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योगिनीतन्त्र पटल ८

योगिनीतन्त्र पटल ८   

योगिनीतन्त्र पटल ८ में योगिनियों की उत्पत्ति विषयक प्रश्नोत्तर घोर दैत्य विषयक भगवती और भगवान्का कथोपकथन है।

योगिनीतन्त्र पटल ८

योगिनीतन्त्र पटल ८    

Yogini tantra patal 8

योगिनीतन्त्रम् अष्टमः पटलः

योगिनी तन्त्र अष्टम पटल

योगिनी तंत्र आठवां पटल 

योगिनीतन्त्रम्

अष्टम पटल

श्रीदेव्युवाच ।

श्रुतं हि साधनं सर्व त्वन्मुखाम्भोजनिर्गतम् ।

देवदानवगन्धर्वसिद्धचारणसेवितम् ॥ १ ॥

परमानन्दसन्दोहं सान्द्रानन्दविभूतिदम् ।

परं पारं परं पुण्यं पवित्रं परमं महत् ॥ २ ॥

योगिन्युत्पत्तिकथनं त्रैलोक्यस्यापि दुर्लभम् ।

कथयस्व महादेव केवलानन्दबृंहितम् ॥ ३ ॥

श्रीदेवीजी ने कहा- हे देव! मैंने आपके मुखकमल से निकला देव, दानव, गंधर्व, सिद्धि, चारणगणसेवित परमानन्द के पात्र अनेक आनंद और विभूति के देनेवाले आप परम पार स्वरूप हो और परम पुण्यस्वरूप पवित्र और परम महत् सर्वसाधन सुना, अब उपरोक्त गुण समूहयुक्त और त्रैलोक्य को भी दुर्लभ केवलानन्दवर्द्धन योगिनीगणों की उत्पत्ति वर्णन कीजिये ॥ १-३ ॥

ईश्वर उवाच ।

पूर्व यदावयोर्वृत्तं सर्व तद्विस्मृतं शिवे ।

अत्यन्तगुह्यं परमं देवासुरयभयङ्करम् ॥४॥

प्राचीनमपि गोप्यं हि सारात्सारं परात्परम् ।

शृणु वक्ष्यामि चार्वङ्गि समासेन शिवप्रिये ॥ ५ ॥

गोपनीयं त्विदं भद्रे योनिं परनरे यथा ॥ ६ ॥

ईश्वर बोले-हे शिवे ! पहले हम दोनों के पक्ष में जो वृतान्त हुआ था वह क्या भूल गई हो ? जो हो, मैं अत्यन्त गुह्य, देवासुरों को भयंकर अति प्राचीन अति गोपनीय सार से भी सार, परे से भी परे परम विषय का वर्णन करता हूं, हे चार्वङ्गि ! तुम वह सब सुनो। हे शिवप्रिये ! हे कल्याणि ! पराये पुरुष से जिस प्रकार योनि गुप्त रखनी चाहिये, इसको भी उसी प्रकार गुप्त रखने योग्य जानो ॥ ४- ६ ॥

ब्रह्माण्डस्यायुषः शेषे सर्वसत्वविवर्जितम् ।

भूम्यादिपश्चतत्वं तु केवले संस्थितं शिवे ॥ ७ ॥

ब्रह्माण्ड की आयु के शेष में संसार सर्वसत्त्वरहित होने पर और भूमि आदि पश्च तत्त्व मात्र केवल आत्मा में अवस्थित होने पर ॥ ७ ॥

त्वां मां विना महेशानि नासीत्किञ्चिज्जगत्रये ।

एतस्मिन्नन्तरे त्वां वै पप्रच्छाहं प्रहासतः ॥ ८ ॥

हे महेशानि ! तुम्हारे और मेरे अतिरिक्त इन तीनों जगत् में और कुछ नहीं था, इस अवसर में मैंने हँसकर तुमसे पूंछा ॥ ८ ॥

