माहेश्वरतन्त्र पटल ३२
माहेश्वरतन्त्र के पटल ३२ में मन्त्रराज
के साधन से कर्मपाश छेदन, पुरश्चरण विधि कथन ।
माहेश्वरतन्त्र पटल ३२
Maheshvar tantra Patal 32
माहेश्वरतन्त्र ज्ञानखण्ड पटल ३२
नारदपञ्चरात्रान्तर्गतम्
माहेश्वरतन्त्र बत्तीसवाँ पटल
माहेश्वरतन्त्र द्वात्रिंश पटल
अथ द्वात्रिंशं पटलम
पार्वत्युवाच
देवेश भगवन् शम्भो भक्तवत्सल
धूर्जटे ।
श्रुतोऽयं में
महामन्त्रश्चूडामणिरनुत्तमः ॥ १ ॥
पार्वती ने कहा- हे देवेश,
भगवन्, शम्भो, भक्त-वत्सल,
घूर्जंटे ! मैंने यह उत्तम चूडामणि रूप महामन्त्र को सुन लिया है ।।
१ ।
यस्य विज्ञानमात्रेण स्वयं शुध्यति
वासना ।
अन्येऽपि शुद्धिमायान्ति स्वयं
तत्सङ्गिसङ्गतः ॥ २ ॥
यह मन्त्र इस प्रकार का है कि जिसके
जान लेने मात्र से ही स्वयमेव वासना की शुद्धि हो जाती है और वे अन्य जन भी [मन
की] शुद्धता को प्राप्त कर लेते हैं जो स्वयं से इसके सङ्ग में सङ्गत होते हैं ॥ २
॥
मन्त्रराजमिमं देव प्राप्नुयात्कः
पुमान्यदि ।
भिन्नभिन्न फलैः कर्मपाशजाले
नियन्त्रितः ॥ ३ ॥
हे देव ! यदि इस मन्त्रराज को कोई
पुरुष प्राप्त कर ले तो वह भिन्न-भिन्न फलों से और कर्म रूपी पाश के जालों से
नियन्त्रित हो जाता है ॥ ३ ॥
न स्त्री न पुरुषः कश्चिद्विद्यते
नामरूपतः ।
स्त्री प्राप्यमेव तद्ब्रह्म कृष्ण
आनन्दविग्रहः ॥ ४ ॥
उसकी प्राप्ति के बाद स्त्री या
पुरुष कोई भी नाम और रूप से नहीं विद्यमान रहते । अपितु आनन्द के साक्षात् विग्रह
रूप कृष्ण ब्रह्म के रूप में परिणत हो जाते हैं ॥ ४ ॥
भोक्तृभोग्यस्वरूपेण रसश्चेति
श्रुतेर्मतम् ।
नात्यन्तं च तयोर्भेदो भेदः
स्वाभाविकः प्रभो ।। ५ ।।
श्रुति का भी यही मत है कि भोक्तृ
और भोग्य स्वरूप के द्वारा यह ब्रह्मानन्द ही रस है । हे प्रभो ! उस ब्रह्मानन्द
की अवस्था में दोनों ही भोक्ता और भोग्य में कोई भेद नहीं होता जो स्वाभाविक ही है
॥ ५ ॥
आलम्बनादि विधुरो रस एव न सिद्धयति
।
यद्विना यन्न संसिद्धयेत्तत्तदेव न
चान्यथा ॥ ६ ॥
क्योंकि आलम्बन आदि को छोड़कर रस की
सिद्धि ही नहीं होती है। जिसके बिना जिसकी सिद्धि नहीं उसकी स्थिति उसके बिना
सभाव्य ही नहीं है ॥ ६ ॥
तथापि भोक्तृभोग्याभ्यां भागाभ्यां
क्रीडतेऽनिशम् ।
भोग्यभागस्तु तापात्मा
भोक्तृभागोऽमृतात्मकः ॥ ७ ॥
उसी प्रकार भोक्ता और भोग्य दोनों
ही अहर्निश क्रीडा करते रहते हैं। उन दोनों में भोग्य वस्तु तापात्मक है और भोक्ता
तो अमृतात्मक ही है ॥ ७ ॥
अविनाभावसम्बन्धस्तापस्य च सुखस्य च
।
भोक्तृभोग्यांशयों विप्रलंभस्तापस्य
सिद्धये ॥ ८ ॥
इस प्रकार ताप और सुख दोनों का
अविनाभाव [वियुक्त न होने योग्य ] सम्बन्ध है । अतः ताप की सिद्धि के लिए भोक्तृ
और भोग्यांश दोनों का ही विप्रलम्भ स्वरूप है ।। ८ ।।
कृष्णस्त्रीणां विप्रयोगे यदि
तापोदयो भवेत् ।
