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योगिनीतन्त्र पटल ७

योगिनीतन्त्र पटल ७   

योगिनीतन्त्र पटल ७ में स्वप्नावती मृतसंजीवनी मधुमती और पद्मावती विद्या का वर्णन तथा वशीकरण विषयक प्रश्नोत्तर वर्णित हैं ।

योगिनीतन्त्र पटल ७

योगिनीतन्त्र पटल ७     

Yogini tantra patal 7

योगिनीतन्त्रम् सप्तमः पटलः

योगिनी तन्त्र सप्तम पटल

योगिनी तंत्र सातवां पटल 

योगिनीतन्त्रम्

सप्तमः पटलः

श्रीदेव्युवाच ।

नमस्तुभ्यं महादेव संसारार्णवतारक ।

जयाशेषजगन्नाथ भक्तवत्सल चेश्वर ॥ १ ॥

परमानन्दसन्दोह कारणानाञ्च कारण ।

दिव्यवीरप्रभेदेन श्रुतं योगद्वयं मया ।

इदानीं श्रोतुमिच्छामि विद्यां स्वप्नवतीं शुभाम् ।

मृतसञ्जीवनीं विद्यां तथा मधुमतीमपि ।

आशु फलं साधनञ्च वद मे परमेश्वर ॥ ३ ॥

श्रीदेवीजी ने कहा- हे संसारसागरतारक महादेव ! तुमको नमस्कार है। परमानन्द सन्दोहकारण ! शंकर ! आप जपयुक्त हों। दिव्य और वीर भेद से दो योग सुने । अब शुभकरी स्वप्नावती विद्या, मृतसञ्जीवनी विद्या और मधुमती विद्या सुनने की अभिलाषा है; वह सब साधन और साफल्यसहित कहकर मेरा कौतूहल निवारण कीजिये ॥१-३ ॥

ईश्वर उवाच ।

शृणु देवि प्रवक्ष्यामि यस्मात्त्वं परिपृच्छसि ॥ ४ ॥

ईश्वर बोले- हे देवि । तुमने मुझसे जो पूछा वह कहता हूं. सुनो ॥ ४ ॥

ओम् ह्रीं स्वपुरावाहिकालि स्वप्ने

कथयामुकस्यामुकं देहि क्रीं स्वाहा ॥ ५ ॥

ओम् ह्रीं स्वपुरावाहिकालि स्वप्ने कथयामुकस्यामुकं देहि क्रीं स्वाहा ॥५॥

प्रणवं पूर्वमुद्धृत्य मायाबीजं तदन्तरम् ।

तदन्ते स्वपुरावाहि कालीसम्बोधनद्वयम् ॥ ६॥

स्वप्ने कथय तत्पश्चादमुकस्यामुकन्ततः ।

देहि पादात्कालिबीजमन्ते वह्निवधूस्तथा ॥ ७ ॥

पहिले ओम् उच्चारण करके फिर मायाबीज तदनन्तर स्वपुरावाहि कालि यह दो सम्बोधन फिर स्वप्ने कथय अमुकस्यामुकं देहि फिर काली- बीज फिर वह्निवधू अर्थात् स्वाहा मंत्रपद उच्चारण करे ॥ ६-७ ॥

इयं स्वप्नावती विद्या त्रैलोक्ये चातिदुर्लभा ।

महाचमत्कारकरी महाकालेन भाविता ॥ ८ ॥

यही स्वप्नावती विद्या है; यह विद्या त्रैलोक्य में दुर्लभ है । यह महाकाल के द्वारा कथित और महाचमत्कारिणी है ॥ ८ ॥

अष्टोत्तरशतं नित्यं जपेद्वर्षचतुष्टयम् ।

तनः सिद्धा भवेद्विद्या स्वप्ने तिष्ठति नित्यशः ॥ ९ ॥

चार वर्ष तक एक सौ आठ बार नित्य जपने पर यह विद्या सिद्ध होती है और प्रति दिन स्वप्न में अवस्थिति करती है॥९॥