ममाधिका योग्यता वा तवापि वा महेश्वरि ।

इदानीं परमेशानि ! ततो ब्रह्माण्डमण्डलम् ॥ ९ ॥

स्थातुं स्थानं न कुत्रास्ति कुत्र स्थास्यामि भाविनि ।

यद्यन्मया कृतं सर्वं तत्सर्वं गतमेव हि ॥ १० ॥

विवक्तोऽहं सदा देवि भवसंसारकर्मणि ।

स्थातुं स्थानमिदानीं त्वं कल्पयश्व महेश्वरि ॥ ११ ॥

हे महेश्वरि ! बोध होता है-मेरी अपेक्षा तुम्हारी योग्यता अधिक है, यह देखो इस समय ब्रह्माण्डमण्डल शून्याकार है, कहीं भी रहने का स्थान नहीं है। हे भाविनि ! अब कहां रहेंगे? मैंने जो किया था, वह सभी विगत हुआ है, तुम जानती हो कि, मैं संसार कर्म में संस्पर्श शून्य रहने की सदा ही इच्छा करता हूं, हे महेश्वरि ! अब तुम रहने के लिये स्थान की कल्पना करो ॥ ९-११ ॥

इति श्रुत्वा तदा देवि ? क्रोधेनारुणलोचना ।

उवाच मां निष्ठुरं च दुराचारादिदारुणा ॥ १२ ॥

हे देवि ! तुम जिसको सुनकर क्रोध से लाल नेत्र कर और दुराचार के कारण कठोर होकर मुझसे अति निष्ठुर वचन कहने लगीं ॥ १२ ॥

यद्यत्कृतं त्वया देव मामुपाश्रित्य सर्वदा ।

मां विना ते महादेव शवत्वमिति निश्चितम् ॥ १३॥

हे देव महादेव ! तुम जो करते हो, उसी में सदा मेरे ऊपर निर्भर करते हो मेरे विना तुम शव (मृतक) होते हो, इसमें सन्देह नहीं ॥१३॥

योगे हि ते महेशान मया सर्वमिदं ततम् ।

कल्पितं वत्सरूपेण योग्यता का तवास्ति हि ॥ १४ ॥

तुम्हारे योगमात्र से मैंने यह संसार विस्तारित करके तुम्हारी वत्सरूप में कल्पना करी है। तुम्हारी योग्यता क्या है ? ॥ १४ ॥

कारणावस्थापन्ना सदाहं धात्रिरूपिणी ।

नाकार्य मे हि यत्किञ्चित्सदाहं ह्यक्षरा परा ॥ १५ ॥

मैं सदा ही कारणावस्था पन्ना ( कार्य को उत्पन्न करनेवाली ) विधातृ- रूपिणी हूं, मेरा कुछ भी अकार्य नहीं है ॥ १५ ॥

कार्यभावममापत्रा सदा प्रकृतिरूपिणी ।

तदा ब्रह्मादयः सर्वे सर्वेऽप्याविर्भवन्ति हि ॥ १६ ॥

मैं सदा ही कार्यभाव सम्पन्न प्रकृति रूपिणी हूं, उस काल में ब्रह्मादि सब ही आविर्भूत हुए ॥ १६ ॥

मम मायामयमिदं विश्वं देव चराचरम् ।

विक्षेपावरणे मासारंभी हे परमेश्वर ।। १७ ।।

यह चराचर विश्व मेरी ही माया से निर्मित है ! हे परमेश्वर ! मेरी विपेक्षा और आदरण नामक दो शक्तियों से ही जगत् के सब कार्य साधित होते हैं ॥ १७ ॥

इति श्रुत्वा वचस्तेऽहं वज्रतुल्यं सुदारुणम् ।

नावोचं किञ्चित्वां देवि स्थिरत्वमभवत्तदा ॥ १८ ॥

तुम्हारे इस प्रकार वज्रतुल्य दारुण वचन सुन, उस समय मैं तुमसे कुछ न कहकर चुप रहा ॥ १८ ॥

