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योगिनीतन्त्र पटल १०

योगिनीतन्त्र पटल १०    

योगिनीतन्त्र पटल १० में भगवान् के द्वारा देवी की स्तुति का वर्णन और कारणार्णव का वर्णन है।

योगिनीतन्त्र पटल १०

योगिनीतन्त्र पटल १०     

Yogini tantra patal 10

योगिनीतन्त्रम् दशम: पटलः

योगिनी तन्त्र दशम पटल

योगिनी तंत्र दसवाँ पटल 

योगिनीतन्त्रम्

ईश्वर उवाच ।

उत्थाय च पुनर्देवी न सा दृष्टा मया पुनः ।

कथयन्भृशदुःखार्तो निमग्नः शोकसागरे ॥ १ ॥

ईश्वर बोले- हे देवि ! हमने उठकर फिर उन महाकाली को नहीं देखा तब शोकसागर में निमग्न हो गये ॥ १ ॥

हा मातस्ते मुखाम्भोजं कोटिचन्द्रार्कन्यक्कृतम् ।

कीदृकू चरणराजौ ते कृपासागरसञ्चयम् ॥ २ ॥

विस्तृतं परमं रूपं महामायाविमोहनम् ।

किम्भूतं नखचन्द्राणां ज्योतिः परममंगलम् ॥ ३ ॥

कोटिकोटिनिशानाथविगलन्मुखमण्डलम् ।

किम्भूतं किं भवेन्मातः क्व यातमिदमद्भुतम् ॥ ४ ॥

हा हा मातरिदं रूपं सच्चिदानन्दमव्ययम् ।

अस्माकं मातृभावेन न पश्यामः पुनश्च ताम् ॥५॥

( और अत्यन्त दुःखार्त्त होकर उनसे कहने लगे) हा मातः ! आपका मुखकमल करोढ करोड चन्द्रमा का तिरस्कार करता है, तुम्हारे चरण करुणा के सागर और विस्तारित हैं, महामाया के भी विमोहन और परमरूपसम्पन्न हैं, आपके नखचन्द्र का मंगलकर ज्योतिः अनिर्वचनीय है, हे मातः ! क्या हुआ? क्या होगा? वह अदभुतरूप कहां गया? हा हा माता ! तुम्हारा वह रूप सच्चिदानन्द और अव्यय है, हम मातृभाव से अब उसको नहीं देखते॥२-५॥

मातृतातविहीनाश्च भ्रमन्ति बालका यथा ।

रुदित्वा च रुदित्वा च वयं सर्वे तथाह्वयन् ॥ ६ ॥

इत्यादिविविधैर्देवि विलापैः परमेश्वरि ।

नीता वयं पञ्चलक्षं वर्षाणामम्बुजेक्षणे ॥ ७ ॥

रुदित्वा पुनरुत्थाय रुदन्तो भृशमुच्चकैः ।

मातर्माता क्व याता त्वमस्माकं किं भविष्यति ॥८॥

पिता माता हीन बालक जिस प्रकार रोते फिरते हैं, हमारी भी वही अवस्था हुई है, हे परमेश्वरि ! हे देवी! हे कमलेक्षणे ! इस प्रकार अनेक विलापों में हमारे पांच लाख वर्ष बीत गये । एक बार रोते हुए गिरें और फिर उठकर हे मातः ! तुम कहां गई ? हमारी क्या दशा होगी ? इस प्रकार चिल्लाकर रोने लगे ॥ ६-८ ॥