स्वप्ने दर्शयते सर्व यद्यन्मनसि कल्पते ।

मृतसञ्जीवनी विद्यामितः शृणु नगात्मजे ॥ १० ॥

जो जो मन में कल्पना करी जाती है, वही स्वप्न में दिखाती है; हे पर्वतनन्दिनि ! अब मृतसञ्जीवनी विद्या सुनो ॥ १० ॥

अमृतं बीजमाभाष्य मृतसञ्जीवनीति च ।

स्वमंत्राच्च ततः पञ्चान्मृतमुत्थापयत्विमम् ॥ ११ ॥

अमृतबीज वं " कहकर "मृतसञ्जीवनीयह वाक्य उच्चारणपूर्वक स्वमन्त्र उच्चारण के पीछे मृतमुत्थायत्विमम्" अर्थात् इस मृतक को उठाओ ॥ ११ ॥

बृहद्भानुबधूमन्ते त्रैलोक्ये चापि विश्रुता ।

संसुप्तेयं महाविद्या सारात्सारतरं स्मृतम् ॥ १२ ॥

यह मंत्र, फिर अभिजाया " स्वाहा " मंत्र उच्चारण करें । यह महाविद्या वाक्य विख्यात है । यह सोती हुई रहती है, इस विद्या को सार से भी सारतर जाने ॥ १२ ॥

नित्यमष्टोत्तरशतं जपमात्रेण शाम्भवि ।

सिद्धिदा सा भवेद्विद्या मृतसञ्जीवनी ततः ॥ १३ ॥

प्रतिदिन केवल अष्टोत्तर शतवार जप करने से ही यह मृतसंजीविनी महाविद्या सिद्धिप्रद होती है ॥ १३ ॥

कालालयं गतो यो वा चिताधूमागतोऽपि वा ।

स्पृशेच्छत्रं जपेन्मन्त्रं तदा देवि वरानने ।

चिरजीवी भवेत्सत्यं नात्र कार्या विचारणा ॥ १४ ॥

जो यमालय चला गया है, अथवा जिसकी चिता का धुआं उठ रहा है। यह विद्या जपपूर्वक उसका शव स्पर्श करने से वह चिरंजीवी होता है, हे वरानने ! इसमें कार्यविचारण वा संशय कुछ नहीं है । १४ ॥

वक्ष्ये मधुमतीं विद्यां सर्वरञ्जनकारिणीम् ॥ १५ ॥

अब सर्वरंजनकारिणी मधुमतीविद्या का वर्णन करता हूं ॥ १५ ॥

श्री मधुमतीइत्युक्त्वा दिशः स्थावरजंगमाः ।

सागरपुररत्नानि सर्वेषां कर्षिणीति च ॥ १६ ॥

ठं ठं स्वाहा महाविद्या वसुचन्द्राक्षरी परा ।

त्रैलोक्याकर्षिणी विद्या प्रोक्तेयं देवदुर्लभा ॥ १७ ॥

श्रीमधुमति दिशः स्थावर जंगमाः सागर पुररत्नानि सर्वेषां कर्षिणी ठं ठं स्वाहा ॥ इस अष्टादशाक्षरी महाविद्या को उत्कृष्टतर जानना चाहिये । यह तीनों लोक का आकर्षण करनेवाली देवदुर्लभ महाविद्या मैंने तुमसे कही ॥ १६-१७ ॥

एकवर्ष जपेन्नित्यं शतमष्टोत्तरं नरः ।

ततः सिद्धा महाविद्या सर्वज्ञानप्रकाशिनी ॥ १८ ॥

जो मनुष्य इसको एकवर्ष तक एक सौ आठ वार नित्य जप करता है, उसको यह विद्या सिद्ध होती है। यह महाविद्या सर्वज्ञानप्रकाशिनी है ॥ १८॥

