभूति कैसे होती है ? वह सुनो ॥ ६ ॥

संयोग रसमध्यस्था विप्रयुक्ता तु या प्रिये ।

तस्या एव भवेत्तापो नान्यस्य तु कदाचन ॥ ७ ॥

हे प्रिये ! संयोगरस मध्यस्थ जो वियोग है उसी से ताप होता है दूसरे अन्य कारणों से कभी भी ताप नहीं होता है ॥ ७ ॥

दशावस्था भवन्त्येताः तापे विरहसम्भवे ।

तास्ते. वक्ष्यामि देवेशि शृणुष्वकाग्रमानसा ॥ ८ ॥

उसे ताप की विरहजन्य दस अवस्थाएं होती है । हे देवेशि ! उन्हें मैं कहता हूँ। तुम सावधान होकर सुनो ॥ ८ ॥

अभिलाषस्तथा चिन्ता स्मरणं च ततः प्रिये ।

उद्वेगाधिप्रलापश्च जडतोन्माद एव च ॥ ९ ॥

गुणानां कीर्तनं चैव सज्वरं मरणं स्मृतम् ।

अत्युग्रविरहे देवि अवस्था दशमी भवेत् ॥ १० ॥

ये दस अवस्थाएं हैं - १. अभिलाष, २. चिन्ता, ३. स्मरण, ४. उद्वेग ५. अधिप्रलाप, ६. जडता, ७. उन्माद, ८ गुणकीर्तन, ९. संज्वर और अति उग्र विरह में हे देवि ! दसवीं अवस्था १०. मरण होती है ।। ९-१० ॥

राजपुत्रो यथा देवाद्वनं वनचरैर्वसन् ।

आत्मानं वेत्ति विवशं परं वनचरं प्रिये ।। ११ ।।

प्रभुत्वशौर्यधर्याद्याः धर्माः सर्वे तिरोहिताः।

दीनः कृपणधीर्मन्दः पशुमांसोपजीवनः ।। १२ ।

जैसे राजा का पुत्र दैव योग से वन में वनवासियों के बीच रहते हुए अपने को विवशता के कारण श्रेष्ठ वनवासी ही जानता है । हे प्रिये । वह प्रभुत्व, शौर्य, धैर्य आदि सभी राजोचित धर्मों को भूल जाता है और दीन, कृपण, मन्दबुद्धि एवं पशु के मांस का भोजन करके जीवनयापन करने वाला हो जाता है ।। ११-१२ ।।

आत्मापह्नवमापन्नं दृष्ट्वा कश्चित्प्रबोधयेत् ।

न वनेचरपुत्रोऽसि राजपुत्रोऽसि सर्वथा ॥ १३ ॥

किमर्थं हिसि मो जीवान् दीनः कृपणधीः स्वयम् ।

क्व गुणाः शौर्यधर्याद्याः प्रभुता क्व गता तब ॥ १४ ॥

अपने को भुलाकर पड़े हुए वहाँ देखकर कोई यदि उसे यह कहकर प्रबुद्ध करे कि तुम वनवासी के पुत्र नहीं हो, तुम तो सर्वथा राजा के पुत्र हो । अतः हे राजपुत्र ! तुम जीवों की हिंसा क्यों करते हो ? क्यों तुम स्वयं दीन, कृपण, एवं मन्द बुद्धि हो गए हो ? तुम्हारे शौर्य, धैर्य आदि गुण कहाँ हैं ? तुम्हारी प्रभुता कहीं चली गई ? ॥ १३-१४ ।।