परीतोऽहं सदा देवि दुःखेनान्तरजेन च ।

ततः स्थिरीकृत्य हृदि उपायं तव निग्रहे ॥ १९ ॥

हे देवि ! मैंने सदा आन्तरिक दुःख से तापित होकर तुम्हारे निग्रह के निमित्त मन में एक उपाय स्थिर किया ॥ १९ ॥

जगाम पश्चिमे भागे ब्रह्माण्डस्य वरानने ।

गत्वा तत्र महादेवि निर्जने दारुणं पुरा ।

स्वदेहभस्मना दैत्यं प्रागदृष्टं श्रुतं मुदम्

दानवेन्द्रं महाघोरं घोरनामानमद्भुतम् ॥ २० ॥

अनन्तर मैंने ब्रह्माण्ड के पश्चिम भाग में जाकर निर्जन में अपने देह की भस्म द्वारा एक दारुण महाघोर घोर नामक अपूर्व अदभुत दानवेन्द्र को उत्पन्न किया ॥ २०-२१ ॥

कोटियोजनविस्तीर्ण द्वात्रिंशलक्ष प्रस्थितम् ।

कोटिहस्तं महारौद्रं कोटिलोचनमुज्ज्वलम् ॥ २२ ॥

यह दैत्य लम्बाई में करोड योजन और चौडाई में बत्तीस लाख योजन होगा । महाभयंकर करोड हाथ करोड उज्वल नेत्र ॥ २२ ॥

पञ्चाशल्लक्षवदनं ज्वालावलिसमाकुलम् ।

तस्मै दत्त्वा महासिद्धीरणिमाया महेश्वारी ॥ २३ ॥

सर्वभावे मत्सदृशं तं विधाय सुदारुणम् ।

उल्लास मनसा देव ह्यागतोऽहं तवान्तिकम् ॥ २४ ॥

बदन पञ्चाशत् लक्ष ( पचास लाख) और यह वदन ज्वालावली से आच्छन्न था उसको मैं अणिमादि अष्टसिद्धि प्रदानपूर्वक उस दारुण दैत्य को अपनी समान कर प्रसन्न मन से तुम्हारे निकट आया ॥ २३-२४॥

सोऽपि तस्थौ दानवेन्द्रो ग्रासं कृत्वा जनार्णवम् ।

गण्डूषे द्वे विधायैव सुवेलवेलपर्वतौ ॥ २५ ॥

वह दानवेन्द्र जनार्णव ग्रास और सुबेल तथा बेल पर्वत में दो गण्डूष( कुल्ले ) स्थापित करके रहा ।। २५ ।।

तदा मम मनो ज्ञात्वा त्वमवादीश्व मां प्रति ।

इदानीं ब्रह्माण्डभाण्डं जीवहीनमजायत ॥ २६ ॥

तब तुमने मेरे मन का भाव जानकर मुझसे कहा था कि हे महादेव ! इस समय ब्रह्माण्डभाण्ड जीवहीन हो गया है॥२६॥

आज्ञापय महादेव पश्यामि सकलं शिव ।

तदा विहस्य मनसा तवोत्कण्ठां विवर्द्धयन् ॥ २७ ॥

हे शिव ! आज्ञा करो मैं सब देखूं । तब मैंने मन में हँसकर तुम्हारी उत्कण्ठा बढ़ाकर ॥ २७ ॥

अवोचं त्वामहं भद्रे त्वागच्छ पश्चिमां दिशम् ।

सर्वत्रान्यत्र देवेशि दृष्ट्वा पश्चाद्गतं मयि ॥ २८ ॥

कहा हे भद्रे ! आओ, पश्चिम दिशा में चलें । देवेशि ! अन्यत्र सर्वत्र ही देखकर मेरे पीछे पीछे गमन किया था ॥ २८ ॥

