योगिनीतन्त्र पटल ९
योगिनीतन्त्र पटल ९ में भगवान् के
आश्चर्य का वर्णन, भगवती महाकाली के चरणाधोभाग में भगवान् शिव के निपतित होने का
वर्णन है।
योगिनीतन्त्र पटल ९
Yogini tantra patal 9
योगिनीतन्त्रम् नवमः पटलः
योगिनी तन्त्र नवम पटल
योगिनी तंत्र नौवां पटल
योगिनीतन्त्रम्
ईश्वर उवाच ।
तद्दृष्ट्वा तु महाश्व भविह्वलमानसः
।
अहं त्वगच्छं सहसा तत्र
कान्तारमुत्तमम् ॥ १ ॥
ईश्वर बोले- यह महाआश्चर्य बात
देखकर मैं भयविहल चित्त से उस उत्तम कान्तार में सहसा गया ॥ १ ॥
सुषुम्नावर्त्मना देवि तत्र गत्वा
मया किल ।
समुद्दिष्टं श्रुतं यद्यत्कथितुं
नैव शक्यते ॥ २ ॥
हे देवि ! सुषुन्ना द्वारा उस स्थान
में जाकर मैंने जो जो सुना, उसके प्रकाश करने
को मैं समर्थ नहीं हूं ॥ २ ॥
सर्वाश्चर्यमयं देवि न दृष्टं न
श्रुतं कचित् ।
अतीव बृहदाकारा ब्रह्माण्डाः
कोटिकोटिशः ॥ ३ ॥
हे देवि ! वह सर्वाश्चर्यमय है,
उस प्रकार न कहीं देखा और न कहीं सुना । अत्यन्त बृहदाकार करोड करोड
ब्रह्माण्डमण्डल ॥ ३ ॥
चरन्ति सर्वदा देविकः संख्यातुं
क्षमो भवेत् ।
कोटिकोटिमुखा देवि !
कोटिकोटिभुजास्तथा ॥ ४ ॥
सदा विचरण करते हैं,
उनकी कौन संख्या कर सकता है ? हे देवि ! वहां
करोड करोड मुख और करोड करोड भुजायुक्त ॥ ४ ॥
एवं च विविधाकारा
ब्रह्मविष्णुशिवादयः ।
महदैश्वर्यसम्पन्नाः
प्रतिब्रह्माण्डवासिनः ॥ ५ ॥
विविध प्रकार आकारवारी
प्रतिब्रह्माण्ड निवासी ब्रह्मा विष्णु शिवादि महदैश्वर्य सम्पन्न होकर विचरते हैं
॥ ५ ॥
सर्वाश्चर्यमयं देवि दृष्ट्वा
कुशलमानसः ।
सर्वे मे विस्मृतं जातं कोऽहं
चिन्तापरायणः ॥ ६॥
हे देवि ! यह सर्वाश्चर्यमय व्यापार
देखकर मेरा मन विहल हो गया मैं सब भूल गया, तब
'मैं कौन हूं ?' यह चिन्ता मेरे मन में
उदय हुई ॥ ६ ॥
अहं कः कुत्र चायातः केन पृच्छति
कुत्रचित् ।
एवं नानाविधं देवि भुवने विस्मृतः
सदा ॥ ७ ॥
मैं कौन हूं ?