त्यज प्रकृतिदौर्बल्यं श्रय भावं निजं पुनः ।

इत्याप्तवचनं श्रुत्वा जालपाशादिकं त्यजन् ।। १५ ।।

राज्यप्राप्ति च मनमा सङ्कल्प्याकुलचेतनः ।

उच्छन हृदयो भूयादभिलाषाकुलान्तरः ।। १६ ।।

यह [ विषयों में आसक्ति रूप ] प्रकृति को दुर्बलता छोड़ो। अपने स्वयं के भाव में पुनः प्रकृतिस्थ हो जाओ। इस प्रकार के आप्त (सत्य) वचन को सुनकर जाल एवं पाश (फरसा) आदि का त्याग करते हुए राज्य की प्राप्ति के मन से संकल्प करके व्याकुल चित्त होकर उच्छिन्न हृदय हो जाए और इस प्रकार पुनः वह राज्य की प्राप्ति की अभिलाषा से व्याकुल अन्तरात्मा हो जाए [तो यही ताप की प्रथम अवस्था होती है ] ।। १५-१६ ।।

तथा कृष्णप्रिया देवि प्रपञ्चे मोहकल्पिते ।

वासनादेहमासाद्य तद्देहममताकुला ।। १७ ।।

तिरोहितानन्दधर्मा दीना कृपणमन्दधीः ।

जीववत वर्त्तमाना सा भूतद्रोहेण जीवति ।। १८ ।।

हे देवि ! इस मोहकल्पित शरीर में कृष्णप्रिया (आत्मा) सदैव वासना (विषयासक्ति) के देह को प्राप्त करके, उस शरीर में ममता से आकुल रहा करती है। (ब्रह्मा- नन्द रूप सत्य] आनन्द को भूलकर वह (इस संसार में आकर) दीन, कृपण और मन्दबुद्धि होकर अन्य जीवों के समान रहकर भूत-द्रोह से जीवित रहती है ।। १७-१८ ॥

पुरुषोत्तमानुग्रहतः सद्गुरुस्तां प्रबोधयेत् ।

न त्वं स्त्री लौकिकी वासि न पुमानसि सर्वया ॥ १९ ॥

न च विप्रादिको वर्ण स्वात्मानं चेष्टसे मुधा ।

देहगेहममताहारमायां परित्यज ॥ २० ॥

पुरुषोत्तम (भगवान् विष्णु रूप श्रीकृष्ण) के अनुग्रह से उस (आत्मा) को सदगुरु प्रबोधित करे । ( यदि स्त्री हो तो उससे कहे कि ) तुम इस संसार की लौकिक स्त्री नहीं हो और (यदि पुरुष हो तो कहे कि ) तुम सर्वथा लौकिक पुरुष नहीं हो। तुम ब्राह्मण आदि वर्ण में भी नहीं हो। तुम तो असत्य रूप से अपनी चेष्टाओं (क्रिया) को कर रहे हो। अतः शरीर, घर, ममता एवं अहङ्कार रूप माया को त्याग दो ।। १९-२० ।।

प्रपञ्चबीजभूतायाः प्रकृतेः परतः प्रभो ।

अक्षरादप्यतीतस्य पूर्णस्य परमात्मनः ।। २१ ।।

प्रियासि त्वं परानन्दा परानन्दपदस्थिता ।

देहानुसन्धानपरां मायां जहि वराङ्गने ।। २२ ।।

हे प्रभो ! इस (सांसारिक) प्रपञ्च की बीजभूत प्रकृति से परे आत्मा 'अक्षर' है । अतीत, पूर्णं तथा परमात्मा की वह प्रिया है । (हे आत्मा) तुम परानन्द हो और परानन्द के पद पर प्रतिष्ठित हो । अतः हे वराङ्गने ! तु देह (के असली रूप का ज्ञान न होने से उस ) में आसक्त प्रवण न होकर माया का त्याग करो ।। २१-२२ ॥

सुधासिन्धो मणिद्वीपमध्यखण्डे सुशोभने ।

कोटिसूर्यप्रतीकाशं कोटिचन्द्रसुशीतलम् ॥ २३ ॥

वेष्टित मणिमुक्तादि प्राकारैः परमाद्भुतम् ।

सखी मन्दिर साहस्रैः परिवीत समन्ततः ॥ २४ ॥

मणिमन्दिरमत्युच्चः पञ्च योजनमानतः ।

आस्ते ब्रह्माण्डतो बाह्य तत्र ते रमणं शुभम् ॥ २५ ॥

इस संसार में तुम्हारा रमण करना ठीक नहीं है। तुम्हें तो उस अमृत के समुद्र में स्थित मणिद्वीप के मध्य एक खण्ड पर सुशोभित करोड़ों सूर्यों के समान प्रकाशमान, करोड़ों चन्द्रमण्डल के समान सुशीतल, मणि, मुक्ता आदि की चहार- दीवारी से घिरे हुए, अत्यन्त ऊँचे, पाँच योजन विस्तार वाले मणि के मन्दिर में, जो इस ब्रह्माण्ड से बाहर है, तुम्हारा रमण करना शुभ है ।। २३-२५ ।।