कृतार्थता तदा जाता न
निषेधविधिस्थितो ॥ ९ ॥
कृष्ण और [मुझ भक्त-स्वरूप] स्त्री
के वियोग से यदि [ ब्रह्मानन्द रूप] ताप का उदय होता है तो तप में कृतार्थता होती
है और उस समय निषेध रूप विधि (नेति, नेति)
की स्थिति नहीं होती है ।। ९ ।।
विप्रयोगे तु विज्ञाते हृदि तापोदयो
न चेत् ।
तदा चूडामणिजपात् शीघ्र सिद्ध्यति
नान्यथा ॥ १० ॥
यदि कृष्ण और स्त्री [ भक्त ] का
विशेष योग हृदय में विज्ञात होवे फिर भी ताप का उदय न हो तो इसमें सन्देह नहीं कि
इन मन्त्रों में चूड़ामणि रूप मन्त्र- राज के जप से शीघ्र ही सिद्धि प्राप्त हो
जाती है। ॥
तस्माच्चूडामणे मंन्त्रराजस्य च
पुरस्क्रियाम् ।
वद शम्भो विशेषण यथाय जोवितो भवेत्
॥ ११ ॥
इसलिए इस चूड़ामणि रूप मन्त्रराज का
पुरश्चरण,
हे शम्भो, आप मुझसे कहिए, जिससे यह मन्त्र जीवित हो जाता है ॥ ११ ॥
त्वद्वागमृतपानेन न तृप्तिर्जायते
मम ।
धन्यं मत्कर्णयुगलं
ब्रह्मलीलामृतप्लुतम् ॥ १२ ॥
आपके अमृत रूपी वाणी के पान से मुझे
तृप्ति नहीं हो रही है। मेरे दोनों ही कान धन्य हैं जो ब्रह्म के लीला रूपी अमृत
के पान से आप्लुत [ भरा ] गए हैं ।। १२ ।।
अद्य मे पितरौ धन्यो ययोरासमहं सुता
।
प्रसादपात्र भवतो वदतो ब्रह्मणो रहः
।। १३ ।।
आज मेरे माता और पिता (मेना और
हिमालय) भी धन्य हुए हैं जिनकी मैं लड़की हूँ। मैं आपके प्रसाद की पात्र हूँ जो आप
गोपनीय ब्रह्म का प्रतिपादन कर रहे हैं ॥ १३ ॥
धिक्कुलं धिग्धनं तस्य धिग्विद्यां
धिग्यशोऽमलम् ।
न यस्य ब्रह्मचिन्तासु लीनवृत्ति मनो
भवेत् ॥ १४ ॥
उस कुल को धिक्कार है,
उस धन को धिक्कार हैं, उस विद्या को भी
धिक्कार है और उस निर्मल यश को भी धिक्कार है जिसने अपने मन को और अपनी वृत्तियों
को ब्रह्म के चिन्तन में लीन नहीं किया है ।। १४ ।।
आयुर्वर्षशतं लोके तदद्धं निद्रया
हृतम् ।
वाल्य वार्द्धकभावाभ्यां तथा
रोगादिपीडनेः ।। १५ ।।
मनुष्य की आयु सौ वर्ष की है । उसका
आधा भाग निद्रा [ देवी ] के द्वारा छीन लिया जाता है । बाल्यकाल और वृद्धावस्था
तथा रोग आदि यातनाओं के द्वारा शेष जीवन का समय बीत जाता है ।। १५ ।।
व्यर्थयन्ति महामूढा विमुखा
ब्रह्मकीर्त्तने ।
तस्मात्कथय देवेश कथां
पापप्रणाशिनीम् ।। १६ ।।
इस प्रकार महान मूर्ख पुरुष
ब्रह्मकीर्तन से विमुख होकर व्यवस्थित होते ही रह जाते हैं । इसलिए हे देवेश ! पाप-ताप
का नाश करने वाली कथा को कहिए ।। १६ ।।
पुरस्क्रियां विधोपेतां
मन्त्रराजस्य शङ्कर ।
यस्य श्रवणमात्रेण मन्त्रसिद्धिः
प्रजायते ॥ १७ ॥
हे शङ्कर । उस मन्त्रराज की विधि से
युक्त पुरश्चरण को कहिए जिसके श्रवणमात्र से मन्त्र की सिद्धि प्राप्त हो जाती है
॥ १७ ॥
शिव उवाच
धन्यासि देवि गिरिन्द्रजे साधु
पृष्टमिदं रहः ।
यस्य कस्यापि नो वाच्यं वाच्यं
सर्वस्वदायिने ॥ १८ ॥
शिवजी ने कहा- हे गिरिराज कुमारी !