आकर्षयेत्सुमेरुश्च दिशः सागरमेव च ।

नदीं रत्नानि च पुरीं स्त्रियः शैलान्वनस्पतीन् ॥

अलभ्यानि द्रव्याणि पातालादिस्थितान्यपि ॥ १९॥

पुरस्थानं च वृत्तान्तं राज्ञां च विद्विषामपि ।

नक्तं तल्पे शतं जप्यात्सिद्धिं प्राप्नोति साधकः ॥२०

यह सुमेरु, दिशा, सागर, नदी, रत्न, पुरी, स्त्री, वनस्पति और पाताल स्थित सब अलभ्य द्रव्यों का आकर्षण करती है। इसके द्वारा राजा का पुर स्थान और वृत्तान्त सभी जाना जा सकता है। साधक मनुष्य रात्रिकाल में शय्या पर सौ वार जप करने से सिद्धि को प्राप्त होता है ॥ १९-२० ॥

श्रीदेव्युवाच ।

देवदेव जगन्नाथ प्रसीद जगन्नाथ प्रभो ।

यत्पृष्टं यच्छ्रतं नाथ श्रोतुमिच्छामि सम्प्रति ।

पद्मावत महाविद्यां सर्वविद्याविनोदिनीम् ॥ २१ ॥

श्रीदेवीजी ने कहा- हे देवदेव जगन्नाथ ! आप प्रसन्न हो जाइये । हे सुमुख ! हे प्रभो ! हे नाथ ! मैंने जो पूछा था, वह तो सुना । अब सर्वविद्याविनोदिनी पद्मावती महाविद्या के सुनने की इच्छा करती हूं ॥ २१॥

ईश्वर उवाच ।

कथयामि वरारोहे विद्यां पद्मावतीं शुभाम् ।

प्रणवं पूर्वमुद्धृत्य मायाबीजं तदन्तरम् ।

पद्मावतीपदं देवीसंबुद्धयन्तं समुद्धरेत् ॥ २२ ॥

ईश्वर बोले- हे वरारोहे ! शुभदायिनी पद्मावती विद्या कहता हूँ । पहिले ओंकार उच्चारणपूर्वक फिर मायाबीज कहकर सम्बोधनान्त पद्मावती देवी का पद उच्चारण करें ॥२२॥

त्रैलोक्यवार्त्तामन्ते च कथेयद्दन्द्रमुच्चरेत् ।

स्वाहान्तेयं महाविद्या कथिता कल्पवल्लरी ॥ २३ ॥

फिर त्रैलोक्यवार्त्ता उच्चारण करके 'कथय कथय यह दो पद उच्चारणपूर्वक अन्त में स्वाहा पद का समुद्धार करे। यह मैंने तुमसे कल्पलतातुल्य महाविद्या का वर्णन किया ॥ २३ ॥

अष्टोत्तरशतं नित्यं जपेद्वर्षद्वयं प्रिये ॥

ततः सिद्धा महाविद्या सर्व वदति साधके ॥ २४ ॥

हे प्रिये ! यह मन्त्र प्रतिदिन एक सौ आठ वार क्रमशः दो वर्ष जपने पर सिद्ध होकर साधक से सब विषय कहता है॥२४॥

तल्पे स्थिता भक्तयोगी जपेन्मन्त्रं शताष्टकम् ॥

जगद्धितस्य वृत्तान्तं तज्जानाति दिने दिने ॥ २५ ॥

जो भक्त योगी शय्या पर स्थित होकर रात्रि में एक सौ आठ वार जपता है, वह दिन-दिन जगत्का सब हितकर वृत्तान्त जान सकता है ॥ २५ ॥

ब्रह्मविष्ण्वादिकानां च त्रैलोक्यस्यापि शङ्करि ॥

वृत्तान्तं कथयेत्स्वमे विद्या पद्मावती शुभा ॥ २६ ॥

एवं ब्रह्मा विष्णु इत्यादि और त्रैलोक्य का वृत्तान्त भी विदित होता है। शुभदायिनी पद्मावती विद्या उससे स्वप्न में यह सब वृत्तान्त कहती हैं ।। २६ ।