यमुनासप्ततीर्थेषु भर्त्राक्रीडां निजां स्मर ।

प्रफुल्लशतपत्रालि झङ्कारमुखरान्तरे ।। २६ ।।

मणिमुक्तान्वितानावमारुह्य सखिभिर्वृता ।

महासरसि विद्योतन्मणिसोपानमण्डिते ।। २७ ।।

यमुना के सप्ततीर्थं पर अपने स्वामी (कृष्ण के) द्वारा की गई क्रीड़ाओं क स्मरण करो। खिले हुए शतपत्र कमल पर झङ्कार करते हुए भौरों से मुखरित अन्तरात्मा वाले, मणि एवं मुक्ता से युक्त नाव पर चढ़कर सखियों से आवृत्त मणि की सीढ़ियों से मण्डित महा सर में सुशोभित ( कृष्ण का स्मरण करो ) ॥ २६-२७ ।।

यथा क्रीडन्तमात्मानं कथं विस्मरसे भ्रमात् ।

सहस्राश्वयुजं रम्यं शतचक्रस्फुरत्प्रभम् ॥ २८ ॥

सर्वतः किकिणीजालैर्मणिमुक्तान्चितान्तरैः ।

कुर्वद्भिः मुखरान् सर्वदिगन्तान् कूजिनेनिजः ।। २९ ।।

(हे कृष्ण प्रिया आत्मा ) तुम कैसे अपने को क्रीडा करते हुए भ्रम से भूल गए हो ? वहाँ सहस्त्र अश्वों से युक्त, रम्य एवं सौ पहिए वाले रथ से निकलती हुई प्रभा का स्मरण करो । हे आत्मा ! वह रथ सर्वतः किंकिणी के जाल एवं मणि तथा मुक्ता से खचित गद्दी वाला है । तुम ऐसे उस रथ का स्मरण करो जो सभी दिशाओं के अन्तरालों को भी मुखर करते हुए अपने कूजन से वातावरण को रमणीय बना रहा है ।। २८-२९ ।।

दाडिमीपपसङ्काशं वरूथोपरि कल्प्यते ।

सुवर्ण कलश रम्यं दीप्यमानमनेकशः ।। ३० ।।

नृत्यद्भिः स्त्रीगणैः सम्यक् गायद्भिः स्वकुतूहलः ।

हासर्याद्भिर्ह सद्भिश्च समन्तात्परिशोभितम् ।। ३१ ।।

अनार के पुष्प के समान (हल्के लाल) आसन के ऊपर बैठे हुए भगवान् की कल्पना करे । रम्य एवं दीप्तिमान अनेक सुवर्ण कलश चारो ओर वहाँ हैं । कुतूहल पूर्वकनृत्य करती हुई तथा गान करती हुई स्त्रियों के समूह की साधक कल्पना करे। वे स्त्रियाँ हँसती हुई तथा हँसाती हुई चारो ओर शोभित होती हैं ।। ३०-३१ ।।

मुक्तावितानकौमुद्या समुद्भासित दिङ्मुखम् ।

प्रियेण रथमारुह्य वनक्रीडां स्मर स्वकाम् ।। ३२ ।।

मुक्तामणि की विस्तृत चाँदनी से समुद्भासित दिशाओं के मध्य में अपने प्रिय कृष्ण के साथ रथ में चढ़कर वन में क्रीडा करते हुए अपने को स्मरण करे ।। ३२ ।।