हे देवि,
तुम धन्य हो जो तुमने इस गोपनीय [ मन्त्रराज ] को पूछा है । जिस
किसी को भी इसको नहीं बतलाना चाहिए जो सर्वस्व दान भी करने वाला हो उसे भी नहीं ॥ १८
॥
लब्ध्वा मन्त्र गुरोः सम्यक् सेवया
च प्रसादतः ।
जपतर्पण हो माद्य
बधयेन्मन्त्रमुत्तमम् ।। १९ ।।
गुरु से अच्छी प्रकार से उसकी सेवा
से और प्रसन्नता से इस मन्त्र को लेकर जप, तर्पण,
होम आदि से इस उत्तम मन्त्र का उद्बोधन करे ।।१९ ।।
शून्यागारे गिरी रम्ये तीर्थे
चोपाधिवजिते ।
उद्याने सिद्धपीठे वा प्रयोगे
पुष्करेऽथवा ।। २० ।।
इस मन्त्रराज का एकान्त घर में या
एकान्त पर्वत पर, या रम्य
उपाधिवर्जित तीर्थं पर, उद्यान में अथवा किसी सिद्धपीठ पर यह
प्रयाग में अथवा पुष्कराक्षेत्र में ॥ २० ॥
नर्मदायास्तटे वापि विन्ध्याद्री वा
शुभस्थले ।
जपतो मन्त्रराजानं सिद्धिः शीघ्रं
प्रजायते ।। २१ ।।
नर्मदा के तट पर,
विन्ध्य पर्वत पर या किसी शुभ स्थल में जप करने से शीघ्र सिद्धि
प्राप्त हो जाती है ॥ २१ ॥
जितेन्द्रियो जितक्रोधो जितचित्तो
दृढव्रतः ।
दृढवैराग्य सम्पन्नो
देहाहङ्कारवर्जितः ।। २२ ।।
वहाँ उसे जितेन्द्रिय रहकर,
क्रोध को जीतकर, चित्त की वृत्तियों का निरोध करके,
दृढव्रत धारी होकर, दृढ वैराग्य धारण करके और
देह के अहङ्कार से रहित होकर ॥ २२ ॥
दयालुः सर्वभूतेषु भूतबाधापराङ्मुखः
।
शङ्काङ्कादिरहितो रागद्वेषविवजितः
।। २३ ॥
सभी प्राणियों पर दयालु होकर,
भूतबाधा से पराङ्मुख होकर शङ्का सन्देहरहित और राग एवं द्वेष से
रहित होकर ।। २३ ।।
देह गेहादिकां चिन्तां परित्यज्य
प्रशान्तधीः ।
मन्त्रध्यानपरो नित्यं लीलाध्यानरतः
सदा ॥ २४ ॥
अपने शरीर और गृह आदि की चिन्ता को
छोड़कर उस शान्त चित्तवाले जन को नित्य ही मन्त्र का ध्यान करना चाहिए और सदैव
[कृष्ण की] लीला के ध्यान में रत रहना चाहिए ।। २४ ।।
त्रिधास्त्री संङ्गतित्यागात्
ध्यानमुद्राधरोऽनिशम् ।
मोनी त्रिषवणास्नायी शुचिदेहः
सिताम्बरः ।। २५ ।।
तीन प्रकार से [ मनसा,
वाचा, कर्मणा ] स्त्री की सङ्गति त्याग कर उसे
अहर्निश ध्यान की मुद्रा में रहना चाहिए। उसे सदैव मौन धारण करना चाहिए। उसे तीन
काल में स्नान करना और शुद्ध देह एवं सफेद वस्त्र से युक्त रहना चाहिए ।। २५ ।।
वर्णाश्रमक्रियायुक्तो विश्वासी
ह्यनसूयकः ।
देवब्राह्मण गोनिन्दा रहितो
लोभर्वाजितः ॥ २६ ॥
उसे वर्णाश्रम धर्म की क्रिया से
युक्त,
विश्वासी और असूया न करने वाला, देवता,
ब्राह्मण एवं गायों की निन्दा न करने वाला एवं लोभ से वर्जित रहने वाला
होना चाहिए ॥ २६ ॥
एवं विधगुणैर्युक्तः कुर्यान्मन्त्रपुरस्क्रियाम्
।
मनसा कल्पयेत्क्षेत्र गमनागमनाय च
।। २७ ।।
इस प्रकार के गुणों से युक्त होकर
मन्त्र की पुरस्क्रिया का आरम्भ करे । अपने मन से उसे गमन योग्य और न गमन करने
योग्य क्षेत्र की कल्पना करनी चाहिए ।। २७ ।।
विकिरेत्सर्षपान दिक्षु शतधा
मन्त्रशोधितान् ।
ज्वलदग्निनिभान् दृष्ट्वा पलायन्ते
विनायकाः ॥ २८ ॥
उसे मन्त्र से शोषित सरसों को सौ
बार दिशाओं में छींटना चाहिए। जलती हुई अग्नि के सदृश इन्हें देखकर विनायक [गण |
भाग जाते हैं ।। २८ ॥
ततः खादिरकीलांश्च दशदिक्षु
खनेत्प्रिये ।
नायान्ति कीलिता विघ्ना दृष्ट्वा
क्षेत्रं च कीलितम् ॥ २९ ॥
इसके बाद,
हे प्रिये ! दसों दिशाओं में खदिर [ खैर ] की लकड़ी की कील खनकर
गाड़ देनी चाहिए। इस कीलित क्षेत्र को देखकर विघ्न वाधाएं वहाँ नहीं आती हैं ।। २९