श्रीदेव्युवाच ।

श्रुतञ्च साधनं पुण्यं महाकालेन भाषितम् ॥

इदानीं श्रोतुमिच्छामि वशीकरणमुत्तमम् ॥

अल्पसाध्यं महादेव द्रुतसिद्धिकरं महत् ॥ २७ ॥

श्रीदेवी ने कहा- महाकाल का कहा पवित्र साधन सुना, अब उत्तम वशीकरण सुनने की अभिलाषा करती हूं, हे महादेव ! जो अल्पसाध्य और शीघ्र सिद्धिकर है, वही कहकर मेरा कौतूहल चरितार्थ कीजिये ॥२७॥

ईश्वर उवाच ।

तवानुरोधादेवेशि कथयामि शृणुष्व तत् ।

पुरा ते कथितं देवि योगिनां ज्ञानसम्भवे ॥ २८ ॥

संक्षेपादधुना देवि विस्तरात्कथयामि ते ।

गोपितव्यं प्रयत्नेन सर्वदा पशुसंकुले ॥ २९ ॥

ईश्वर बोले-हे देवेशि ! तुम्हारे अनुरोध से मैं उसको वर्णन करता हूं सुनो हे योगिज्ञानप्रदे! पहिले मैंने तुम्हारे प्रति यह वशीकरण संक्षेप से कहा है, इस समय वह तुमसे विस्तार सहित कहता हूं। इसको पशुसंकुल स्थान में यत्नपूर्वक सदा गुप्त रक्खे ॥ २८-२९ ॥

कुजवारे नक्तयोगे अमायां च तिथौ नरः ॥

शत्रुनाम लिखित्वा तु वामपादतले न्यसेत् ॥ ३० ॥

मंगलवार अमावस्या तिथि की रात्रि में मनुष्य शत्रु का नाम लिखकर वामपादतल में रक्खै ॥ ३० ॥

तत्पादोपार देवेशि वाग्भवं प्रजपत्सुधीः ॥

अष्टोत्तरशतं देवि तदा वादी वशो भवेत् ॥

अतिमूको भवेच्छत्रुर्विवादे व्यवहारके ॥

ताक्ष्यै दृष्ट्वा यथा सर्पों जडो भवति कामिनि ॥

तथैव तत्समालोक्य जडो वादी न संशयः ॥ ३१ ॥

हे देवेशि ! बुद्धिमान् मनुष्य उस पद के ऊपरी भाग में वाग्भवबीज एक सौ आठ वार जप करने से उस प्रतिद्वन्द्वी मनुष्य को वशीभूत करता है । विवाद (झगड़े) और व्यवहार विषय में शत्रु अतिशय मूक होता है । हे देवि ! गरुड के देखने से सर्प जिस प्रकार जड़ होते हैं, बादी उसको देखकर उसी प्रकार जड़ होता है, इसमें सन्देह नहीं ॥३१॥

तथान्यत्संप्रवक्ष्यामि वशीकरणमुत्तमम् ॥

येन योगप्रभावेन भुवनं वशमानयेत् ॥ ३२ ॥

अब अति उत्तम अन्य वशीकरण कहता हूं। इस वश्य योग के प्रभाव से त्रिभुवन को वशीभूत करने में समर्थ होता है ॥ ३२ ॥

प्रणवं पूर्वमुद्धत्य सुन्दरी भैरवी तथा ।

योगिनीपदतो देवि राजा प्रजा महारथी ॥ ३३ ॥

प्रथम ॐकार उच्चारण, फिर सुन्दरी भैरवी तदनन्तर योगिनी, इस पद के अन्त में राजा, प्रजा, महारथी ॥ ३३ ॥

वशंकरी तथा प्रोच्य अं इं उं कं तथा वदेत् ।

षडविंशत्यक्षरो मन्त्रः कथितः कल्पपादपः ॥ ३४ ॥

फिर वशंकरी, यह पद कहकर अं ईं उं ऋं यह सब पद उच्चारण करे, यह मंत्र छब्बीस अक्षर का है, यह कल्पवृक्ष के समान फलदायक है ॥ ३४ ॥