कहां से आया हूं. कोई, कहीं भी कुछ नहीं पूछता,
इस प्रकार मैं भुवन को समस्त ही भूल गया ॥७॥
नानास्थान संभ्रमञ्च नास्ति
स्मर्यश्च मे कदा ।
ततश्च कोटिवर्षान्ते प्राप्तं ते
हृदयाम्बुजम् ॥ ८ ॥
मैं अनेक स्थानों में भ्रमण करने
लगा। मुझको कुछ भी स्मरण नहीं हुआ, फिर
करोड वर्ष पीछे तुम्हारे हृदयाम्बुज को प्राप्त होकर तृप्त हुआ ॥ ८ ॥
तत्र गत्वा मया सर्व
दृष्टमाश्चर्यमुत्तमम् ।
तत्सर्वं परमेशानि कथितुं नैव
शक्यते ॥ ९ ॥
हे परमेशानि ! मैंने उस स्थान में
जाकर जो जो परम सुन्दर, जो जो आश्चर्य देखा
वह मैं वर्णन नहीं कर सकता ॥ ९ ॥
यद्भावार्थोदयं शास्त्रं कारणं
सुखमोक्षयोः ।
परमात्मागमो वेदा जीवो
दर्शनमिंद्रियम् ॥ १० ॥
कुछेक वर्णन करता हूं सुनो,
सुख और मोक्ष का कारण धर्मार्थमय शास्त्र, परमात्मा,
आगम, वेद, जीवात्मा,
दर्शन, इन्द्रिय ॥१०॥
देहः पुराणमङ्गानि स्मृतयो नियमानि
च ।
तत्रैव सर्वशास्त्राणि लोमादीनि
वरानने ॥ ११ ॥
देह पुराण के सब अंग,
संपूर्ण स्मृति शास्त्र व लोमादि सर्वशास्त्र वहा देखे ॥ ११ ॥
जीवात्मनोर्यथा भेदस्तथा
वेदागमेष्वपि ।
पत्रा पत्रमध्ये व पत्रान्ते
हृदयाम्बुजे ॥ १२ ॥
समस्त वेदागम में जिस प्रकार
जीवात्मा का भेद है, वह हृदयाम्बुज में
पत्राय में, पत्रमध्य में और पत्रान्त में॥१२॥
दृष्ट्वा वर्णावली या तु
तीव्रतेजोमयी शुभा ।
शिक्षा कल्पो व्याकरणं निरुक्तं
छन्द एव वा ॥ १३ ॥
देखने के पीछे तीव्र तेजोमयी
शुभकारी वर्णावली देखी। शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द ॥ १३
॥
अन्यानि सर्वशाखाणि क्षुद्राणि यानि
कानि च ।
किन्तु पूर्णावलोकेन ज्ञातोऽहं
कथितं तव ॥ १४ ॥
ज्योतिष और अन्यान्य क्षुद्र
क्षुद्र संपूर्ण शास्त्र अवलोकन किये। फिर मैं पूर्णावलोकसे ज्ञात हुआ,
सो तुमसे कहता हूं॥१४॥
ततो मया शतं देवि
कणिकान्नर्महोज्ज्वलम् ।
कोटिकोटि दिवानाथनिशानाथसमुज्ज्वलम्
॥ १५ ॥
कोटिकोटिमहावह्नितेजोमण्डलमण्डितम्
।
तन्मध्ये तु मया दृष्टं वर्णपुंजं
महोज्ज्वलम् ॥ १६ ॥
सूर्यकोटिसमाभासं
चन्द्रकोटिसुशीतलम् ।
वद्विकोटिमहोज्ज्वालं परं ब्रह्ममयं
ध्रुवम् ॥ १७ ॥
सर्वज्ञानमयं देवि सर्वाश्चर्यमयं
सदा ।
सर्वयज्ञमयं देवि सर्वतीर्थमयं सदा
॥ १८ ॥
स्वर्वपुण्यमयं देवि
सर्वधर्ममयन्तथा ।
ब्रह्मज्ञानमयं देवि ब्रह्मानंदमयं
तथा ॥ १९ ॥