।।
न बहिर्गमनं कुर्यात् क्षेत्रमुल्लङ्घ्य
मोहतः ।
तमोमात्रात्मकाः केचित् श्रेयसां
परिपन्थिनः ॥ ३० ॥
अतः किसी भी प्रकार से मोह या लोभवश
इस कीलित क्षेत्र के बाहर लाँघकर नहीं ही जाना चाहिए । क्योंकि कल्याण चाहने का
दिखावा करने वाले तमो- मात्रात्मक जन भी होते हैं ॥ ३० ॥
औदासिन्यं भयं क्रोधं
निद्रातन्द्राविवर्जयेत् ।
दुग्धपानं फलाहारं भिक्षान्नं चापि
सेवयेत् ॥ ३१ ॥
इस समय उसे उदासीनता,
भय एवं क्रोध, निद्रा तथा आलस्य से रहित होना चाहिए।
उसे सदैव दुग्ध का पान और फल का आहार करके भिक्षा से प्राप्त अन्न का सेवन करना
चाहिए ।। ३१ ।।
कन्दमूलफलैः पत्रस्तथैवायाचितेन च ।
कल्पयेद्दिहिक वृत्ति यथा
नेन्द्रियविक्रिया ॥ ३२ ॥
कन्द-मूल,
आदि फलों एवं तोड़े हुए पत्तों से अपनी देह की [ भूख आदि ] वृत्तियों
का प्रतिपादन करना चाहिए, जिससे कि इन्द्रिय की विकलता न हो जाय
।। ३२ ।।
इन्द्रियाणां विकारे तु मन्त्री
शीघ्रं विनश्यति ।
सर्वेषु धर्ममार्गेषु चरतां
सिद्धिकाम्यया ।। ३३ ।।
क्योंकि इन्द्रियों के विकार से तो
उस मन्त्र जप करने वाले का शीघ्र ही विनाश हो जाता है। अतः सभी धर्मों के मार्गों
में सिद्धि की कामना से आचरण करना चाहिए ॥ ३३ ॥
परिपन्थी न चान्योऽस्ति
यथेन्द्रियविकारिता ।
तस्मादिन्द्रियरक्षाथं सावधानतया
चरेत् ।। ३४ ।।
उतना ही नियम एवं संयम करे जिसमें
इन्द्रिय की विकलता न हो। इसलिए इन्द्रियों की रक्षा के लिए सावधानी से आचरण [ नियम-संयम
] करे ॥ ३४ ॥
इन्द्रियाणि मनो देवि
नोपेक्ष्याणीति मे मतिः ।
उपेक्षया हता लोका विभ्रमन्ते
विचित्रधा ।। ३५ ।।
हे देवि ! मेरे विचार से इन्द्रियों
और मन की कभी भी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए । वस्तुतः उपेक्षा करने से वे नष्टप्राय
होकर विचित्र प्रकार से लोकों में विभ्रमित होते हैं ।। ३५ ।।
विषयेभ्यो निवृत्तोऽपि जितकाममदोऽपि
सन् ।
न करोमीन्द्रियोपेक्षां
मायासृष्टिर्विमोहिनी ॥ ३६ ॥
विषयों से निवृत्त होने पर भी और
कामरूपी मद के जीत लेने पर भी मैं ( = शिव ) इन्द्रियों की उपेक्षा नहीं करता हूँ
क्योंकि यह माया से उद्भुत सृष्टि विमोहित करने वाली है ॥ ३६ ॥
के के वान हता देवि
बलिष्ठरिन्द्रियारिभिः ।
अहल्यायां कृतो जार
इन्द्रस्त्रलोक्यरक्षकः ॥ ३७ ॥
हे देवि ! इन इन्द्रिय रूपी बलवान्
शत्रुओं से कौन ऐसे है जो नहीं मारा गिराए गए हैं। सती अहल्या में भी त्रैलोक्य के
रक्षक इन्द्र ने जार कर्म किया ।। ३७ ।।
चन्द्रमा गुरुभार्यायां तारायां
विनियोजितः ।
बन्धुक्षेत्र गुरुश्चापि
वेदवेदान्तवित्कविः ॥ ३८ ॥
चन्द्रमा ने भी गुरु [ वृहस्पति की
भी ] पत्नी तारा में नियोग कर्म किया और वेद एवं वेदान्त के ज्ञाता क्रान्तदर्शी
गुरु ने भी बन्धु उच्चथ्य [की स्त्री ममता ] में सम्भोग किया ॥ ३८ ॥
विमर्श - बृहस्पति (गुरु) आङ्गिरस
कुल में उत्पन्न एक ऋषि हैं। जिनके संवर्त तथा उचथ्य नामक दो भाई थे । एक बार
इन्होंने उचथ्य की गर्भवती पत्नी ममता के साथ सम्भोग किया । सम्भोग करते समय ममता
के उदर में स्थित बालक ने बृहस्पति से बार-बार उक्त क्रिया करने पर प्रतिबन्ध
लगाया । इस पर क्रोधित होकर इन्होंने उस बालक को शाप दिया कि वह जन्मान्ध पैदा हो
। यही बालक बाद में अन्धे दीर्घतमस ऋषि हुए।
सीतायां रामभार्यायां मद्भकोपि
दशाननः ।
एतेऽन्ये पीन्द्रिय
हतास्तस्मात्तानि न विश्वसेत् ॥ ३९ ॥