वयन्ते कथमुत्पाद्य निक्षिप्ता दुस्तरार्णवे ।

दयानास्ति ह्यहो मातर्वयन्ते दीनबालकाः ॥ ९ ॥

न पालयसि चेदस्मान्कोवा स्मान्पालयिष्यति ।

त्वां विना जननी नास्ति नास्माकं तात एव च ॥ १०

त्वामदृष्ट्वा मरिष्यामः सत्यमेव सुनिश्चितम् ।

मातृतातविहीनस्य बालकस्य च जीवनम् ॥ ११ ॥

कथं भवति हे मातर्ज्ञायतां स्वयमेव हि ।

निरुत्सुका हृदस्माकं कृपा तस्यास्तदा भवेत् ।

सोवाच योगिनी वाणी महामृतप्रवर्षिणीम् ॥ १२ ॥

आपने हमको उत्पन्न करके दुस्तर दुःखसागर में क्यों फेंक दिया? अहो मातः ! हम तुम्हारे दीन बालक हैं, तुमको क्या कुछ भी दया नहीं है यदि आप हमारा पालन नहीं करेगीं, तो हमारा प्रतिपालन और कौन करेगा? तुम्हारे अतिरिक्त हमारे माता पिता कोई नहीं है, तुमको न देखने से हम सत्य ही मर जायेंगे। इसमें सन्देह नहीं । हे मातः ! आप स्वयं ही विचार करके देखिये कि, माता पिता हीन बालक का जीवन किस प्रकार हो सकता है ? हमारा हृदय इस प्रकार से शोक संतप्त और निरुत्सुक देखकर वह योगिनी (महाकाली) महामृतवर्षिणी वाणी कहने लगे ॥ ९-१२ ॥

श्रीकाल्युवाच ।

मा भयार्त्ता महेशानब्रह्मविष्णु महेश्वराः ।

तिष्ठामि सततं देवा नित्याहुरहमव्यया ॥ १३ ॥

श्रीकाली ने कहा- हे ब्रह्मन् ! हे विष्णो ! हे महेश्वर ! तुम भय से दुःखी मत होओ। मैं सदा ही स्थित रहती हूं, मैं नित्या और अव्यया हूँ १३ ॥

सच्चिदानन्दरूपाहं ब्रह्मैवाहं स्फुरत्प्रभम् ।

मम नाशो नास्ति कदा निःसन्देहास्तु तिष्ठत ॥१४॥

मैं ही सच्चिदानन्दरूप और मैं ही प्रकाशित कान्तियुक्त ब्रह्म हूं. मेरा नाश कभी नहीं है, मैं सदा स्थित रहती हूं, इसमें सन्देह नहीं ॥ १४ ॥

यद्रूपं दृष्टमस्माकं युष्माभिः परमं मतम् ।

ध्यात्वा यद्रूपममलं जपं कुरुत में मनुम् ॥ १५ ॥

तुमने मेरा जो परम निर्मल रूप देखा है, उसी रूप का ध्यान करके मेरा मंत्र जपते रहो ॥ १५ ॥

तदेव मङ्गलं लाभं भविष्यति महाप्रभम् ।

इन ब्रह्मणो देt विश विष्णो स्थिरो भव ॥ १६ ॥

तो तुमको परम मंगल प्राप्त होगा, अब हे विध्यो ! तुम ब्रह्माजी के देह में प्रवेश करके स्थिर रहो ॥। १६ ।।

अहो महेश देवेश ब्रह्मदेहे प्रविश्य तु ।

यावत्सृष्टिं कुरुष्वेश चेमां ज्ञानक्रियामयीम् ॥ १७ ॥

अहो महेश देवेश ! तुम भी ब्रह्माजी के शरीर में प्रवेश करो। जबतक ईश्वर ज्ञान क्रियामयी सृष्टि का आरम्भ न करें. तब तक इनके देह में वास करो ॥ १७ ॥

ईश्वर उवाच ।

इत्युक्त्वा सा महाकाली ददावस्मासु शाम्भवि ।

इच्छाज्ञानक्रियाशक्तीः सर्वकार्यार्थसाधिनी ॥ १८ ॥

ईश्वर ने कहा- हे शाम्भवि ! उन महाकाली ने यह कहकर हमको सर्व कार्यों की साधन करनेवाली इच्छा ज्ञान और क्रियामयी शक्ति दी ॥ १८ ॥

इच्छा तु विष्णवे दत्ता क्रियाशक्तिस्तु ब्रह्मणे ॥

मह्यं दत्ता ज्ञानशक्तिः सर्वशक्तिस्वरूपिणी ॥ १९ ॥

तदोवाच महाकाली शृणुध्वं परमेश्वरि ॥

अहं विशामि युष्मासु पूर्णरूपेण शंकरे ॥ २० ॥

अयमेव गुरुर्देवः श्रीशिवः परमेश्वरः ॥

अयं हि वक्ता शास्त्राणां नात्यन्योऽपि विधिर्हरिः॥२१ ॥

विष्णु को इच्छा शक्ति ब्रह्मा को क्रिया शक्ति और मुझको ज्ञान शक्ति देकर हे देवी ! उन सर्वशक्तिरूपिणी ने हमसे कहा- हे परमेश्वरगण ! मैंने तुम सबही में प्रवेश किया है, किन्तु महादेव में पूर्णरूप से प्रवेश किया यह शंकर ही गुरुदेव श्रीशिव और परमेश्वर हैं। यही सब शास्त्रोंके वक्ता हैं। विधाता वा हरि दूसरा कोई नहीं ॥ १९- २१ ॥