स्त्रीणां स्वभावो देवेशि यत्रैवाधः स्थितो भवेत् ।

तत्रैव महती श्रद्धा दृष्ट्वा यातुं सदा भवेत् ॥ २९ ॥

स्त्रियों का स्वभाव सदा ही अधः स्थित (नीचे स्थित रहनेवाला) होता है, वह स्थान देखकर उसमें जाने की महत् श्रद्धा हुई ॥ २९ ॥

इति ज्ञात्वा मयोक्तं तन्निषेधवचनं शिवे ।

ततः प्रयोजनाभावात्तव स्वभावतः शिवे ॥ ३० ॥

मैंने यह जानकर वहां जाने में तुमको निषेध किया फिर प्रयोजनाभाव और आपने स्वभाववश ॥ ३० ॥

न गतान्यत्र देवेशि स्थित्वा त्वं च ममान्तिके ।

महद्धानि च कान्तारे यत्र केदारकेश्वरः ॥ ३१ ॥

अन्यत्र गमन न करके तुम मेरे ही निकट स्थित रही थी। कुछ काल स्थिति करके फिर जिस महत् कान्तार स्थान में केदारकेश्वर हैं ॥ ३१ ॥

तत्र गत्वा महादेवी जगन्मोहनकारिणी ।

विव्याध दैत्यराजेन्द्र कामवाणैः सहस्रशः ॥ ३२ ॥

जगमोहन कारिणी तुमने उस स्थान में जाकर उस दैत्यराज को सहस्र सहस्र कामबाण से विद्ध किया था ॥ ३२ ॥

अत उत्थाय दैत्येन्द्रः कामवाणेन विह्वलः ।

करान्प्रसार्य सकलानाह चाटुवचो भृशम् ॥ ३३ ॥

यह दैत्य कामवाण से विह्वल और उत्थित होकर सब हाथ पसार अनेक चाटु वचन ( खुशामद के वचन ) कहने लगा ॥ ३३ ॥

घोर उवाच ।

मम क्रोडे त्वं समागच्छ भव सर्वेश्वरी मुदा ।

त्राहि मां कामजलधा निमनं स्वाङ्गदानतः ॥ ३४ ॥

घोर ने कहा- तुम मेरी गोदी में आकर आनन्द से सर्वेश्वरी होओ मैं काम सागर में निमग्न हुआ हूं, इस समय तुम अपना अङ्गदान करके मेरी रक्षा करो ॥ ३४ ॥

किञ्चित्कालं न जीवामि त्वां विनाहं कथंचन ।

आलिंग्य पतिभावेन जीवनं रक्ष सुन्दरि ॥ ३५ ॥

हे तन्वाङ्गि ! मैं तुम्हारे विना कभी क्षणमात्र भी जीवित नहीं रह सकता । हे सुन्दरी ! तुम मुझको पतिभाव से आलिंगन करके मेरा जीवित रक्षा करो ॥३५॥

इत्यादि चाटुवाक्यैस्त्वां मुहुर्मुहुर्जगाद च ।

ततः सा त्वमवादीश्च सकटाक्षं शुचिस्मितम् ॥ ३६ ॥

इस प्रकार अनेक चाटु वचन (प्रेम के खुशामदी वचन ) तुमसे बारम्बार कहने लगा । तब तुमने उससे कटाक्षसहित मुसकुराकर कहा था ॥ ३६ ॥

त्वं सर्वदेत्येन्द्र समस्तभोक्ता

त्वं वै बली देवनिकाय एव ।

त्वं वीर्यवान्सर्वविनाशनश्च

त्वां व वरामो यदि तत्करोषि ॥ ३७ ॥

श्रीदेवीजी ने कहा- तुम सब दैत्यों के इन्द्र तुम्हीं सर्वभोगी तुम्हीं देवताओं से बलवान्, तुम्हीं वीर्यवान् और सबके विनाश करनेवाले हो यदि तुम मेरा वह कार्य साधन कर सको तो मैं तुमको वरूंगी ॥ ३७ ॥