राम की भार्या सीता में मेरे भक्त
दशानन ने भी कुदृष्टि रखी थी। इसके अतिरिक्त भी और भी कई जन इन्द्रिय से हत हुए
हैं। इसलिए इन इन्द्रियों में विश्वास नहीं ही करना चाहिए ।। ३९ ।।
तस्मादाहारमाकुच्य जेतव्यानीति मे
मतिः ।
धारयेन्नखकेशांश्व वासः प्रक्षालितं
वसेत् ॥ ४० ॥
इसलिए मेरे विचार से आहार का संकोच
करके इन्हें जीतना चाहिए। उस मन्त्र जापक को नख और केश रख लेना चाहिए और घुले हुए
साफ सुथरे घर में रहना चाहिए ॥ ४० ॥
शयीत भूमौ शय्यायां कुशमय्यां
निशासु च ।
वासः प्रक्षालयेद् देवि कटिमुक्तं
यदा भवेत् ॥। ४१ ।।
उसे भूमि पर शयन करना चाहिए और
रात्रि में कुश के बिछौने पर ही सोना चाहिए। हे देवि ! जब कटि मुक्त होए तब
अर्थात् सोकर उठने के बाद उस वस्त्र धो देना चाहिए ।। ४१ ।
पतितः कर्मचाण्डाली
जातिचाण्डालकेरपि ।
म्लेच्छान्त्यजसङ्करंश्च न भाषेत
जपे स्थितः ॥ ४२ ॥
जप में स्थित रहकर उसे,
पतित जनों, कर्म से चाण्डाल कर्म करने वालों
से और जाति से भी चाण्डालों से और म्लेच्छ, अन्त्यज एवं
वर्णसङ्कर जनों से बातचीत नहीं करनी चाहिए ।। ४२ ।।
सन्ध्याकाले व्यतिक्रान्ते
देहवृत्ति तु कल्पयेत् ।
न्यूनाधिक न कुर्वीत जपं देवि दिने
दिने ।। ४३ ।।
सन्ध्या समय के बीत जाने पर ही शरीर
सम्बन्धी वृत्तियाँ [ मल-मूत्र त्याग या भोजनादि ] करना चाहिए। हे देवि ! उसके बाद
प्रत्येक दिन नियत संख्या में ही जप करना चाहिए । मन्त्र जापक को कभी कम या कभी
अधिक मन्त्र जप नहीं करना चाहिए ।। ४३ ॥
नीच सम्भाषणे देवि म्लेच्छ सम्भाषणे
तथा ।
प्रायश्चित्तं प्रकुर्वीतं
सहस्रजपसंख्यया ॥ ४४ ॥
हे देवि ! यदि नीच [ चाण्डाल आदि ]
से सम्भाषण कर ले अथवा म्लेच्छ से वार्तालाप कर ले तो एक हजार मन्त्र का जप करके
प्रायश्चित्त करना चाहिए ।। ४४ ।।
यामार्द्धनावशिष्टायां निशि शय्यां परित्यजेत्
।
उदिते च सहस्रांशी यः शेते
निद्रितोऽलसः ।। ४५ ।।
रात में जब अर्ध याम [ प्रहर] के
अवशिष्ट रहने पर ही शय्या का त्याग कर देना चाहिए। क्योंकि जो सहस्त्रांशु [सूर्य
] के उदित हो जाने पर निद्रा में या आलस्य में शय्या पर पड़ा रहता है ।। ४५ ।।
जपः छिद्रमवाप्नोति सिद्धिर्भवति
दूरगा ।
सावधानतया भाव्यं तस्माद्देवि दिने
दिने ॥ ४६ ॥
उसे सिद्धि प्राप्त होना तो दूर की
बात है। उसके जप [रूपी वस्त्र] में छिद्र हो जाता है। इसलिए हे देवि ! प्रतिदिन
उसे सावधानी से समय से उठकर जप करना चाहिए ।। ४६ ।।
ध्यायेल्लीलां जपश्रान्तो
ध्यानश्रान्तः पुनर्जपेत् ।
जपध्यानसमायुक्तः शीघ्र सिध्यति
मन्त्रवित् ॥ ४७ ॥
यदि जप करते-करते थक जाय तो भगवान्
कृष्ण की लीलाओं का ध्यान करना चाहिए और जब ध्यान करते-करते थक जाय तो पुनः जप
करना शुरु कर देना चाहिए। क्योंकि मन्त्र वेत्ता इस प्रक्रिया से जप और ध्यान को
समुचित करके शीघ्र सिद्धि को प्राप्त कर लेता है ।। ४७ ।।
नैकवासा जपेन्मन्त्र बहुवस्त्राकुलोऽपि
वा ।
तलताम्बूलपूगादिसर्व भोगान्
विवर्जयेत् ॥ ४८ ॥
मात्र एक ही वस्त्र पहनकर मन्त्र का
जप नहीं करना चाहिए; अथवा बहुत से वस्त्रों
को भी पहनकर जप नहीं करना चाहिए। साधन के समय साधक को तेल, ताम्बूल, सुपाड़ी आदि सभी भोग की सामग्रियों का त्याग कर देना चाहिए ।। ४८ ।।
वाङ्मनः कायकौटिल्यं सर्वथैव
परित्यजेत् ।
न वाचो द्वेजयेत्किञ्चिन्नाशुभं
कस्य वा स्मरेत् ।। ४९ ।।
उसे चाहिए कि मन वाणी शरीर की