श्रोत्रियाहं हि युष्माकं सर्वेषां नात्र संशयः ।

मोहयिष्यामि ब्रह्माणं विष्णुं वापि महेश्वरम् ॥ २२ ॥

मैं तुम सबका ही श्रोत्रिया अर्थात् वेदपाठिका हूं इसमें सन्देह नहीं मैं ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर को मोहित करूंगी॥२२॥

ईश्वर उवाच ।

इत्युक्त्वा सा महाकाली ह्यस्मासु च विवेश ह ।

अहच माधवे देहे प्रविष्टो ब्रह्मणस्तदा ॥ २३ ॥

ईश्वर बोले- यह कहकर वह महाकाली हममें प्रविष्ट हुईं। तब मैं भी माधव और विधाता के देह में प्रविष्ट हुआ ॥ २३ ॥

ततस्तं मोहयामास ब्रह्माणं ब्रह्मविग्रहम् ।

ततो ब्रह्मा स्वयं ज्ञात्वा स्वयं जुहोति चाव्ययाम् २४ ॥

स्वयम्भूरिति विख्यातं तदा प्रोक्तो न संशयः ।

किं करोमि क गच्छामि इति चिन्तासमाकुलः ॥ २५ ॥

एवमेव विधाता सा व्युषित्वा परिवत्सरम् ।

जलमेव ससर्जादौ व्यापकं परमं महत् ॥ २६ ॥

फिर ब्रह्माजी ने ज्ञान को प्राप्त होकर स्वयं अव्यया महाकाली का होम किया, इसी कारण ब्रह्मा 'स्वयम्भू' नाम से विख्यात हुए हैं, इसमें सन्देह नहीं । फिर ब्रह्मा ने 'कहां जाऊं ? क्या करूं ? इसी चिन्ता में आकुल हो संवत्सर इसी प्रकार वासकर प्रथम सर्वव्यापक परम महत् जल की सृष्टि करी ॥ २४-२६ ॥

गुणाभिमानं तत्तोयं कारणार्णवमुल्बणम् ।

तत्र स्थित्वा हेमरूपमसृजद्वीर्यसञ्चयम् ॥ २७ ॥

वह जल गुणाभिमान संपन्न और वह जल ही महोद्वत कारणार्णव है। उस कारणार्णव में ही ब्रह्मा ने हेमरूप वीर्यसञ्चय सृजन किया ॥ २७ ॥

तद्वीर्य बुदबुदं यावदनीकं जातमन्तिके ।

तत्तद्ब्रह्माण्डमाख्यातं प्लवते कारणार्णवे ॥ २८ ॥

वह वीर्य बुदबुदाकार में (जल के फेन की आकृति में) उत्पन्न हुआ वही 'ब्रह्माण्ड' नाम से विख्यात होकर कारणार्णव में प्लवमान (कारण रूप सागर में तैरनेवाला) हुआ ॥ २८ ॥

तत्तद्ब्रह्माण्डरक्षार्थं ब्राह्मणानां वियोगताम ।

करोमि सततं देवि रुद्रमूर्तिधरः स्वयम् ॥ २९ ॥

हे देवि ! मैं स्वयं रुद्रमूर्ति धारणपूर्वक ब्रह्माण्ड का रक्षण और वियोग कार्य सदा संपादन करता हूं ॥ २९ ॥

शूलपाणिर्महादेवि प्रतिब्रह्माण्ड पाश्र्वतः ।

एकैरुद्ररूपेण तिष्ठामि सततं शिवे ॥ ३० ॥

हे शिवे महादेवि ! मैं प्रतिब्रह्माण्ड के पार्श्व में एक एक रुद्रमूर्ति धारण पूर्वक शूलपाणि होकर सदा वास करता हूँ ॥३०॥

यथा ब्रह्माण्डयोश्चापि संयोगो जायते न हि ॥

तथा करोमि सततं स्थित्वा तत्कारणार्णवे ॥ ३१ ॥

और उस कारणार्णव में अवस्थान करके जिससे दो ब्रह्माण्ड का संयोग न हो सदा वही करता हूं ॥ ३१ ॥