कदाचित्पुष्परागाद्रावुद्याने सुमनोहरे ।

नानापक्षिगणाकीर्णे स्थलपङ्कजमालिनि ॥ ३३ ॥

अनेककुट्टिमोतमण्डपैः परितो वृते ।

दिव्य पुष्पभरामोदसुवासितदिगन्तरे॥ ३४ ॥

चन्द्रप्रभहृदे रम्ये रम्यराजीवसङकुले ।

मुक्ताजटितसौवर्णायुतसोपानपङ्क्तिभिः ।। ३५ ।।

क्वचित् क्वचिच्छोभिताभिमण्डपः कुट्टिमोपरि ।

चतुस्तम्भ महारत्नमण्डितास्तोरणोज्ज्वलः ।। ३६ ।।

पतत्पतत्रिपक्षत्यवायुप्रचलपादपे ।

पतन्नेत्राञ्जनेदिव्यः सखोयूथस्य दिव्यतः ।। ३७ ।

चन्दनं रङ्गगलितः कुङकुर्मः कुच विच्युतै: ।

परागैः पद्मगलितैः कुसुमैर्वायुनाहृतेः ॥ ३८ ॥

विचित्रदिव्यसलिले मणिमौक्तिकबालके ।

जलक्रीडारसानन्दः कथं विस्मारितोऽधुना ॥ ३९ ॥

(हे आत्मा ! आज मोह जाल में अपने को भुलाकर कैसे स्वयं ( साक्षात् आत्म स्वरूप ) को विस्मृत कर बैठे हो? (इस प्रकार ३९ वे श्लोक में कुलक समाप्त होगा ) । किसी समय पुष्पराग के सुमनोहर उद्यान में, नाना प्रकार के पक्षिसमूहों से व्याप्त, स्थलकमल से भरे हुए, अनेक प्रकार के फर्शो वाले ऊंचे ऊंचे मण्डपों से घिरे हुए, दिव्य पुष्पों की सुगन्ध से सुवासित दिशाओं वाले, रम्य राजीव से व्याप्त रमणीय चन्द्रप्रभ सरोवर में मोतियों से जटित सुवर्ण को सीढ़ियों को पंक्तियों से युक्त, कहीं-कहीं शोभित मण्डपों के फर्शों के ऊपर महारत्नों से जड़े हुए चार खम्भों के मण्डप के तोरण से उज्ज्वल, पक्षियों के उड़ने से उनके पंखों से उठा वायु से कम्पित वृक्षों वाले, दिव्य सखियों के समूह के नेत्रों से गिरने वाले अञ्जनों से युक्त, सखियों के अङ्गों से गिरने वाले चन्दनों से युक्त, पयोधरों से गिरने वाले कुङ्कुमों से व्याप्त, कमलों से झड़े हुए परागों से युक्त, वायु द्वारा लाए गए कुसुमों से आकीर्ण, विचित्र प्रकार के दिव्य जल में मणि एवं मोती के बालू से युक्त आनन्द हृद में जल क्रीडा रूप आनन्द रस का उपभोग करने वाले तुम आत्मा आज अपने आत्मस्वरूप को कैसे भूल गए हो ? ।। ३३-३९ ।।