कुटिलता को सभी प्रकार से त्याग दे । कभी भी बाणी से किसी को भी उद्वेलित न करे और
मन से भी किसी का अशुभ न चाहे ।। ४९ ।।
न चक्षुषा निरीक्षेत पशुक्रीडां
कदाचन ।
न चेक्षेत स्त्रियं नग्नां न
स्पृशेद्यदमङ्गलम् ।। ५० ।।
कभी भी पशु की क्रीडा को आँख से न देखे
। न तो नग्ना स्त्री को देखे और नही माङ्गलिक द्रव्यों का स्पर्श करे ।। ५० ।।
मध्यन्दिनावधि जपेन्मन्त्र
राजमनन्यधीः।
ततः परं तु मनसा ध्यायेल्लोलां
समाहितः ।। ५१ ।।
अनन्य बुद्धि से [ विना किसी और का
ध्यान किए हुए ] इस मन्त्रराज का जप मध्याह्न तक करना चाहिए। उसके बाद समाहित
चित्त होकर भगवान् कृष्ण की लीला का ध्यान मन से करना चाहिए ।। ५१ ।।
जपस्यैवं दशांशेन होमं कुर्याद दिने
दिने ।
अथवा लक्षपर्यन्तं जप्त्वा होमं
समाचरेत् ॥ ५२ ॥
प्रतिदिन उसे जप की संख्या के दशांश
[ अर्थात् यदि दश माला जप किया है तो १ माला ] से हवन करना चाहिए अथवा उसे चाहिए
कि नित्य प्रति होम न करके एक लाख जप करने के बाद उसके दशांश से हवन बाद में करे
।। ५२ ।
समाप्तौ वापि जुहुयात्
यथासम्भवमम्बिके ।
प्रत्यक्षरं जपेल्लक्षं
श्रद्धावान्नातिचञ्चलः ॥ ५३ ॥
हे अम्बिके ! जप की समाप्ति पर उसे
जितना हो सके उतनी आहुति देनी चाहिए। श्रद्धावान् साधक को चाहिए कि एक-एक अक्षर का
एक लाख जप विना किसी चंचलता के करे ।। ५३ ।।
आरब्धे तु जपेद्देवि मन
उद्विजतेतराम् ।
चिन्ताशोकभयोद्वेगदुःस्वप्नादि प्रजायते
॥ ५४ ॥
हे देवि ! जब जप का आरम्भ किया जाता
है तो मन में उद्वेग होता है । उसमें तरह-तरह की चिता,
शोक, भय, उद्वेग और
दुःस्वप्न आदि आने लगते हैं । किन्तु प्रारम्भ करने के बाद उसे जप करना ही चाहिए ॥
५४ ॥
तदा धेयं समालम्ब्य
स्थिरीकुर्यान्मनो धिया ।
एवं लक्षत्रये जप्ते लीलाध्यानक
चेतसः ।। ५५ ।।
तब धैर्यं धारण करके मन को और
बुद्धि को स्थिर करना चाहिए। इस प्रकार से तीन लाख जप करने पर साधक भगवान् कृष्ण
की लीला के ध्यान में मग्न होता है ।। ५५ ।।
विघ्नाः सर्वे पलायन्ते पातकानि
ज्वलन्ति च ।
निर्विघ्नस्य विपापस्य मनः सम्यक्
प्रसीदति ।
मनः प्रसन्ने देवेशि स्वप्ने
देवादिदर्शनम् ।। ५६ ।।
तब सभी विघ्न बाधाएं दूर हो जाती
हैं और सभी पाप जल जाते हैं। तब उस निर्विघ्न और पाप से रहित साधक का मन सम्यक्
रूप से प्रसन्न होता है । हे देवेशि ! मन के प्रसन्न होने पर स्वप्न में देव आदि
का दर्शन होता है । ५६ ।।
वरार्थं प्रार्थ्यमानोऽपि नैव
लुभ्यान्मनः प्रिये ।
पञ्चलक्षजपेद्देवि देवदानवरक्षसाम ॥
५७ ॥
अवधूष्यो भवेत्साक्षाज्ज्वलन्निव
हुताशनः ।
दशलक्षजपे सिद्धे प्रार्थयन्त्य
मराङ्गनाः ॥ ५८ ॥
हे प्रिये ! वर के लिए उन देवी
देवताओं द्वारा प्रार्थना करने पर भी अपने को उसमें नहीं ही लुभाना चाहिए। हे देवि
! उसे पाँच लाख जप करना चाहिए । तब देव, दानव
और राक्षस भी रास्ते से हट जाते हैं। जैसे साक्षात् प्रज्वलित होती हुई अग्नि
घर्षित नहीं होती वैसे ही साधक का तेज हो जाता है । जब दस लाख तक जप हो जाता है तब
अमराङ्गना [ देवताओं की स्त्रियाँ ] प्रार्थना करती है ॥ ५९ ॥
एवं स्वामी च वयं दास्योऽनुग्रहाण
दयापरः ।
यावद्यास्यसि धाम स्वं भित्वा
ब्रह्माण्डमण्डलम् ।। ५९ ॥
तावत्त्वं स्वर्गमातिष्ठ ह्यस्माभिः
कृतसेवनः ।
तत्रास्तिनन्दनवनं
सर्वर्तुगुणमण्डितम् ।। ६० ।।
तुम स्वामी हो और हम सब तुम्हारी
दासी हैं। हम लोगों को आप दया करके अनुगृहीत करें। जब तक तुम ब्रह्माण्ड मण्डल का