एवमेव वयं सर्वे ब्रह्मविष्णुमहेश्वराः ।

प्रतिब्रह्माण्डमध्ये तु प्रातिष्ठन्नात्र संशयः ॥ ३२ ॥

ततो ब्रह्मा जगद्धाता प्रतिब्रह्माण्डमध्यतः ।

प्रविश्यैकरूपेण ह्यन्यतत्त्वचतुष्टयम् ॥ ३३ ॥

ब्रह्मा विष्णु और महेश्वर हम सर्व प्रतिब्रह्माण्ड में इसी प्रकार अवस्थान करते हैं इसमें सन्देह नहीं। फिर जगद्धाता ब्रह्माजी प्रतिब्रह्मांड में प्रवेश- पूर्वक एक एक रूप में अन्य चार तत्त्व ॥ ३२- ३३ ॥

भूमिमा तथा वायुमाकाशश्च ससर्ज सः ।

एतैस्तु पञ्चभिस्तखैः सर्व्वा सृष्टिमकारयत् ॥ ३४ ॥

ततस्तु भगवान्विष्णुः स्वेच्छया ब्रह्मणस्तदा ।

ब्रह्मदेहात्समुद्भूय पालयामास त्वां सदा ॥ ३५ ॥

अर्थात् भूमि, अग्नि, वायु और आकाश सृजन करते हैं इन पांच तत्त्व अर्थात् पंच परमाणु द्वारा वह समस्त सृष्टिकार्य संपन्न होता है । तदनन्तर भगवान् विष्णु अपनी इच्छा से ब्रह्मदेह से उत्पन्न होकर उस सृष्टि का सदा पालन करते हैं ॥ ३४- ३५ ॥

सृष्टिर्ब्रह्माज्ञया देवि प्रतिब्रह्माण्डमध्यतः ।

पृथक् पृथक् समास्थाय विष्णुरूपं ममाभुजम् ॥३६॥

प्रत्तिब्रह्माण्डमध्ये तु संहरामि पुनः पुनः ।

अहं हि परमेशानि ब्रह्मदेहं समाश्रितः ॥ ३७ ॥

हे देवि ! ब्रह्मा की आज्ञा से सृष्टि हुई। मैं प्रति ब्रह्मांड में पृथकू पृथक् महाभुज विष्णुरूप से अवस्थान करके पालन और रूद्र रूप से वारंवार संहार करता हूं । हे परमेशानि ! मैं ही ब्रह्मदेह का आश्रय करता हूं ॥ ३६-३७ ॥

एवं किञ्चित्र स्मरसि त्वं हि किञ्चिन्महेश्वीर ।

सर्वकार्य ममैवैतजानाति हि जगन्निधिः ॥ ३८ ॥

हे महेश्वरि ! क्या तुमको कुछ भी स्मरण नहीं है । हे देवि ! यह सब कार्य मेरे ही जानने चाहिये । मुझमें ही जगत् अवस्थित है ॥ ३८ ॥

जलादिसकलं तत्त्वं ब्रह्माण्डादिकविस्तरम् ।

देवादिसकलं देवि दिग् विदिक्च चराचरम् ॥ ३९ ॥

कार्यच कारणं देवि तथा विष्णोः समुद्भवः ।

सर्व जानाति हि ब्रह्मा मत्कृतं मायया पुनः ॥ ४० ॥

सब जलादि तत्त्व और ब्रह्माण्डादि समस्त विस्तार संपूर्ण देवादि दिशा विदिशा एवं चराचर कार्य और कारण, तथा विष्णु की उत्पत्ति यह समस्त ही ब्रह्माजी को मेरी माया से अवगत है ॥ ३९-४० ॥

किन्तु सर्व हि मिथ्यैव मातुर्माया हि केवलम् ।

तां मायां हि भजन्ते ये तत्परं यान्ति ते नराः ॥४१॥

किन्तु हे देवि ! यह सभी मिथ्या है । केवल शक्तिमाता की माया जाने । जो मनुष्य उस माया को भजता है, वह इस माया के पार हो सकता है ॥ ४१ ॥