महापद्मवने दिव्ये समन्तालक्षयोजने ।

गन्धमाधुर्यनिपतत्षङ्घ्रिपटलाकुले ॥ ४० ॥

योजनोत्सेध विस्ताररत्नमण्डपमध्यगे ।

वायुहृतपरागोर्घवितानित नभोऽन्तरे ।

अनेक पक्षिसङ्घातकोलाहल सुखास्पदे ।। ४१ ।।

स्वप्रियेण कृता या याः क्रीडाः सर्वासाश्रयाः ।

कथं विस्मृत्य सहसा जीववत्परितप्यसे ।

कथं मायामुखे लग्ना मिथ्याभूते भ्रमात्मके ॥ ४२ ॥

दिव्य महापद्म के वन में जो चारों ओर एक लाख योजन तक फैला हुआ है, सुगन्ध के माधुर्य रस पर चुम्बन करने वाले भौरों के झुण्डों से व्याप्त, एक योजन तक विस्तृत रत्न मण्डप के मध्य में, वायु द्वारा लाए गए पराग के ओघ से फैले हुए नभमण्डल वाले, अनेक प्रकार के पक्षियों के समूहों के कोलाहल से आनन्द देने वाले वन में, अपने प्रिय के साथ सर्वरस का आश्रयण करने वाली जिन जिन क्रीडाओं का तुमने आनन्द लिया, सहसा उन्हें विस्मृत करके क्यों जीव के समान संतृप्त हो रहे हो ? तुम क्यों माया के उस सुख में संलग्न हो, जो सुख अनित्य होने से मिथ्या है और ( सुख का ) भ्रम कराने वाला है (क्योंकि क्षणिक सुख तो परमार्थ नहीं है) ।। ४०-४२ ।।

पङ्के कस्तूरिका बुद्धिर्लवणे शशिविभ्रमम् ।

काचखण्डे मणिभ्रान्तिर्जल बुद्धिर्यथा भ्रमौ ॥ ४३ ॥

तथैव शर्कराबुद्धिः कर्करामादिषु भ्रमात् ।

कुर्वते मन्दमतयस्तथैव हि तवेदशी ॥ ४४ ॥

कीचड़ में कस्तूरी होने की बुद्धि और लवण समुद्र में चन्द्रमा के होने का भ्रम, शीशे के टुकड़े को मणि समझ लेने से तथा मरुभूमि में जल को भ्रान्ति होना जिस प्रकार असत्य है उसी प्रकार कर्करा आदि लाल पत्थर के टुकड़े में शर्करा होने की बुद्धि रखना भ्रम है । जैसे मन्द बुद्धि के लोग ऐसे भ्रमित होते हैं वैसे तुम भी भ्रमित हो ।। ४३-४४ ॥

शुक्तिकारजतेनैव न कश्चिद्विभवं गतः ।

न स्वप्नलब्धराज्येन राजा' कश्चित्तुविश्रुतः । ४५ ।।

सीपी में चाँदी के भ्रम हो जाने पर कोई धनवान नहीं होता। स्वप्न में राज्य से कोई राजा हो गया हो ऐसा भी नहीं सुना गया ।। ४५ ।

मरीचिकाजल पीत्वा न कश्चित्तमागतः ।

यदीच्छसि सुखं नित्यं जहि सर्वमिमं भ्रमम् ॥ ४६ ॥

मृगमरीचिका के (भ्रमात्मक) जल को पीकर किसी ने कभी भी तृप्ति नहीं पाई । अत: हे आत्मा ! यदि तुम्हें नित्य सुख की वाञ्छा हो तो इस भ्रम पूर्ण संसार को छोड़ दो ॥ ४६ ॥

विना भ्रमनिरासेन विना च स्वात्मधारणाम् ।

विना विषयवतृष्ण्यं विना सन्तोषमार्जवम् ॥ ४७ ॥

भ्रम के बिना हटे, विना अपने को अपनी आत्मा में धारण किए हुए, विषयों के प्रति आसक्त हुए विना तथा बिना सन्तोष के सरल ( सच्चा ) सुख नहीं मिल सकता ॥ ४७ ॥

विना वैराग्यमत्युग्र विना सद्गुरुसेवनम् ।

विना विनयमास्तिक्यं शास्त्रशिक्षां विनापि च ॥ ४८ ॥

साधक को अति उग्र वैराग्य के बिना, सद्गुरु की सेवा के बिना, विनय के विना, ईश्वर में अस्तिकता के बिना और विना शास्त्र की शिक्षा के सच्चा सुख नहीं प्राप्त हो सकता है ।। ४८ ।।

देहाध्यासो मोहकतो न निवर्त्तेत सर्वथा ।

देहाध्यासो निवर्त्तेत निवृत्ते मोहविभ्रमे ।। ४९ ।।

वस्तुतः देह का अध्यास मोह जन्य होता है, जिसका सर्वथा निरास नहीं हो पाता । अतः मोह का भ्रम जब मिटता है तभी देहाध्यास का निरास हो सकता है ।। ४९ ।।