प्रमाणं सर्वशास्त्राणां वेदादीनां
महेश्वरि ।
प्रमाणं सर्वसत्त्वानां ब्रह्मतेजः
परं हि तत् ॥ २० ॥
सर्वमायावहिर्भूतं
सर्वमायानिकृन्तनम् ।
सर्वानन्दमयं देवि ब्रह्मानंदमयं
सदा ॥ २१ ॥
पूर्णानन्दमयं देवि
ब्रह्मनिर्वाणमुत्तमम् ।
सर्वमायामयं देवि सर्वविद्यामयं पुनः
॥ २२ ॥
सर्वतपोमयं देवि सर्वसिद्धिमयन्तथा
।
सर्वमुक्तिमयं देवि सर्ववेदमयं तथा
॥ २३ ॥
सर्वलोकमयं देवि सर्वभोगमयं तथा ।
सर्वशास्त्रमयं देवि सर्वयोगमयं तथा
॥ २४॥
दृष्ट्वागममिमं तत्र मम
ज्ञानान्धसागरे ।
गता शर्वर्यथोऽद्राक्षं यथा
सूर्योदयोज्ज्वलम् ॥२५॥
अभ्यस्तं हि मया सर्वे
महाकालीप्रसादतः।
दृष्ट्वाभ्यस्तं मयं सर्व
तत्क्षणान्नात्र संशयः ॥ २६॥
जिस कर्णिका में करोड करोड दिवानाथ
और निशानाथ के समान समुज्ज्वल एवं करोड करोड महावहि तेजोमण्डल से मंडित महोज्ज्वल
वर्णपुञ्ज मैंने देखा । हे महेश्वरि ! उसमें करोड सूर्य के समान दीप्तिशाली करोड
चन्द्रमा के समान शीतल, करोड अग्नि के समान
महोज्ज्वल, नित्य परब्रह्ममय, सर्वज्ञानमय,
सर्वाश्चर्यमय, सर्वयज्ञमय, सर्वतीर्थमय, सर्वपुण्यमय सर्वधर्ममय ब्रह्मज्ञान,
ब्रह्मानन्दमय वेदादि सब शास्त्रों का प्रमाण और सर्व- विधिसत्व का ब्रह्मतेजमय
परम और हितकर प्रमाण देखकर आनन्द प्राप्त किया । सर्वमायाबहिर्भूत, सर्वमाया का निवर्तक, सर्वानन्दमय ब्रह्मानन्दमय,
पूर्णानन्दमय उत्तम ब्रह्मनिर्वाण और सर्वमायामय, सर्वविद्यामय, सर्वतपोमय, सर्वसिद्धिमय,
सर्वमुक्तिमय, सर्ववेदमय, सर्वलोकमय, सर्वभोगमय, सर्वशास्त्रमय,
सर्वयोगमय आगम अवलोकन किया। इससे मेरी अज्ञानान्ध सागर की घोर
रात्रि विगत हो गई। मैंने सूर्योदयोज्वल ज्ञान का दर्शन किया। मैंने महाकाली के
प्रसाद से उन समस्त शास्त्रादि का अभ्यास किया । वह सब देखकर मैंने तत्काल सबका
अभ्यास किया । इसमें सन्देह नहीं ॥ १५-२६ ॥
ततः किञ्जल्कपुञ्जेषु गत्वा दृष्टं
मया किल ।
वर्ण पुञ्जमयं देवि
सूर्यकान्तिसमप्रभम् ॥ २७ ॥
न्यायो मीमांसकं सांख्यं पातञ्जलं
कथा पुनः ।
वैशेषिकं यथापूर्व मया ज्ञातं हि
तत्क्षणात् ॥ २८ ॥
फिर किंजल्कपुल में जाकर देखा कि,
सूर्यकान्ति के समान प्रभासम्पन्न वर्णपुञ्जमय न्याय, मीमांसा, सांख्य, पातंजल,
वैशेषिक समस्त शास्त्र से मैं तत्काल पूर्व के समान ज्ञात हुआ ॥२७-
२८ ॥
ततो वर्णावीं दृष्ट्वा