मदीयवृत्तान्तमिह शृणुष्व

नावस्थितिः क्वापि भवेन्न यस्मात् ।

पुरा प्रतिज्ञा हि मया कृता या

तां पालयत्वं यदि मां ग्रहीतुम् ॥ ३८ ॥

तुम मेरा वृत्तान्त सुनो। वह कार्य पूरा न होने से मैं कहीं भी स्थिति नहीं कर सकती । यदि मुझको ग्रहण करने की तुम्हारी अभिलाषा हो तो मैंने पूर्व में जो प्रतिज्ञा की है, उसको पालन करो ॥ ३८ ॥

मनस्तु चैवं खलु दैत्यराज

यो मां विनिर्जित्य रणे स्थितः स्यात् ।

स मे तु भर्ता हि न चान्य एव

तदादितो युद्धमितः श्रयस्व ॥ ३९ ॥

मेरी प्रतिज्ञा यही है कि, जो मनुष्य रण में स्थित होकर मुझको परा जितकर सकेगा अर्थात् जीत लेगा। वही मेरा भर्ता है दूसरा कोई मेरा भर्ता नहीं हो सकेगा । अतएव हे दैत्यराज! पहिले मुझसे युद्ध करो ॥ ३९ ॥

ईश्वर उवाच ।

एवं ब्रुवाणां त्यां देवि क्रोधेन महता युतः ।

उच्चैर्निर्भर्त्सयामास प्रलयाम्भोधिघर्घरम् ॥ ४० ॥

ईश्वर बोले हे देवि ! जब तुमने यह कहा तब वह भयंकर दैत्य प्रलयपयोधि की समान महाभयंकर घर्घर शब्द से तुम्हारी भर्त्सना करने लगा ॥ ४० ॥

ततः समुत्थितो घोरः कालरुद्रं च न्यक्कृतः ।

समाहर्तुं तदा दैत्यो धावतिस्माखिलं जगत् ॥ ४१ ॥

इसके उपरान्त महाघोरतर वह घोर दैत्य महाकाल रुद्र को धिक्कार देकर संपूर्ण जगत्का संहार करने के लिये उठकर दौडा ॥ ४१ ॥

तथापि त्वां गृहीतुं सक्षमो नाभूत्कथञ्चन ।

तदा वेगेन महता स गत्वा दानवेश्वरः ॥ ४२॥

तो भी वह तुमको पकडने में किसी प्रकार समर्थ न हुआ । तब वह दानवेन्द्र वेग से दौडने लगा ॥ ४२ ॥

इस्तामर्षवशात्ते च पर्वताश्चूर्णतां गताः ।

पदाघातादुपरता मग्ना हि स्युर्जलार्णवे ॥ ४३ ॥

उसके हस्तस्पर्श से सब पर्वत चूर्ण होने लगे । पदाघात से प्रक्षिप्त होकर जलार्णव (समुद्र) में डूबने लगे ॥ ४३ ॥

तदङ्गभ्रमवातेन प्रोच्छलज्जलमण्डलम् ।

ऊर्द्धाधश्च कटाहान्तं महाभीमतरङ्गकम् ॥ ४४ ॥

ब्रह्माण्डं परिसंव्याप्य भ्रमते स निरंतरम् ।

धर्तुकामो महामाये त्वां ध न क्षमोऽभवत् ॥ ४५ ॥

उसके अङ्ग की पवन के भ्रम से जलधिमण्डल उछलकर महाभयंकर तरंगों के सहित ब्रह्माण्ड के ऊर्ध्वार्द्ध (ऊपर के अर्ध ) कटाहपर्यन्त ( आधे भाग पर्यंत ) निरंतर परिभ्रमण करने लगा । हे महामाये ! वह तुम्हारे पकडने की इच्छा से दौड़ने पर भी नहीं पकड़ सका ॥ ४४-४५ ॥

अग्रे त्वां पश्यति स्म केवलं दैत्यपुंगवः ।

यद्यद्युद्धं कृतं तेन कथितुं नैव शक्यते ॥ ४६ ॥

तुमको केवल आगे आगे जाता देखने लगा। उसने जैसा जैसा युद्ध किया, उसका वर्णन नहीं हो सकता ॥ ४६ ॥