तुष्टा सा परमा माया मुक्तिमात्रं प्रयच्छति ।

रुष्टा सा परमा माया भूमियोगं प्रयच्छति ॥ ४२ ॥

यदि परमा माया सन्तुष्ट हों तो वह निःसंदेह मुक्ति पाता है । यदि वह माया रुष्ट हो तो भूमियोग अर्थात् योनियोग प्रदान करती हैं ॥ ४२ ॥

तस्याः पादाम्बुजे देवि वश्या मुक्तिः समाश्रिता ।

यस्य तुष्टा महादेवी मम माता महेश्वरि ॥ ४३ ॥

ददौ तस्यै च तां मुक्तिं महामाया च शाङ्करि ॥४४॥

उनके चरणकमलों में मुक्ति वश्या रहकर उनको आश्रय कर रही है। वह महामाया मेरी माता महाकाली जिस पर संतुष्ट होती है, उसी को वह मुक्ति देती है ॥ ४३-४४ ॥

श्रीदेव्युवाच ।

श्रुतं हि सकलं देव त्वत्प्रसादान्महेश्वर ।

अश्रुतं परमं तत्त्वं ब्रह्मादीनामगोचरम् ॥ ४५ ॥

इदानीं श्रोतुमिच्छामि यत्प्रोक्तं कारणाणर्वम् ।

किमाधारं महादेव तदाधारञ्च किं वद ॥ ४६ ॥

सीमानं वद देवेश यदि स्नेहोपि मां प्रति ॥ ४७ ॥

श्रीदेवी ने कहा- हे महेश्वर ! मैंने आपके प्रसाद से सब ही सुना अब जो ब्रह्मादिक को भी ज्ञात नहीं, वह सब अश्रुत वृतान्त सुनने की इच्छा करती हूं। आपने जिस कारणार्णव की कथा कही, वह किसके आधार से विद्यमान है वह आधार और उसकी सीमा का वर्णन कीजिये । हे देव ! यदि मुझ पर स्नेह हो तो वह सब कहकर मेरा कौतूहल चरितार्थ कीजिये ॥ ४५-४७ ॥

ईश्वर उवाच ।

शृणु देवि प्रवक्ष्यामि गुह्याद्गुह्यतरं शुभम् ।

अतिगोप्यं सुगोप्यं हि ब्रह्मविष्ण्वाद्यगोचरम् ॥ ४८ ॥

ईश्वर बोले हे देवि ! ब्रह्मादि के अगोचर गुझसे भी गुह्य अतिगोप्य सुगोप्य शुभकर विषय कहता हूं सुनो ॥ ४८ ॥

महार्णवो भवेद्देवि महाकालो महेश्वरः ॥

शून्यरूपं हि क्रीडार्थ भर्त्तारं पर्य्यकल्पयत् ॥ ४९ ॥

सैव काली जगन्माता महाकालतुला तु सा ॥

भूत्वार्द्धतेजसीरूपा महाकालञ्च बिभ्रति ॥ ५० ॥

हे देवि ! महार्णव में महाकाल महेश्वर का स्वरूप उन जगन्माता काली ने क्रीडा के लिये भर्ता की शून्यरूप में कल्पना की । उन जगन्माता ने ही महाकाल के समान होकर अर्द्धतेजोरूप से महाकाल को धारण किया है ॥ ४९- ५० ॥

शून्यरूपा कृष्णवर्णा मता स्यादूर्ध्वतेजसी ।

सीमा पृष्टा त्वया देवि सैव ब्रह्मैव केवलम् ॥ ५१ ॥

वही शून्यरूपा, कृष्णवर्ण और ऊर्ध्वतेजसी कही हैं। हे देवि ! तुम सीमा पूछती हो सीमा केवल ब्रह्म को ही जानो ॥५१॥

तेजोरूपं ब्रह्मतेजः प्रकाशरूपकन्तथा ।

तत्प्रकाशं महादेवि व्याप्यव्यापकवर्जितम् ॥ ५२ ॥

तेजोरूप, ब्रह्मतेज और प्रकाशस्वरूप वह प्रकाश व्यापक तथा अव्यापकवर्जित है ॥ ५२ ॥

नाधेयञ्चैव नाधारमद्वितीयं निरन्तरम् ।

इदं हि सकलं देवि सर्व मायामयं पुनः ॥ ५३॥

उस प्रकाश का आधेय और आधार नहीं हैं, वह निरन्तर अद्वितीय है, हे देवि ! यह सभी मयामय है ॥ ५३ ॥