कर्णिकाप्रान्तदेशतः ।
शत सूर्यसमाभासां सर्वरञ्जनकारिणीम्
॥ २९ ॥
आयुर्वेदभिषग्वेदौ मयाभ्यस्तौ तदैव
हि ।
तदन्तरे महादेवि दृष्टा वर्णावली
शुभा ॥ ३० ॥
सहस्रादित्यसंकाशा शुद्धवर्णा
महोज्ज्वला ।
स्मृतीतिहासौ देवेशि पुराणानि मया
पुनः ॥३१॥
तदनन्तर कर्णिका के प्रान्तदेश में
सौ सूर्य के समान दीप्तिशालिनी सर्वरञ्जनकारिणी वर्णावली देखने पर आयुर्वेद और
भिषग्वेद का अभ्यास किया। हे महादेवि ! वर्णावली देखने के पीछे सहस्रादित्यसंकाश
अर्थात् सहस्रों सूर्य के सदृश महोज्ज्वल शुद्ध समस्त वर्ण देखने पर स्मृति, इतिहास ॥ २९-३१ ॥
मयाभ्यस्तं हि तत्सर्वं तत्क्षणानात्र
संशयः ।
तथापि भ्रमदेहो मे न शुद्धयति कदाचन
।। ३२ ॥
तदन्तरे मया दृष्टं
सूर्यकोटिसमप्रभम् ।
ब्रह्मज्ञानं मया देवि ब्रह्मतेजः
परीवृतम् ॥ ३३ ॥
वेदान्तमिति विख्यातं वर्णपुञ्जं
महत्प्रभम् ।
मद्याभ्यस्तं तत्क्षणात्तु
तन्महद्भयश्च मोहतः ॥ ३४ ॥
और समस्त पुराणों का अभ्यास किया,
इसमें सन्देह नहीं तथापि मेरे मन का भ्रम शांत नहीं हुआ । तदनन्तर
करोड सूर्य के समान प्रभासम्पन्न ब्रह्मतेजःपरिवृत ब्रह्मज्ञान संपन्न वर्णपुत्र
महाप्रभायुक्त 'वेदान्त' इस नाम से
विख्यात महाशास्त्र का मैंने तत्काल अभ्यास किया । ३२-३४ ॥
तदन्तरे मया दृष्टं वर्णपुंज
समुज्ज्वलम् ।
कोटिसूर्यप्रतीकाशं
चन्द्रकोटिसुशीतलम् ॥ ३५ ॥
सर्वज्ञानमयं देवि सर्वतीर्थमयं सदा
।
सर्वयज्ञमयं देवि सर्वधर्ममयं तथा ॥
३६ ॥
प्रमाणं सर्वसत्त्वानां
शास्त्रादीनां महेश्वरि ।
वेदचतुष्टयं सामाथर्वऋग्यजुरुत्तमम्
॥ ३७ ॥
मयाभ्यस्तं हि तत्सर्वं
तत्क्षणान्नात्र संशयः ।
तथापि न च तृप्तिर्मे जायते न च
तत्क्षणात् ॥ ३८ ॥
तदनन्तर वर्णपुञ्ज से समुज्ज्वल,
करोड सूर्य के समान दीप्तिमान्, करोड चन्द्रमा
के समान शीतल, सर्वज्ञानमय, सर्वतीर्थमय,
सर्वयज्ञमय सर्वधर्ममय, सर्वसत्त्व और
सर्वशास्त्र का प्रमाणस्वरूप साम, अथर्व, ऋक् और यजुः इन अनुत्तम चारों वेद का मैंने तत्काल अभ्यास किया तो भी उनसे
मेरी तृप्ति न हुई ॥३५-३८ ॥
सर्वज्ञान सर्वसत्व सर्वसिद्धिमयो
ह्यहम् ॥ ३९ ॥
तदनन्तर मैंने सर्वज्ञानमय
सर्वसत्त्वमय और सर्वसिद्धिमय होकर ३९॥
तदा नमस्कृतां देवि तस्त्वां कालीं
सनातनीम् ।
शिवाभियगिनीभिश्च नृत्यन्तीं
ब्रह्मरूपिणीम् ॥४०॥
स्थित्वा स्थित्वा संमुखे मे