यद्यत्क्षिप्तं त्वयि शिवे तत्सर्वं भस्मसाद्रतम् ।

तत्तेजसा महेशानि तत्रापि क्रोधमूच्छितः ॥ ४७ ॥

भवेन्निरन्तरं दैत्यो घोरो घोरपराक्रमः ।

आश्चर्य शृणु देवेशि युद्धवृत्तं महोज्ज्वलम् ॥ ४८ ॥

हे शिवे ! तुम्हारे ऊपर उसने जो जो निक्षेप किया वह सब ही भस्मसात् हो गया । हे महेशानि ! तो भी तेजोयुक्त क्रोधमूर्च्छित हो वह घोर दैत्य क्रमक्रमसे घोर पराक्रम प्रकाश करने लगा। हे देवेशि ! आश्वर्य सुनो ॥ ४७-४८ ॥

जलजातात्कटाहात्तु धूलिरुत्पद्यते भृशम् ।

एवमेकातो युद्धं कोटिवर्षमभूत्तदा ॥ ४९ ॥

उस महा तुमुल ( भयंकर ) युद्धकाल में जलजात कटाह से ढेर देर धूलि उठने लगी यह युद्ध एक दिन से आरम्भ करके करोड वर्ष हुआ था ॥ ४९ ॥

एवं तत्र महेशानि युद्धकाले भयातुरः ।

अहं योगं समाश्रित्य अतिसूक्ष्मतरं वपुः ॥

विधाय परमेशानि त्वामाश्रित्य स्थितः सदा ॥ ५० ॥

हे महेशानि! मैं ऐसे युद्धकाल में भयातुर होकर योग अवलम्बन पूर्वक सूक्ष्मतर शरीर धारण करके तुम्हारे ही सहारे से स्थित रहा ॥ ५० ॥

कथञ्चिदपि न प्राप्य त्वां धर्तुं दैत्यराट् तदा ।

चिन्तयामास च खलु त्वां हन्तुं विविधक्रमम् ॥५१॥

तब दैत्यराज तुमको किसी प्रकार न पकड सकने से तुम्हारे हनन करने के लिये अनेक उपाय विचार ने लगा ॥ ५१ ॥

वर्द्धयित्वा शरीरं स्वं घर्षयित्वा च वाहुना ।

कटाहे मारयिष्यामि महादुष्टां हि त्वामहम् ॥ ५२ ॥

वह अपना शरीर बढ़ाकर और बाहु द्वारा उसको घर्षण कर चिन्ता करने लगा मैं महादुष्ट स्वभाव नारी को इस कटाह (एक आकार ) में डालकर वध करूँगा ॥ ५२ ॥

इति सञ्चिन्त्य मनसा वर्द्धयित्वा कलेवरम् ।

पूरितं तेन ब्रह्माण्डं घोरो हर्षमुपागमत् ॥ ५३ ॥

इस प्रकार मन में चिन्ता करके कलेवर बढाने लगा। अपने द्वारा ब्रह्माण्ड परिपूरित हुआ देखकर घोर दैत्य अत्यन्त हर्षित हुआ ॥ ५३ ॥

उवाच त्वां तदा दैत्यो हता यास्यसि कुत्र वा ।

भवती भृशमालोक्य दैत्यं ब्रह्माण्डपूरितम् ॥ ५४ ॥

तब दैत्यराज ने तुमसे कहा- अब अपने आपको हतप्राय देखकर कहा भागोगी ? तुमने दैत्य को निज कलेबर से ब्रह्माण्डपरिपूरित करता देखकर ॥५४॥

त्वयोक्तोऽसौ घोरदैत्यस्तिष्ठ तिष्ठ सुदुर्मते ।

कथं व्यस्तो भवाञ्जातो निहन्मि त्वामहं मुदा ॥ ५५ ॥

तुमने कहा था-रे दुर्मति घोर दैत्य ! तू ठहर २ घबराता क्यों है ? मैं भी तुझको लीला पूर्व कही मारती हूं ॥५५॥