अनेन मनुना देवि तैलञ्च चन्दनञ्च वा ।

शताष्टजप्तं तत्तैलं मुखे दद्याद्वरानने ॥ ३५ ॥

हे वरानने ! यह मंत्र तैल और चन्दन से एक सौ आठ वार जप कर वह तेल मुख में लगाये॥ ३५ ॥

तच्चन्दनेन तिलकं भाले दद्यान्नगात्मजे ॥

जगद्वश्यक्रियामेतां कृत्वा साधकसत्तमः ॥ ३६ ॥

चेतु पश्यति यं देवि स वशो नात्र संशयः ॥

एवमेव विधानेन देवेन्द्रमपि मोहयेत् ।

किं पुनर्मानवान्देवि ! सार्वभौमान्नराधिपान् ॥ ३७ ॥

और वही चन्दन कपाल में तिलक करने पर जगद्वशीकरण का कारण होता है । इस प्रकार करके जिसको देखेगा, वही वश में होगा, इसमें सन्देह नहीं । हे देवि ! साधारण मनुष्य और सार्वभौम राजा की तो बात ही क्या कहूं, इसके द्वारा देवेन्द्र को भी मोहित किया जा सकता है ॥३६-३७॥

अथोच्यते महादेवि वशीकरणमुत्तमम् ।

सर्वेषां जगतां देवि मोहनं परमाद्भुतम् ॥ ३८ ॥

हे महादेवि ! अब अन्य उत्तम वशीकरण कहता हूं, इसके द्वारा संपूर्ण जगत्को परम अद्भुत रूप से मोह लेता है ॥ ३८ ॥

मन्त्रमादौ प्रवक्ष्यामि सर्वतन्त्रेषु गोपितम् ॥ ३९॥

तब तन्त्रों में जो मन्त्र गुप्त है, उसको प्रथम ही कहता हूं ॥ ३९ ॥

प्रणवं पूर्वमुद्धत्य वदेद्राजमुखी पदम् ।

पुना राजमुखी प्रोच्य मायाबीजद्वयं वदेत् ॥ ४०॥

कामबीजं ततः पश्चादेवि देवीपदद्वयम्

महादेविपदं पञ्चाद्देवि देवाधिदेवि च ।

सम्बोधनान्तं देवेशिपदमेतच्चतुष्टयम् ॥ ४१॥

सर्वजनस्याभिमुखं मम वशं कुरु कुर्विति ॥

स्वाहान्तोयं महामन्त्रः सर्ववश्यप्रदो महान् ॥ ४२

प्रथम ॐकार उच्चारण करके फिर 'राजमुखी' यह पद योजन करे । इसके पीछे राजमुखी यह पद कहकर दो मायाबीज (ह्रीं) मिलावे फिर कामबीज, फिर देवी यह दो पद कहकर इसके अन्त में महादेवी पद, फिर देवाधिदेवी सम्बोधन यह चारों पद उच्चारण करे । सर्व जनाभिमुख मम वंश कुरु कुरु । इसके पीछे स्वाहा पद उच्चारण करे, यह सबको वश में करनेवाला महामन्त्र है ।। ४०-४२ ॥

इति मन्त्रेण शय्यास्थः प्रातः काले महेश्वरि ।

त्रिवारं दक्षहस्तेन मुखं समार्जयेत्कृतीः ॥ ४३ ॥

एवन्तु प्रत्यहं कुर्याज्जगद्वश्याय कामिनि ।

अवश्यं जायते वश्यं जगदेतच्चराचरम् ॥ ४४ ॥

हे महेश्वरी ! साधक मनुष्य शय्या पर स्थित होकर प्रातःकाल में तीन वार दहिने हाथ से मुख मार्जन करे। हे शिवे! जगत् वशीकरण के निमित्त नित्य इस प्रकार से जो करता है इसके चराचर जगत् अवश्य उसको वशीभूत होगा, इसमें संदेह नहीं ॥ ४३- ४४ ॥