बिम्बभूतस्वरूपस्य विस्मृतिर्मोह उच्यते ।

मोहस्था वासना तस्य जीववच्च प्रतीयते ॥ ५० ॥

आत्मस्वरूप, जो बिम्बभूत है, की विस्मृति ही मोह कहीं जाती है । उसको मोहस्थ वासना जीव के समान प्रतीत होती है ।। ५० ।।

न जीवो वास्तवः कश्चित् वर्त्तते जलचन्द्रवत् ।

जलचन्द्रस्वरूप च गगनेन्दुर्यथा भवेत् ।। ५१ ।।

वास्तविक रूप से जैसे जल में चन्द्रमा नहीं रहता है, वैसे ही कोई जीव वास्तविक रूप से सत्य नहीं है । जल का चन्द्र जैसे वस्तुतः गगन में ही होता है वैसे ही आत्मा तो परमात्मा में ही रहती है ।। ५१ ।।

तथैव वासनारूप निजे धाम्नि स्थिताः प्रियाः ।

गुणः कम्पादिको यद्वत् प्रतिबिम्बे प्रतीयते ।। ५२ ।।

इसी प्रकार वासना रूप प्रिया आत्मा निज धाम परमात्मा में ही रहती है । जैसे जल में कम्पन से प्रतिबिम्ब में भी कम्पन होता है उसी प्रकार गुण (सत्व, रज, तम, आदि) भी प्रतिबिम्ब (कम्पन) रूप से दृष्टिगोचर होते हैं ।

सुखदुःखादिमोहोत्थ वासनायां निरूपितम् ।

न ते सुख च दुःखं च मोहमात्रं विजृम्भिते ।। ५३ ॥

वासना में सुख:दुख आदि मोह जन्य होते हैं । वे न तो सुख होते हैं न दुख ही होते हैं। वह तो मोह का मात्र विजृम्भण है ।। ५३ ।।

तस्मात्स्वरूपं विज्ञाय शास्त्राद्गुरोरपि ।

भ्रमं त्यक्त्वा निजानन्दमाप्नुहि प्रेममीलिता ॥ ५४ ॥

इसलिए साधक को चाहिए कि सम्यक् रूप से शास्त्र और गुरु से आत्मस्वरूप का ज्ञान प्राप्त कर भ्रम का त्याग करते हुए प्रेम सम्मिलित निज आनन्द को प्राप्त करे ।। ५४ ।।

एवं सद्गुरुणा वाक्यामृतेरासेचिता यदा ।

निर्वाप्य मोहभुजगविषज्वालां व्यथाकरीम् ।। ५५ ।।

अभिलाषवती भूयात्परानन्दपति प्रति ।

अभिलाषो मया प्रोक्तः शृण्ववस्था नवापराः ॥ ५६ ॥

इस प्रकार सद्गुरु के वाक्यामृत से सिचित साधक जब व्यथा उत्पन्न करने वाली मोह रूप सर्प के विष की ज्वाला को शान्त कर देता है, तब परमानन्द को प्राप्ति के प्रति साधक के मन में अभिलाषा जागृत हो जाती है । अतः 'अभिलाष' से आगे को नौ अन्य अवस्थाओं को अब मैं कहता हूँ, जिसे आप सुनें ।। ५५.५६ ।।

॥ इति श्री माहेश्वरतन्त्रे उत्तरखण्डे शिवपार्वती सम्वादे त्रयस्त्रिंशं पटलम् ।। ३३ ।।

।। इस प्रकार श्रीनारदपाश्चरात्र आगमगत 'माहेश्वरतन्त्र' के उत्तरखण्ड ( ज्ञान खण्ड ) में माँ जगदम्बा पार्वती और भगवान् शङ्कर के संवाद के तैंतीसवें पटल की डॉ० सुधाकर मालवीय कृत 'सरला ' हिन्दी व्याख्या पूर्ण हुई ।। ३३ ।।

आगे जारी........ माहेश्वरतन्त्र पटल 34

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