अधुनैव महादुष्ट जानासि न हि मां कदा ।

मत्तः सृष्टिः समुत्पन्ना मध्येव प्रविलीयते ॥ ५६ ॥

रे महादुष्ट ! अब भी तू मुझको क्यों नहीं जान सका ? मुझसे ही सृष्टि उत्पन्न और मुझमें ही लय होती है ॥ ५६ ॥

मयैव पाल्यते सर्व मम मायामयं जगत् ॥

मत्तो नान्यत्किञ्चिदस्ति ब्रह्मैवाहं सनातनः ॥५७॥

मैं ही इस सब संसार को पालती हूं यह जगत् मेरी ही मायामय है मेरे अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं है, मैं ही सनातन ब्रह्म हूं ॥ ५७ ॥

शृणु मूढवरास्माकं परमं मङ्गलं महत् ।

दुष्टभावेन वा दैत्य शिष्टभावेन वा पुनः ॥ ५८ ॥

रे मूढमति ! मेरा परममहत् मंगलभाव सुन रे दैत्य ! दुष्टभाव से हो वा शिष्टभाव से हो ॥ ५८ ॥

भजन्ते मां यथा ये हि तथा कामं ददामि ते ।

निदानन्तु प्रयच्छामि महाफलमनुत्तमम् ॥ ५९ ॥

त्वयाहं सेवितो दैत्य बहुकालं न संशयः ।

समाप्तमेकचित्तेन ममैषा त्वकरोद्यतः ॥ ६० ॥

शिवोऽसि नात्र सन्देहो मत्कृते यच्छ्रमस्तव ।

इदानीं पश्य मद्रूपं ब्रह्मानन्दं परं पदम् ॥ ६१ ॥

मुझको जो जिस भाव से भजता है मैं उसकी वही कामना पूर्ण करती हूं मैं ही अनुत्तम महाफल का निदान स्वरूप ब्रह्मनिर्वाण प्रदान करती हूं। हे दैत्य ! तैंने मेरी बहुतकाल सेवा करी है; इसमें संदेह नहीं । तैंने मेरे प्रति एकान्त चित्त होकर मुझको प्राप्त करनेकी वासना करी है अतएव तू निःसन्देह शिव है । क्योंकि, तैंने मेरे लिये बहुत श्रम किया है। अब तू मेरा परमपद ब्रह्मानन्दरूप देख ॥ ५९-६१ ॥

दृष्टवान्पुनः कोऽपि कदाप्याविर्भवेत्किल ।

ध्यात्वा यत्परमं रूपं शिवं नूनमिति प्रभो ॥ ६२ ॥

तद्रूपं परमं धाम कालीरूपमिति शृणु ।

इतः परतरं रूपं ब्रह्मणो नास्ति कुत्रचित ॥ ६३ ॥

इस शिवमय परमपद का ध्यान करके भी कोई नहीं देख सकता । वह तू शीघ्र देख क्योंकि, उसको देखने के लिये और भी कोई प्रकट हो सकता है । इस प्रकार परमधाम उस कालीरूप को जानना चाहिये । परब्रह्म में इसकी अपेक्षा उत्कृष्टतर रूप और कहीं भी नहीं ॥ ६२-६३ ॥