भेदन करके अपने धाम को नहीं चले जाते तब तक तुम हम लोगों से सेवित होते हुए स्वर्ग
में रहो । वहीं पर सभी ऋतुओं के गुणों से युक्त नन्दनवन हैं ।। ५९-६० ।।
स्वर्धुनी स्वर्णसोपाना
रत्नमण्डपमण्डिता ।
हंसकारण्डवाकिर्ना स्वर्णपद्मा
लिसङ्कुला ।। ६१ ।।
वहाँ सदैव गीतों के स्वर सुनाई
पड़ते रहते हैं। वहाँ की सीढ़ियाँ स्वर्ण की बनी है और वहाँ के मण्डप सभी ऋतुओं के
गुण के अनुसार रत्नजटित हैं। वहाँ का नन्दनवन हंस एवं कारण्डव [ - बत्तख ] आदि
पक्षियों से संकुलित है । वहाँ के सरोवर स्वर्ण के कमल और भौरों आदि से व्याप्त
हैं ।। ६०-६१ ।।
आहारो यत्र पीयूषं रक्षिता यत्र
देवराट् ।
प्रार्थयन्ति देवलोकं क्रतुभिः
कर्मकोविदाः ।। ६२ ।।
जहाँ पर आहार रूप से मात्र अमृत ही
पान किया जाता है [ मृत्युलोक में अमृत गाय का दुग्ध है । अतः जो लोग गाय की सेवा
करके उससे प्राप्त दुग्ध का सेवन करते हैं वह सभी रोगों के निवारण करने वाले एवं
पौष्टिक आहार के रूप में अमृत का ही पान करते हैं ] जहाँ के रक्षक देवराज इन्द्र
हैं । इसीलिए कर्मकाण्ड के प्रवर्तक विद्वज्जनों द्वारा यज्ञों से देवलोक की ही
प्रार्थना की जाती है ।। ६२ ।
तस्मादलङ्कुरु स्वयं स्वर्गं
त्रिदशमण्डितम् ।
एवं विलोभ्यमानोऽपि मन्त्री
निश्वलमानसः ।। ६३ ।।
इसलिए देवताओं से सुशोभित स्वर्ग को
आप स्वयं अलङ्कृत करें - इस प्रकार उन देवाङ्गनाओं के द्वारा प्रलोभन देने पर भी
मन्त्र जप करने वाले को निश्चल मन वाला ही रहना चाहिए ॥ ६३ ॥
श्रावयेदुत्तरं तासामक्षुब्धो
निःकुतूहल: ।
स्वर्गो नापि नरको न मोक्षो बन्धनं
नहि ।। ६४ ।।
स्वप्ने यथा तथा भाति रोचते न मनाङ्
मम ।
तस्माद्यूयं मया प्रोक्ताः
प्रयान्तु त्रिदशालयम् ।। ६५ ॥
इतना ही नहीं,
अपितु विना किसी भी कुतूहल के और क्षुब्धता से रहित होकर उन्हें
उत्तर देना चाहिए कि स्वर्ग, नरक, मोक्ष
और बन्धन मुझे रुचिकर नहीं है। यह तो मुझे स्वप्न के समान प्रतीत होता है । अतः आप
सभी मुझसे अनुज्ञा लेकर स्वर्ग को ही चलीं जाँय ॥ ६५ ॥
श्रुत्वैवं वचनं तस्य निराशा यान्ति
ताः स्त्रियः ।
दशपञ्च च लक्षाणि यदा जप्तो महामनुः
॥ ६६ ॥
तदा सिद्धाः समायान्ति सिद्धिभिः सह
सुन्दरि ।
पातालेषु प्रवेशं च दूरश्रवणदर्शनम्
॥ ६७ ॥
परकायाप्रवेश च मनः पवनवद्गतिम् ।
पादुकाञ्जनसिद्धि द रसधातुक्रियां
तथा ।
इत्यादिविविधां सिद्धि दर्शयन्ति न
संशयः ॥ ६८ ॥
इस प्रकार के उस मन्त्र जप करने
वाले के वचन सुनकर वे स्त्रियों निराश हो जाती हैं। इस प्रकार जब पन्द्रह लाख जप
उस महान् चिन्तामणि मन्त्र के द्वारा कर लिया जाता हैं तब हे सुन्दरि ! सिद्धियों
के साथ सिद्ध लोग आते है। तब वे सिद्ध जन पाताल में प्रवेश,
दूर की बात भी सुन लेना, दूसरे की काया में
प्रवेश करना, मन और पवन की गति के समान तेज चलना, पादुका सिद्धि और अंजन लगा लेने पर अप्रत्यक्ष का भी प्रत्यक्ष होना और रस
एवं धातु क्रिया [ स्वर्ण या चाँदी बना देना ] आदि विविध प्रकार की सिद्धियाँ
दिखलाई पड़ती हैं इसमें सन्देह नहीं है ।। ६६-६८ ॥
पूर्वोक्तवचने चोक्ते यान्ति ते
नातिपूर्वकम् ।
यदा विशति लक्षाणि जप्ते
चिन्तामणिमनो ।। ६९ ।।
स्फुरन्ति सकला विद्याः शास्त्राणि
विविधानि च ।
पञ्चविंशति लक्षाणि जप्ते चिन्तामणी
प्रिये ॥ ७० ॥
साक्षात्पश्यति देवेशि
ब्रह्माण्डमक्षरात्मकम् ।
ब्रह्माण्डान्तः प्रविष्टं च विराजं
पश्यति प्रिये ।। ७१ ।।