श्रीदेव्युवाच ।

श्रुतमेतन्महादेव त्वत्प्रसादात्पुरातनम् ।

स्वप्नावतीच या विद्या कथितावगता मया ॥ ४५ ॥

इदानीं श्रोतुमिच्छामि विशेषं यत्र यद्भवेत् ।

तद्वदस्व महादेव यदि तेऽनुग्रहो मयि ॥ ४६ ॥

श्रीदेवीजी ने कहा- हे महादेव ! मैंने आपके प्रसाद से यह पुरातन कथा सुनी । आपने मुझसे जो स्वप्नावती विद्या कही, उसको जाना किन्तु अब उसकी विशेष विधि सुनना चाहती हूं, यदि मुझ पर आपका अनुग्रह हो, तो वर्णन कीजिये ॥ ४५-४६ ॥

ईश्वर उवाच ।

कथयामि शृणु प्राजि विद्यां स्वप्नावतीं परम् ।

प्रणवं पूर्वमुद्धृत्य वधूवीजं समुद्धरेत् ॥ ४७ ॥

स्वप्नावतीपदान्ते च स्वप्नं कथय चोद्धरेत् ।

मायाबीज ततः स्वाहा मन्त्रमेतन्नागात्मजे ।

दिवा भुक्त्वा हविष्यानं रात्रौ जप्त्वा सहस्रकम् ४८ ॥

ईश्वर बोले हे प्राज्ञि ! अति उत्तम स्वप्नावती विद्या कहता हूं, सुनो। प्रथम ओंकार उच्चारण फिर वधूवीज, फिर स्वप्नावती पद के अन्त में स्वप्ने कथय यह पद उच्चारण करे। तदनन्तर मायाबीज, फिर स्वाहा प्रयोग करे । हे पर्वतनंदिन ! यही मन्त्र है, दिन में हविष्यान्न भोजन पूर्वक रात्रिकाल में यह मंत्र हजार वार जपै ॥४७-४८ ॥

ततः शुद्धायां शय्यायां तदा स्वप्ने हि पश्यति ॥

मनसा चिन्तितं यद्यत्तत्सर्वं परमेश्वरि ।। ४९ ।।

तो शुद्ध शय्या पर स्वप्न में वही देखता है, जो जो मन में चिन्ता करता है वह सभी स्वप्न में देखता है ।।४९ ।।

अथापरं प्रवक्ष्यामि स्वप्नप्रबोधमुत्तमम् ॥

येन विज्ञानमात्रेण सर्व जानाति निश्चितम् ॥ ५० ॥

हे परमेश्वरि ! अब अन्य उत्तम स्वप्नबोध कहता हूं, जिसके ज्ञानमात्र से ही मनुष्य सब विषय जान सकता है, इसमें सन्देह नहीं ॥ ५० ॥

प्रणवं प्राक् समुच्चार्य हिलिहूं शूलपाणये ॥

स्वाहान्तोऽयं महामन्त्रः प्रोक्तन्ते कमलेक्षणे ॥ ५१ ॥

विधानं पूर्ववत्सर्व जपान्ते प्रार्थनां शृणु ॥ ५२ ॥

हे कमलेक्षणे ! प्रथम ओंकार उच्चारण करके फिर 'हिलि हूँ शूलपाणय' इसके पीछे 'स्वाहा' उच्चारण करे। हे देवि ! यह मैंने तुमसे महामन्त्र कहा, इसका विधान पूर्व की समान जानना, अब जप के अन्त में प्रार्थना सुनो॥५१-५२॥