इत्युक्त्वा त्वं तदा देवि भवानी भवमोचनी ।

ध्यात्वा यत्परमं रूपमहं कालीति वादिनी ॥ ६४ ॥

असकृत्परमेशानि जाता त्वं कालिका तदा ।

कृष्णवर्णा महाघोरा महाकालोपरि स्थिता ॥ ६५ ॥

मुण्डमालावली रम्या मुक्तकेशी स्मितानना ।

ललज्जिहा रक्तघोरा लोचनत्रयराजिता ॥ ६६ ॥

हे देवि ! तब भवमोचिनी भवानी तुमने यह सब वचन कहकर परमरूप ध्यानपूर्वक 'मैं काली मैं काली' यह वाक्य कहते कहते वाम्वार काली मूर्ति धारण करी थी, वह काली कृष्णवर्ण, महाघोररूप महाकाल के ऊपर स्थित, मुण्डमालावली से मनोहर, मुक्तकेशी स्मितानन ललज्जिह्वा और रक्तवर्ण तीन नेत्रों से विराजित ॥ ६४-६६ ॥

अमाकलासमुल्लासा किरीटोज्ज्वलविग्रहा ।

शिवाकोटिसहस्रैस्तु तेजोमण्डलसम्भवैः ॥ ६७ ॥

महारावैश्वतुर्दिक्षु यतो घोरपराक्रमैः ।

रश्मिवृन्दसमुद्भूता योगिन्यः कोटिकोटिशः ॥६८॥

समन्ताद्घोररूपस्था महायुद्धमहोत्सुका ।

प्रतिलोमे कूपमध्ये ब्रह्माण्डं कोटिकोटिशः ।

भासन्ते सततं देवि सर्वाः सूर्यमयाः पुनः ॥ ६९ ॥

किरीट द्वारा उज्ज्वल शरीर और अमाकला के समान उल्लासित (प्रफुल्ल ) तेजोमण्डलसंभूत, घोररव, घोर पराक्रम करोड सहस्र गीदडियों से वेष्टित । उस महाकाली के रश्मिबिन्दु से घोर रूपवाली, महायुद्ध में उत्सुक करोड करोड योगिनी चारों ओर में उत्पन्न हुई । हे देवि ! वह सब योगिनी सूर्यमयरूप में दीप्ति पाने लगीं। महाकाली के प्रतिलोम कूप में करोड़ करोड़ ब्रह्माण्ड प्रकाश पाने लगे ॥ ६७-६९ ॥

एवं तां कालिकां दृष्ट्वा मूर्छितो दानवेश्वरः ।

प्रतीतोऽसौ महाकाल्या दृष्ट्वा श्रीमुखमण्डलम् ॥७०॥

वह दानवेश्वर इस प्रकार उस काली को देखकर मूर्छित हुआ । महाकाली का श्री मुखमण्डल देखने से इस दानव को प्रीति प्राप्त हुई ॥७०॥

तत्क्षणाद्दानवाधीशो ब्रह्मज्ञानमवाप्तवान् ।

ततस्तं दानवाधीशं ज्ञानं भक्तं सुनिर्मलम् ॥

जिह्वया लोलया काली चकर्ष च रणान्तरे ॥ ७१ ॥

वह दानवाधीश्वर तत्काल ब्रह्मज्ञान को प्राप्त हुआ फिर महाकाली ने उस निर्मल भक्त ब्रह्मज्ञानवान् दानवराज को रण में लोलजिह्वा द्वारा आकर्षण किया ॥ ७१ ॥

ब्रह्माण्डसहितं माता चर्वथित्वा मृतं क्षणात् ।

चकार लीलया काली घोरवाद्यमहोत्सुका ।

नानायन्त्रस्य बृहतः पताकाव्यापिका तदा ॥ ७२ ॥

और जगन्माता ने ब्रह्माण्ड के सहित उसको चाबकर क्षणमात्र में ही वध कर डाला। अनन्तर महाकाली ने लीलापूर्वक बृहत् बृहत् यन्त्रों का घोर वाद्य महोत्सव किया और आकाशव्यापी ( ध्वजा को उठाकर ) आन्दोलित किया ॥ ७२ ॥

इति श्रीयोगिनीतन्त्रे सर्वतन्त्रोत्तमोत्तमे देवीश्वरसम्बादे चतुर्विंशतिसाहस्त्रे भाषाटीकायां अष्टमः पटलः ॥ ८ ॥

आगे जारी........ योगिनीतन्त्र पटल 9

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