पहले के वचन के अनुसार सिद्धियाँ
उसी प्रकार नहीं आती हैं। जब बीस लाख जप चिन्तामणि मन्त्र का पूर्ण हो जाता है तब
सभी विद्याएं और विविध प्रकार के शास्त्र स्फुरित हो जाते हैं। इस प्रकार हे
प्रिये ! चिन्तामणि मन्त्र का पचीस लाख जप कर लेने पर वह मन्त्र जापक साक्षात् रूप
से,
हे देवेशि, अक्षरात्मक ब्रह्माण्ड को देखता है
और हे प्रिये, वह उस ब्रह्मण्ड के अन्तर में प्रविष्ट होकर
विराजता है ।। ६९-७१ ॥
त्रिशल्लक्षजपे सिद्धे नारायणमनामयम्
।
ध्याने पश्यति देवेशि व्यापकं
सर्वतोमुखम् ।। ७२ ।।
तीस लाख जप कर लेने पर हे,
देवेशि ! वह ध्यान में व्यापक और सर्वतोमुख अनामय (निर्मल) भगवान्
नारायण को ध्यान में देखता है । ७२ ।।
सर्वतः पाणिपादान्तं सर्वतः
श्रवणाक्षिमत् ।
अनेक मूर्द्धमुकुटमने काभरणाकुलम् ।।
७३ ।।
वे नारायण सर्वतः हाथ-पैर और कान
आंख से युक्त एवं अनेक मुकुटों और अनेक आभूषणों से भूषित होते हैं ।। ७३ ।।
पत्रित लक्षाणि
मन्त्रावर्त्तनगौरवात् ।
ध्यानं विनापि चक्षु पश्येन्नारायणं
विभुम् ॥ ७४ ॥
पैतिस लाख मन्त्र की आवृत्ति के
गौरव से उसे ध्यान के बिना भी विष्णु भगवान् नारायण का दर्शन होता है ।। ७४ ।
चत्वारिंशत्त लक्षाणि मन्त्रावर्त्तयेद्यदा
।
पश्येन्मञ्चे ब्रह्ममये शयानं पुरुष
तदा ।। ७५ ।
जब चालीस लाख जप हो जाता है तब वह
ब्रह्ममय मञ्च पर परमात्मा पुरुष को शयन किए हुए देखता है।।७५।।
चत्वारिंशत्तथा चाष्टी लक्षाणि
जपगौरवात् ।
मोहनिद्रावशेषोऽपि पश्येत्
ब्रह्मपुरश्रियम् ।। ७६ ।।
अड़तालिस लाख जप के प्रभाव से वह
मोहनिद्रा में शेष रूप ब्रह्मपुर स्थित 'श्री' को देखता है ।। ७६ ॥
मोटियोजनविस्तीर्णे सुधासिन्धौ
सुरेश्वरि ।
रत्नद्वीपे ब्रह्मपुरे
नित्यवृन्दावनस्थितिम् ॥ ७७ ॥
हे सुरेश्वरि ! कोटियोजन विस्तार वाले
अमृत के समुद्र में रत्नद्वीप है। वहीं ब्रह्मपुर है । जहाँ नित्य वृन्दावन जैसी
स्थिति रहती है ॥ ७७ ॥
मणिमन्दिर मध्यस्थ रत्न सिंहासन
स्थितम् ।
स्वामिन्याश्लिष्टवामाङ्ग सखीमण्डलवेष्टितम्
॥ ७८
उत्तमं पुरुषं पश्येत् ध्याने
साक्षादिव स्वयम् ।
ततस्तापो भवेत्तीविरहेण फलात्मकः ।।
७९ ।।
माणिक्य जटित मन्दिर के मध्य में
रत्न के सिहासन पर स्थित अपनी स्वामिनी (राधाजी) से वाम अङ्ग में आविष्ट और सखियों
के मण्डल में घिरे हुए पुरुषोत्तम को ध्यान में साक्षात् रूप से स्वयं ही वह देखता
है तब । फल रूप से उसे तीव्र विरह के द्वारा सन्ताप होता है ।। ७८-७९ ।।
तदा च नियमाः सर्वे कृता वाप्यकृता
अपि ।
समाप्यन्ते महेशानि स्वास्थ्याभावस्वभावतः
॥ ८० ॥
तब सभी किए गए या न किए गए भी नियम
समाप्त हो जाते हैं और हे महेशानि ! वह स्वभावतः अस्वस्थ्य सा हो जाता है ।। ८० ।।
इत्येवं कथित देवि यथा तापोदयो
भवेत् ॥
समासेन महेशानि किं भूयः
श्रोतुमिच्छसि ।। ८१ ।।
इस प्रकार हे देवि ! जिस प्रकार सन्ताप
का उदय होता है उसे मैंने तुम्हें संक्षेप से कहा है । अब तुम और क्या सुनना चाहती
हो ?
॥ इति श्रोमाहेश्वरतन्त्रे
उत्तरखण्डे शिवोमासवादे द्वात्रिंशं पटलम् ॥ ३२ ॥
॥ इस प्रकार श्रीनारदपाश्चरात्र
आगमगत 'माहेश्वरतन्त्र' के उत्तरखण्ड ( ज्ञानखण्ड ) में माँ
जगदम्बा पार्वती और भगवान् शङ्कर के संवाद के बत्तीसवें पटल की डॉ० सुधाकर मालवीय
कृत 'सरला' हिन्दी व्याख्या पूर्ण हुई
॥ ३२ ॥
आगे जारी........ माहेश्वरतन्त्र पटल 33

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