दृष्ट्वा श्रीमुखमण्डलम् ।
ततउड्डीनमासाद्य द्विदले चागतं मया
॥ ४१ ॥
वेदवेदान्तादि द्वारा नमस्कृत उन
सनातनी ब्रह्मरूपिणी महाकाली देवी को शिवागण ( गीदडी) और योगिनीगणों के संग
नर्तनशील अर्थात् नाचता हुआ देखा। वह रुक रुककर मेरे सामने नृत्य करने लगीं। फिर
उनका श्रीमुखमण्डल देखकर मैं उड़ता हुआ द्विदलपद्म में आया ॥ ४०-४१ ॥
आज्ञाचक्रभ्रुवोर्मध्ये महाकाल्या
महेश्वरि ।
तदा मम स्मृतिजीता ब्रह्मविष्णुकृते
पुनः ॥ ४२ ॥
हे देवि ! दोनों भौओं के मध्य स्थित
महाकाली के आज्ञाचक्र के ( इशारा करनेवाले) अवस्थितिकाल में ब्रह्मा और विष्णु का
मुझको स्मरण हुआ ॥ ४२ ॥
तन्नृत्य समये काल्या
द्वयोश्चिबुकयोश्च्युतौ ।
स्वेदविन्दु महेशानि ताभ्यां जातौ
गुणान्वितौ ॥४३॥
हे देवि ! उन देवी के नृत्यकाल में
काली की चिबुक (ठोडी ) से दो बूंदे पसीने की गिरीं । उन दोनों बूंदों से गुणयुक्त
ब्रह्मा और विष्णु उत्पन्न हुए ॥ ४३ ॥
ब्रह्मा विष्णुश्च तौ दृष्ट्वा
भयकम्पित विग्रहौ ।
तदा तौ च गतौ तूर्ण
नासिकारन्धयोर्द्वयोः ॥ ४४ ॥
ब्रह्मा और विष्णु का शरीर इन दोनों
को देखकर भय से कांपने लगा वह तत्काल नासिका के दोनों छिद्रों द्वारा बाहर हो गये
॥ ४४ ॥
कल्यास्तदा ततो धाता पिङ्गलायां
महेश्वरि ।
इडायाञ्च ततो विष्णुस्तत्र गत्वा च
तौ शुभौ ॥४५॥
महाविडम्बितौ भूतौ
दृष्ट्वाश्चर्यमनेकशः ।
रुदन्तौ सततं देवि विस्मृतं किं
भविष्यति ॥ ४६ ॥
फिर विधाता काली की पिगला और विष्णु
इडा नाडी में गये । तब उन दोनों ने महाविडंचित भूतद्वय ( दो प्राणियों की
महातिरस्कार की हुई आकृतियें) और अनेक आश्चर्य देखे । तदन्तर ब्रह्मा और विष्णु
रुदन करने लगे । हे महादेवि ! तुम यह बातें कैसे भूलती हो ॥४५-४६ ॥
एवमादि रुदन्तौ तौ
प्रधावितावितस्ततः ।
तावीश्वरौ महेशानि महादुःखेन
दुःखितौ ॥ ४७ ॥
इस प्रकार महादुःख से दुखित होकर
दोनों रोते हुए इधर उधर दौड़ने लगे ॥ ४७ ॥
ज्ञात्वा महा महेशानि प्राग्गतं
विष्णुमन्दिरम् ।
तस्मै दत्तं मया ज्ञानं मन्त्रं
परममङ्गलम् ॥ ४८ ॥
हे महेशानि ! मैंने यह जानकर प्रथम
विष्णु के मंदिर में जाय उनको परम मंगल ज्ञानमन्त्र दिया ॥ ४८ ॥
तत्क्षणान्मम तुल्योऽसौ वामाङ्गे
केवलो मम ।
तस्मै दत्तं सर्वशास्त्रं वाङ्मात्रेणागमं
विना ॥ ४९ ॥
यही वह तत्काल मेरे तुल्य होकर