मिथ्यैव सकलं देवि सत्यं ब्रह्मैव केवलम् ।

इदं हि कथितं तुभ्यं सारात्सारं परात्परम् ॥ ५४ ॥

गुह्याद्गुह्यतरं गुह्यं गुह्याद्गुह्यं महेश्वरि ।

इदं हि परमं ज्ञानं सर्वमायानिकृन्तनम् ॥ ५५ ॥

हे देवि ! सभी मिथ्या है, केवल ब्रह्म ही सत्य है हे महेश्वरि ! यह मैंने तुमसे सार से भी सार, पर से भी पर, गुझसे भी गुद्यतर सर्व मायानिकृन्तन परम ज्ञान का विषय कहा ॥ ५४- ५५ ॥

सर्वज्ञानमयं भेदं महामार्त्तण्ड विग्रहः ।

कोटिकोटिमहादानात्कोटिकोटिमहातपात् ॥ ५६॥ ।

कोटिकोटिमहाज्ञानात्कोटिकोटिमहाव्रतात् ।

कोटिकोटिमहातीर्थादवगाहेन चेश्वरि ॥ ५७ ॥

बहुजन्मव्यतीते तु शृणोति यदि कर्हिचित् ।

तदा मुक्तो भवेद्देवि संसारे न पुनर्भवेत् ॥ ५८ ॥

महामार्तण्डविग्रह सब ज्ञानमय भेदमात्र अर्थात् देदीप्यमान सूर्य के समान और ज्ञान द्वार जिसका भेद प्रतीत हो हे महेश्वारे ! करोड करोड महादान से करोड करोड महातप से, करोड करोड महाज्ञान से करोड करोड महाव्रत से करोड करोड महातीर्थावगाहन से भी इस ज्ञान को उत्तम जानना चाहिये। बहुत जन्म बीतने पर यदि कोई सुने, तो वह मुक्त होता है उसको फिर संसार में जन्म लेना नहीं होता ॥ ५६- ५८ ॥

इत्येवं कथितं तुभ्यं गोपयस्व स्वयोनिवत् ।

यथान्यो लभते नैव तथा कुरु प्रयत्नतः ॥ ५९ ॥

यह मैंने तुमसे सब वर्णन किया। इसको अपनी योनि की समान गुप्त रक्खे। जिससे इसको कोई दूसरा न ले सके, अत्यन्त यत्नपूर्वक वही करे ॥ ५९ ॥

गोपनीयं गोपनीयं गोपनीयं प्रयत्नतः ।

गोपनीय प्रयत्नेन मम सर्वस्वमुत्तमम् ॥ ६० ॥

उसको यत्नपूर्वक गोपनीय, गोपनीय गोपनीय जानना । मेरा यह उत्तम सर्वस्वधन गोपनीय है ॥ ६० ॥

दद्याच्छान्ताय धीराय योगिने कुलयोगिने ।

ज्ञानिने देवदेवेशि अन्यथा नरकं व्रजेत् ॥ ६१ ॥

शान्त, धीर योगी, कुलयोगी, ज्ञानी, इन सब मनुष्यों को देना चाहिये। इसके अन्यथा होने से नरक में जाता है ॥ ६१ ॥

कथितं सारभूतं ते खेलत्खअनलोचने ।

ब्रह्मज्ञानं मया देवि किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ॥ ६२ ॥

हे खेलतखञ्जनलोचने । हे देवि ! हे देवदेवेशि ! मैंने सारभूत ब्रह्म-ज्ञान तुमसे कहा । अब अधिक और क्या सुनना चाहती हो ॥ ६२ ॥

नातः परतरं किञ्चिद्विद्यते मम मानसे ।

गोपनीयं सदा भद्रे पशुपामरसन्निधौ ॥ ६३ ॥

इसकी अपेक्षा उत्कृष्टतर अन्य कुछ भी मेरे हृदय में नहीं है इसको पशु और पामर से छिपावे ॥ ६३ ॥

इति श्रीयोगिनीतन्त्रे सर्वतन्त्रोत्तमोतमे देवीश्वरसम्बादे चतुर्विंशतिसाहस्त्रे भाषाटीकायां दशमः पटल: ।। १० ।।

आगे जारी........ योगिनीतन्त्र पटल 11

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