ॐ नमो जगत्रिनेत्राय पिङ्गलाय महात्मने ॥

वामदेवस्वरूपाय स्वप्नाधिपतये ततः ॥

स्वप्ने कथय मे तत्त्वं सर्वे कार्य शुभाशुभम ॥ ५३ ॥

जगत्के अधिपति तीन नेत्रवाले पिंगलनेत्र महात्मा वामदेवस्वरूप स्वप्न के अधिपति आपके निमित्त प्रणाम है सब शुभ अशुभ स्वप्न में मेरे निमित्त कथन कीजिये ॥ ५३ ॥

इति मन्त्रेण संप्रार्थ सर्व जानाति तत्वतः ॥

एतते कथित देवि स्वप्नबोधमनुत्तमम् ॥ ५४ ॥

रहस्यं परमं रम्यं वशीकरणमुत्तमम् ॥

सर्वमेतन्महादेवि सर्वज्ञानप्रदायकम् ॥ ५५ ॥

इस मन्त्र के द्वारा प्रार्थना करने से सभी जान सकता है। हे देवि ! यह मैंने तुमसे अति उत्तम स्वप्नबोध और परम रहस्य मनोहर वशीकरण कहा हे महादेवि ! यह सब ज्ञानप्रदान करता है ॥ ५४-५५ ॥

निरन्तरं महादेवि सेवितः सिद्धिशंकरैः ।

मधुमत्याः प्रसादेन सर्वोक्तं सर्वयोनिषु ॥ ५६ ॥

सिद्धिशङ्कर गण इसकी सदा ही सेवा करती हैं मधुमती के प्रसाद से सर्व योनि का विषय सर्वथा कहा गया है ।। ५६ ।।

याचन्तं परमेशानि तस्मात्वां समुपाश्रयेत् ।

स्वप्नवत्यादिविद्याया यो जपः कथितः प्रिये ॥ ५७ ॥

हे परमेशानि । तुम्हारे पूछने से यह सब कहा हे प्रिये ! स्वप्नावत्यादि विद्या के जप का जो प्रकार कहा गया है ।। ५७ ॥

वर्ष संख्या क्रमेणैव सिद्धिकामस्य शाम्भवि ।

त्वं जन्तु विना देवि फलसिद्धिः समीरिता ॥

सिद्धविद्याप्रभावेन तां सुसिद्धाः सुरासुरैः ॥ ५८ ॥

वह वर्षसंख्या के क्रम से सिद्ध होता है । उस प्रकार जप के विना फल- सिद्धि की सम्भावना नहीं है। सुरासुर गण सिद्ध विद्या के प्रभाव से ही सब विद्या सिद्ध कर सकते हैं ।। ५८ ।।

इति ते कथितं सम्यग्रहस्यं परमाद्भुतम् ।

गोपनीयं खले दुष्टे पशुपामरसन्निधौ ॥ ५९ ॥

यह मैंने तुमसे परम अद्भुत संपूर्ण रहस्य कहा यह खल दुष्ट पशु और पामर मनुष्य के निकट सदा गुप्त रखने योग्य है ॥ ५९ ॥

अन्यथा कुरुते यस्तु स भक्ष्यो डाकिनीगणैः ।

तस्मात्सर्वप्रयत्नेन गोपनीयं विशेषतः ॥ ६० ॥

जो इसके अन्यथा करता है, उसको डाकिनी भक्षण करती हैं, इस कारण यत्नपूर्वक इसको गुप्त रक्खै ॥ ६० ॥

दद्याच्छान्ताय दान्ताय सत्कुलीनाय योगिने ।

भक्ताय पापहीनाय साधकाय महात्मने ॥ ६१ ॥

शान्त, चतुर, कुलीन, योगी, भक्त, पापहीन, महात्मा, साधक को यह प्रदान करना चाहिये ॥ ६१ ॥

इति श्रीयोगिनीतन्त्रे सर्वतन्त्रोत्तमोत्तमे देवीश्वरसम्वादे चतुर्विंशतिसाहस्त्रे भाषाटीकायां सप्तमः पटलः ॥ ७ ॥

आगे जारी........ योगिनीतन्त्र पटल 8

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