वामाङ्ग में रहे मैंने उनको आगम के अतिरिक्त समस्त शास्त्र वाङ्मात्र अर्थात् कथन से
ही प्रदान किये ॥ ४९ ॥
गरुडस्थो महाविष्णुर्हष्टपुष्टो
बभूव ह ।
तमादाय गतस्तत्र ब्रह्माण्डे
परमेश्वरि ॥ ५० ॥
गत्वा तस्मै मया दत्तं मन्त्रं
परममद्भुतम् ।
महाज्ञानी महादेवि तत्क्षणात्स
पितामहः ॥ ५१ ॥
वह विष्णु गरुड पर स्थित होकर हृष्ट
पुष्ट होने लगे । हे परमेश्वरि ! मैंने विष्णु को ग्रहण कर ब्रह्माण्ड में
प्रवेशपूर्वक ब्रह्माजी को परम अद्भुत मंत्र दिया । हे महादेवि ! उससे वह पितामह
तत्काल महाज्ञानी हुए ॥ ५०- ५१ ॥
मम तुल्यो जायतेऽसौ क्षणाङ्गे मम
केवलः ।
स विधिः परमेशानि मम शासनतस्तदा ।
दत्वा तस्मै सर्वशास्त्रं
वेदशास्त्रञ्च विष्णुना ॥ ५२ ॥
ब्रह्माजी मेरी समान होकर दक्षिण
अंग में स्थित रहे। हे परमेशानि ! तब विष्णु ने मेरी आज्ञा से विधाता को
सर्वशास्त्र और वेदशास्त्र प्रदान किया ।। ५२ ।।
गतव्यथस्तदा ब्रह्मा हृष्टः पुष्टः
सदैव हि ।
अत आदिगुरुस्त्वं हि वर्त्तते मम
सर्वदा ॥ ५३ ॥
फिर व्यथा दूर होने पर ब्रह्माजी
बराबर हृष्ट पुष्ट होने लगे । अतएव तुम सदा ही मेरे आदिगुरु हो ॥ ५३ ॥
तदङ्गीकृत्य तज्ज्ञानं सह ताभ्यां
महेश्वरि ।
परं काल्या मया यातं तेन तेन पथा
ह्यनु ॥ ५४ ॥
हे महेश्वरि ! ब्रह्माजी के उस
ज्ञान को अंगीकार करने पर मैंने उनके सहित काली के पीछे उस उस मार्ग द्वारा गमन
किया ॥ ५४ ॥
शिवाभियोंगिनीभिश्च महानृत्यपरायणा
।
शतकोटिदिव्यवर्षे नृत्यंति स्म
पारत्मिका ॥ ५५ ॥
महाकाली शिवा और योगीनियों के सहित
सौ करोड़ दिव्य वर्ष महानृत्य में आसक्त रहीं ॥ ५५ ॥
नानावाद्यमहोल्लासा
नानालङ्कारगाथिका ।
चन्द्र
सूर्यवह्निसौम्यैर्विचित्रैश्च प्रसूनकैः ॥ ५६ ॥
उत्थितैः पतितैः
पुष्पैर्दिव्यगन्धैर्महोत्सुका ।
वीक्षणागोचरेदेवि सदा नृत्यपरा रहः
॥ ५७ ॥
वह परात्मिका काली अनेक प्रकार के
बाजों की सहायता से आनन्द का प्रकाश करने लगी । चन्द्र,
सूर्य और अग्नि के समान विचित्र दिव्य गंध ( अतिशय सुगन्धित ) और
पतित तथा जो दृष्टिगत न हो सके, उन कुसुमसमूह द्वारा क्रीडाशालिनी
और अनेक प्रकार के गहनों से अलंकृत हो निर्जन में निरन्तर नृत्य करने लगीं ॥ ५६-५७
॥
शतब्रह्माण्डसङ्काशैः पताकाभिश्व
रंजिता ।
विचित्राभिश्च बहुभिर्दृष्ट्वा
क्रान्ताभिरेव च ॥ ५८ ॥
शत शत ब्रह्माण्ड के समान विचित्र
अनेक पताकाओं के द्वारा वेष्टित होकर शोभा पाने लगी ॥ ५८ ॥
अतः स्तोतुं समाबद्धा वयं काली
करालिकाम् ॥
साश्रुप्लुता गद्गदोक्त्या
नतशीर्षाः पुटैः करैः ॥५९॥
तदादौ विधिरस्तौषीत्सर्वशास्त्रेण
भक्तितः ।
कोटिवर्ष महेशानि तमुवाच तदा परा ॥
६० ॥
इसके उपरान्त हम नेत्रों में जल भर
गद्गद वचन से हाथ जोड़ शिर नवायकर काली की स्तुति करने लगे। पहिले ब्रह्माजी ने
भक्तिपूर्वक सर्वशास्त्र द्वारा स्तुति करी । तब महाकाली ने करोड वर्ष पीछे ब्रह्मजी
से कहा॥५९-६०॥
यद्गुणस्त्वमहो धातः
सर्वशास्त्रार्थविद्यतः ।
अनुसन्धानवेत्तासि सृजकस्त्वं सदा
भव ॥ ६१ ॥
हे धातः ! तुम अनुसन्धानवेत्ता अर्थात्
मर्म के जानने वाले और समस्त शास्त्रों का अर्थ जाननेवाले हो इस कारण तुम सृष्टि
करो ॥ ६१ ॥
इत्याज्ञप्तस्ततो धाता
कृतकृत्योऽभवत्तदा ।
ततोऽस्तौषीन्महाविष्णुः सर्ववेदेन
शाम्भवि ॥ ६२ ॥
ब्रह्माजी इस प्रकार आज्ञा को
प्राप्त होकर कृतकृत्य हुए फिर महाविष्णु सर्ववेद द्वारा उन परमा महाकाली की
स्तुति करने लगे ॥ ६२ ॥
दशकोटययनानां च ततस्तमब्रवीच्छिवा ।
वेदज्ञोऽसि महाविष्णो मद्भक्तोऽसि
गुणालयः ।
धर्मज्ञोऽसि च लोकं त्वं भव
सृष्टेर्विवर्द्धकः ॥ ६३ ॥
हे महेशानि ! दश करोड वर्ष पीछे
शिवा ने उनसे कहा हे महविष्णो ! तुम वेदज्ञ मेरे भक्त,
गुणालय और धर्म के जाननेवाले हो, अतएव तुम
पालक होकर सृष्टि को बढाओ ॥ ६३ ॥
इत्याज्ञाच्च शिरें कृत्वा
कृतार्थोऽसौ जगद्धितः ।
ततोऽहं परमां नित्यां कालीं
ब्रह्मसनातनीम् ॥ ६४ ॥
तुष्टाव परया भक्त्या आगमेन
महेश्वरि ।
विंशत्कोटिवत्सराणां मामुवाच तदा तु
सा ॥ ६५ ॥
इस जगत् के हितकारी विष्णु काली की
यह आज्ञा मस्तक पर धारण करके कृतार्थ हुए। इसके उपरान्त मैं उन परमा,
नित्या ब्रह्म सनातनी काली की आगमन द्वारा परम भक्ति सहित स्तुति
करने लगा बीस करोढ वर्ष पीछे उन महाकाली ने मुझसे कहा ॥ ६४-६५ ॥
काल्युवाच ।
आगमज्ञो महाप्राज्ञो निर्मायोडास
सदाशिव ।
सगुणस्त्वं महायोगी सृष्टिसंहारको
भव ॥ ६६ ॥
महाकाली ने कहा- हे सदाशिव ! तुम
आगम,
महाप्राज्ञ, निर्माय ( मायारहित ) सगुण और
महायोगी हो इस कारण तुम सृष्टि के संहारक होओ ॥ ६६ ॥
एवमानां शिरे कृत्वा पुनस्तुष्टाव
तामहम् ।
पञ्चकोटिदिव्यवर्ष मामुवाच ततस्तु
सा ॥ ६७ ॥
आगमे संस्तुता तेऽहं तुष्टाऽस्मि
सदाशिव ।
किं प्रार्थ्यते महादेव ददामि नात्र
संशयः ॥ ६८ ॥
मैं यह आज्ञा मस्तक पर धारण करके
फिर उनकी स्तुति करने लगा-पांच करोड दिव्यवर्ष के पीछे मुझसे कहा । मैं तुमसे आगम द्वारा
स्तुति को प्राप्त हुई हूं, हे सदाशिव ! तुम
क्या प्रार्थना करते हो, मैं तुमको वही दूंगी, इसमें सन्देह नहीं ॥ ६७-६८ ॥
ईश्वर उवाच ।
तिष्ठामि सततं मातस्त्वदीये
चरणाम्बुजे ॥ ६९ ॥
ईश्वर ने कहा- हे माता ! मैं
तुम्हारे चरणकमलों में सदा स्थित रहूं यही मेरी वासना है ॥ ६९ ॥
श्रीकाल्युवाच ।
घोरनाम्ना दानवेन यादृग्युद्धं कृतं
मया ।
तत्कोटिकोट्यंशयुद्धं करिष्यत्येव
यो मया ॥ ७० ॥
महिषीगर्भसंभूतस्तव रेतःसमुद्भवः ।
भविष्यति स देवेश महिषासुरनामधृक् ।
आसुरं भावमासाद्य महायुद्धं
करिष्यसि ॥ ७१ ॥
श्रीमहाकाली ने कहा- मैंने घोर नामक
दानव के संग जिस प्रकार युद्ध किया है, तुम्हारे
शुक्रसंभूत,महिषी के गर्भ से उत्पन्न जो असुर इस युद्ध का करोड करोड अंश युद्ध
करेगा, महिषासुरनामधारी वही असुर होगा ॥७०-७१॥
तदा तं नाशयित्वाहं
भद्रकालीस्वरूपतः ।
वामाङ्गुष्ठं पदाब्जस्य
स्थापयिष्यामि ते हृदि ॥७२॥
तब मैं उसको भद्रकालीरूप से मारकर
चरणकमल का बांया अंगूठा तुम्हारे हृदय पर रक्खूंगी ॥ ७२ ॥
इदानीं च महादेव मम पादतले सदा ।
तिष्ठ त्वं शवरूपेण मम ह्यासनतां
व्रज ॥ ७३ ॥
हे महादेव ! अब तुम शवरूप से मेरे
आसन स्वरूप होओ और मेरे चरणों के नीचे स्थित रहो ॥ ७३ ॥
इत्याज्ञप्तो महादेव्या पतितः
पदसन्निधौ ।
दण्डवत्प्रणिपातेन लक्ष वर्षे
गतस्तदा ॥ ७४ ॥
देवी की इस प्रकार आज्ञा पाकर मैं
देवी के पदतल में पड़ा रहा । दण्डवत् प्रणाम में लाख वर्ष बीत गये ॥ ७४ ॥
तत्रैवान्तरगात्काली चिद्रूपा
ब्रह्मनिष्कला ।
इत्यवं कथितं तुभ्यं
योगिन्युत्पत्तिविस्तरम् ।
गोपनीयं प्रयत्नेन सर्वेषां
साधनोत्तमम् ॥ ७५ ॥
तदनन्तर चित्स्वरूपा ब्रह्मविग्रहा
काली उसी स्थान में अन्तर्धान हो गई । हे देवि ! मैंने तुमसे योगिनी की उत्पत्ति का
वृत्तान्त विस्तार सहित कहा । सर्वप्रयत्न से इसको सदा गुप्त रखना चाहिये ॥ ७५ ॥
इति श्रीयोगिनीतम् सर्वतन्त्रोत्तमे
देवीश्वरसम्बादे चतुर्विंशतिसाहस्त्रे भाषाटीकायां नवमः पटलः ॥ ९ ॥
आगे जारी........ योगिनीतन्त्र पटल 10

Jai. maa kali ameya jaywant narvekar
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